गयासुद्दीन बलबन - कार्य ,सिद्धांत, उपलब्धियां , लौह रक्त नीति , चरित्र ,मूल्यांकन


M.J. P.R.U., B.A. I, History I / 2020
प्रश्न 5. दिल्ली सल्तनत को सुदृढ़ करने हेतु बलबन ने क्या कदम उठाए ? स्पष्ट कीजिए।
अथवा '' एक सुल्तान के रूप में बलबन के कार्यों एवं उपलब्धियों का मूल्यांकन 
अथवा '' बलबन की राजत्व सम्बन्धी विचारधारा के बारे में आप क्या जानते हैं ?
अथवा "बलबन की राजसत्ता का सिद्धान्त सम्मान, शक्ति और न्याय पर आधारित था।"व्याख्या कीजिए।
'अथवा "बलबन ने साम्राज्य-विस्तार के स्थान पर साम्राज्य के संगठन पर अधिक बल दिया।" व्याख्या कीजिए।
कीजिए।

बलबन की उपाधि

गयासुद्दीन बलबन
गयासुद्दीन बलबन

उत्तर - इल्तुतमिश के समान बलबन इल्बरी जाति का तुर्क था। उसका पिता 10,000 परिवारों का खान था। युवावस्था में मंगोल उसे पकड़कर ले गए और गजनी ले जाकर ख्वाजा जमालुद्दीन नामक व्यक्ति के हाथों बेच दिया। जमालुद्दीन ने उसे इल्तुतमिश के हाथों बेच दिया। बलबन प्रतिभाशाली
और होनहार था, अत: इल्तुतमिश ने उसे चालीस गुलामों के दल का सदस्य बना दिया। बलबन ने अपनी योग्यता का परिचय दिया, परिणामस्वरूप वह रजिया के शासनकाल में 'अमीरए-शिकार' के पद पर नियुक्त कर दिया गया। अपनी प्रतिभा और गुणों के कारण वह दिन-प्रतिदिन प्रगति करता गया तथा नासिरुद्दीन के शासन में वह नायब बना दिया गया। नासिरुद्दीन ने अपनी पुत्री का विवाह बलबन के साथ कर दिया, जिससे उसकी स्थिति और दृढ़ हो गई तथा वह अन्यं तुर्की अमीरों से और ऊँचा उठ गया। उसने लगभग 20 वर्षों तक अनन्य भक्ति एवं निष्ठा के साथ नासिरुद्दीन की सेवा की। 1265 ई. में सुल्तान नासिरुद्दीन की मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के पश्चात् बलबन दिल्ली के सिंहासन पर बैठा।

बलबन के कार्य एवं उपलब्धियाँ

यद्यपि बलबन को सिंहासन प्राप्त करने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं हुई थी, परन्तु सिंहासन पर बैठने के पश्चात् उसे अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा, जो निम्नलिखित थीं-

(1) चालीस शम्मी (तुर्की) अमीरों गुलामों का दमन-

इल्तुतमिश ने अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए चालीस अमीर गुलामों के दल का संगठन किया। आगे चलकर इस दल के सदस्य अत्यधिक शक्तिशाली बन गए। उनके लिए सुल्तानों को गद्दी पर बैठाना तथा उतारना एक प्रकार का खेल-सा हो गया। बलबन भी इसी दल का सदस्य रह चुका था, अत: वह इनकी गतिविधियों से परिचित था। वह यह जानता था कि ये अमीर गुलाम उसके लिए घातक सिद्ध हो सकते हैं, अत: उसने उनका विनाश करना उचित समझा। उसने कुछ अमीरों को मरवा दिया, तो कुछ को कड़ी चेतावनी दे दी। डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव के अनुसार, "सुल्तान ने कपटपूर्ण और बर्बर तरीके से चालीस गुलामों के दल का नाश कर दिया और जो सदस्य मरने तथा पदच्युत होने से बचे रहे, उनका उसने कठोरता से दमन कर दिया।"

(2) विभिन्न विद्रोहों की समस्याएँ-

(i) मेवातियों का विद्रोह-

इन दिनों मेवाती दिल्ली तक आक्रमण करते थे और लुटपाट करके भाग जाते थे। इस प्रकार ये दिल्ली सल्तनत के लिए खतरा बन गए। बलबन ने मेवातियों के गाँवों और नगरों को जलवा दिया। उसने उन जंगलों को भी साफ करा दिया जिसमें वे जाकर छिप जाते थे। इस प्रकार मेवातियों का विरोध शान्त कर दिया गया।

(ii) दोआब और कटेहर के हिन्दुओं का विद्रोह-

दोआब एक सम्पन्न प्रदेश था। यहाँ के हिन्दू निवासी प्रायः विद्रोह करके दोआब के अधिकारियों को तंग करते थे। बलबन ने हिन्दू उपद्रवकारियों का कठोरतापूर्वक दमन किया। परिणामस्वरूप उन्होंने पुनः सिर उठाने का साहस नहीं किया।
रुहेलखण्ड के कटेहर के हिन्दुओं ने भी सल्तनत के विरुद्ध विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया था। बलबन ने इन विद्रोहियों का भी बड़ी कठोरता के साथ दमन किया। जिन बस्तियों में उपद्रवकारी रहे थे, उनमें आग लगवा दी और नौ वर्ष से अधिक आयु वाले लोगों को मौत के घाट उतार दिया। अनेक स्त्री और बच्चों को बन्दी बना लिया गया।

(iii) मुस्लिम प्रान्तपतियों का विद्रोह -

सीमान्त प्रदेश के प्रान्तपति शेर खाँ सुकर ने दिल्ली सल्तनत की उपेक्षा करनी आरम्भ कर दी थी। बलबन इस अपमान को सहन नहीं कर सका। उसने चतुरतापूर्वक शेर खाँ को विष दिलवाकर मरवा डाला और उसके स्थान पर तातार खाँ को सीमान्त प्रदेश का गवर्नर नियुक्त कर दिया।
बलबन ने तुगरिल बेग को बंगाल का गवर्नर नियुक्त किया था, परन्तु बंगाल का गवर्नर बनते ही उसने स्वतन्त्र शासक के समान आचरण करना प्रारम्भ कर दिया। जब बलबन को यह ज्ञात हुआ तो उसने तुगरिल बेग को दण्डित करने के , लिए अपनी सेना भेजी, परन्तु वह पराजित हो गई। अतः बलबन ने दूसरी सेना भेजी, लेकिन वह भी पराजित हो गई। इन पराजयों से बलबन अत्यधिक क्रोधित हुआ, अत: वह स्वयं एक विशाल सेना लेकर बंगाल की ओर चल दिया। तुगरिल बेग को जब बलबन के आने की सूचना मिली, तो वह अपने परिवार सहित जंगल में भाग गया। बलबन ने सरलता से तुगरिल की राजधानी लखनौती पर अधिकार कर लिया। बलबन ने तुगरिल को खोजकर पकड़वा लिया और उसका सिर कटवाकर नदी में फिंकवा दिया। इसके पश्चात् बलबन ने अपने पुत्र बुगरा खाँ को बंगाल का गवर्नर नियुक्त कर दिया।

(3) मंगोल आक्रमण की समस्या का हल - 

इल्तुतमिश के शासनकाल से ही मंगोल भारत के लिए खतरा बने हुए थे। उसने बड़ी चतुराई से उनके आक्रमण को । किसी प्रकार टाला था। परन्तु बलबन के शासनकाल में इनके आक्रमण का भय अत्यधिक बढ़ गया, क्योंकि सिन्ध और पंजाब के पश्चिमी प्रदेशों पर मंगोलों ने अपना अधिकार स्थापित कर लिया था। बलबन ने मंगोल आक्रमण के भय को दूर करने के लिए एक निश्चित सीमा नीति को निर्धारित किया। उसने पश्चिमोत्तर प्रदेश के दुर्गों की मरम्मत करवाई और लाहोर के दुर्ग को विशेष रूप से रक्षात्मक व्यवस्थाओं से सुसज्जित किया। इन दुर्गों में शक्तिशाली सेनाएँ रखीं। सम्पूर्ण सीमान्त प्रदेश को उसने दो भागों में विभाजित किया। सुनम तथा समाना के प्रान्त उसने अपने छोटे पुत्र बुगरा खाँ तथा मुल्तान, सिन्ध और लाहौर को ज्येष्ठ पुत्र मुहम्मद खाँ को सौंप दिया। मुहम्मद खाँ ने मंगोलों को रोकने के लिए सराहनीय प्रयास किए। इस पर भी मंगोल पंजाब को लूटकर सतलज नदी पार करके आ गए। इस पर मुहम्मद खाँ और बुगरा खाँ, दोनों ने संयुक्त होकर आक्रमण किया तथा मंगोलों को मार भगाया। परन्तु 1286 ई. में मंगोल पुनः भारत में घुस आए और युद्ध में उन्होंने मुहम्मद खाँ को मार डाला। इस समय बलबन की आयु 80 वर्ष से अधिक थी। अपने ज्येष्ठ पुत्र की मृत्यु से उसे गहरा आघात पहुँचा और 1287. में उसकी मृत्यु हो गई। वह अपने जीवनकाल में मंगोल समस्या हल नहीं कर पाया।

(4) बलबन का राजत्व सिद्धान्त-

बलबन दिल्ली सल्तनत का पहला शासक था जिसने अपने शासन को कुछ निश्चित सिद्धान्तों तथा आदर्शों पर आधारित किया। वह राज्य के दैवी सिद्धान्त में विश्वास करता था। उसने अपने पुत्र बुगरा खाँ को इस सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए कहा था, "राजा का हृदय ईश्वरीय कृपा का भण्डार होता है और इस दृष्टि से कोई भी मनुष्य उसकी समानता नहीं कर सकता।" उसका यह भी विश्वास था कि प्रजा में अपने प्रति श्रद्धा उत्पन्न करने के लिए तथा शासन को सुदृढ़ बनाने के लिए राजा को निरंकुश होना चाहिए तथा स्वयं नियमों का पालन कर राजकीय शान-शौकत का प्रदर्शन करना चाहिए।
अपने उपर्युक्त सिद्धान्त को मान्यता देने के लिए उसने निम्न बातों पर विशेष रूप से बल दिया -

(i) सम्राट् को दैवी अधिकार प्राप्त है - 

बलबन का विश्वास था कि सम्राट को देवत्व प्राप्त होता है तथा उसमें दैवी अंश रहता है। वह सम्राट् को इस पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि समझता था। वह राजपद को अत्यन्त पवित्र समझता था और उसका कहना था कि सम्राट को ईश्वर की विशेष कृपा प्राप्त होती है, जिससे अन्य लोग वंचित रहते हैं।

 (ii) सम्राट् स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश होता है -

बलबन स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश शासन में विश्वास रखता था। बलबन निरंकुश शासक को महान् शासक तथा निरंकुश शासन को सर्वोत्तम सरकार मानता था। डॉ. आर. सी. त्रिपाठी ने लिखा है कि "बलबन ने सुल्तान के गौरव और शान-शौकत को बहुत अधिक प्रभावशाली बनाने में सफलता प्राप्त की।"

(iii) राजपद गौरवपूर्ण होता है -

बलबन की यह धारणा थी कि राजा का पद अत्यन्त गौरवपूर्ण होता है तथा प्रत्येक शासक को उस गौरव को उन्नत बनाए रखने का प्रयत्न करना चाहिए। किसी के साथ हँसना या मजाक करना सम्राट के लिए अच्छा नहीं होता। निम्न वर्ग के लोगों से भेंट लेना भी वह हेय समझता था।

(iv) सम्राट् को कर्तव्यपरायण होना चाहिए -

बलबन की धारणा के अनुसार सुल्तान को कर्त्तव्यपरायण होना चाहिए तथा प्रजा पालन का सदैव चिन्तन करना चाहिए। सम्राट को आलसी एवं अकर्मण्य नहीं होना चाहिए, बल्कि सतर्क एवंचैतन्य होना चाहिए। '

(v) 'रक्त एवं लौह नीति' में विश्वास -

बिस्मार्क की भाँति बलबन भी 'रक्त एवं लौह (Blood and Iron) नीति' में विश्वास करता था। वह अपने विपक्षियों एवं विरोधियों का. क्रूरता के साथ दमन करने में विश्वास रखता था। बलबन ने मलिक बकबक व हैवात खाँ का दमन इसी प्रकार किया। इसके कारण ही भविष्य में कोई सरदार विद्रोह अथवा उपद्रव मचाने का साहस नहीं कर सका।

(5) सुदृढ़ शासन व्यवस्था की स्थापना - 

बलबन दास वंश का महत्त्वाकांक्षी सुल्तान था, जिसने अपने बाहुबल से एक विशाल साम्राज्य की आन्तरिक और बाह्य रूप से रक्षा की। लेनपूल ने लिखा है, "दास, भिश्ती, शिकारी, सेनानायक, राजनीतिज्ञ तथा सुल्तान आदि विभिन्न रूपों में कार्य करने वाला बलबन दिल्ली के शासकों की दीर्घ परम्परा में सबसे अधिक आकर्षक व्यक्तियों में से एक है।" बलंबन का प्रमुख उद्देश्य सल्तनत का अत्यधिक विस्तार करना न होकर सुसंगठित शासन व्यवस्था की स्थापना करना था। इस कारण विद्रोहों का दमन करने के साथ-साथ उसने अपने शासन को सुदृढ़ करने का भी प्रयास किया। अन्य शब्दों में, बलबन की शासन व्यवस्था युद्धों तथा विद्रोहों के मध्य विकसित हुई थी, परिणामस्वरूप उसकी शासन व्यवस्था अर्द्ध-नागरिक तथा अर्द्ध-सैनिक की हो गई थी। उसकी शासन व्यवस्था की निम्नलिखित विशेषताएँ थीं

(i) केन्द्रीय, स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश शासन -

शासन की सम्पूर्ण शक्ति बलबन ने अपने में ही केन्द्रित कर ली थी। वह अपने को केवल ईश्वर के प्रति उत्तरदायी मानता था तथा अपने समस्त कर्मचारियों पर नियन्त्रण रखता था। वह स्वयं ही सम्पूर्ण सत्ता का स्रोत तथा साधन था और अपनी प्रत्येक आज्ञा को दृढ़ता से लागू करता था। उसके अपने पुत्र भी, जो महत्त्वपूर्ण प्रान्तों के राज्यपाल थे, अपनी इच्छा से नहीं चल सकते थे, उन्हें सुल्तान की आज्ञा का दृढ़ता से पालन करना पड़ता था।

(ii) उच्च कुल के व्यक्तियों का महत्त्व - 

बलबन व्यक्ति की योग्यता पर अधिक ध्यान न देकर उसके वंश को अधिक देखता था। वह निम्न वंश के. व्यक्तियों के उपहार एवं भेंटों को भी अस्वीकार कर देता था। न तो वह उनके साथ उठता-बैठता था और न ही बात करना पसन्द करता था। उसने स्वयं मद्यपान त्याग दिया था और अपने राज्य में मदिरा के क्रय-विक्रय को निषेध कर दिया था। बलबन ने सदैव उच्च कुल के व्यक्तियों को ही सम्मानित तथा उच्च पद प्रदान किए। प्रजा के नैतिक स्तर को ऊँचा उठाने के लिए भ्रष्टाचार एवं व्यभिचार का बड़ी क्रूरता के साथ दमन किया।

(iii) उलेमाओं के प्रभाव को समाप्त करना - 

दिल्ली सल्तनत की राजनीति में अब उलेमा लोग भी सक्रिय होकर भाग लेने लगे थे। ये अत्यधिक कुचक्री और संकीर्ण दृष्टिकोण के होते थे। बलबन ने उनके प्रभाव को समाप्त करने के लिए उनसे किसी भी राजनीतिक मामले में परामर्श लेना बन्द कर दिया था, केवल धार्मिक मामलों में ही उनसे परामर्श करता था। राजनीतिक मामलों में वह स्वयं अपना परामर्शदाता बना रहना चाहता था।

(iv) गुप्तचर विभाग की स्थापना - 

बलबन ने चोरों और विद्रोहियों को खोजने, प्रान्तपतियों पर दृष्टि रखने तथा अमीरों और वजीरों के षड्यन्त्रों का पता लगाने के लिए राज्य के प्रत्येक भाग में गुप्तचर नियुक्त किए। गलत सूचना देने वाले गुप्तचरों को कठोर दण्ड दिया जाता था। गुप्तचरों को प्रान्तीय सूबेदारों तथा अमीरों के नियन्त्रण से पूर्णतया मुक्त रखा। वे सीधे सुल्तान के प्रति उत्तरदायी थे। डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव का मत है कि "बलबन की सफलता का सबसे बड़ा प्रतीक गुप्तचर व्यवस्था थी।" बर्नी ने लिखा है, "बलबन की गुप्तचर व्यवस्था इतनी संगठित थी कि अमीर और सामन्त अपने शयनकक्ष में भी बलबन के विरुद्ध ऊँची आवाज में बात करने से घबराते थे।"

(v) वैभवपूर्ण दरबार-

बलबन में शान-शौकत भी उच्च कोटि की थी। वह बड़े शानदार ढंग से दरबार में आता था। उसका दरबार अत्यधिक अलंकृत रहता था। बर्नी के अनुसार, "ऐसा मालूम होता था कि बादशाही वस्त्र सुल्तान गयासुद्दीन बलबन के शरीर पर ही सिये गए थे।" बर्नी ने आगे लिखा है, "दरबार की भव्यता को देखकर लोग अधिकांशतः चकित और मूच्छित हो जाते, उनको सुध-बुध न रहती थी। सौ-सौ, दो-दो सौ कोस के लोग हिन्दू व मुसलमान बलबन की सवारी देखने पहुँचते और स्तब्ध रह जाते थे।"
उसने दरबार के नियमों का निर्माण किया। नाच-गाने तथा महफिलों में भाग लेना बन्द कर दिया। बर्नी के अनुसार, "अपनी बादशाही के समय में उसने किसी से भी हँसी-दिल्लगी नहीं की और न दूसरे ही उसके सामने हँसी-मजाक कर सकते थे। न तो वह दरबार में ठट्टा मारकर हँसता था और न ही दूसरे उसके सामने ठट्टा मारकर हँसते थे।" बलबन के प्रति सम्मान प्रकट करना और उसे 'सिजदा' (झुककर प्रणाम) करना बड़े-बड़े अमीरों के लिए अनिवार्य कर दिया गया था।

(vi) न्याय व्यवस्था -

बलबन स्वयं न्याय व्यवस्था का प्रधान था और खुले दरबार में न्याय करता था। बर्नी ने बलबन की न्याय व्यवस्था की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते हुए लिखा है, "यदि उसके राज्यकाल में कोई बली अथवा हाकिम अन्याय या अत्याचार करता, तो जिस पर अत्याचार किया जाता है, उसे सन्तुष्ट करने के लिए यथासम्भव प्रयत्न किया जाता। न्याय करने में वह अपने भाइयों, पुत्रों, निकटवर्ती तथा विश्वासपात्रों का भी पक्षपात न करता था।"

(vii) कठोर दण्ड व्यवस्था -

बलबन ने अत्यधिक कठोर दण्ड व्यवस्था को अपनाया था। अपराधियों, षड्यन्त्रकारियों और विद्रोही आचरण करने वालों के न केवल हाथ, पाँव, नाक, कान ही काट लिए जाते थे, वरन् उन्हें सार्वजनिक रूप से फाँसी पर चढ़ा दिया जाता था। उसने तुगरिल बेग को इसी प्रकार का कठोर दण्ड दिया। कठोर दण्ड प्रणाली ने अपराधों की संख्या में कमी कर दी।

(viii) सैन्य संगठन -

यह सत्य है कि बलबन का उद्देश्य साम्राज्य-विस्तार नहीं था, परन्तु राज्य में शान्ति और व्यवस्था स्थापित करने के लिए उसने समुचित सैन्य संगठन की ओर विशेष रूप से ध्यान दिया। सैन्य व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के उद्देश्य से उसने इमादुल मुल्क को प्रबन्धक नियुक्त किया और उसके सहयोग से सेना का पुनर्गठन किया। बलबन ने अपनी शक्तिशाली सेना के माध्यम से अपने विरोधियों पर नियन्त्रण स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। जो जागीरदार वृद्ध या निर्बल हो गए थे तथा युद्ध के योग्य नहीं रहे थे, उनकी पेंशन निश्चित कर दी। उनके स्थान पर युवा सैनिकों का वेतन योग्यता के आधार पर निश्चित कर दिया। सैनिकों के चुनाव में भी उसने शुद्ध रक्त के तुर्कों को ही प्रमुखता दी।

बलबन के चरित्र का मल्यांकन

बलबन को न केवल गुलाम वंश के, वरन् दिल्ली सल्तनत के योग्य तथा सफल शासकों में से एक माना जाता है। उसकी प्रशंसा करते हुए लेनपूल ने लिखा है, "बलबन दास, भिश्ती, शिकारी, सेनापति, राजनीतिज्ञ और सुल्तान था, जो दिल्ली के राजाओं की लम्बी पंक्ति में खड़े बहुत बड़े-बड़े व्यक्तियों में एक अत्यन्त चमत्कारपूर्ण मनुष्य था, जो एक दास की तुच्छ दशा से उठकर भारत का एक शक्तिशाली सुल्तान बन गया।" उसने अपने कार्यों द्वारा सुल्तान पद को स्थायित्व और सुदृढीकरण प्रदान किया तथा राजत्व के मूल्यों की पुनः प्रतिष्ठा की।

(1) योग्य शासक -

बलबन बड़ा प्रतिभाशाली, योग्य, वीर योद्धा, नीतिज्ञ और शक्तिशाली शासक था। वह स्वयं कानून और नियमों का पालन करता था और दूसरों से पालन करवाता था। बलबन ने 'रक्त एवं लौह नीति' को राज्य में शान्ति स्थापना के लिए ही अपनाया।

(2) धार्मिक व्यक्ति -

सुल्तान बनने से पहले वह शराब पीता था और ऐशोआराम का जीवन व्यतीत करता था। परन्तु गद्दी पर बैठते ही उसने सब कुछ छोड़ दिया और पक्के सुन्नी मुसलमान का जीवन व्यतीत करने लगा। "

(3) साहित्य और विद्या का संरक्षक -

बलबन को विद्या और साहित्य से प्रेम था तथा वह विद्वानों का आश्रयदाता था। उसने मंगोलों के भय से मध्य एशिया से आए हुए विद्वानों को अपने दरबार में आश्रय दिया। फारसी का महान् कवि अमीर खुसरो और शहजादा मुहम्मद उसके दरबार में रहते थे। बलबन का दरबार इस्लामी संस्कृति का केन्द्र था।
डॉ. ईश्वरी प्रसाद बलबन की प्रशंसा करते हुए कहते हैं, "बलबन एक महान् योद्धा, शासक और राजनेता था, जिसने अल्पवयस्क मुस्लिम सल्तनत की संकटपूर्ण काल में रक्षा की। इसी कारण वह मध्यकालीन भारतीय इतिहास में सदैव महान् व्यक्ति के रूप में याद किया जाएगा।" __
डॉ. अवध बिहारी पाण्डेय के अनुसार, "सुदृढीकरण उसकी नीति का मूल मन्त्र था। सल्तनत को सुदृढ़ करने के लिए उसे जो कुछ उपयोगी प्रतीत हुआ, उसने वही किया। यदि बलबन के समान अनुभवी, प्रतिभासम्पन्न एवं नीति निपुण शासक उस समय दिल्ली का स्वामी न होता, तो सल्तनत का अस्तित्व भी रह सकना दुष्कर था। यही कारण है कि बलबन को 13वीं शताब्दी के शासकों में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है।" ।
डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव भी मानते हैं, "बलबन ने तुर्की सल्तनत की रक्षा का सुप्रबन्ध किया और उसे नया जीवन प्रदान किया। यही उसका सबसे महान् कार्य था।"


Comments

  1. Bhut hi achcha content aapne likha , thankful to you ❣️❣️

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  2. Bahut accha content hai but ismai or jayada vistar ki aavsayakta bhi hai or kiya bhi jasakta tha phir bhi thanks for you efforts

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  3. Can I write this completly ans in my 3 sem history exm 2024

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