भारतीय संविधान सभा का निर्माण
प्रश्न 1. संविधान सभा का निर्माण किस प्रकार हुआ ? इसे अपने कार्यनिष्पादन में किन बाधाओं का सामना करना पड़ा?
अथवा '' संविधान सभा की
संरचना और भारतीय संविधान के निर्माण में उसके योगदान पर प्रकाश डालिए। अथवा भारत
में संविधान सभा की भूमिका का परीक्षण कीजिए।
अथवा "भारत की संविधान निर्मात्री सभा भारतीय जनता की पूर्ण प्रतिनिधि संस्था थी।" मूल्यांकन कीजिए।
अथवा '' भारतीय संविधान के निर्माण के विभिन्न स्तरों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर –
भारत में संविधान सभा की माँग राष्ट्रीय स्वतन्त्रता की माँग थी। संविधान सभा की माँग अप्रत्यक्ष रूप से बाल गंगाधर तिलक द्वारा 1895 ई. के स्वराज्य विधेयक में उठाई गई। सन् 1922 में महात्मा गांधी ने स्पष्ट किया कि भारतीय संविधान भारतीयों की इच्छानुसार ही होगा। सन् 1924 में पं. जवाहरलाल नेहरू द्वारा ब्रिटिश सरकार के समक्ष संविधान सभा की प्रत्यक्ष माँग रख दी गई। सन् 1937 व 1938 के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशनों में संविधान सभा की माँग को दोहराया गया और एक प्रस्ताव पारित किया गया कि "एक स्वतन्त्र देश के संविधान निर्माण का एकमात्र तरीका संविधान सभा है। सिर्फ प्रजातन्त्र और स्वतन्त्रता में विश्वास न रखने वाले ही इसका विरोध कर सकते हैं।
" सन् 1940 में पाकिस्तान प्रस्ताव के प्रतिपादन के लिए दो पृथक्-पृथक् संविधान सभाओं
की माँग की गई। मुस्लिम लीग पाकिस्तान के निर्माण के पक्ष में थे । ब्रिटिश सरकार
भारतीयों के द्वारा की जा रही संविधान सभा की माँग के विरुद्ध थी। परन्तु द्वितीय
विश्व युद्ध की परिस्थितियों व राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय दबावों के कारण विवश
होकर वह संविधान सभा के निर्माण के लिए सहमत हो गई। सन् 1940
में ब्रिटिश सरकार ने अपने प्रस्ताव में कहा कि भारत का संविधान
स्वयं भारतवासी ही तैयार करेंगे। सन् 1942 में
क्रिप्स मिशन के संविधान सभा के प्रस्ताव को भारतीयों ने ठुकरा दिया। तब पुनः सन्
1946 में कैबिनेट मिशन योजना तैयार की गई,
जिसमें संविधान सभा के प्रस्ताव को स्वीकार किया गया व इसे
व्यावहारिक रूप भी प्रदान किया गया। संविधान सभा का निर्माण कैबिनट मिशन योजना के
अनुसार किया जाना निश्चित हुआ।
कैबिनेट मिशन योजना
और संविधान सभा का निर्माण –
कैबिनेट मिशन योजना में यह निश्चित किया गया कि भारत के संविधान के निर्माण हेतु परोक्ष
निर्वाचन के आधार पर एक संविधान सभा की स्थापना का जाए। इस संविधान सभा में कुल 389
सदस्य हों जिनमें 292 ब्रिटिश प्रान्त के प्रतिनिधि, 4 चीफ कमिश्नर क्षेत्रों के प्रतिनिधि और 93 देशी
रियासतों के प्रतिनिधि हों। योजना में कहा गया कि -
(1) प्रत्येक प्रान्त द्वारा
भेजे जाने वाले सदस्यों की संख्या उसकी जनसंख्या के आधार पर निश्चित की जाए और इस
सम्बन्ध में 10 लाख की जनसंख्या पर एक प्रतिनिधि लेने का
नियम अपनाया जाए।
(2) प्रत्येक प्रान्त में
स्थानों का वितरण मुस्लिम, सिक्ख व सामान्य सम्प्रदायों में
से उनकी जनसंख्या के अनुपात में होगा।
(3) प्रान्तीय विधानसभाओं में
प्रत्येक सम्प्रदाय के सदस्य अपने प्रतिनिधियों को आनुपातिक चुनाव प्रणाली व एकल
संक्रमणीय मत पद्धति से चुनेंगे।
(4) भारतीय रियासतों के
प्रतिनिधियों के चयन की पद्धति आपसी सहमति से निर्धारित की जाएगी।
संविधान सभा के गठन
की इस योजना में कुछ दोष अवश्य थे, लेकिन इसके साथ ही तत्कालीन
परिस्थितियों में इससे अच्छी कोई योजना प्रस्तुत नहीं की जा सकती थी। अतः कांग्रेस
द्वारा इस योजना को स्वीकार कर लिया गया।
संविधान सभा का गठन –
संविधान सभा का गठन
तीन चरणों में पूरा हुआ। सर्वप्रथम कैबिनेट मिशन धोजना के अनुसार संविधान सभा के
सदस्यों का निर्वाचन हुआ और कुल सदस्यों की संख्या 389 निश्चित
की गई। मुस्लिम लीग ने संविधान सभा में अपनी स्थिति निर्बल देखकर संविधान सभा के
बहिष्कार का निश्चय किया। द्वितीय चरण की शुरूआत 3 जून,
1947 की विभाजन योजना से होती है और संविधान सभा का मिर्गठन
किया गया, जिसके अनुसार 324 प्रतिनिधि
होने थे। तृतीय चरण देशी रियासतों से सम्बन्धित था और उनके प्रतिनिधि संविधान सभा
में अलग-अलग समय में सम्मिलित हुए। हैदराबाद ही एक ऐसी रियासत थी जिसके प्रतिनिधि
सम्मिलित नहीं हुए।
भारतीय संविधान सभा
द्वारा संविधान का निर्माण संविधान सभा का स्वरूप-कांग्रेस ने संविधान सभा चुनावों
में भाग लेते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा कि देश के बुद्धिमान लोगों को इसमें
स्थान मिले और उनके अधिक-से-अधिक प्रतिनिधि हों। कैबिनेट मिशन ने तो केवल
मुसलमानों और सिक्खों के लिए ही स्थान सुरक्षित किए थे। कांग्रेस ने अपने
उम्मीदवार के रूप में दूसरे अल्पसंख्यकों, पिछड़े वर्गों आदि को भी स्थान
दिया। चुनावों से पहले ऑल इण्डिया कांग्रेस कमेटी ने अपनी प्रान्तीय इकाइयों को
निर्देश भेजा कि वे उदारता से अपने प्रत्याशी छाँटें। संयुक्त प्रान्त की कांग्रेस
से कहा गया कि वह तेजबहादुर सप्रू व हृदयनाथ कुंजरू को स्थान दें। इसी प्रकार मद्रास में ए. के. अय्यर,
एन. जी. आयंगर, के. संथानम और बी. शिवाराज को स्थान दिया गया, हालांकि ये लोग कांग्रेस के
सदस्य नहीं थे।
चुनावों में
कांग्रेस के उम्मीदवारों को भारी संख्या में चुना जाना निश्चित था। इसकी वजह यह थी
कि कांग्रेस का अनेक प्रान्तीय विधानसभाओं में बहुमत था। कांग्रेस के जो उम्मीदवार
चुने गए, उनमें प्रख्यात शिक्षाविद्, कानूनविद्, लेखक, उद्योगपति और
किसानों व मजदूरों के प्रतिनिधि थे। अनेक प्रख्यात व्यक्तित्व जैसे डॉ.
राधाकृष्णन्, अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर, एस. सी. मुखर्जी, एन. गोपालास्वामी आयंगर, के. एम. मुंशी व टी. टी. कृष्णामाचारी को स्थान
प्राप्त हुआ।
संविधान सभा की बैठक -
संविधान सभा की
दूसरी बैठक 20 से 26 जनवरी,
1947 तक हुई। नेहरू ने संविधान के उद्देश्यों को
लेकर जो प्रस्ताव रखा, वह पास हो गया। संविधान सभा ने घोषणा
की कि उसका उद्देश्य भारत को प्रभुत्वसम्पन्न लोकतान्त्रिक गणराज्य बनाना है।
नेहरू जी ने प्रान्तों के पुनर्गठन के सम्बन्ध में एक प्रस्ताव रखा, जो पास हो गया। इसमें कहा गया था कि संविधान बन जाने के पश्चात्
जल्दी-जल्दी सांस्कृतिक, भाषायी आदि आधारों पर राज्यों का
पुनर्गठन किया जाएगा।
संविधान सभा की
तीसरी बैठक 25 अप्रैल से 2 मई तक हुई। इसमें यूनियन पॉवर्स कमेटी (Union
Powers Committee) तथा मूल अधिकारों पर
परामर्शीय समिति (Advisory Committee on Fundamental Rights) की रिपोर्ट पर विचार किया गया। पहली समिति ने कैबिनेट मिशन की इस सिफारिश
को स्वीकार किया कि केन्द्र सरकार के विषय प्रतिरक्षा, विदेश
सम्बन्ध, मुद्रा और अन्तर्राष्ट्रीय यातायात रहने चाहिए।
दूसरी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि मूल अधिकारों को दो भागों में रखा जाए—
(1) न्यायिक, व
(2)
गैर-न्यायिक।
समिति ने यह भी कहा
कि अधिकार सभी को बगैर किसी भेदभाव के दिए जाएँ। अस्पृश्यता को समाप्त करने के
बारे में समिति की सिफारिश का सभी ने स्वागत किया।
14 से 31 जुलाई तक संविधान सभा की पुनः बैठक हुई। इसमें मुख्य रूप से तीन बातों पर विचार
हुआ -
(1) प्रस्तावित संविधान पर
यूनियन कॉन्स्टीट्यूशन कमेटी की रिपोर्ट।
(2) प्रान्तीय संविधान समिति की
रिपोर्ट, जिसने प्रान्तों का एकमात्र संविधान बनाया था।
(3) भारतीय राष्ट्रीय ध्वज को
स्वीकार करना।
14-15 अगस्त की मध्य रात्रि को संविधान सभा की विशेष बैठक
हुई। यह सत्ता हस्तान्तरण के बारे में थी। संविधान सभा ने 20
से 29 अगस्त तक का अपनी बैठक में यूनियन पॉवर्स कमेटी की दूसरी रिपोर्ट पर विचार
किया। चूंकि भारत का विभाजन हो गया था, इसीलिए अब कैबिनेट
मिशन का केन्द्र व प्रान्तों के मध्य विषयों के बँटवारे का प्रस्ताव बेकार हो गया
था।
इसी समय
अल्पसंख्यकों पर समिति ने यह सिफारिश की कि अल्पसंख्यकों के पृथक् निर्वाचन
क्षेत्र समाप्त किए जाएँ। यह सुझाव मान लिया गया। चूंकि सन् 1947
के स्वतन्त्रता अधिनियम में यह व्यवस्था थी कि संविधान सभा ही संसद
का कार्य करेगी, इसलिए यह तर्क दिया गया कि संविधान और
कानून-निर्माण का कार्य अलग-अलग दिन किया जाएगा।
29 अगस्त को संविधान सभा ने संविधान का प्रारूप तैयार करने के लिए डॉ. बी. आर.
अम्बेडकर की अध्यक्षता में एक प्रारूप समिति नियुक्त कर दी इस समिति का काम विभिन्न समितियों की सिफारिशों
को ध्यान में रखकर संविधान का प्रारूप तैयार करना था।
प्रारूप समिति की
रिपोर्ट -
21 फरवरी, 1948
को प्रारूप समिति ने अपना काम पूरा कर लिया। इसके पश्चात् संविधान
सभा में उस पर विस्तार से चर्चा हुई। अनेक संशोधनों व सुधारों के पश्चात् संविधान
सभा ने 26 नवम्बर, 1949 को संविधान पर अपनी स्वीकृति की
मुहर लगा दी।
संविधान सभा का
दृष्टिकोण –
संविधान के प्रमुख प्रावधानों
के सम्बन्ध में संविधान सभा के दृष्टिकोण की विवेचना इस प्रकार की जा सकती है -
(1) प्रस्तावना –
संविधान की
प्रस्तावना में अभिव्यक्त विचारों को संविधान सभा ने अपने प्रथम अधिवेशन में ही
उद्देश्य प्रस्ताव पारित करके स्वीकार कर लिया था। प्रस्तावना के प्रारम्भिक
शब्दों में ही यह भाव निहित है कि संविधान का उद्भव जनता की इच्छा से ही हुआ है और
अन्तिम सत्ता जनता में ही निवास करती है। प्रस्तावना संविधान सभा के इस संकल्प की
घोषणा है कि वह भारत को सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न लोकतान्त्रिक गणराज्य बनाएगी।
प्रस्तावना के इस अंश के सम्बन्ध में संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने प्रश्न किया
कि भारत गणराज्य राष्ट्रमण्डलका सदस्यता का कस स्वाकार कर सकता ह। सभा क परामशदाता
बी. एन. राव ने इस आपत्ति का उत्तर देते हुए कहा कि "राष्ट्रमण्डल की धारणा में स्पष्टतया विकास होता जा रहा है और वह अब इस
स्तर पर पहुंच चुका है कि जिसमें गणतान्त्रिक संविधान वाले राज्यों को स्थान दिया
जा सकता है।"
(2) मौलिक अधिकार -
संविधान सभा के
सदस्यों ने संवैधानिक परामर्शदाता बी. एन. राव के सुझाव के आधार पर
अधिकारों को दो भागों में बाँटा-वाद योग्य और अवाद योग्य अधिकार। लेकिन सभा के
सदस्यों, विशेषतया
हृदयनाथ कुंजरू और सोमनाथ लाहिड़ी का विचार था कि वाद योग्य और अवाद योग्य
अधिकारों में विभाजन रेखा खींचना कठिन है और रोजगार के अधिकार आदि आर्थिक अधिकारों
को मौलिक अधिकारों की सूची में स्थान दिया जाना चाहिए, जिससे
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की वास्तविक रूप में
प्राप्ति की जा सके।
अधिकार सम्बन्धी
मसविदे की इस आधार पर आलोचना की गई कि अधिकारों पर बहुत अधिक प्रतिबन्ध लगा दिए गए
हैं। लेकिन सरदार पटेल, एन. जी. रंगा आदि सदस्यों द्वारा प्रतिबन्धों को औचित्यपूर्ण बताया गया। इन प्रतिबन्धों
का आधार बतलाते हुए के. एम. मुंशी ने संविधान सभा में कहा था कि
"सभा के अधिकांश सदस्य व्यक्तिगत स्वाधीनता की अपेक्षा सामाजिक
नियन्त्रण स्थापित करने के लिए अधिक चिन्तित हैं।"
इसी दृष्टिकोण के आधार पर संविधान के अनुच्छेद 21
में 'कानून की उचित प्रक्रिया' शब्दों के स्थान पर 'कानून द्वारा स्थापित
प्रक्रिया को छोड़कर' शब्दावली को अपनाया गया।
(3) नीति-निदेशक सिद्धान्त–
संविधान के चौथे अध्याय में नीति-निदेशक सिद्धान्तों पर अपेक्षाकृत संक्षिप्त वाद-विवाद हुआ। संविधान सभा के कुछ सदस्यों, विशेषतया काजी सैय्यद करीमुद्दीन, हरिविष्णु कामथ, प्रो. नासिरुद्दीन, प्रो. के. टी. शाह आदि ने इस बात पर बल दिया था कि इन सिद्धान्तों का क्रियान्वयन राज्य के लिए अनिवार्य होना चाहिए। इसी तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए यह संशोधन प्रस्तुत किया गया कि शीर्षक में 'निदेशक' शब्द के स्थान पर 'मौलिक' शब्द का प्रयोग किया जाए। डॉ. अम्बेडकर और अन्य सदस्यों द्वारा इस प्रकार के संशोधन और उनके पीछे निहित भावना को अस्वीकार कर दिया गया। उनके द्वारा कहा गया कि 'मौलिक' शब्द का प्रयोग अनावश्यक है, क्योंकि 'मौलिक' शब्द का प्रयोग न करते हुए भी इन्हें राज व्यवस्था के मौलिक सिद्धान्तों के रूप में ही मान्यता दी गई है। दूसरे, इन सिद्धान्तों का प्रयोजन आने वाली व्यवस्थापिकाओं और कार्यपालिकाओं को निर्देश देना ही है और इस दृष्टि से 'निदेशक' शब्द ही उचित है। वस्तुतः इन तत्त्वों का उद्देश्य सामाजिक-आर्थिक न्याय की प्राप्ति ही कहा जा सकता है। लेकिन इस सम्बन्ध में की गई समस्त व्यवस्था में स्पष्टता को अपनाने के बजाए अस्पष्टता को बनाए रखना ही उचित समझा गया।
(4) संघीय कार्यपालिका :
राष्ट्रपति–बी. एन. राव ने लिखा है कि कार्यपालिका के प्रकार का चुनाव
नवीन संविधान की रचना में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्न था। संविधान निर्माताओं
को तीन प्रकार की कार्यपालिकाओं में से किसी एक का चुनाव क ना था। ये थीं—स्विस प्रकार की कार्यपालिका, अमेरिकी प्रकार की कार्यपालिका और ब्रिटिश प्रकार की कार्यपालिका। संविधान
सभा के सदस्यों में इस प्रश्न पर मतभेद था। सभा के गैर-कांग्रेसी सदस्य, विशेषकर मुस्लिम सदस्य स्विस प्रकार की
कार्यपालिका चाहते थे। कुछ अन्य सदस्य शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार की आवश्यकता
अनुभव करते हुए अमेरिकी ढंग की कार्यपालिका के पक्ष में थे। इस सम्बन्ध में
सदस्यों की सामान्य भावनाओं को अभिव्यक्त करते हए पं. नेहरू ने कहा था कि "हम अब तक प्राप्त अनुभव के प्रतिकूल दिशा में नहीं जा सकते।"
इसके साथ ही यह भी सोचा गया कि व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के मध्य
संघर्ष को संसदीय कार्यपालिका अपनाकर ही रोका जा सकेगा। इसके साथ ही यह भी निश्चित
किया गया कि सघीय कार्यपालिका के दो अंग होंगे प्रथम, राष्ट्रपति
जो ब्रिटिश सम्राट् के सदृश राज्य का संवैधानिक अध्यक्ष होगा और द्वितीय, प्रधानमन्त्री सहित मन्त्रिपरिषद्, जो वास्तविक
कार्यपालिका होगी तथा जिसके द्वारा संसद के प्रति उत्तरदायी रहते हुए कार्य किया
जाएगा।
राष्ट्रपति का
निर्वाचन -
संविधान सभा के कुछ
सदस्यों ने राष्ट्रपति पद के यस्क मताधिकार पर आधारित प्रत्यक्ष निर्वाचन का सझाव
दिया था। लेकिन इस प्रकार का निर्वाचन संविधान में निहित राष्ट्रपति की स्थिति से
मेल नहीं खाता। अतः यह निश्चित किया गया कि राष्ट्रपति का निर्वाचन एक निर्वाचक
मण्डल द्वारा किया जाए, जिसमें संसद के दोनों सदनों के
निर्वाचित सदस्यों के अतिरिक्त राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य भी हों
और यह निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर सम्पन्न हो।
राष्ट्रपति की
शक्तियाँ -
राष्ट्रपति की
आपातकालीन शक्तियों पर भी संविधान सभा में काफी वाद-विवाद हुआ। कुछ सदस्यों ने
इनको काली शक्तियाँ, तानाशाही प्रारम्भ करने की
दिशा में कदम व केन्द्र द्वारा राज्यों की ब्लैकमेलिंग करने का माध्यम तक कहा।
किन्तु अधिकांश सदस्य इस बात से सहमत थे कि ये शक्तियाँ आवश्यक हैं, इनके बिना देश की स्वतन्त्रता, एकता और अखण्डता को
खतरा पहुँच सकता है। वे यह अवश्य चाहते थे कि इन शक्तियों का सावधानी से प्रयोग
किया जाए। इसका रास्ता यह निकाला गया कि राष्ट्रपति द्वारा जारी की गई आपातकालीन
व्यवस्थाओं पर संसद की स्वीकृति आवश्यक होगी। इस प्रकार राष्ट्रपति की आपातकालीन
शक्तियों पर संसद का नियन्त्रण स्थापित कर दिया गया।
(5) संघीय कार्यपालिका : मन्त्रिपरिषद् -
मन्त्रियों की
योग्यता सम्बन्धी प्रावधानों पर भी संविधान सभा में पर्याप्त वाद-विवाद हुआ।
महावीर त्यागी का मत था कि मन्त्रियों के लिए कुछ शैक्षणिक योग्यताएँ निर्धारित की
जानी चाहिए। लेकिन सदस्यों को यह सुझाव मान्य नहीं था। प्रशासन में शुद्धता बनाए
रखने के लिए हरिविष्णु कामथ और के. टी. शाह का मत था कि मन्त्रियों
के लिए नियुक्ति के समय अपनी आर्थिक स्थिति का ब्यौरा प्रस्तुत करना आवश्यक हो।
लेकिन डॉ. अम्बेडकर को इस सुझा की उपादेयता पर ही सन्देह था।
संघीय संसद के.
एम. पणिक्कर, गोपालास्वामी आयंगर और अल्लादि
कृष्णास्वामी अय्यर ने द्विसदनीय संसद का समर्थन किया। लेकिन शिब्बन
लाल सक्सेना और मोहम्मद ताहिर ने द्वितीय सदन को अप्रजातान्त्रिक बताया और यह
मत व्यक्त किया कि इससे देश की प्रगति में अनावश्यक रूप से बाधा पड़ सकती है। प्रो.
के. टी. शाह ने यह आशंका व्यक्त की थी कि राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा के
सदस्यों को मनोनीत किए जाने पर राष्ट्रपति आलोचना का शिकार हो सकता है। लेकिन इसके
बावजूद संविधान सभा ने यह स्वीकार किया कि राज्यसभा के 12
सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाएंगे। प्रारूप समिति ने
लोकसभा के निर्वाचन के लिए वयस्क मताधिकार की सिफारिश की थी। लेकिन डॉ.
राजेन्द्र प्रसाद और हृदयनाथ कुंजरू जैसे सदस्यों का मत था कि
सिद्धान्त रूप में वयस्क मताधिकार श्रेष्ठ होते हुए भी भारत की विशेष परिस्थितियों
के कारण हमें इस दिशा में धीरे-धीरे ही कदम बढ़ाना चाहिए। इस सम्बन्ध में संविधान
सभा ने अन्ततः प्रारूप समिति के दृष्टिकोण को ही स्वीकार किया।
(7) संघीय न्यायपालिका-
भारत में दोहरी
राजनीतिक व्यवस्था के होते हुए भी संविधान सभा द्वारा एकीकृत न्यायपालिका को
अपनाया गया। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को अक्षुण्ण बनाए रखने के सम्बन्ध में प्रो.
के. टी. शाह का सुझाव था कि उच्च न्यायालय अथवा सर्वोच्च न्यायालय के
न्यायाधीशों को किसी भी स्थिति में किसी कार्यपालिका पद पर नियुक्त न किया जाए।
लेकिन डॉ. अम्बेडकर ने सेवारत न्यायाधीशों की नियुक्ति का समर्थन किया,
क्योंकि बहुत-से ऐसे मामले होते हैं जिसमें विशिष्ट प्रकार की
न्यायिक क्षमता से सम्पन्न व्यक्ति की नियुक्ति बहुत आवश्यक होती है। संविधान सभा
ने न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के सिद्धान्त को मान्यता तो प्रदान की, लेकिन साथ ही उसने इस बात का भी ध्यान रखा कि सर्वोच्च न्यायालय इतना
शक्तिशाली न हो जाए
कि वह राज्य के अन्य
अभिकरणों के कार्यों में हस्तक्षेप करने लगे। इस प्रकार उसने न्यायपालिका और
व्यवस्थापिका की सर्वोच्चता के मध्य समन्वय स्थापित किया।
निष्कर्ष -
संविधान के विभिन्न प्रावधानों के सम्बन्ध में संविधान निर्माताओं द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण से यह नितान्त स्पष्ट है कि संविधान निर्माता सिद्धान्तवादिता के स्थान पर व्यावहारिकता से प्रेरित थे। संविधान सभा में अधिकांश निर्णय यथासम्भव सामान्य राय से लिए जाने का प्रयास किया गया। प्रो. रजनी कोठारी लिखते हैं कि "इन दृष्टिकोणों से पता चलता है कि नये राष्ट्र की संस्थाओं का ढाँचा तैयार करते समय किस प्रकार निर्णय लिए गए। यह संविधान भारत के भविष्य की आधारशिला था और इसकी रचना में नेताओ न पुराने और नये विचारों में अधिक-से-अधिक सामंजस्य लाने का प्रयत्न किया।“
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