गोपालकृष्ण गोखले के राजनीतिक विचार

BA-III-Political Science-II

प्रश्न 6. गोपालकृष्ण गोखले के विचारों के परिप्रेक्ष्य में भारतीय उदारवादी राजनीतिक चिन्तन का मूल्यांकन कीजिए।

अथवा ''भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में गोपालकृष्ण गोखले के योगदान की चर्चा करते हुए उनके राजनीतिक विचार बताइए। 

अथवा ''गोपालकृष्ण गोखले के प्रमुख राजनीतिक विचारों का मूल्यांकन कीजिए।

अथवा '' एक उदारवादी विचारक के रूप में गोपालकृष्ण गोखले के राजनीतिक विचारों का परीक्षण कीजिए।


अथवा ''भारतीय राजनीतिक चिन्तन में गोखले के विचारों की विवेचना कीजिए।

उत्तर -भारतीय राजनीति में गोपालकृष्ण गोखले उदारवादियों के सिरमौर थे। उनकी महानता इस बात में थी कि उन्होंने राजनीति में नैतिक मूल्यों को स्थान दिया। वे राजनीति और नैतिकता में कोई भेद नहीं समझते थे। उन्होंने भारतीय राजनीति को अपने उच्च चरित्र और आदर्शों से प्रभावित किया। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में गोखले की भूमिका 1889 ई. में गोखले ने कांग्रेस में प्रवेश किया। 1895 ई.में वे कांग्रेस के मन्त्री बन गए और वर्षों तक कांग्रेस की बम्बई शाखा के मन्त्री रहे । सन् 1905 में गोखले बनारस कांग्रेस के सभापति निर्वाचित हुए। सन् 1907 में सूरत की फूट के बाद गोखले ने कांग्रेस के कार्यकलापों में भाग लिया और नरम दल के नेता के रूप में वे अनेक वर्षों तक कांग्रेस के कर्णधार का काम करते रहे । गोखले ने शक्ति से अधिक परिश्रम किया, जिसके परिणामस्वरूप सन् 1915 में केवल 49 वर्ष की अल्पायु में उनका निधन हो गया।

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गोखले का राजनीतिक दर्शन अथवा राजनीतिक विचार

राजनीति में गोखले नरमपंथी थे। शासन तन्त्र के विरुद्ध युद्ध करते समय गोखले ने वैधानिक मार्ग अपनाया। उनका प्रयास यह था कि तथ्यों तथा तर्कों को अपनी बात का आधार बनाया जाए । गोखले का मत था कि सार्वजनिक कर्तव्यों तथा राजनीतिक कार्यों को पवित्र राष्ट्रीय सेवा का मार्ग समझा जाएं । कष्ट सहने, सहृदयता और जीवन की उदारता के बिना राष्ट्रवाद एक जीवन शक्ति नहीं बन सकता। बहिष्कार की उग्र कार्य-प्रणाली उन्हें पसन्द नहीं थी। एडमण्ड बर्क की भाँति गोखले । सावधानी की नीति, धीमे विकास और बुद्धिसंगत प्रगति के पक्षधर थे। 30 गोखले के राजनीतिक विचारों को निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है

(1) ब्रिटिश उदारवाद में विश्वास - 

ब्रिटिश उदारवाद में गोखले की गहरी आस्था थी। जहाँ एक ओर उनका ब्रिटिश शासन की न्यायप्रियता में विश्वास था, वहीं दूसरी ओर ब्रिटिश शासन की लोकतान्त्रिक संस्थाओं तथा शिक्षण पद्धति के प्रति उनका आकर्षण था। दादाभाई नौरोजी की भाँति वे सदैव आशा किया करते थे कि इंग्लैण्ड में एक नए ढंग की राजनीतिज्ञता का उदय होगा और भारत के साथ न्याय किया जाएगा।

 (2) ब्रिटिश शासन को वरदान मानना - 

गोखले ब्रिटिश शासन को भारत के लिए वरदान मानते थे। उनकी धारणा थी कि बिटेन के साथ सम्पर्क बनाए रखने से भारतीयों की बौद्धिक प्रतिभा चमकेगी और भावी भारत के निर्माण का मार्ग प्रशस्त होगा। वे इस बात के लिए आभार प्रदर्शित करते थे कि अशान्त और अराजक भारत में आकर अंग्रेजों ने शान्ति स्थापित की। गोखले की सष्ट मान्यता थी कि भारत का भविष्य अंग्रेजी ताज की अगाध सर्वोच्चता से ही प्राप्त किया जा सकता है।

(3) इंग्लैण्ड तथा भारत के बीच साहयोग

गोखले की कामना थी कि इंग्लैण्ड तथा भारत के मध्य सामंजस्यपूर्ण सहयोग की वृद्धि हो, इसलिए वे पारस्परिक सूझ-बूझ की भावना की वृद्धि की बड़ी कद्र करते थे।

(4) नौकरशाही की आलोचना

नौकरशाही ने जिस गैर-जिम्मेदारी और हद दर्जे की क्रूरता के साथ जनता की इच्छा की अवहेलना करके बंगाल का विभाजन कर दिया था, गोखले ने उसकी कटु भर्त्सना की। नौकरशाही से उनका आमह था कि उसे इस बंग से शासन करना चाहिए जिससे भारतवासी पश्चिम के उच्चतम आदर्शों के अनुसार अपने देश का शासन करने के योग्य बन सकें। उन्होंने शक्ति को नौकरशाही के हाथों में केन्द्रित करने की नीति की आलोचना की।

(5) भारतीयों की शासन में अधिकाधिक भागीदारी - 

गोखले ने कहा कि बदि भारतवासियों को उत्तरदायित्व के पदों से वंचित रखा गया, तो इससे उनके व्यक्तित्व का हास होगा और उनका नैतिक स्तर गिरेगा। इसलिए गोखले का आग्रह था कि भारतवासियों की शासन में अधिकाधिक भागीदारी की जाए।

(6) ब्रिटिश शासन के प्रति निष्ठा - 

गोखले भारत में ब्रिटिश शासन के प्रति निष्ठावान थे। उनकी शासन के प्रति स्वामिभक्ति देशप्रेम की ही पर्यायवाची थी। उनकी निष्ठा का मूल कारण वह नहीं था कि यह विदेशी शासन था, अपितु यह था कि यह व्यवस्थित शासन था। गोखले अराजकता और अव्यवस्था के विरोधी थे।

(7) संविधान में आस्था-

गोखले क्रमिक विकास के पक्षधर थे। संवैधानिक साधनों में उनका अडिग विश्वास था। ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत स्वशासन के लक्ष्य को वे संवैधानिक तरीकों से ही प्राप्त करना चाहते थे। वे प्रार्थना-पत्र, स्मरण पत्र प्रतिनिधिमण्डल बातचीत एवं शासन की रचनात्मक आलोचना का मार्ग अपनाते थे। उनके आन्दोलन में विद्रोह,हिंसा तथा क्रान्ति का नितान्त अभाव था। गोखले के मार्ग को उनके आलोचकों ने भिक्षावृत्ति का नाम दिया, लेकिन इस प्रकार का आरोप अनुचित था। गोखले का मार्ग अत्यधिक श्रम साध्य था और इसकी सफलता बलिदान पर निर्भर थी।

(8) राजनीति का आध्यात्मीकरण-

गोखले एक राजनीतिक संन्यासी थे। राजनीति में नैतिकता तथा उच्च उद्देश्यों को लेकर उनका विश्वास था कि धर्म को राजनीति का आधार होना चाहिए । उनका राजनीतिक उद्देश्य सत्ता तथा शक्ति प्राप्त करना न होकर सेवा धर्म निभाने का था। उनके द्वारा स्थापित भारत सेवक समाज' का मुख्य उद्देश्य भी राजनीति और धर्म का समन्वय करना था।

(9) राष्ट्रीय एकता पर बल -

गोखले राष्ट्रीय एकता को विशेष महत्त्व देते थे। उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता को राष्ट्र के लिए हितकारी माना। दोनों ही धर्मों के व्यक्तियों से उनकी मार्मिक अपील थी कि वे परस्पर सहिष्णुता और आत्म-संयम से काम लें और परस्पर मैत्रीपूर्ण सहयोग की भावना का विकास करें।

(10) स्वशासन की धारणा -

गोखले ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत भारत के लिए स्वशासन चाहते थे। स्वशासन का अर्थ स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था, "ब्रिटिश अभिकरण के स्थान पर भारतीय अभिकरण को प्रतिष्ठित करना, विधान परिषदों का विस्तार और सुधार करते-करते उन्हें वास्तविक निकाय बना देना और जनता को सामान्यतः अपने मामलों का प्रबन्ध स्वयं करने देना।"

(11) स्वदेशी आन्दोलन का समर्थन -

गोखले ने स्वदेशी आन्दोलन का समर्थन किया। उनके लिए स्वदेशी का अर्थ था-देश के लिए उच्च कोटि का गम्भीर तथा व्यापक प्रेम । उन्होंने सन् 1905 में बनारस कांग्रेस अधिवेशन में कहा-स्वदेशी आन्दोलन आर्थिक होने के साथ-साथ देशभक्ति का भी आन्दोलन है।

(12) विकेन्द्रीकरण - 

गोखले ने विकेन्द्रीकरण की आवश्यकता को स्वीकार किया। वे ऐसी व्यवस्था के पक्ष में थे जिससे नौकरशाही पर तत्काल नियन्त्रण लगाया जा सके। वे प्रशासन पर जनता का उचित नियन्त्रण चाहते थे। जिला प्रशासन में कलेक्टर की स्वेच्छाचारिता रोकने के लिए प्रत्येक जिले में जिला स्तरीय परिषद् का निर्माण किया जाना चाहिए, जो कलेक्टर को प्रशासकीय मामलों में सलाह दे।

परन्तु उपर्युक्त विचारों का यह अर्थ नहीं है कि वे 'दुर्बल हृदय के उदारवादी' थे। उन्होंने सरकार की गलत नीतियों की आलोचना की और बंगाल-विभाजन को सरकार की बड़ी भूल बताया। उन्होंने सरकार के अच्छे कार्यों की प्रशंसा भी की। सन् 1909 के सुधारों के लिए उन्होंने वायसराय लॉर्ड मिण्टो की प्रशंसा की।

गोखले स्वभाव से आध्यात्मवादी थे, परन्तु आदर्शवाद में उनका विश्वास था और वे उच्च नैतिक मानदण्डों का पालन करते थे। ब्रिटिश राजनीतिज्ञ भी यह स्वीकार करते थे कि उनमें एक असाधारण जन्मजात नेता के गुण थे। महात्मा गांधी गोखले को अपना राजनीतिक गुरु' मानते थे।

मूल्यांकन गांधीजी लिखते हैं—“सर फिरोजशाह मेहता मुझे हिमालय की भाँति अगम्य प्रतीत हुए,लोकमान्य तिलक समद्र की भाँति प्रतीत हुए, जिसमें व्यक्ति आसानी से गोता नहीं लगा सकता. पर गोखले गंगा के समान थे,जो व्यक्तियों को अपने पास बुलाते थे। राजनीति के क्षेत्र में मेरे हृदय में गोखले के जीवन का जो स्थान था,वह अब भी है और वह अनुपम रहेगा।"

लॉर्ड कर्जन ने भी लिखा है, ईश्वर ने आपको असाधारण योग्यताएँ प्रदान की हैं और उन्होंने निःसंकोच उन्हें देश सेवा में लगा दिया है।"

डॉ. पट्टाभि सीतारमय्या के अनुसार, “उनमें कड़ी-से-कड़ी बात को भी मधुर भाषा में कहने का बड़ा गुण था।

गोखले के राजनीतिक विरोधी तिलक ने भी कहा है,“गोखले भारत का हीरा, महाराष्ट्र का रत्न और मजदूरों का राजा था।"

 


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