संस्मरण का अर्थ और परिभाषा

प्रश्न 9. संस्मरण के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए संस्मरण के तत्त्वों का उल्लेख कीजिए।

अथवा ‘’ संस्मरण की परिभाषा देते हुए हिन्दी संस्मरण की विकास यात्रा को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर'संस्मरण' का सामान्य अर्थ है - सम्यक् स्मरण। किसी घटना, व्यक्ति विशेष सम्बन्धी स्मृतियों का जब प्रकाशन होता है, तभी संस्मरण की रचना होती है।

संस्मरण का अर्थ और परिभाषा 

डॉ. भगवतशरण भारद्वाज के शब्दों में, "व्यक्तिगत सम्पर्क के आधार पर तथ्यात्मक पद्धतियों का त्यागकर जब किसी व्यक्ति के जीवन की चारित्रिक निजताओं को प्रकट करने वाली रोचक या मार्मिक घटनाओं को क्रमबद्ध किया जाता है, तो उसे संस्मरण के नाम से अभिहित करते हैं।"

डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत के अनुसार, "भावुक कलाकार जब अतीत की अनन्त स्मृतियों में से कुछ स्मरणीय अनुभूतियों की अपनी कोमल कल्पना से अनुरंजित कर व्यंजनामूलक संकेत शैली में अपने व्यक्तित्व की विशेषताओं से वेष्ठित कर रोचक ढंग से यथार्थ में व्यक्त कर देता है, तब उसे संस्मरण कहते हैं।"

sansmaran ka arth aur paribhasha

संक्षेप में कहा जा सकता है कि संस्मरण गद्य साहित्य की उस विधा को कहते हैं जिसमें लेखक अपने जीवन की अनन्त स्मृतियों में से कुछ विशिष्ट कीजिए।

अनुभूतियों को अपनी कोमल कल्पना से अलंकृत करके लाक्षणिक शैली में आत्मीय राग एवं निजी विशिष्टताओं का सम्बल देकर रोचक तथा आकर्षक रूप से चित्रित करता है।

संस्मरण के तत्त्व

संस्मरण के तत्त्वों की चर्चा दो रूपों में मिलती है

आवश्यक तत्त्व - ये सात माने गए हैं

(1) वर्ण्य-विषय,

(2) वैयक्तिकता,

(3) यथार्थता,

(4) चरित्रांकन,

(5) वातावरण या परिवेश,

(6) भाषा-शैली, तथा

(7) उद्देश्य।

(II) नियामक तत्त्व –

डॉ. भगवतशरण भारद्वाज ने संस्मरण के निम्न नियामक तत्त्वों का उल्लेख किया है__(1) सहानुभूतिपूर्ण दृश्य की अनिवार्यताकिसी व्यक्ति के जीवन की मार्मिक स्थितियों का कलात्मक चित्र तभी सामने आ सकता है जब संस्मरण लेखक में यह क्षमता होती है। यह क्षमता उसे स्वभाव की बारीकियों तक पहुँचने की प्रेरणा देती है।

(2) व्यक्तिगत सम्पर्क की अनिवार्यता-

किसी व्यक्ति के जीवन की बारीकियों को पकड़ पाना व्यक्तिगत सम्पर्क में आए बिना सहज सम्भव नहीं होता। व्यक्तिगत सम्पर्क रचना के वातावरण को आत्मीयतापूर्ण बनाकर अतिरिक्त प्रभविष्णुता समाहित कर देता है।

(3) लेखक की निरीक्षण क्षमता-

संस्मरण लेखक में यह विशिष्टता भी अपेक्षित है। इसके माध्यम से वह अपने स्वभाव की विशिष्टताओं एवं विशेषताओं का भी उल्लेख करता है। यह रचना में गहराई लाने में सहायक होती है।

(4) प्रारम्भ और अन्त की रोचकता-

रोचकता तो प्रत्येक साहित्यिक कृति हेतु महत्त्वपूर्ण है। प्रारम्भ में रोचकता पाठक की उत्सुकता जगाती है, तो. अन्त की रोचकता एक व्यापक प्रभाव छोड़ जाती है।

हिन्दी संस्मरण की विकास यात्रा

कुछ विद्वान् पं. पद्मसिंह शर्मा 'कमलेश' को आधुनिक संस्मरणों का जनक मानते हैं, पर कतिपय विद्वान् सन् 1907 में बाबू बालमुकुन्द द्वारा लिखित 'पं. प्रतापनारायण मिश्र के संस्मरण' से भी इसका सूत्रपात मानते हैं। पर इसका व्यवस्थित विकास सन् 1920 के बाद ही माना जा सकता है। इसके विकास में 'माधुरी', 'विशाल भारत' आदि पत्रिकाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।

डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत सत्यदेव परिव्राजक को इसका प्रथम लेखक स्वीकार करते हैं। सन् 1905 के आसपास आपने अमेरिका की यात्रा की और उस यात्रा से सम्बन्धित संस्मरणों का आपने सजीव वर्णन किया, जो भाव तथा प्रभाव, दोनों से परिपूर्ण है।

संस्मरण की विकास यात्रा को निम्न दो चरणों में विभाजित किया जा सकता है।

(1) प्रेमचन्द युग -

इस युग में कई विशिष्ट संस्मरण सामने आये। पदमसिंह शर्मा 'कमलेश' का 'पद्मपराग' एक नूतन भावभूमि लेकर सामने आया। इसके साथ ही पं. सुन्दरलाल (बालकृष्ण भट्ट से सम्बन्धित संस्मरण), बनारसीदास चतुर्वेदी ('संस्मरण' तथा 'हमारे आराध्य'), श्री अमृतलाल चतुर्वेदी (मेरे प्रारम्भिक जीवन की स्मृतियाँ), श्रीनिवास शास्त्री (मेरी जीवन स्मृतियाँ), पं. बनारसीदास चतुर्वेदी (श्रीधर विषयक संस्मरण), पं. रामनारायण मिश्र (अनागरिक धर्मपाल), रूपनारायण पाण्डेय (द्विवेदी जी), गोपालराम गहमरी (साहित्यिक के संस्मरण), राजा राधिकारमण सिंह (वे और हम, तब और अब, टूटा तारा आदि) तथा कुछ अन्य नाम भी उल्लेखनीय हैंप्रेमनारायण टण्डन, श्रीराम शर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी, श्रीमती शिवरानी, प्रेमचन्द, मंगलदेव शर्मा, मोहनलाल मेहतो आदि। द्विवेदी युग में संस्मरण विधा को एक विशिष्ट साहित्यिक रूप प्राप्त हो चुका था।

(2) आधुनिक युग

यह काल नव्यता का वाहक रहा और साहित्य की प्रत्येक विधा में नवीनता का समावेश हुआ, फलतः संस्मरण विधा भी एक नूतन भव्य रूप धारण कर सकी और उत्कृष्ट कोटि के संस्मरण इस युग में सामने आ सके। इस विधा को आँजने में महादेवी जी का प्रयास स्तुत्य है। उनके संस्मरणात्मक रेखाचित्र चार संग्रहों के माध्यम से सामने आए–'अतीत के चलचित्र', 'स्मृति की रेखाएँ', 'पथ के साथी' और 'मेरा परिवार'। संस्मरण उनके व्यक्तित्व की छाप से युक्त हैं। इसके बाद तो अनेक नाम उल्लेखनीय हैं, जिनमें से कुछ विशिष्ट नामों का उल्लेख यहाँ आवश्यक है-पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी (गुप्त का हास्य-व्यंग्य), शान्तिप्रिय द्विवेदी (पद चिह्न), कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' (दीप जले शंख बजे), आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी (मृत्युञ्जय रवीन्द्रनाथ), श्री रघुवीर सिंह (शेष स्मृतियाँ), विनोदशंकर व्यास (प्रसाद और उनके समकालीन), काका साहब कालेलकर (स्मरण यात्रा), माखनलाल चतुर्वेदी (समय के घाव), राहुल सांकृत्यायन (बचपन की स्मृतियाँ), रामनाथ 'सुमन' (हमारे नेता), जैनेन्द्र (वे और वे), किशोरीदास वाजपेयी (बालकृष्ण भट्ट), देवेन्द्र सत्यार्थी (रेखाएँ बोल उठीं), भगवतशरण उपाध्याय (मैंने देखा), अज्ञेय (अरे यायावर रहेगा याद), राय कृष्णदास (जवाहर भाई), उपेन्द्रनाथ 'अश्क' ('रेखाएँ और चित्र', 'मण्टो मेरा दुश्मन', 'परतों के आरपार, आसमाँ और भी है'), घनश्यामदास बिड़ला (गांधीजी की छत्रछाया, कुछ देखा कुछ सुना), गुलाबराय (आत्मकथात्मक संस्मरण- मेरी असफलताएँ), हरिभाऊ उपाध्याय (आत्मकथात्मक संस्मरण लालसा के पथ पर), आचार्य चतुरसेन शास्त्री (वातायन), पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' (अपनी खबर), मनमोहन गुप्त (एक क्रान्तिकारी के संस्मरण), हरिवंशराय बच्चन (नये-पुराने झरोखे), डॉ. नगेन्द्र (चेतना के बिम्ब) आदि के साथ और अनेक नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।

आज संस्मरण एक स्वतन्त्र प्रतिष्ठित साहित्यिक विधा बन चुकी है।

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