एम. एन. राय का नव-मानवतावाद सिद्धान्त
प्रश्न 12. एम. एन. राय द्वारा प्रतिपादित 'नव-मानवतावाद' की अवधारणा को स्पष्ट
कीजिए।
अथवा '' एम. एन. राय के 'नव-मानवतावाद' सम्बन्धी विचारों को समझाइए।
उत्तर - एम. एन. राय (मानवेन्द्रनाथ राय) आधुनिक भारत में दर्शन और राजनीति के विद्वानों में उच्च स्थान रखते हैं। भारतीय राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में एक व्याख्याकार एवं इतिहासकार के रूप में उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। एम. एन. राय द्वारा प्रतिपादित 'नव-मानवतावाद' जीवन में मूल्यों को प्रथम स्थान देने का उपदेश देता है। राय ने भौतिकवाद की नई व्याख्या की और इसे नैतिक पुट प्रदान किया। व्यक्ति की स्वतन्त्रता और समानता का जयघोष करके राय ने व्यक्ति के गौरव एवं सम्मान को आगे बढ़ाया।
मानवेन्द्रनाथ राय पहले क्रान्तिकारी थे,बाद में मार्क्सवादी हुए,फिर गांधीवादी और उसके पश्चात् गांधीवाद के आलोचक तथा अन्त में वैज्ञानिक विकासवाद पर आधारित नव-मानवतावादी हुए ।
क्रान्तिकारी होने के बाद वे मेक्सिको चले गए,जहाँ वे मार्क्सवाद से प्रभावित होकर साम्यवादी बन गए और कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल के संस्थापक सदस्य बने । भारत लौटने पर उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ा, किन्तु भारत में उनकी सेवाएँ न होने के कारण बुरी तरह हार गए। अतः उन्होंने रेडिकल डेमोक्रेटिक पार्टी का गठन किया। सन् 1945-46 के आम चुनावों में इनकी पार्टी एक भी सीट नहीं जीत सकी। इसका कारण यह था कि वे बुद्धिजीवी तो थे, किन्तु जनता से इनका तथा इनके दल का कोई सम्पर्क न था। तब उन्होंने राजनीति छोड़ दी,पार्टी भंग कर दी और एक वैचारिक दार्शनिक क्रान्ति एवं देश के सांस्कृतिक पुनर्जागरण में लग गए। इस नवजागरण का मुख्य बिन्दु वैज्ञानिक विकासवाद पर आधारित 'नव-मानवतावाद' था।एम. एन. राय का नव-मानवतावाद
एम.एन. राय के नव-मानवतावाद सम्बन्धी विचारों को अग्रांकित शीर्षकों के
अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है
(1) मानवतावादी मूल्यों की स्थापना -
श्री राय सांस्कृतिक संकट से गुजर रही मानव जाति में नैतिक एवं मानवतावादी
मूल्यों को प्रतिष्ठा करना चाहते थे। अत: उन्होंने नैतिक एवं मानवीय मूल्यों को
महत्ता प्रदान की। विश्व के अधिकांश विद्वान संशयवादी थे। अत: राय ने नीतिशास्त्र
को विश्लेषणात्मक बुद्धिवाद पर आधारित किया, जिससे सभी बुद्धिजीवी उसे ग्रहण कर सकें।।
(2) मानव ही मानव जाति का मूल है -
एम. एन. राय के अनुसार मानव इतिहास की व्याख्या मानव के ही माध्यम से होनी
चाहिए, किसी बाह्य शक्ति द्वारा
नहीं । बाह्य शक्ति से अभिप्राय वेदान्तियों के ब्रह्म, इस्लाम के अल्लाह, हीगल की आत्मा और मार्क्स
के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद तत्त्व से है। जो लोग मनुष्य को ईश्वर निर्मित मानते
हैं तथा मनुष्य के भाग्य का निर्माता ईश्वर को मानते हैं, वे मानव इतिहास की व्याख्या
मानव के रूप में नहीं करते. वरन बाह्य शक्ति या बाह्य तत्त्व के माध्यम से करते
हैं। नव-मानवतावादी राय इसका विरोध करता है। नव-मानवतावाद के अनुसार मनुष्य स्वयं
का निर्माता है और वह अपने प्रयासों से संसार को अधिक बेहतर बना सकता है।
(3) मानव ही प्रत्येक वस्तु का मापदण्ड है -
प्राणी होने के नाते मनुष्य का सम्बन्ध उन्हीं वस्तुओं
से होता है जो मानव-जीवन को प्रभावित करती हैं। आत्मा जैसी अति प्राकृतिक अथवा
दैवी शक्ति मानव चेतना से भिन्न है। उसकी सत्ता को विज्ञान द्वारा सिद्ध नहीं किया
जा सकता। अत: नव-मानवतावादी उन्हें कोई महत्त्व नहीं देते अर्थात् मनुष्य का
सम्बन्ध केवल मनुष्य से होना चाहिए,ब्रह्म तथा परमात्मा जैसी किसी निरपेक्ष सत्ता
से नहीं।
(4) मनुष्य स्वभावत: विकासवान है -
इस पृथ्वी पर जब से मानव जीवन का विकास हुआ और उसमें चेतना आई, तब से वह लगातार अपने चारों
ओर के वातावरण से संघर्ष करता आ रहा है। सभ्यता, संस्कृति, वैज्ञानिक एवं कलात्मक प्रगति उसके संघर्ष का ही
परिणाम है । अतः प्रगति और विकास मानव स्वभाव में आरम्भ से ही विद्यमान है । अतः
मानवता विकसित होती आई है और विकसित होती रहेगी। मनुष्य अपनी विकास यात्रा में
जीवन के सत्य की खोज में लगा रहा, किन्तु उसका सत्य अध्यात्म या कोई अमूर्त सत्य नहीं है, वह तो वस्तुनिष्ठ वास्तविक
सत्य है, तथ्यात्मक सत्य है। श्री
राय ने आधुनिक भौतिक तथा जैविक विज्ञानों के आधार पर मानव बुद्धि को ही सत्य
स्वरूप सिद्ध किया।
(5) व्यक्ति और समाज -
नव-मानवतावाद व्यक्ति और समाज के सन्दर्भ में। व्यक्ति की
स्वतन्त्रता का समर्थक है। उनकी मान्यता है कि मूल तत्त्व तो व्यक्ति है, समाज उसकी सृष्टि है।
व्यक्ति ने अपने हितों और उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही समाज की रचना की। अतः
व्यक्ति और समाज के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और नैतिक सम्बन्ध
इस प्रकार निर्धारित किए जाने चाहिए जिससे क्ति की स्वतन्त्रता और उसके अधिकार
सुरक्षित रहें।
(6) सामाजिक विकास का आधार वैज्ञानिक साधन -
नव-मानवतावादी श्री राय मानव समाज के विकास एवं निर्माण में
विज्ञान की प्रमुख भूमिका मानते हैं। वैज्ञानिक साधनों से ही कारखाने लगाए जा सकते
हैं, नहीं निकाली जा सकती हैं, विद्युत परियोजनाएँ स्थापित
की जा सकती हैं और आवश्यक खाद्यान्न उत्पन किया जा सकता है । देवताओं को प्रसन्न
करने से यह सम्भव नहीं है।
(7) वैचारिक क्रान्ति के समर्थक -
वे ऐसी मानसिक एवं वैचारिक क्रान्ति के समर्थक थे जो व्यक्ति से समाज के नीचे
से प्रारम्भ होनी चाहिए मार्क्सवादियों की भाँति ऊपर से थोपी हुई नहीं होनी चाहिए।
वैचारिक क्रान्ति के सन्दर्भ में नव-मानवतावादियों की मान्यता है कि मनुष्य अपने
भाग्य का स्वयं विधाता है, इसलिए अपने भविष्य का निर्माण करने के लिए उसे स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए। वे आत्म-विकास
के लिए अति मानवीय सत्ता में विश्वास नहीं करते। मनुष्य को अपने निर्णयों में अपनी
बुद्धि पर निर्भर रहना चाहिए, बाह्य सत्ता पर नहीं।।
(8) राजनीति और नीति -
श्री राय द्वितीय विश्व युद्ध के दुष्परिणाम देख चुके थे।
अतः उन्होंने सार्वजनिक जीवन में नैतिक मूल्यों को अपनाने पर बल दिया। इस सम्बन्ध
में श्री राय गांधीजी से पूरी तरह सहमत थे कि राजनीतिज्ञ भी नैतिक होने चाहिए।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि राय राजनीति का नैतिकीकरण करना चाहते थे, जबकि महात्मा गांधी इसका
आध्यात्मीकरण। श्री राय नैतिकता का स्रोत स्वयं मानव आत्मा को मानते थे और गांधीजी
ईश्वर को। श्री राय के विचार से ईश्वर और अध्यात्म को मानव जीवन के विकास के मध्य
चौधरी नहीं बनाना चाहिए।
(9) राजनीति और शासन सत्ता -
एम.एन.राय साम्यवादियों की तरह सत्ता के केन्द्रीकरण के
पक्षपाती नहीं थे। उन्हें राजनीतिक दलों की भूमिका में भी तनिक विश्वास नहीं था।
वे सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक विकास में दलीय संगठनों द्वारा राज्य शक्ति पर
अधिकार करने की अपेक्षा गाँव और कारखानों में सघन कार्य करने को महत्त्वपूर्ण
मानते थे। इस सम्बन्ध में वे अराजकतावादियों के अधिक समीप हैं। वे शासन तन्त्र में
जनता की अधिकाधिक साझेदारी के पक्षधर थे। राय ने। लोकतान्त्रिक केन्द्रवाद का
विरोध किया। वे शासन सत्ता स्थानीय समितियों के हाथ में सौंप देना चाहते थे। वे इस
बात के पक्षधर थे कि वोट के आधार पर लोग शासन के शीर्ष स्थानों पर न पहँचें, वरन नैतिक और बौद्धिक
दृष्टि से विकसित लोगों को वे स्थान मिलें,जो वास्तव में जनहित कर सकें।
(10) संगठित लोकतन्त्र -
श्री राय का विचार था कि शासन सत्ता में केवल नैतिक लोग
ही पहुँचें। वे मिलकर राजनीतिक दल के रूप में संयुक्त रूप से काम करें। श्री राय
संगठित लोकतन्त्र के लिए चुनाव और चयन, दोनों प्रक्रियाओं को अपनाने के पक्षधर थे।
इंजीनियर, डॉक्टर,कानूनशास्त्री आदि की
परिषदें हों और वे ही नैतिक एवं योग्य लोगों के नामों को शासन के लि प्रमुख
(प्रधान) कुछ योग्य व्यक्तियों को भी नामांकित करें। यह कार्य सैद्धान्तिक रूप से
भले ही ठीक प्रतीत हो, किन्तु व्यावहारिक रूप से बहत कठिन है।।
मूल्यांकन – एम. एन. राय नव-मानवतावाद
के समर्थक थे। वे दल विहीन लोकतन्त्र को
सामाजिक विकास के लिए सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली मानते थे। वे एकाधिकारी पूँजीवाद
के विरोधी थे, तो दूसरी ओर साम्यवादी
अधिनायकवाद के आलोचक। वे एक प्रकार से गिल्ड समाजवाद के समीप थे और व्यापक
विकेन्द्रीकरण, सहयोग एवं नैतिकता पर
आधारित शासन व्यवस्था के समर्थक थे। श्री राय ने सदैव सहकारी आन्दोलन और सहकारी
व्यवस्था का समर्थन किया। वे व्यक्ति स्वातन्त्र्य और विचार स्वातन्त्र्य के
पक्षधर थे। उनकी मान्यता थी कि मानव बुद्धि, विवेक, नैतिकता और विज्ञान ने मानव जाति की अपार सेवा
की है और इसी के द्वारा अब भी मानव जाति का विकास सम्भव है। अपने सैद्धान्तिक
गुणों के बावजूद यह नव-मानवतावादी विचारधारा कुछ बुद्धिजीवियों तक ही सीमित रही, उसे कोई जनाधार नहीं मिल
पाया और वह लोकप्रिय नहीं हुई।
कुछ भी लिख रखा है 🤨
ReplyDelete😁😁yess upr se nikal gya
DeleteGood information
ReplyDeleteGood information thank you
ReplyDeleteअत्यधिक कठोर भाषा का प्रयोग है जो अध्ययन में बढ़ा उत्पन्न करता है
ReplyDeleteVery hard words 😐
DeleteHii
ReplyDeleteThik h
ReplyDelete