सार्वजनिक व्यय के सिद्धान्त

प्रश्न 6. सार्वजनिक व्यय से आप क्या समझते हैं ? सार्वजनिक व्यय के सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए। सार्वजनिक व्ययों का आर्थिक महत्त्व क्या है ?

उत्तर

सार्वजनिक व्यय का आशय

राज्य अपने सार्वजनिक उत्तरदायित्वों को पूर्ण करने के लिए अनेक प्रकार के कार्यों को सम्पन्न करता है; जैसे-विदेशी आक्रमण से सुरक्षा, देश में शान्ति व्यवस्था, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, मकान, सड़क निर्माण, कृषि, उद्योग तथा रोजगार का विकास एवं विस्तार आदि। इन कार्यों को सम्पन्न करने के लिए सरकार द्वारा जो धन व्यय किया जाता है, उसे ही सार्वजनिक व्यय कहा जाता है। संक्षेप में, सार्वजनिक अधिकारियों अर्थात् केन्द्रीय, प्रान्तीय एवं स्थानीय सरकारों द्वारा किए जाने वाले व्यय को सार्वजनिक व्यय कहा जाता है।

sarvjanik vyav ka sidhant

सार्वजनिक व्यय के सिद्धान्त-

सार्वजनिक व्यय के सम्बन्ध में प्रो. फिण्डले शिराज ने निम्नालखित चार सिद्धान्त प्रस्तुत किए हैं-

(1) लाभ का सिद्धान्त-

इस सिद्धान्त के अनुसार सार्वजनिक व्यय सम्पूर्ण समाज के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष लाभ को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए, किसी वर्ग अथवा व्यक्ति विशेष के हित को ध्यान में रखकर नहीं। सार्वजनिक व्यय 'अधिकतम सामाजिक लाभ' के सिद्धान्त के अनुसार किया जाना चाहिए।

(2) मितव्ययता का सिद्धान्त-

इस सिद्धान्त के अनुसार सरकार को व्यय करते समय मितव्ययता से काम लेना चाहिए और जहाँ तक सम्भव हो बेकार के खर्चों से बचना चाहिए। किसी भी मद पर सरकार को उससे अधिक व्यय नहीं करना चाहिए, जितना कि उस पर आवश्यक है। मितव्ययता प्राप्त करने के लिए व्ययों के दोहरेपन से बचना चाहिए तथा बेकार के व्ययों को नहीं होने देना  चाहिए।

(3) स्वीकृति का सिद्धान्त-

इस सिद्धान्त के अनुसार व्यय करने वाले अधिकारियों को व्यय करने से पूर्व उचित स्वीकृति प्राप्त करनी चाहिए, जिससे सार्वजनिक व्ययों पर ठीक-ठीक नियन्त्रण रखा जा सके। प्रत्येक सरकारी सत्ता को एक सीमा तक व्यय करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए, किन्तु उससे अधिक व्यय करने के लिए संसद अथवा उच्चतम सत्ता से स्वीकृति प्राप्त करना अनिवार्य होना चाहिए।

(4) आधिक्य का सिद्धान्त-

इस गिद्धान्त के अनुसार सार्वजनिक व्यय इस प्रकार किया जाना चाहिए कि घाटे की व्यवस्था की आवश्यकता न पड़े। व्यक्ति की भाँति सरकार को भी अपनी आय के अनुसार ही व्यय करना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो सके, सरकार को अपना बजट सन्तुलन में रखना चाहिए। अच्छा तो यह है कि उसमें कुछ आधिक्य को बनाए रखा जाए। किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि प्रतिवर्ष कोई बड़ा आधिक्य प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाए, क्योंकि ऐसा बजट सार्वजनिक हित में नहीं होगा। आवश्यकता इस बात की है कि निरन्तर घाटे से बचा जाए।

प्रो. फिण्डले शिराज के उपर्युक्त चार सिद्धान्तों के अतिरिक्त आधुनिक अर्थशास्त्री निम्नलिखित अन्य सिद्धान्तों की ओर भी संकेत करते हैं-

(1) लोच का सिद्धान्तः-

सार्वजनिक व्यय लोचपूर्ण होने चाहिए। लोच से अभिप्राय यह है कि सार्वजनिक व्ययों में आवश्यकतानुसार घटने-बढ़ने की क्षमता होनी चाहिए। जब सरकार की आय कम हो जाए, तो सार्वजनिक व्ययों को घटाना सम्भव होना चाहिए। इसी प्रकार अच्छे समय में जब सरकार की आय बढ़ रही हो, तो सार्वजनिक व्ययों में वृद्धि करना सम्भव होना चाहिए।

(2) उत्पादकता का सिद्धान्त-

इस सिद्धान्त के अनुसार सार्वजनिक व्यय इस प्रकार होना चाहिए जिससे उत्पादन की मात्रा में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से वृद्धि हो । सार्वजनिक व्यय में देश में बेरोजगारी को दूर करने, पूँजी-निर्माण की गति को बढ़ाने, उपभोग की वस्तुओं के उत्पादन को बढ़ाने तथा सामाजिक हितों को अग्रसर करने के गुण होने चाहिए। सामाजिक सेवाओं एवं सामाजिक सुरक्षा पर किया गया व्यय भी उत्पादक माना जाता है, क्योंकि इससे नागरिकों के जीवन-स्तर, स्वास्थ्य तथा कार्यक्षमता में वृद्धि होती है।

(3) समान वितरण का सिद्धान्त-

सार्वजनिक व्यय ऐसा होना चाहिए। जिससे समाज में आय एवं सम्पत्ति के वितरण की विषमता न्यूनतम हो सके। इसके लिए यह आवश्यक है कि सरकार द्वारा धनी वर्ग पर प्रगतिशील दर से करारोपण किया जाए तथा इस प्रकार जो आय प्राप्त हो, उसे निर्धन वर्ग के हितार्थ (निःशुल्क शिक्षा, चिकित्सा, आवास व्यवस्था, वृद्धावस्था पेंशन, पारिवारिक भत्ता आदि के रूप में) व्यय किया जाए।

(4) समन्वय का सिद्धान्त-

देश में केन्द्रीय, प्रान्तीय तथा स्थानीय, तीनों सरकार एक साथ व्यय करती हैं। अत: इनके व्यय में इस प्रकार समन्वय स्थापित किया जाए जिससे किसी भी व्यय की पुनरावृत्ति न हो सके।

सार्वजनिक व्ययों का महत्त्व-

19वीं शताब्दी के मध्य तक सार्वजनिक व्ययों को अनुत्पादक तथा अपव्ययपूर्ण समझा जाता था और व्यक्तियों द्वारा किए गए व्ययों को उत्पादक समझा जाता था। इसीलिए कहा जाता था कि राज्य को न्यूनतम व्यय करना चाहिए। किन्तु अब अर्थशास्त्रियों ने सार्वजनिक व्यय के महत्त्व को स्वीकार कर लिया है और इसीलिए इसे उचित महत्त्व दिया जा रहा है। सार्वजनिक व्ययों के महत्त्व को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत स्पष्ट कर सकते हैं -

(1) देश की आर्थिक स्थिति एवं विकास का द्योतक-

किसी देश के सार्वजनिक व्ययों से पता चलता है कि उस देश की आर्थिक स्थिति एवं उसका विकास आदि कैसा है। कोई भी देश एक व्यक्ति के समान अधिक समय तक अपनी आय से अधिक व्यय नहीं कर सकता, क्योंकि यदि वह अधिक समय तक   बड़ी मात्रा में व्यय करता रहता है तो इसका अर्थ है कि उस राष्ट्र को कर आदि से अधिक आय प्राप्त हो रही है, जो कि देश की आर्थिक स्थिति अच्छी होने पर ही सम्भव है।

(2) उत्पादन, वितरण एवं आर्थिक क्रिया के स्तर को प्रभावित करना-

सार्वजनिक व्ययों से केवल राष्ट्र की आवश्यकताएँ ही पूरी नहीं होतीं, बल्कि देश का आर्थिक जीवन भी इससे प्रभावित होता है। सार्वजनिक व्ययों के माध्यम से सरकार देश में उत्पादन की मात्रा को कम अथवा अधिक कर सकती है तथा उत्पादन की प्रकृति को प्रभावित कर सकती है। सार्वजनिक सेवाओं पर व्यय करके आय के वितरण की असमानताओं को कम किया जा सकता है। बेरोजगारी एवं मन्दी काल को दूर करने के लिए भी सार्वजनिक व्यय को एक अच्छा साधन माना जाता है। मन्दी काल में पूर्ण रोजगार के स्तर को प्राप्त करने हेतु सरकार जो व्यय करती है, उसे 'क्षतिपूरक व्यय' (Compensatory Expenditure) कहा जाता है। क्षतिपूरक व्यय का अभिप्राय यह है कि आय को वांछित स्तर पर लाने हेतु निजी व्यय की कमियों को सरकारी व्यय द्वारा पूरा किया जाए।

(3) देश के विकास की गति बढ़ाना-

सार्वजनिक व्ययों से देश का विकास होता है । यातायात एवं सिंचाई के साधनों का विकास करके उद्योगों एवं कृषि की रक्षा की जाती है, जिससे देश का विकास होता है। जॉन एडलर के शब्दों में, "अतिरिक्त उत्पाद का एक बढ़ता हुआ अनुपात पूँजी-निर्माण हेतु रखा जाना चाहिए, ताकि एक अर्द्ध-विकसित देश का तेजी से विकास हो सके।"

रागनर नर्से तथा स्टिगलर का मत है कि "सरकार बहुत-से कार्य स्वयं करके अल्प-विकसित देशों में साहसियों की कमी को पूरा करती है।"

(4) राज्य को शक्ति प्रदान करना-

राज्य का शक्तिशाली होना इस बात पर निर्भर करता है कि देश की सुरक्षा एवं शान्ति व्यवस्था मजबूत हो तथा प्रशासन कुशल एवं योग्य व्यक्तियों द्वारा चलाया जाए। सार्वजनिक व्यय इसमें सहायक होता है।

(5) देश में मजदूरी तथा मूल्य-स्तर को प्रभावित करना-

राज्य एक बहुत बड़ा क्रेता है तथा देश में वस्तुओं एवं सेवाओं को सबसे अधिक मात्रा में सरकार द्वारा ही क्रय किया जाता है। इसलिए वह वस्तुओं के मूल्यों तथा मजदूरी की दरों को बहुत अधिक प्रभावित कर सकती है। सरकार जिस वस्तु की अधिक माँग करती है, उसी का अधिक उत्पादन होगा। इसी प्रकार यदि सरकार सस्ती वस्तुओं को खरीदे, तो मजदूरी की दरें भी कम होंगी।

 

 

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