धर्म सुधार आन्दोलन (कैथोलिक चर्च) - अर्थ और परिणाम

MJPRU-BA-I-History II/ 2021
प्रश्न 4. 'काउण्टर रिफॉर्मेशन' से आप क्या समझते हैं ? इसके परिणाम बताइए।
अथवा प्रति धर्म सुधार आन्दोलन के कारणों का वर्णन कीजिए।

उत्तर - प्रति धर्म सुधार (कैथोलिक चर्च में सुधार)

धर्म सुधार आन्दोलन के कारणों के दो पक्ष थे सकारात्मक और नकारात्मक। सकारात्मक का अर्थ यह है कि पुनर्जागरण काल में जनता के मन में परिवर्तन की इच्छा उत्पन्न हुई और नकारात्मक पक्ष यह है कि कैथोलिक चर्च भ्रष्ट हो गया था। इसमें सन्देह नहीं कि यदि कैथोलिक चर्च में समय रहते सुधार हो जाता, तो लूथर और काल्विन जैसे सुधारवादियों को अपने कार्य में सफलता न मिली
dharm sudhar andolan
होती। इन सुधारकों से पहले जब वाईक्लिफ और जॉन हुस जैसे लोगों ने सुधार की बात की, तो उन्हें शान्त कर दिया गया। लेकिन लूथर और काल्विन के विद्रोह के पश्चात् तो कैथोलिक चर्च के लिए जीवन-मरण का प्रश्न था। फलत: विवशतावश कैथोलिक धर्म में सुधार किया गया, चूँकि यह धर्म सुधार आन्दोलन के समयान्तर और उसके प्रतिवाद में ही प्रारम्भ हुआ, इसलिए इसे प्रति धर्म सुधार(CounterReformation) कहा जाता है।

प्रति धर्म सुधार आन्दोलन के कारण

प्रति धर्म सुधार आन्दोलन के निम्नलिखित कारण थे
(1) प्रोटेस्टैण्ट धर्म की आपसी फूट - प्रोटेस्टैण्ट धर्म के प्रचारक अपनी विभिन्न शाखाओं के प्रचार में लगे रहते थे और एक-दूसरे की बुराइयाँ करते रहते थे। इनकी आपसी फूट इनके धर्म की उन्नति को प्रभावित कर रही थी। वास्तव में प्रोटेस्टैण्ट धर्म के प्रचारक अपनी शाखा के धर्म को ही उचित बताते थे और अन्य शाखाओं के धार्मिक उपदेशों की आलोचना करते थे। अतः इनमें एकता होना कठिन था। इस नये धर्म के अनेक सम्प्रदाय थे-लूथर सम्प्रदाय, काल्विन सम्प्रदाय, प्यूरिटन, प्रेसविटी, रिमन, इण्डिपेण्डेण्ट सम्प्रदाय आदि। ये कभी भी एक प्लेटफॉर्म पर एकत्र नहीं हो सकते थे। इनका झगड़ा गृह युद्ध के रूप में सदैव चलता रहता था। जनता इनके झगड़ों से ऊब गई थी। वह सोचने लगी कि इससे तो अपना पुराना कैथोलिक धर्म ही ठीक है, जिसमें इस प्रकार के संघर्ष नहीं हैं। इस प्रकार कैथोलिक धर्म प्रचारकों ने प्रोटेस्टैण्ट सम्प्रदायों की पारस्परिक फूट का लाभ उठाया और लोगों को पुनः अपने धर्म में आने को प्रेरित किया।

(2) पोप का चरित्र -

कैथोलिक पुनरुत्थान को सहायता पहुँचाने में उस समय के पोप का उच्च चरित्र बहुत ही उपयोगी व लाभदायक सिद्ध हुआ। वास्तव में 16वीं शताब्दी के पोप चरित्रवान व्यक्ति थे। उनमें वे दोष नहीं थे जिन्होंने प्रोटेस्टैण्ट धर्म को जन्म दिया था। पॉल तृतीय के पोप पद पर आसीन होते ही 1534 से 1550 ई. तक पोप पद की नैतिक शक्ति बहुत बढ़ गई थी। पोप के चरित्र से प्रेरित होकर पादरियों ने भी चरित्रवान बनकर स्वयं की नैतिक शक्ति बढ़ाना प्रारम्भ कर दिया और जनता के समक्ष सदाचारी एवं उच्च नैतिकतापूर्ण जीवन का उदाहरण प्रस्तुत किया। अत: जनता को पोप व पादरियों से जो शिकायत थी, वह स्वयं समाप्त होने लगी और लोग पुन: कैथोलिक धर्म की ओर आकर्षित होने लगे।

(3) कैथोलिक धर्म में आन्तरिक सुधार

वास्तव में कैथोलिक धर्म के दो ही प्रोटेस्टैण्ट धर्म की उत्पत्ति के कारण थे। अतः चरित्रवान पोप एवं पादरियों : इसके दोषों को दूर करने का प्रयास किया। इस धर्म के मठाधीशों तथा अनुयायिय ने यह सोच लिया कि यदि प्रोटेस्टैण्ट धर्म की उन्नति रोकनी हैं, तो कैथोलिक धा के दोषों को दूर कर आन्तरिक सुधार करना बहुत आवश्यक है। अत: पोप औ पादरियों ने कैथोलिक धर्म में सुधार करना प्रारम्भ कर दिया। 16वीं शताब्दी वे उत्तरार्द्ध में पोप ने चर्च के शासन में सुधार किया और पादरियों की पवित्र समिति 'की स्थापना की, जिसने 18 वर्षों तक कैथोलिक धर्म के सिद्धान्तों में सुधार किए 'बाइबिल' का नवीन संस्करण प्रकाशित किया तथा यह आज्ञा निकाली कि यरि कोई पादरी अपने कर्त्तव्य का सही ढंग से पालन नहीं करेगा, तो उसे उसके पद से हटा दिया जाएगा।

(4) धार्मिक सोसायटियों एवं न्यायालयों की स्थापना - 

कैथोलिक धर्म के पुनः उत्थान के लिए निम्नलिखित साधन अपनाए गए,
(i)ट्रेण्ट की काउन्सिल - रोमन कैथोलिक चर्च की एक आम सभा ट्रेण्ट में 1545 से 1563 ई. तक हुई, जिसमें 200 से अधिक पादरियों ने भाग लिया। इस काउन्सिल के कुल मिलाकर 25 अधिवेशन हुए। इसने कैथोलिक धर्म के सिद्धान्त स्पष्ट किए, चर्च की व्यवस्था तथा अनुशासन में पर्याप्त सुधार किए एवं धर्म के दोषों को दूर किया। इन सब कार्यों का परिणाम यह निकला कि वे लोग पुनः कैथोलिक धर्म में वापस आने लगे, जो इसके दोषों के कारण इसे छोड़कर प्रोटेस्टैण्ट धर्म की ओर आकर्षित हो गए थे। इस काउन्सिल ने अपने धर्म के सिद्धान्तों को और अधिक शक्तिशाली बना दिया था। काउन्सिल ने प्रोटेस्टैण्ट लोगों से कोई समझौता नहीं किया। वे तो अपने धर्म की उन्नति चाहते थे। अत: उन्होंने धर्म में अनेक सुधार किए, जिससे वह पुनः लोकप्रिय हो सके और अपनी खोई प्रतिष्ठा प्राप्त कर ले।
(ii) निषिद्ध ग्रन्थ सूची - ट्रेण्ट की काउन्सिल के निर्णय के अनुसार पोप ने धर्म विरोधी पुस्तकों की सूची तैयार कराई तथा कैथोलिकों के लिए उन्हें पढ़ना निषिद्ध कर दिया गया।
(iii) जेसुइट सोसायटी - कैथोलिक धर्म के पुनरुत्थान का यह एक दूसरा साधन था। इसे 'ऑर्डर ऑफ जीसस' भी कहते हैं। इसकी स्थापना स्पेन के एक कुलीन वंश के सैनिक इगनेशियस लोयला ने की थी। यह सैनिक चार्ल्स पंचम की सेना में था और एक युद्ध के दौरान वह इतना घायल हो गया था कि उसे जीवन की आशा बहुत कठिन लगने लगी। वह मरा तो नहीं, परन्तु लंगड़ा अवश्य हो गया था। तब उसने ईसा मसीह की सेवा में अपना जीवन व्यतीत करने का निश्चय किया। इसके लिए उसने 6 वर्षों तक पेरिस के विश्वविद्यालय में धर्मशास्त्रों की शिक्षा ग्रहण की। 1531 ई. में उसने वहीं पर 'जेसुइट सोसायटी' की नींव डाली। 1540 ई. में पोप पॉल तृतीय ने इस संघ को मान्यता दे दी। यह सोसायटी बिल्कुल सैनिक ढंग की ही थी। अनुशासन व आज्ञापालन इसके दो प्रमुख नियम थे और इसका प्रधान 'जनरल' कहलाता था। लोयला स्वयं जनरल बना। - पोप का आश्रय प्राप्त होने के पश्चात् इस सोसायटी के सदस्य, जो कि 'जेसुइट पादरी' के नाम से जाने जाते थे, नये धर्म प्रोटेस्टैण्ट का मुकाबला करने को तैयार हो गए। उन्होंने नवयुवकों को अपने पक्ष में कर लिया और बड़े-बूढ़ों को समझा-बुझाकर अपने साथ मिला लिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने कूटनीति एवं षड्यन्त्र से भी काम लिया। अत: ये लोग किसी सीमा तक अपने उद्देश्य में सफल रहे। इनके प्रयत्नों से इटली, स्पेन, फ्रांस तथा पोलैण्ड में प्रोटेस्टैण्ट धर्म वांछित प्रगति नहीं कर सका। दक्षिणी नीदरलैण्ड्स (बेल्जियम) तथा बेवरिया में कैथोलिक धर्म का पतन न होने देने का श्रेय भी इसी सोसायटी को है। इस सोसायटी ने बोहेमिया तथा हंगरी में कैथोलिक धर्म का प्रचार किया। इसके अतिरिक्त भारत, चीन तथा दक्षिणी अमेरिका में भी जेसुइट सोसायटी ने कैथोलिक धर्म की जड़ें मजबूत की। जेसुइट सोसायटी के सदस्य हर समय पोप की सेवा के लिए तैयार रहते थे। इस सोसायटी के बारे में कहा जाता था कि "यूरोप में यह एक ऐसी तलवार थी जिसकी मुठिया पोप के हाथ में थी और उसकी नोंक कहीं भी प्रहार कर सकती थी।"
(iv) इन्क्वीजिशन - इसे कैथोलिक धर्म के पुनरुत्थान का तीसरा साधन कहा जाता है। यह कैथोलिक चर्च का धार्मिक न्यायालय था और इसका कार्य धर्म विरोधियों का दमन करना था। इसको हर तरह के अधिकार प्राप्त थे। इसकी स्थापन 1548 ई. में हुई थी, परन्तु अभी भी ये पूर्ण शक्तिशाली नहीं हो पाए थे। पोप पॉल ने इसकी ओर ध्यान दिया। उसने रोम के न्यायालय में छ: इन्क्वोजिटर जनरल नियुक्त किए। इन्हें धर्म विरोधियों के मामलों की सुनवाई कर उन्हें दण्ड देने, पुस्तकों को सेंसर करने, सन्देहजनक व्यक्तियों को गिरफ्तार करने तथा धर्म विरोधियों को अत्यधिक शारीरिक कष्ट पहुँचाकर उनसे अपराध की स्वीकृति कराने तथा मृत्युदण्ड देने का अधिकार था। इस न्यायालय ने कठोरतापूर्वक अपना कार्य किया। इन न्यायालयों के निर्णय के विरुद्ध अन्तिम अपील केवल पोप ही सुन सकता था। स्पेन, इटली तथा नीदरलैण्ड्स के धर्म विरोधियों को कठोर दण्ड देकर उनको कुचल दिया गया। प्रथम 15 वर्षों में स्पेन में इस न्यायालय के आदेशानुसार 10,000 व्यक्तियों को जीवित जलाया गया तथा 50,000 व्यक्तियों को कठोर दण्ड दिया गया। कालान्तर में धार्मिक मामलों का राजनीतिक उद्देश्य के लिए भी प्रयोग किया गया।

प्रति धर्म सुधार आन्दोलन के परिणाम

पोप एवं उनके अन्य अनुयायियों के प्रयासों के परिणामस्वरूप प्रोटेस्टैण्ट धर्म की प्रगति रुक गई। स्पेन तथा इटली में इस नये धर्म को मानने वाला एक भी व्यक्ति नहीं रहा। दक्षिणी जर्मनी, फ्रांस, पोलैण्ड तथा स्विट्जरलैण्ड में कैथोलिक धर्म की पुनः स्थापना हुई। जहाँ के राजा कैथोलिक धर्म को मानने वाले थे, वहाँ प्रोटेस्टैण्टों पर भीषण अत्याचार हुए। अन्त में प्रोटेस्टैण्ट लोगों ने अपने कैथोलिक शासकों के विरुद्ध विद्रोह किए। 1562 ई. में फ्रांस में ह्यूगनोटों ने नियमित युद्ध प्रारम्भ किया और 8 वर्षों तक निरन्तर युद्ध करते रहे और अन्त में उन्होंने धार्मिक स्वतन्त्रता प्राप्त कर ली। 1598 ई. में प्रोटेस्टैण्टों को भी कैथोलिकों के समान धार्मिक स्वतन्त्रता प्राप्त हो गई। परन्तु लुई 14वें ने इसे समाप्त कर दिया और प्रोटेस्टैण्टों पर पुनः अत्याचार करना प्रारम्भ कर दिया।

स्पेन में प्रति धर्म सुधार आन्दोलन

स्पेन कैथोलिक धर्म का अनुयायी था। इसका शासक फिलिप द्वितीय प्रोटेस्टैण्ट धर्म को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए प्रयासरत था। इस समय स्पेन यूरोप का सबसे अधिक धनी देश समझा जाता था। उसने कैथोलिकों को अमेरिका में प्रचार करने की अनुमति दे दी थी। उसने फ्रांस तथा ऑस्ट्रिया को प्रोटेस्टैण्ट धर्म को कुचलने के लिए सहायता दी थी।

नीदरलैण्ड्स में प्रति धर्म सुधार आन्दोलन 

समुद्री धरातल से नीचा होने के कारण इस देश को नीदरलैण्ड्स कहा जाता था। इसमें बेल्जियम तथा हॉलैण्ड, दोनों ही सम्मिलित थे। वहाँ प्रोटेस्टैण्ट धर्म पर्याप्त उन्नति कर रहा था। इसकी उन्नति को रोकने के लिए चार्ल्स पंचम ने यहाँ के निवासियों पर अनेक प्रकार के अत्याचार किए। जब फिलिप के समय में ये अत्याचार काफी बढ़ गए, तब यहाँ के निवासियों ने विद्रोह कर दिया और अनेक गिरिजाघरों को नष्ट कर दिया। सम्राट ने ड्यूक ऑफ अल्वा को इस विद्रोह का दमन करने के लिए नीदरलैण्ड्स भेजा। अल्वा ने एक काउन्सिल बनाई, जिसका प्रमुख उद्देश्य प्रोटेस्टैण्टों को कुचलना और उनकी प्रगति को रोकना था। इस काउन्सिल ने लोगों पर इतने अधिक अत्याचार किए कि वे इसे 'खूनी काउन्सिल' (Bloody Council) के नाम से सम्बोधित करने लगे। परन्तु कुछ समय पश्चात् यहाँ की जनता ने स्वतन्त्रता प्राप्त की और 1581 ई. में यहाँ डच गणराज्य की स्थापना हो गई।

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