कौटिल्य का सप्तांग सिद्धान्त
B. A. III, Political Science II
प्रश्न 3. कौटिल्य के
सप्तांग सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।
अथवा कौटिल्य के
सप्तांग सिद्धान्त का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
कौटिल्य - सप्तांग सिद्धान्त का वर्णन और आलोचना
उत्तर - प्राचीन भारतीय
राजदर्शन में राज्य के सावयव रूप का उल्लेख मिलता है। तत्कालीन विद्वान् राज्य को
एक सजीव प्राणी मानते थे। 'ऋग्वेद' में संसार की कल्पना विराट् पुरुष के रूप में
की गई है और उसके अवयवों द्वारा सृष्टि के विभिन्न रूपों का बोध कराया गया है । मनु, भीष्म,शुक्र आदि प्राचीन
मनीषियों ने राज्य की कल्पना एक ऐसे जीवित जाग्रत शरीर के रूप में की है जिसके 7 अंग होते हैं।
कौटिल्य ने भी राज्य के आंगिक स्वरूप का समर्थन किया और राज्य को सप्त
प्रकृतियुक्त माना ।
कौटिल्य
के अनुसार राज्य की ये सात प्रकृतियाँ अथवा अंग इस प्रकार हैं-
स्वामी (राजा), अमात्य (मन्त्री),जनपद,दुर्ग,कोष,दण्ड तथा मित्र ।
कौटिल्य के अनुसार राज्य
रूपी शरीर के उपर्युक्त सात अंग होते हैं और ये सब मिलकर राजनीतिक सन्तुलन बनाए
रखते हैं। राज्य केवल उसी दशा में अच्छी प्रकार कार्य कर सकता है जब ये सातों अंग
पारस्परिक सहयोग तथा उचित रूप से अपना-अपना कार्य करें।
कौटिल्य का सप्तांग सिद्धान्त :-
कौटिल्य
ने अपने सप्तांग सिद्धान्त में राज्य के सात अंगों का उल्लेख किया है, जो
निम्न प्रकार है
(1) स्वामी (राजा):-
कौटिल्य ने राज्य के
अन्तर्गत 'स्वामी' (राजा) को अत्यन्त
महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। कौटिल्य के अनुसार राजा ऐसा व्यक्ति
होना चाहिए जो उच्च कुल में जन्मा हो, धर्म में रुचि रखने वाला
हो, दूरदर्शी हो,सत्यवादी हो, महत्त्वाकांक्षी
हो, परिश्रमी हो,गुणीजनों की
पहचान तथा उनका आदर करने वाला हो, शिक्षा प्रेमी हो, योग्य मन्त्रियों
को रखने वाला तथा सामन्तों पर नियन्त्रण रखने वाला हो । कौटिल्य के
अनुसार राजा में विवेक व परिस्थिति देखकर कार्य करने की क्षमता, प्रजा की सुरक्षा
व पोषण की क्षमता, मित्र-शत्रु की
पहचान तथा चापलूसों को पहचानने की योग्यता होनी चाहिए।
कौटिल्य के अनुसार राजा
को सैन्य संचालन,सेना को युद्ध की
शिक्षा,सन्धि, विग्रह, शत्रु की कमजोरी
का पता लगाने की कुशलता, दूरदर्शी आदि
गुणों से युक्त होना चाहिए। वह तेजस्वी, आत्मसंयमी, काम,
क्रोध, लोभ, मोह आदि से दूर
रहने वाला,मृदुभाषी किन्तु
दूसरों की मीठी बातों में न आने वाला,दूसरों की हँसी न उड़ाने वाला होना चाहिए। कौटिल्य के
अनुसार राजा को दण्डनीति,
राज्य संचालन, सैनिक शिक्षा, मानवशास्त्र, इतिहास, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि
विद्याओं का ज्ञाता होना चाहिए।
(2) अमात्य:-
कौटिल्य के अनुसार राज्य का दूसरा महत्त्वपूर्ण
अंग अमात्य अथवा मन्त्री है,जिसके बिना राजा द्वारा शासन संचालन कठिन ही नहीं,असम्भव है। चूँकि
राजकार्य बहुत अधिक होते हैं और राजा सब कार्य स्वयं नहीं कर सकता, अतः उसे ये कार्य
अमात्यों से कराने चाहिए । कौटिल्य ने अमात्य का महत्त्व स्पष्ट करते हुए कहा है
कि राज्य एक रथ है। जिस प्रकार रथ एक पहिये से नहीं चल सकता, उसी प्रकार
मन्त्रियों की सहायता के बिना राजा अकेले राज्य का संचालन नहीं कर सकता। अमात्य की
नियुक्ति के सम्बन्ध में कौटिल्य ने कहा है कि राजा को योग्य तथा निष्ठावान व्यक्तियों
को ही अमात्य के पद पर नियुक्त करना चाहिए। अपने सम्बन्धियों, सहपाठियों और
परिचितों को भी अमात्य के पद पर नियुक्त नहीं करना चाहिए , यदि वे पदानुरूप
योग्यता न रखते हों । प्रमादी,शराबी,व्यसनी,अहंकारी तथा वेश्यागामी व्यक्ति को भी अमात्य के
रूप में नियुक्त नहीं करना चाहिए,क्योंकि ऐसा व्यक्ति विश्वास के योग्य नहीं होता और विभिन्न
प्रलोभनों में फँसकर राज्य के गोपनीय तथ्यों को प्रकट कर देता है, जो राज्य और राजा, दोनों के लिए
अहितकर सिद्ध होता है।
अमात्यों की संख्या कितनी
हो, इसका निर्धारण
करने का कार्य कौटिल्य ने राजा पर छोड़ दिया है। वह राजकार्य की
आवश्यकतानुसार उनकी नियुक्ति कर सकता है। लेकिन कौटिल्य का सुझाव है कि राजकार्य
हेतु मन्त्रणा करने वालों की संख्या सीमित होनी चाहिए, क्योंकि अधिक
लोगों से की गई मन्त्रणा से गोपनीयता के भंग होने का खतरा रहता है।
कौटिल्य का यह भी सुझाव
है कि राजा राजकार्य के संचालन हेतु अमात्यों से परामर्श करे, किन्तु यदि उसे
उनके द्वारा दिया गया परामर्श राज्य हित के अनुकूल न लगे,तो ऐसी स्थिति
में वह अपने विवेकानुसार निर्णय लेने हेतु स्वतन्त्र है।
(3) जनपद:-
कौटिल्य ने राज्य का
तीसरा अंग जनपद बतलाया है। जनपद के अभाव में राज्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
इसके अन्तर्गत कौटिल्य ने जनता व भूमि को सम्मिलित किया है। उसका कहना है कि जनता
को स्वामिभक्त, करों को चुकाने
वाली व सम्पन्न होना चाहिए । भूमि के सम्बन्ध में कौटिल्य का कहना है कि उसमें वन, तालाब, खाने, नदी, उपजाऊ मिट्टी, सैनिक, किले, पर्वत, पशु और पक्षी
होने चाहिए।
कौटिल्य ने जनपद की
स्थापना का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। उसका मत है कि राजा को या तो दूसरे देशों
से मनुष्यों को बुलाकर अथवा अपने राज्य की जनसंख्या बढ़ाकर नये जनपदों की स्थापना
करनी चाहिए। प्रशासनिक दृष्टि से जनपद स्थानीय,द्रोणमुख,खार्वटिक और संग्रहण में बँटा होना चाहिए। एक गाँव की
जनसंख्या के सम्बन्ध में कौटिल्य का मत है कि एक गाँव में कम-से-कम 100 और अधिक-से-अधिक
500 घर होने चाहिए।
(4) दुर्ग:-
कौटिल्य ने कहा है कि
राज्य के लिए दुर्ग भी उतने ही आवश्यक हैं जितनी जनता, भूमि अथवा राजा ।कौटिल्य के अनुसार आक्रमण करने की दृष्टि से और अपने राज्य की
सुरक्षा के लिए दुर्ग आवश्यक हैं। दुर्ग मजबूत तथा सुरक्षित होने चाहिए, जिनमें भोजन-पानी
और गोला-बारूद का उचित प्रबन्ध होना चाहिए।
सुरक्षा
की दृष्टि से आवश्यक दुर्गों को कौटिल्य ने अग्र चार भागों में बाँटा है।
(i) औदक दुर्ग-चारों
ओर से स्वाभाविक जल (नदी,तालाब आदि) से घिरा/ टापू की भाँति प्रतीत होने वाला दुर्ग।
(ii) पार्वत दुर्ग-पर्वत की कन्दराओं अथवा बड़े-बड़े
पत्थरों की दीवारों से निर्मित दुर्ग।
(iii) धान्वन दुर्ग-जल और घास रहित भूमि (मरुस्थल)
में स्थित दुर्ग।
(iv) वन दुर्ग-चारों
ओर दलदल अथवा काँटेदार झाड़ियों से घिरा दुर्ग।
(5) कोष:-
कौटिल्य ने कोष को भी राज्य का आवश्यक अंग
बतलाया है, क्योंकि कोष
राज्य की समस्त गतिविधियों का आधार है। कौटिल्य के अनुसार राजा को अपने कोष में
निरन्तर वृद्धि करते रहना चाहिए। इस हेतु उसे कृषकों से उपज का छठा भाग,व्यापारिक लाभ का
दसवाँ भाग,पशु व्यापार से
अर्जित लाभ का पचासवाँ भाग तथा सोना आदि कर के रूप में प्राप्त करना चाहिए । कोष
के सम्बन्ध में कौटिल्य का निर्देश है कि राजा को कोष धर्मपूर्वक एकत्रित करना
चाहिए । कर उतने ही लगाने चाहिए जिसे जनता आसानी से दे सके।
(6) दण्ड (सेना):-
कौटिल्य दण्ड को राजा की
एक उल्लेखनीय प्रकृति मानता है। दण्ड से तात्पर्य सेना से है। उनके अनुसार दण्ड
राज्य की सम्प्रभुता को प्रदर्शित करता है। कौटिल्य के अनुसार राजा की शक्ति उसकी
सेना,गुप्तचर विभाग, पुलिस तथा न्याय
व्यवस्था में प्रकट होती है। कौटिल्य का मत है कि राज्य की सुरक्षा के लिए सेना का
विशेष महत्त्व है। जिस राजा के पास अच्छा सैन्य बल होता है,उसके मित्र तो
मित्र बने ही रहते हैं,साथ ही शत्रु भी
मित्र बन जाते हैं । सैनिक अस्त्र-शस्त्र प्रयोग में निपुण, वीर, स्वाभिमानी और
राष्ट्रभक्त होने चाहिए। कौटिल्य के अनुसार सैनिकों को अच्छा वेतन व अन्य सुविधाएँ
प्रदान करनी चाहिए, जिससे वे
निश्चिन्त होकर देश-सेवा में तत्पर रहें।
(7) मित्र :-
सप्तांग सिद्धान्त के
अन्तर्गत कौटिल्य ने कहा है कि राजा को अपने पड़ोसी राज्यों से मित्रता करनी चाहिए, जिससे आवश्यकता
पड़ने पर उनकी सहायता प्राप्त की जा सके। मित्र वंश-परम्परागत, विश्वसनीय तथा
हितैषी हों और राजा व उसके राज्य को अपना समझते हों । परन्तु कौटिल्य ने यह भी कहा
है कि मित्र बनाने से पहले राजा को उन्हें परखना चाहिए, जिससे वे धोखा न
दे सकें।
कौटिल्य के सप्तांग सिद्धान्त की आलोचना :-
कौटिल्य
के सप्तांग सिद्धान्त की अग्रलिखित आधारों पर आलोचना की जाती है
(1) कौटिल्य के
सप्तांग सिद्धान्त से हमें राज्य के शरीर सिद्धान्त का आभास मिलता है। आलोचकों के
अनुसार राज्य को एक शरीर मानना अनुचित है।
(2) कौटिल्य ने दुर्ग,कोष,सेना और मित्र को
राज्य का आवश्यक अंग माना है। यह बात सत्य है कि ये सभी अंग राज्य के लिए आवश्यक
हैं परन्तु इन्हें राज्य का आधारभूत तत्त्व नहीं माना जा सकता। आलोचकों के अनुसार
प्रत्येक राज्य में सेना पाई जाती है, उस पर बल दिया जाता है, किन्तु सेना के अभाव में किसी राज्य का अस्तित्व समाप्त
नहीं हो जाता।
(3) आलोचकों के अनुसार सम्प्रभुता, सरकार, जनसंख्या और
भूभाग आधुनिक राज्य के आवश्यक अंग हैं । परन्तु कौटिल्य ने कहीं भी इनका स्पष्ट
वर्णन नहीं किया है।
(4) कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित सप्तांग सिद्धान्त
राजतन्त्रात्मक शासन के लिए ही उपयुक्त है। इसमें प्रजातन्त्र की पूर्ण उपेक्षा की
गई है।
गुणवत्तापूरण अध्ययन सामग्री
ReplyDeleteHelpful ☺️
ReplyDeleteThanks
ReplyDeleteNice detail
DeleteVery helpful 👍
ReplyDeleteThank you for this
ReplyDeleteIt is so helpful 🙏
👍👍👍
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा स्तुति किया गया है
ReplyDeleteVery helpful
ReplyDeleteHelp ful
ReplyDeleteअच्छा है
ReplyDeleteKautilya mahan the
ReplyDeleteBahut acha good 💯
ReplyDeleteVery help💙
ReplyDeleteThis is very good defain
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा👍
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