नेपोलियन तृतीय - विदेश नीति , परिणाम

B.A. II, History II 
प्रश्न 14. नेपोलियन तृतीय की विदेश नीति की विवेचना कीजिए। 
उत्तर नेपोलियन तृतीय की यह अभिलाषा थी कि उसके साम्राज्य का दूरदूर तक विस्तार हो। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने औपनिवेशिक नीति का सहारा लिया। इस नीति में सफलता प्राप्त करने के लिए उसने कूटनीति तथा सैनिक शक्ति, दोनों का प्रयोग किया। उसने अपने उन उपनिवेशों की प्राप्ति के लिए, जिनका 1815 ई. की वियना सन्धि द्वारा अपहरण कर लिया गया था, को आर्थिक सहायता देकर अपना बनाने का प्रयास किया। नेपोलियन तृतीय की वैदेशिक(विदेश) नीति को इतिहासकारों द्वारा दो कालों में विभक्त किया गया है
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नेपोलियन तृतीय 

(1) प्रथम काल 1852 से 1860 ई. तक, तथा
(2) दूसरा काल 1860 से 1870 ई. तक माना जाता है।
अपनी वैदेशिक नीति के प्रथम काल में उसने विस्मयजनक उपलब्धि हासिल की, जिससे अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में फ्रांस के गौरव की आशातीत वृद्धि हुई। परन्तु वैदेशिक नीति के द्वितीय काल में उसे सर्वत्र असफलता ही प्राप्त हुई, जिसके कारण उसे पतन के गर्त में गिरकर अपने साम्राज्य का अन्त देखना
पड़ा।

वैदेशिक(विदेश) नीति का प्रथम काल (1852-1860) -

नेपोलियन तृतीय को ज्ञात था कि लुई फिलिप के पतन का प्रमुख कारण उसकी वैदेशिक नीति का अस्थिर होना था। अतः उसने अपने चाचा नेपोलियन प्रथम के समान ही अपनी वैदेशिक नीति को सुदृढ़, साहसपूर्ण और चमत्कारी बनाने का प्रयास किया, जिससे फ्रांस के गौरव में वृद्धि की जा सके। इस कार्य को उसने राष्ट्रपति पद पर आसीन होते ही आरम्भ कर दिया। उसके द्वारा सम्पन्न किए वैदेशिक नीति के कार्यों का विवरण निम्न प्रकार है

(1) पोप की प्रधानता की पुनस्थापना -

इटली में मेजिनी, गैरीबाल्डी व अन्य देशभक्तों ने 1848 ई. की क्रान्ति के समय पोप के राज्य की समाप्ति करके रोम में गणतन्त्र की स्थापना कर दी थी। नेपोलियन तृतीय ने राष्ट्रपदि पद की प्राप्ति के तुरन्त बाद ही एक विशाल फ्रांसीसी सेना रोम भेजी। उस सेना ने रोम के गणतन्त्रवादियों का दमन किया और पोप को पुनः राज्य सिंहासन पर आसीन करके उसकी प्रधानता की पुनर्स्थापना की। नेपोलियन तृतीय के इस कार्य से फ्रांस की कैथोलिक जनता तथा पादरी वर्ग उसके कट्टर समर्थक बन गए। दूसरी ओर उसको पोप का समर्थन भी प्राप्त हो गया।

(2) क्रीमिया युद्ध में टर्की को सहायता प्रदान करना -

 क्रीमिया युद्ध में नेपोलियन तृतीय ने रूस के जार के विरुद्ध टर्की का पक्ष लिया। इसका प्रमुख कारण पूर्व में रूसी प्रभाव का ह्रास करके टर्की के प्रभाव में वृद्धि करना था। नेपोलियन तृतीय को अपने प्रयास में बड़ी सफलता प्राप्त हुई। फ्रांसीसी सेना के सहयोग से रूस के जार को तुर्क सुल्तान के साथ सन्धि करने के लिए विवश होना पड़ा। 1853 ई. में हुए क्रीमिया युद्ध में यद्यपि 25 हजार फ्रांसीसी मारे गए, अरबों रुपया व्यय हुआ, किन्तु फ्रांस के साम्राज्य में किसी प्रकार भी विस्तार नहीं किया जा सका। इसका लाभ केवल यह हुआ कि 1856 ई. में फ्रांस की राजधानी पेरिस में सम्राट् नेपोलियन तृतीय की अध्यक्षता में सन्धि सम्पन्न हुई। उस सन्धि को सम्पन्न करने के लिए रूस के जार को पेरिस जाना पड़ा। केवल फ्रांसीसियों ने ही नहीं, वरन् सम्पूर्ण यूरोप ने रूस के जार को सन्धि की धाराओं का पालन करने के लिए विवश होते हुए देखा। इस कार्य से अन्तर्राष्ट्रीय जगत् में उसकी जो ख्याति हुई, वह फ्रांस के लिए कुछ कम गौरव की बात नहीं थी। सम्पूर्ण यूरोप में फ्रांस की धाक जम गई और फ्रांस की सैनिक शक्ति यूरोप में सर्वश्रेष्ठ समझी जाने लगी। पेरिस को यूरोप की राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र माना जाने लगा। ,

(3) रूमानिया सम्बन्धी नीति

नेपोलियन तृतीय राष्ट्रीयता के विचारों का समर्थक था। रूमानिया के देशभक्तों ने ऑस्ट्रिया के सम्राट् एवं तुर्क सुल्तान के समक्ष राष्ट्रीयता के आधार पर अपने लिए नवीन राष्ट्र का निर्माण किए जाने की माँग प्रस्तुत की। नेपोलियन तृतीय ने उनकी माँग का प्रभावशाली ढंग से समर्थन किया, जिसके कारण ऑस्ट्रिया के सम्राट् एवं तुर्क सुल्तान को देशभक्तों की माँग पूरी करने के लिए विवश होना पड़ा। उनको माल्डेविया और वाल्लाचिया के प्रान्तों को संयुक्त करके रूमानिया के नवीन राष्ट्र का निर्माण करना पड़ा, जिससे फ्रांस की अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति में अत्यधिक वृद्धि हुई।

(4) इटली सम्बन्धी नीति

इटली के उत्तरी भाग में लोम्बार्डी, वेनेशिया, टुस्कने, परमा, मोडिना आदि प्रमुख प्रान्त ऑस्ट्रिया साम्राज्य में सम्मिलित थे। इटली के देशभक्त अपने को ऑस्ट्रिया के विदेशी शासन की गुलामी से मुक्त कराना चाहते थे। अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए इटली के देशभक्तों ने सार्जीनिया और पीडमॉण्ट के शासक विक्टर इमैनुअल द्वितीय के नेतृत्व में 1859 ई. में ऑस्ट्रिया के विरुद्ध मोर्चा लेने का निश्चय किया। इसका प्रमुख कारण यह था कि वे इटली का राष्ट्रीय एकीकरण करके उसे एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में परिवर्तित करना चाहते थे। ऑस्ट्रिया का सम्राट इटली के देशभक्तों के इस आन्दोलन का दमन करना चाहता था। उधर सार्जीनिया के शासक विक्टर इमैनुअल द्वितीय का प्रधानमन्त्री कैवूर बड़ा ही दूरदर्शी और कुशल राजनीतिज्ञ था। उसे ज्ञात था कि बिना किसी विदेशी शक्ति का सहयोग प्राप्त किए इटली के एकीकरण का कार्य सम्पन्न नहीं किया जा सकेगा। अतः कैवूर ने गुप्त रूप से प्लोम्बियर्स पहुँचकर फ्रांस के सम्राट् नेपोलियन तृतीय के साथ सन्धि की। इस सन्धि के अनसार निश्चय किया गया कि फ्रांस के दो लाख सैनिक ऑस्ट्रिया के विरुद्ध पीडमॉण्ट की सहायतार्थ भेजे जाएँगे तथा इस सहायता के उपलक्ष्य में फ्रांस को नीस और सेवॉय क्षेत्र प्राप्त होगा।
इतना होते हुए भी वास्तविकता यही है कि उसकी वैदेशिक नीति अपने प्रथम काल में 1852 से 1860 . तक पूर्ण रूप से सफलता प्राप्त करती रही, जिसमें फ्रांस की सीमाओं का भी विस्तार होता रहा और देश के गौरव एवं शक्ति में भी वृद्धि होती रही।

वैदेशिक नीति का द्वितीय काल (1860-1870)-

 अपनी वैदेशिक नीति के द्वितीय काल में नेपोलियन तृतीय को निरन्तर असफलताओं का मुंह देखना पड़ा। इसके कारण फ्रांस के राष्ट्रीय गौरव को महान् क्षति सहनी पड़ी और फ्रांस की अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति क्षीण पड़ गई। इस काल की विभिन्न समस्याओं का वर्णन निम्न प्रकार है-

(1) मेक्सिको की समस्या-

1833 ई. में मेक्सिको में स्पेन के विदेशी शासन का अन्त करके गणराज्य की स्थापना की गई थी। परन्तु वहाँ की गणतन्त्रीय सरकार देश की आर्थिक स्थिति में पर्याप्त सुधार नहीं कर सकी, जिसके कारण उसे स्पेन, फ्रांस और इंग्लैण्ड से भारी मात्रा में ऋण लेना पड़ा। धीरे-धीरे ऋण का भार बढ़ता चला गया। मेक्सिको की सरकार उस ऋण की अदायगी नहीं कर सकी। उस समय वहाँ के विभिन्न राजनीतिक दलों में भारी मतभेद था। 1861 ई. में गणतन्त्रवादी बेनिटो ज्वारेज ने सत्ता पर अधिकार कर लिया। स्पेन, इंग्लैण्ड और फ्रांस असन्तुष्ट थे, क्योंकि वह उनके ऋणों की अदायगी न करने की घोषणा कर चुका था। उस काल में दास प्रथा की समस्या को लेकर संयुक्त राज्य अमेरिका के उत्तरी और दक्षिणी राज्यों में भी भीषण युद्ध छिड़ा हुआ था। अतः नेपोलियन तृतीय ने इस स्थिति का लाभ उठाने की योजना बनाई। उसने विचार किया कि यदि वह फ्रांसीसी सेना भेजकर मेक्सिको पर अधिकार कर ले और ऑस्ट्रियन सम्राट् फ्रांसिस जोजफ के भाई बेल्जियम नरेश लियोपोल्ड के दामाद मैक्समिलियन को वहाँ का शासक बना दे, तो ऑस्ट्रिया और बेल्जियम के साथ बिगड़े सम्बन्धों में सुधार हो जाएगा तथा फ्रांस के पूँजीपति भी मेक्सिको को दिए गए ऋण के वसूल होने की आशा से सन्तुष्ट हो जाएँगे।

परिणाम

नेपोलियन तृतीय द्वारा मेक्सिको में आर्क ड्यूक मैक्समिलियन को अकेला छोड़ दिए जाने के कार्य को यूरोप में सर्वथा स्वार्थपूर्ण और घृणित समझा जाने लगा। सर्वत्र उसकी निन्दा की जाने लगी। मेक्सिको पर किए गए आक्रमण में फ्रांस का करोड़ों रुपयों का व्यय हो चुका था, अत: फ्रांस के पूँजीपति उसके विरुद्ध हो गए। ऑस्ट्रिया का सम्राट् और बेल्जियम का शासक, दोनों ही उसे आर्क ड्यूक मैक्समिलियन की मृत्यु का कारण मानकर उसके कट्टर शत्रु बन गए। इस प्रकार नेपोलियन तृतीय ने मेक्सिको की समस्या में हाथ डालकर अपनी तथा अपने देश की प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुँचाया। उसे फ्रांसीसी सेना मेक्सिको भेजने से पूर्व यह सोच लेना चाहिए था कि जिस समय संयुक्त राज्य अमेरिका 'मुनरो सिद्धान्त का उल्लेख करके उसके कार्य का विरोध करेगा, तो उसकी क्या स्थिति होगी। यदि वह पहले ही समस्या के आदि और अन्त तथा परिणामों पर अच्छी तरह सोच-विचार कर लेता, तो सम्भव था कि वह मेक्सिको की समस्या में हस्तक्षेप न करता और उसके कारण होने वाली मानहानि तथा अप्रतिष्ठा से बच जाता। इसलिए उसके बारे में यह ठीक ही कहा गया है कि नेपोलियन तृतीय को स्वप्न देखने और विचार करने के अन्तर का ज्ञान नहीं था।

(2) पोलैण्ड सम्बन्धी नीति -

नेपोलियन तृतीय ने पोलैण्ड के देशभक्तों को अपना देश रूस के प्रभाव से मुक्त कराने के लिए उत्साहित किया। इस कार्य के द्वारा वह रूस के जार.को नीचा दिखाना चाहता था। उसके उकसाने पर पोलैण्ड के देशभक्तों ने रूस के शासन के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। रूस के जार ने विद्रोह का दमन करने के लिए एक विशाल रूसी सेना पोलैण्ड भेजी। उस अवसर पर नेपोलियन तृतीय पोलिश देशभक्तों की कोई सहायता नहीं कर सका, जिसके कारण रूस के जार को पोलैण्ड के विद्रोह का दमन करने में कोई कठिनाई नहीं उठानी पड़ी। सहस्रों पोलिश देशभक्तों को रूसी सैनिकों ने गोलियों से भून डाला तथा सैकड़ों देशभक्तों को रूस के जार ने साइबेरिया के शीतल उजाड़ ठंड में ठिठुरकर मर जाने के लिए निर्वासित कर दिया। नेपोलियन तृतीय के इस कार्य से फ्रांस पोलैण्ड, दोनों ही देशों के राष्ट्रवादी उसके विरुद्ध हो गए और जार के साथ उसका मनमुटाव हो गया।

(3) जर्मन नीति की असफलता-

नेपोलियन तृतीय जर्मनी के राष्ट्रीय एकीकरण का समर्थक था। इसी कारण 1868 ई. में जब श्वेजबिगहोस्टीन के प्रश्न पर प्रशा और ऑस्ट्रिया के मध्य युद्ध आरम्भ होने की सम्भावना उत्पन्न हुई, तो उसने राइन नदी के किनारे पर स्थित कुछ प्रान्तों की प्राप्ति के लालच में फँसकर ऑस्ट्रिया की सहायता से मुँह मोड़ लिया। प्रशा के चांसलर बिस्मार्क ने स्वयं सम्राट् नेपोलियन तृतीय से मिलकर उसे युद्ध में तटस्थ रहने पर राइन नदी के तटवर्ती प्रदेश के कुछ प्रान्त देने का वचन दिया था। नेपोलियन का विचार यह था कि इस युद्ध से प्रशा और ऑस्ट्रिया की शक्ति क्षीण पड़ जाएगी और उसका यूरोपीय राज्यों पर प्रभाव बढ़ जाएगा तथा फ्रांस की सीमाएँ भी राइन नदी के तट को स्पर्श करने लगेंगी। अतः नेपोलियन ने बिस्मार्क के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। प्रशा ने सेडोवा के युद्ध में ऑस्ट्रिया को बुरी तरह पराजित करके उसका जर्मनी से बहिष्कार कर दिया, जिसके कारण सम्पूर्ण जर्मनी पर प्रशा के प्रभुत्व की स्थापना हो गई और प्रशा का एक महान् शक्ति के रूप में उपस्थित रहना फ्रांस के लिए नया संकट बन गया। फ्रांस के विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता नेपोलियन तृतीय को इसके लिए दोषी समझने लगे। राष्ट्रीय असेम्बली में दीयर्स ने गरजते हुए कहा कि "सेडोवा के रणक्षेत्र में ऑस्ट्रिया की नहीं, फ्रांस की पराजय हुई है।"


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