संगठन का अर्थ और परिभाषा

B. A. III, Political Science I 

प्रश्न 6. संगठन की परिभाषा दीजिए तथा संगठन के प्रमुख सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।'

अथवा ‘’लोक प्रशासन के सन्दर्भ में संगठन की परिभाषा दीजिए। संगठन के विभिन्न सिद्धान्तों की समीक्षा कीजिए।

उत्तर- संगठन का अर्थ और परिभाषाएँ

संगठन के सिद्धान्त कुछ विद्वानों की मान्यता है कि संगठन के सिद्धान्त ही नहीं हैं और जो कुछ हैं भी, वे जन प्रचलित 'लोक कल्पनाएँ' (Myths) तथा 'कहावतें' (Proverbs) हैं। परन्तु यह बात सत्य नहीं है। यह सम्भव हो सकता है कि इन सिद्धान्तों में मतभेद हो। अत: हमें सैद्धान्तिक मतभेद से अलग हटकर संगठन के सिद्धान्तों का व्यावहारिक दृष्टि से अध्ययन करना है। लूथर गुलिक, हेनरी फेयोल, उर्विक, टेलर, विलोबी आदि विभिन्न विद्वानों ने संगठन के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया

संगठन के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं

(1) पद सोपान का सिद्धान्त

पद सोपान का सिद्धान्त संगठन का बहुत ही लोकप्रिय सिद्धान्त है। विभिन्न विद्वानों का मत है कि संगठन के प्रवाह को अबाध गति से चलते रहने के लिए आवश्यक है कि कर्मचारियों के परस्पर सम्बन्धों की एक न टूटने वाली जंजीर बना लेनी चाहिए या उसकी एक सीढ़ी बना ली जानी चाहिए। । सरकारी संगठन के कार्य को अनेक विभागों एवं उप-विभागों में बाँटा जाता है। इन समस्त विभागों एवं उप-विभागों की देखरेख के लिए एक सर्वोच्च अधिकारी रखा जाता है। उस सर्वोच्च अधिकारी के नीचे उच्चतर अधिकारी होते हैं। इस प्रकार यह सिलसिला लगातार चलता रहता है। अन्त में निम्नतम कर्मचारी होते हैं। प्रत्येक कर्मचारी अपने बड़े अधिकारी के माध्यम से छोटे-से-छोटे अधिकारी अथवा कर्मचारी शिखर के अधिकारी के प्रति उत्तरदायी होता है।

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(2) आदेश की एकता का सिद्धान्त

संगठन की सुदृढ़ता के लिए प्रत्येक कर्मचारी को यह ज्ञात रहना आवश्यक है कि वह किस अधिकारी से आदेश लेगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि वह अपने बड़े अधिकारी की बात माने और उच्चतर अथवा उच्चतम अधिकारी की बात अथवा आदेश का पालन न करे। इस सिद्धान्त में एक कर्मचारी एक ही व्यक्ति के अधीन रहता है। सर्वोच्च अधिकारी अपने आदेशों का पालन उसी तात्कालिक उच्चाधिकारी के माध्यम से करता रहता है। इस सिद्धान्त में यह लाभ रहता है कि एक व्यक्ति को स्पष्टतया यह ज्ञात रहता है कि उसे किससे आदेश लेना है।

(3) नियन्त्रण का क्षेत्र

यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि एक उच्च अधिकारी कितने अधीनस्थ कर्मचारियों के कार्यों की देखभाल कर सकता है। कर्मचारियों के नियन्त्रण से सम्बन्धित इस सिद्धान्त को 'नियन्त्रण के क्षेत्र' के नाम से जाना जाता है। डिमॉक ने इस सिद्धान्त को परिभाषित करते हुए लिखा है कि "नियन्त्रण का विस्तार क्षेत्र किसी उद्यम के मुख्य निष्पादक तथा उसके मुख्य साथी कार्यालयों के मध्य सीधे तथा सामान्य संचार की संख्या और क्षेत्र हैं।"

नियन्त्रण के विस्तार की सीमा का प्रश्न इसलिए उठता है कि मानवीय ध्यान का क्षेत्र सीमित होता है। फिर भी विचारक इस बात पर एकमत नहीं हैं कि नियन्त्रण की सीमा क्या हो

हेनरी फेयोल का मत है कि "एक बड़े उद्यम के शिखर स्थित प्रबन्धक के नीचे पाँच या छह से अधिक अधीनस्थ कर्मचारी नहीं होने चाहिए।"

वास्तविकता तो यह है कि किसी आदर्श संख्या की खोज में समय बर्बाद नहीं करना चाहिए। एक अधिकारी कितने लोगों के कार्यों की देखभाल कर सकता है, इसे निर्धारित करने वाले कुछ तत्त्व हैं।

 लूथर गुलिक ने ऐसे तीन तत्त्वों का उल्लेख किया है(i) कार्य, (ii) समय, और (iii) स्थान।

कुछ विचारकों ने इसमें चौथा तत्त्व और जोड़ दिया है, वह है व्यक्तित्व। -

कार्य से तात्पर्य है जिसकी देखभाल अधिकारी को करनी है। यदि कार्य एक प्रकृति या समान स्तर का है, तो वह काफी लोगों के कार्यों की देखभाल कर सकता है। जैसे कि एक बड़ा इंजीनियर अनेक छोटे इंजीनियरों के कार्यों की देखभाल कर सकता है। यदि कार्य की प्रकृति भिन्न-भिन्न है, तो नियन्त्रण का विस्तार सीमित होगा। समय का तात्पर्य संगठन की आयु से है। यदि वह पुराना व स्थायी है, तो नये की तुलना में उसका नियन्त्रण क्षेत्र बड़ा हो सकता है। स्थान से तात्पर्य यह है कि देखे जाने वाले कर्मचारियों के कार्यालय भौगोलिक दृष्टि से कितनी दूर हैं। यदि दूरी अधिक है तो नियन्त्रण का क्षेत्र सीमित होगा। संक्षेप में, नियन्त्रण का विस्तार क्षेत्र किसी अधिकारी को निरीक्षण-पर्यवेक्षण शक्ति व उसके व्यक्तित्व पर निर्भर करता है।

(4) केन्द्रीकरण बनाम विकेन्द्रीकरण का सिद्धान्त

केन्द्रीकरण से तात्पर्य है कि एक सर्वोच्च सत्ता ही अधिक-से-अधिक कार्य करती है अर्थात् समस्त सत्ता एक व्यक्ति अथवा समूह के हाथ में केन्द्रित होती है। स्थानीय तथा प्रान्तीय शासन को बहुत कम स्वतन्त्रता मिलती है अर्थात् उनको सर्वोच्च सत्ता के हाथ की कठपुतली बना रहना पड़ता है।

विकेन्द्रीकरण के सिद्धान्त के अन्तर्गत अधीनस्थ कर्मचारियों को अपनी स्वतन्त्र बुद्धि द्वारा काम करने का अधिक-से-अधिक अवसर देकर शासन के

कार्य को स्थानीय इकाइयों में बाँटा जाता है; जैसेएक देश को प्रान्तों में, प्रान्तों को मण्डलों में तथा मण्डलों को जिलों में बाँट दिया जाता है। एक जिले की समस्या जितनी गम्भीरता से एक जिलाधीश समझता है, उतना राज्यपाल नहीं समझ सकता, क्योंकि जिलाधीश को जनता से अधिक सम्पर्क रखना पड़ता है। विकेन्द्रीकरण में सत्ता को अधीनस्थ कर्मचारियों के मध्य बाँट दिया जाता है। केन्द्र को केवल राष्ट्रव्यापी कार्य करने पड़ते हैं या अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में उसकी जिम्मेदारी अधिक होती है, पर स्थानीय संस्थाओं को गृह व्यवस्था सम्बन्धी लगभग सभी समस्याओं की जिम्मेदारी सौंप दी जाती है। वह अपने कार्यों के लिए केन्द्र को जवाब नहीं देती है। अमेरिका में यही व्यवस्था चलती है।

(5) समन्वय-

समन्वय एक ऐसी प्रबन्धकीय प्रक्रिया है जो संगठन के सभी अंगों में पारस्परिक तालमेल स्थापित करती है, जिससे आपस में टकराव और कार्य पुनरावृत्ति की स्थिति न हो तथा उत्पादन लक्ष्यों को प्राप्त करने में सब आपस में सहयोग देते हों। संगठन में समन्वय प्रायः दो प्रकार से स्थापित किया जाता है। प्रथम, औपचारिक तथा द्वितीय, अनौपचारिक। जब पूर्व सिद्धान्त नियोजित एवं निर्धारित कर लिए जाते हैं, तो यह औपचारिक समन्वय कहलाता है और विभिन्न स्तरों के कर्मियों और इकाइयों के साथ-साथ कार्य करने से जो समन्वय स्थापित होता है, वह अनौपचारिक समन्वय कहलाता है।

(6) एकीकत बनाम स्वतन्त्र व्यवस्था

एकीकत व्यवस्था से अभिप्राय है प्रशासन की समस्त इकाइयों अथवा संगठनों को किसी एक शासन सूत्र के माध्यम से मुख्य कार्यपालिका के नियन्त्रण में लाना। एकीकृत व्यवस्था में सभी प्रशासनिक इकाइयाँ एक ही प्रधान के अधीन रहती हैं और आपस में सुसम्बद्ध होती हैं। इसमें मुख्य कार्यपालिका की शक्ति विभिन्न स्तरों से होती हुई नीचे तक पहुँचती है, यथा इंग्लैण्ड की शासन व्यवस्था।

स्वतन्त्र शासन व्यवस्था में संविधान द्वारा शासन सत्ता को समान स्तर की अनेक इकाइयों, उप-इकाइयों तथा निकायों में बाँट दिया जाता है। इसमें सत्ता की प्रत्येक इकाई अपनी संवैधानिक सीमाओं में स्वतन्त्र होती है। स्वतन्त्र व्यवस्था में इकाइयों का उत्तरदायित्व अलग-अलग होता है। अमेरिका में ऐसी ही स्वतन्त्र शासन व्यवस्था है।

संगठन के प्रमुख सिद्धान्तों का अध्ययन करने के उपरान्त हम पाते हैं कि प्रत्येक सिद्धान्त के अपने पक्ष व विपक्ष हैं, अतः संगठन के आदर्श रूप के लिए सभी सिद्धान्तों को उचित रूप से अपनाना चाहिए।

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