टी. एच. ग्रीन के स्वतन्त्रता,अधिकार और दण्ड सम्बन्धी विचार
प्रश्न 07’ ग्रीन के स्वतन्त्रता, अधिकार एवं दण्ड सम्बन्धी विचारों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
अथवा पाश्चात्य
राजनीतिक चिन्तन को टी. एच. ग्रीन के योगदान की समीक्षा कीजिए।
"मानव चेतना स्वतन्त्रता चाहती है, स्वतन्त्रता में
अधिकार निहित है और अधिकार राज्य की माँग करते हैं।" बार्कर
के इस कथन के सन्दर्भ में ग्रीन के राजदर्शन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
ग्रीन का जन्म 6
अप्रैल, 1836
को इंग्लैण्ड में यॉर्कशायर जिले के बिरकिन
नामक स्थान पर हुआ था। उसने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में इतिहास, तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, आध्यात्मशास्त्र,
शिक्षा तथा दर्शन का इतिहास आदि विभिन्न विषय पढ़ाये। उसने
सार्वजनिक मामलों तथा व्यावहारिक राजनीति में भी अपनी रुचि प्रदर्शित की। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में उसने आदर्शवादी विचारधारा को लोकप्रिय
बनाने का कार्य किया। 46 वर्ष की अल्पायु में ही उसका
देहावसान हो गया।
ग्रीन की रचनाएँ -
ग्रीन के प्रमुख ग्रन्थ निम्नलिखित हैं –
(1)
Lectures on English Revolution
(2)
Lectures on the Principles of Political Obligation
(3) Liberal Legislation and Freedom of Contract.
ग्रीन के स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचार –
मिल
व बेन्थम की भाँति ग्रीन भी स्वतन्त्रता का प्रेमी था, परन्तु वह इन
विद्वानों की भाँति 'बन्धनों का अभाव’ नकारात्मक मानता है। ग्रीन के अनुसार,"वास्तविक स्वतन्त्रता आदर्श उद्देश्यों की इच्छा करने की सुविधा को कहते
हैं।" दूसरे शब्दों में, स्वतन्त्रता
वह स्थिति है जिसके द्वारा मनुष्य उस वस्तु अथवा सुख को प्राप्त कर सके जो सामाजिक
और नैतिक दृष्टिकोण से प्राप्ति योग्य हो । ग्रीन के अनुसार, “शिक्षा, स्वास्थ्य, मद्य-निषेध
आर्थिक उन्नति सम्बन्धी राज्य के कार्यों से व्यक्तियों की स्वतन्त्रता कम नहीं
होती है।"
यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि ग्रीन हीगल के इस
दृष्टिकोण से तो सहमत है कि राज्य के अन्दर ही स्वतन्त्रता सम्भव है, परन्तु वह हीगल के
इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं है कि स्वतन्त्रता केवल राज्य की आज्ञापालन करने में ही
निहित है। ग्रीन ने नागरिकों को सविनय अवज्ञा करने का भी अधिकार दिया है।
जहाँ तक व्यक्ति की स्वतन्त्रता का प्रश्न है, ग्रीन ने काण्ट का
अनुसरण किया है। उसने स्वतन्त्रता की परिभाषा करते हुए लिखा है कि "स्वतन्त्रता का अभिप्राय उन कार्यों को करने व सकारात्मक शक्ति से है जो करने
या उपभोग करने लायक है।" ग्रीन से पहले बेन्थम व
उसके अनुयायियों ने प्रतिबन्धों के अभाव को ही स्वतन्त्रता माना था। ग्रीन उसे
नकारात्मक स्वतन्त्रता बताता है और उसने अपनी सकारात्मक स्वतन्त्रता की व्याख्या
की। ग्रीन ने बताया कि इस प्रकार की स्वतन्त्रता मिल जाने का क्या परिणाम होता है।
इस स्वतन्त्रता से मनुष्य नैतिक चेतना के आदेशों का पालन कर लेने से मुक्ति
प्राप्त कर लेता है। इसका अर्थ है कि स्वतन्त्र मनुष्य ऐसे कार्यों को करने की
मुक्ति प्राप्त कर लेता है, जिनसे वह अपना उच्चतम विकास कर
सकता है। बार्कर ने ग्रीन की स्वतन्त्रता के दो रूप बतलाए हैं -
(1) सकारात्मक स्वतन्त्रता-
स्वतन्त्रता सकारात्मक होती है, यह हस्तक्षेप अभाव
मात्र नहीं है। इसका सही अर्थ है इच्छित कार्यों को करने की सुविधा। यह व्यक्ति को
इस बात का अवसर प्रदान करते हैं कि वह कुछ कार्य कर सके, ऐसे
कार्य जिनसे मनुष्य अपना नैतिक विकास कर सकने में सक्षम हो। इस स्वतन्त्रता का यह
अर्थ बिल्कुल नहीं है कि व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति द्वारा अपने लिए कुछ करा सके।
(2) निश्चयात्मक स्वतन्त्रता -
स्वतन्त्रता कुछ काम करने का अवसर देती है। लेकिन इन
कार्यों का स्वरूप निश्चयात्मक होता है अर्थात् एक निश्चित कार्य करने की
स्वतन्त्रता, कोई ऐसा कार्य जो किए जाने योग्य है, न कि प्रत्येक
कार्य। कुछ कार्य का अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति अच्छे-बुरे हर कार्य करने के लिए
स्वतन्त्र है। जुआ खेलना, शराब पीना, चोरी
करना आदि बातों के लिए छूट देना स्वतन्त्रता नहीं है। एक व्यक्ति को पतन की ओर ले
जाने वाले कार्यों को करने की छूट नहीं दी जा सकती। केवल उचित कार्यों को, ऐसे
कार्यों को जा हम आत्म-प्राप्ति में सहायक हों, करने की
स्वतन्त्रता है। ऐसे कार्य करने का एक व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का दूसरे किसी
व्यक्ति की ऐसी ही स्वतन्त्रता से कोई विरोध नहीं हो सकता, क्योंकि
सबका लक्ष्य एक ही है। इसलिए यह स्वतन्त्रता दूसरों के साथ मिलकर करने योग्य कामों
को करने की निश्चयात्मक स्वतन्त्रता है।
ग्रीन की स्वतन्त्रता की अवधारणा में निम्न बातें भी
सम्मिलित हैं -
(1) स्वतन्त्रता का अर्थ आत्म-सन्तुष्टि नहीं है-
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ग्रीन स्वतन्त्रता
को प्रत्येक कार्य करने की छूट नहीं मानता और न ही स्वतन्त्रता और स्वच्छन्दता को
पर्यायवाची मानता है। उसका विश्वास है कि स्वतन्त्रता राज्य के हस्तक्षेप से उचित
क्षेत्र में ही बनी रह सकती है। ग्रीन की स्वतन्त्रता विधेयात्मक है। आत्मपरक एवं
आन्तरिक होने के साथ-साथ यह वास्तविक व सकारात्मक भी है। कानून व्यक्तिगत कानून का
रक्षक है।
(2) स्वतन्त्रता मानव चेतना की एक विशेषता है -
ग्रीन के अनुसार मनुष्य की आत्म चेतना के विकास के लिए
स्वतन्त्रता का होना अनिवार्य है। मानव चेतना विश्व चेतना का एक अंश है और विश्व
चेतना का सार स्वतन्त्रता है,
इसलिए आत्म चेतना भी स्वतन्त्र होती है। यह मानव चेतना स्वतन्त्रता
के लिए राज्य की माँग करती है।
(3) स्वतन्त्रता में अधिकार निहित है -
स्वतन्त्रता की एक उपयुक्त भावना स्वयं अधिकार युक्त
होना है। एक व्यक्ति जिस काम को अपने लिए अच्छा समझता है, अन्य मनुष्य भी
उसे अपनी पूर्णता के लिए उपयोगी समझते हैं और सम्पूर्ण समाज ही उन्हें अपने विकास
में सहायक समझने लगता है, जिसका परिणाम यह होता है कि
सामाजिकता की भावना उत्पन्न होती है।
स्वतन्त्रता का अर्थ यह नहीं है कि कोई व्यक्ति अपने
अधिकारों का दुरुपयोग करे। स्वतन्त्रता शब्द स्वयं अपने आप में ही स्वतन्त्र है और
साथ ही दूसरों को भी उतनी ही स्वतन्त्रता प्रदान करता है, जितना वह खुद
स्वतन्त्र है। व्यक्ति को जीवन, सम्पत्ति, घूमने-फिरने, व्यवसाय, कार्य
आदि की स्वतन्त्रता की रक्षा करने का अधिकार है, लेकिन साथ
ही उसे यह ध्यान रखना चाहिए कि अन्य व्यक्ति भी उसी की तरह उपर्युक्त अधिकार रखते
हैं। इसीलिए व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी स्वतन्त्रता का उपयोग इस
तरीके से करेगा जिससे दूसरों की वैसी ही स्वतन्त्रता में बाधा न पहुँचे।
स्वतन्त्रता का वास्तविक उपयोग तभी हो सकता है जब वह
अधिकार युक्त हो। अधिकार विहीन स्वतन्त्रता उच्छंखलता होती है। यदि हमें
व्यक्तित्व को उन्नति करने के लिए पूर्ण
स्वतन्त्रता की अपेक्षा है, तो वह स्वाभाविक है कि हमें जीवन
का अधिकार, सम्पत्ति का अधिकार एवं कार्य का अधिकार आदि
प्राप्त हों। लेकिन इसका यह आशय नहीं है कि हम अपने मार्ग में आने वाली बाधाओं को
इस रूप में हटाने के लिए प्रयत्नशील हो जाएँ कि अन्य व्यक्तियों के वैसे ही अधिकारों
का हनन हो।
ग्रीन के अधिकार सम्बन्धी विचार –
ग्रीन का कहना है कि कुछ अपनी माँगें व दावे भी होते हैं।
इनको अधिकारों की मर्यादा की सीमा के अन्तर्गत बाँध देना चाहिए। एक बार जब अधिकार
निश्चित हो जाए, तो राज्य के लिए यह भी आवश्यक है कि वह ऐसे वातावरण को उत्पन्न करे जिससे
कि उन अधिकारों का प्रयोग सम्भव हो सके।
यहाँ पर हम ग्रीन के प्राकृतिक अधिकार सम्बन्धी
विचारों पर आ जाते हैं। उसका मत है कि किसी-न-किसी दशा में प्राकृतिक अवस्था में
मनुष्य अवश्य रहा होगा। लेकिन वह हॉब्स,
लॉक व रूसो की तरह यह स्वीकार नहीं करता कि प्राकृतिक अवस्था में
मनुष्य को कुछ अधिकार प्राप्त थे। इसका कारण यह है । व्यक्ति की किसी भी माँग का
तब तक कोई महत्त्व नहीं है जब तक कि वह समाज में रहना शुरू नहीं कर देता या समाज
की स्थापना नहीं हो जाती है। समाज की स्वीकृति के बगैर व्यक्ति का कोई दावा अधिकार
नहीं बन सकता।
ग्रीन यह भी बताता है कि अधिकार क्या है। अधिकार के दो
पक्ष होते हैंपहला पक्ष तो व्यक्ति का है,
जो अपनी एक निश्चित चेतना के बाद कुछ वस्तुओं को प्राप्त करना चाहता
है और दूसरा पक्ष समाज का है, जो व्यक्ति को कुछ निश्चित
वस्तुएँ रखने या कार्य करने की अनुमति देता है। जब समाज व्यक्ति की किसी माँग की
पूर्ति अपनी स्वीकृति देकर करता है, तो वह व्यक्ति का
प्राकृतिक अधिकार हो
जाता है। उदाहरण के लिए, यदि समाज यह निश्चित कर दे कि किसी
भी व्यक्ति का मासिक वेतन ₹100 से कम नहीं होगा, तो वह व्यक्ति र प्राकृतिक अधिकार हो जाएगा। अत: प्राकृतिक अधिकार का यह
अर्थ नहीं है के यह अधिकार मनुष्य को समाज पूर्व अवस्था में प्राप्त था। प्राकृतिक
अधिकार वे अधिकार हैं जो मनुष्य को उन अवसरों को प्राप्त कराते हैं जिनके द्वारा
मनुष्य अपने उच्चतम आदर्श को प्राप्त करता है।
प्राकृतिक और कानूनी अधिकार
-
ग्रीन ने प्राकृतिक और कानूनी अधिकारों में भेद किया है। जब
तक व्यक्ति के अधिकार पर केवल समानता की स्वीकृति रहती है, तब तक राज्य बल
प्रयोग द्वारा किसी भी वर्ग या व्यक्ति को उन अधिकारों को मानने के लिए बाध्य नहीं
कर सकता। इसका अर्थ यह है कि प्राकृतिक अधिकारों को क्रियान्वित कराने का अधिकार राज्य को प्राप्त नहीं
है। लेकिन एक बार प्राकृतिक अधिकारों को राज्य की स्वीकृति प्राप्त हो गई, तो फिर वे कानूनी अधिकार हो जाते हैं। राज्य कानूनी अधिकारों को लागू करने
का अधिकार रखता है। इसके लिए वह बल प्रयोग भी कर सकता है।
कभी-कभी प्राकृतिक अधिकार केवल सामाजिक चेतना के अंग
बने रहते हैं और उन्हें राज्य की स्वीकृति नहीं मिलती। अधिकांश सामाजिक रीति-रिवाज
व परम्पराएँ इसी तरह की होती हैं। ग्रीन का विचार है कि आदर्श राज्य या समाज में
प्राकृतिक अधिकारों और वैधानिक अथवा कानूनी अधिकारों में कोई अन्तर नहीं होना
चाहिए।
अधिकार व स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में ग्रीन ने मानव
क्रियाओं को दो भागों में बाँटा है -
(i)
एक तो मनुष्य के वे कार्य जिनका उसी से सम्बन्ध है।
(2)
दूसरे वे कार्य जो व्यक्ति के साथ समाज से भी सम्बन्ध रखते हैं।
ग्रीन का कहना है कि राज्य को व्यक्ति के पहले प्रकार के
सम्बन्ध में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए,
लेकिन दूसरे प्रकार के सम्बन्धों को कानून द्वारा सुनिश्चित किया
जाता है। ग्रीन का यह विभेद भ्रमपूर्ण है।
अधिकार और नैतिकता—
ग्रीन ने अधिकार और नैतिकता के मध्य अन्तर बताया है।
नैतिकता व्यक्ति के अधिकारों से ठीक विपरीत अवस्था का प्रतिनिधित्व करती है।
अधिकारों का सम्बन्ध मनुष्य की बाह्य परिस्थितियाँ व कार्यों से होता है, जबकि नैतिकता का
सम्बन्ध मनुष्य की चेतना पर विवेक से होता है। नैतिकता वहाँ कार्य करती है जहाँ
राज्य की पहुँच नहीं होती है। उदाहरण के लिए राज्य कानून बनाकर लोगों को विशेष
धर्म मानने के लिए बाध्य कर सकता है, परन्तु लोगों में उस
धर्म के प्रति विश्वास उत्पन्न नहीं कर सकता। अधिकार तो सिर्फ मनुष्य की बाह्य
क्रियाओं को प्रदर्शित करते हैं। अधिकारों के प्रयोग से ही कोई व्यक्ति नैतिक नहीं
बन जाता है। नैतिक व्यक्ति वही होता है जो अपनी अन्त:प्रेरणा या भली इच्छा (Real
Will) से वशीभूत होकर
कार्य करता है। यह अवश्य है कि अधिकार व्यक्ति को नैतिक बनने में सहायता दे सकते
हैं। संक्षेप में, राज्य के कार्य किसी भी व्यक्ति को नैतिक
या अनैतिक नहीं बना सकते हैं। कानून वैधानिक अधिकारों, प्राकृतिक
अधिकारों और नैतिक सिद्धान्तों का ही मिला-जुला रूप है।
राज्य के विरुद्ध अधिकार
-
हीगल के विपरीत ग्रीन का कहना है कि अगर राजा उस
श्रेष्ठ राज्य शक्ति का दावा करता है,
तो ऐसी स्थिति में नागरिकों को राज्य के विरुद्ध या कम-से-कम उस
कार्य के विरुद्ध अधिकार है। इसमें वे राज्य के आदेश की उपेक्षा कर सकते हैं और
विरोध प्रकट कर सकते हैं। लेकिन ग्रीन का यह कहना है कि राज्य के विरुद्ध अधिकार
का दावा बड़े सोच-विचार के बाद किया जाए।
अधिकार और कानून -
अधिकार और कानून इस दृष्टि से परस्पर सम्बद्ध होते हैं
कि अधिकारों को कानूनी रूप दिया जा सकता है। परन्तु अधिकार और कानून में भेद यह है
कि सभी विधिसम्मत अधिकार नैतिक अधिकार नहीं कहे जा सकते हैं। विधिसम्मत अधिकारों
में कुछ अन्यायपूर्ण भी हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, किसी समय लोगों को दास रखने, बेचने तथा मार डालने का कानूनी अधिकार था, परन्तु
इसे नैतिक अधिकार नहीं कहा जा सकता।
राज्य सामान्य इच्छा का परिणाम
-
ग्रीन के अनुसार मानव चेतना या आत्मा स्वतन्त्रता चाहती है।
स्वतन्त्रता के अभाव में मनुष्य,
मनुष्य न रहकर अन्य द्वारा संचालित मशीन तुल्य हो जाता है। यह
स्वतन्त्रता दो प्रकार की होती हैआन्तरिक तथा बाह्य । आन्तरिक स्वतन्त्रता
आचारशास्त्र का विषय है और उसका मुख्य अर्थ होता है अपनी मनोवृत्तियों को वश में
रखना। बाह्य जगत् की स्वतन्त्रता राजनीति का विषय है और उसका अर्थ है ऐसे वातावरण
या परिस्थितियों का होना जिनमें प्रत्येक व्यक्ति अपने वास्तविक हित के कार्य कर
सके और उसे किसी भी बाधा का सामना न करना पड़े। ऐसी परिस्थितियों की जो शर्ते हैं,
उन्हें ही अधिकार कहा जाता है। अधिकार वे व्याख्याएँ या शर्ते हैं
जिनके अन्तर्गत हमें स्वतन्त्रता प्राप्त हो सकती है, पर
अधिकारों के रक्षण की आवश्यकता होती है। जिन अधिकारों की रक्षा का प्रबन्ध न हो,
उन्हें अधिकार कहना उचित नहीं है। अतः अधिकारों की रक्षा के लिए
राज्य की सृष्टि होती है। इस प्रकार ग्रीन अपने दर्शन के अन्तर्गत स्वतन्त्रता,
अधिकार और राज्य की विवेचना करते हुए बार्कर के शब्दों में इस बात
का प्रतिपादन करता है कि "मानवीय चेतना स्वतन्त्रता
चाहती है। स्वतन्त्रता में अधिकार का भाव निहित है और अधिकार अपनी रक्षा हेतु
राज्य की माँग है।"
दण्ड सम्बन्धी विचार –
दण्ड के सम्बन्ध में मुख्यत: निम्नलिखित तीन सिद्धान्त
प्रचलित रहते हैं -
(1) प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त—
इसके अनुसार दण्ड का उद्देश्य अपराधी से किए गए अपराध
का बदला लेना है। 'आँख के बदले आँख और दाँत के बदले दाँत' इस सिद्धान्त की प्रसिद्ध उक्ति है
अर्थात् यदि कोई व्यक्ति किसी की आँख को हानि पहुँचाता है, तो
उसके बदले में उसकी आँख निकाल लेनी चाहिए। यदि वह दाँत तोड़ता है, तो उसके भी दाँत तोड़ देने चाहिए। यह सिद्धान्त सभी जंगली जातियों में
प्रचलित रहा है।
(2) निवारक या प्रतिरोधात्मक सिद्धान्त –
इसका अभिप्राय यह है कि अपराधी को दण्ड इस उद्देश्य से
और इस प्रकार का देना चाहिए कि अपराधी की दुर्दशा से भयभीत होकर अन्य व्यक्ति
भविष्य में ऐसे अपराध न करें।
(3) सुधारात्मक सिद्धान्त -
इस सिद्धान्त के अनुसार दण्ड का उद्देश्य व्यक्ति का
सुधार करना होता है।
ग्रीन का मत है कि दण्ड के उद्देश्य में ये तीन सिद्धान्त सन्निहित होने चाहिए। ग्रीन दण्ड के उद्देश्य के सम्बन्ध में अपना यह सिद्धान्त प्रतिपादित करता है कि उसका अन्तिम उद्देश्य व्यक्ति के नैतिक विकास के लिए आवश्यक वातावरण निर्मिन करना और इसमें आने वाली बाधाओं को दूर करना है और अपराधी को यह महसूस करवाना है कि दण्ड के रूप में उसे सजा मिली है, वह उसका पात्र है और उसका कार्य ही सजा के रूप में उसके ऊपर आ रहा है। यह कार्य दण्ड के प्रतिरोधात्मक स्वरूप से ही सिद्ध हो सकता है, क्योंकि इसके द्वारा व्यक्ति के मन में अपराध के साथ इतना भय स्थापित हो जाता है कि वह उससे डरकर भविष्य में उस अपराध से बचने की चेष्टा करता है। इस प्रकार दण्ड के माध्यम से अपराध का निवारण हो जाता है और सामाजिक व्यवस्था का सन्तुलन बना रहता है।
बार्कर
ने इसी तथ्य की ओर इंगित करते हुए कहा है कि "प्रत्यक्ष
रूप से दण्ड अधिकारों की विरोधी शक्ति को रोकने वाली एक शक्ति है। एक ऐसी शक्ति है,
जिसकी मात्रा उस दूसरी शक्ति के अनुपात में होनी चाहिए, जिसका मापदण्ड उन अधिकारों का विनाश है जिन्हें कि यह सुरक्षित रखता है और जिसका उद्देश्य अपराध का अन्त
करना है और उसके अन्त द्वारा उस अधिकार योजना को पुनः स्थापित करना है, जिसका कि विरोध किया गया है।"
ग्रीन के युद्ध तथा अन्तर्राष्ट्रीयता सम्बन्धी विचार –
युद्ध के सम्बन्ध में ग्रीन का दृष्टिकोण हीगल व कॉण्ट
जैसे उग्र आदर्शवादियों के विपरीत है। हीगल युद्ध को न्यायोचित ठहराता है, परन्तु ग्रीन का
मत है कि युद्ध अपूर्ण राज्य का लक्षण है। ग्रीन के अनुसार,
"युद्ध कभी विशुद्ध अधिकार नहीं हो सकता है।" ग्रीन के अनुसार युद्ध उसी समय आवश्यक होता है जबकि लोगों के अधिकारों का
उल्लंघन किया जाए।
ग्रीन अन्तर्राष्ट्रीयता और विश्व बन्धुत्व का समर्थक
था। वह बाह्य क्षेत्र में भी राज्य के आचरण पर प्रतिबन्ध लगाने का समर्थक था। उसने
एक अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय की स्थापना का सुझाव दिया, जिसका कार्य राज्य
राष्ट्रों को परामर्श देना हो। वह हीगल के इस मत से सहमत नहीं था कि कोई अन्तर्राष्ट्रीय नैतिक विधान
नहीं हो सकता।
ग्रीन के विचारों की आलोचना –
ग्रीन के राज्य एवं अधिकार सम्बन्धी विचारों की आलोचना
निम्न प्रकार की गई है -
(1)
राज्य सम्बन्धी विचारों में ग्रीन विरोधाभास उत्पन्न कर देते हैं।
अशिक्षा, गरीबी, मद्यपान आदि को,
जो राज्य के सकारात्मक कार्य हैं, ग्रीन ने
नकारात्मक श्रेणी में रखा है।
(2)
ग्रीन ने व्यक्ति को राज्य के विरोध का अधिकार प्रदान किया है,
जो दिखावा मात्र है। व्यक्ति के विरोध पर ग्रीन ने इतने प्रतिबन्ध
लगा दिए हैं कि यह अधिकार मृतप्राय होकर रह जाता है।
(3)
ग्रीन ने व्यक्ति के अधिकारों के लिए उसे राज्य पर आश्रित कर दिया
है। उसके अनुसार अधिकारों की प्राप्ति के लिए राज्य आवश्यक है। इसके अतिरिक्त
व्यक्ति के अधिकारों पर समाज की स्वीकृति भी आवश्यक मानी है।
(4)
ग्रीन के विचार एक ओर व्यक्ति का समर्थन करते हैं, वहीं दूसरी ओर राज्य को व्यक्ति पर हावी भी रखते हैं। इस प्रकार ग्रीन के दर्शन में
स्वत: हो असंगति उत्पन्न हो जाती है।
ग्रीन का प्रभाव -
ग्रीन का सुझाव व्यापक है। अनेक विचारकों ने उसके
विचारों को अपनाया है। उसके विचारों ने महान् दार्शनिक ब्रेडले, बोसाँके तथा बार्कर आदि को
बहुत प्रभावित किया है। आज भी ग्रीन के विचारों को समस्त संसार में महत्त्व दिया
जाता है। आधुनिक विचारक तथा राजनीतिज्ञ उसके प्रभाव से दूर नहीं रह सकते। उसके
विचारों ने विभिन्न दलों,
गिल्डों तथा आयरलैण्ड के फेबियनों को बहुत प्रभावित किया है।
राजदर्शन के इतिहास में ग्रीन का स्थान –
प्रो. बार्कर का मत है कि ग्रीन कल्पनाशील
आदर्शवादी तथा यथार्थवादी विचारक था। हो सकता है कुछ बातों में हम उससे सहमत न हों, किन्तु उसके
द्वारा स्थापित सिद्धान्त आज भी उतने ही सत्य हैं जितने कि वे उस समय में सत्य थे
जबकि ग्रीन ने उन्हें प्रतिपादित किया था। व्यक्तियों के महत्त्व में उसकी दृढ़
आस्था, व्यक्तियों की स्वतन्त्रता में उसका दृढ़ विश्वास,
उसका विचार कि व्यक्तिगत हित सामाजिक हित का ही एक अंग है, उसके द्वारा राज्य की शक्ति की सीमाएँ निर्धारित करना, विश्व-बन्धुत्व तथा अन्तर्राष्ट्रीय कानून को मान्यता देना और यह मानना कि विशेष
परिस्थितियों में राज्य का विरोध करना व्यक्ति का कर्तव्य होता है, आज भी उतने ही ठीक हैं जितने वे उसके द्वारा व्याख्यान दिए जाने के समय
थे।
ग्रीन ने अपने चिन्तन में अनेक बातों का समावेश करके काफी लोकप्रियता अर्जित की। उसका काल अनेक वादों का संघर्ष काल था। उपयोगितावाद, हीगल का सर्वाधिकारवाद, मार्क्स का समाजवाद तथा स्पेन्सर का वैज्ञानिकवाद एवं व्यक्तिवाद आदि विचारधाराओं का संघर्ष चल रहा था। किन्तु ग्रीन ने इन सब वादों के मध्य में अपने उदारवाद को मानव के विचारों का आकर्षण बिन्दु बनाया। इस प्रकार उसने व्यक्ति के महत्त्व के साथ-साथ चिन्तन के महत्त्व को भी सामने रखकर आदर्शवाद तथा व्यक्तिवाद का संयोजन कर दिया है।
वेपर ने ग्रीन
के महत्त्व का मूल्यांकन करते हुए लिखा है कि "उसने
उदारवाद और आदर्शवाद के । दोषों का संशोधन किया। ग्रीन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी
कि उसने उदारवाद को एक नया धार्मिक विश्वास प्रदान किया, व्यक्तिवाद
को नैतिक तथा सामाजिक बनाया और आदर्शवाद का परिष्कार और परिमार्जन किया।"
निःसन्देह राजदर्शन के इतिहास में ग्रीन का स्थान बहुत
उच्च है।
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