कराघात - करापात और कर-विवर्तन
प्रश्न 12. "किसी वस्तु पर लगाए गए कर का भार क्रेताओं और विक्रेताओं के मध्य करारोपित वस्तु की मांग तथा पूर्ति की लोच के अनुपात में विभाजित होता है।" डाल्टन के इस कथन को समझाइए।
अथवा ''करों के द्राव्यिक तथा वास्तविक भार में क्या अन्तर है ? कर-विवर्तन
किन तत्त्वों पर निर्भर करता है ?
अथवा '' कर-विवर्तन से आपका क्या अभिप्राय है ? कर-विवर्तन के विभिन्न तरीके क्या हैं?
अथवा '' कराघात (कर का दबाव) एवं करापात (कर का भार) में अन्तर बताइए तथा करापात के
निर्धारक तत्वों की विवेचना कीजिए।
उत्तर-एक अच्छी कर प्रणाली में करों का वितरण न्यायपूर्ण होता है। किन्तु करों का न्यायपूर्ण वितरण करना तब तक सम्भव नहीं होता जब तक यह मालूम न किया जा सके कि कर का भुगतान वास्तविक रूप से किसके द्वारा किया जा रहा है, क्या कर-भार सभी व्यक्तियों पर समान रूप से पड़ रहा है आदि। इन प्रश्नों के उत्तर जानना ही कर-भार अथवा करापात की समस्या कहलाती है।
डाल्टन के अनुसार, "किसी कर के भार की समस्या सामान्यतया इस बात की समस्या है कि कर का भुगतान कौन करता है।"
वास्तव में कर का भार उन लोगों पर
पड़ता है जो उसके प्रत्यक्ष मौद्रिक भार को सहन करते हैं।
एडम्स
के अनुसार, "करों
के भार का अभिप्राय उनके भुगतान के पड़ने वाले अन्तिम स्थान से है।"
प्रो.
सैलिगमैन के अनुसार, "अन्तिम
करदाता पर कर के बोझ के निर्धारण को कर-भार कहा जाता है।"
डाल्टन
के अनुसार, "कर-भार
उन लोगों पर पड़ता है जो कर को प्रत्यक्ष मौद्रिक भार मानते हैं।"
कर-दबाव
(कराघात) और कर-भार (करापात) कर के दबाव अथवा कराघात से आशय कर के उस भार से है
जिसे सर्वप्रथम कर का भुगतान करने वाला व्यक्ति सहन करता है। इसके विपरीत करभार
अथवा करापात से आशय कर के उस भार से है जो उस व्यक्ति पर पड़ता है जो वास्तविक रूप
से कर के भार को सहन करता है अथवा जो वास्तविक रूप से कर का भुगतान करता है।
इसे एक काल्पनिक उदाहरण द्वारा स्पष्ट
किया जा सकता है-उत्पादन कर का दबाव उत्पादकों पर पड़ता है, क्योंकि
वे सर्वप्रथम कर का भुगतान करते हैं। किन्तु उत्पादक उत्पादन कर की राशि के बराबर
वस्तु के मूल्य में वृद्धि करके कर के भार को उपभोक्ताओं से वसूल कर लेते हैं
अर्थात् कर का वास्तविक भुगतान उपभोक्ताओं द्वारा किया जाता है। ऐसी स्थिति में कर
का भार (करापात) उपभोक्ताओं पर पड़ेगा।
प्रत्यक्ष करों के सम्बन्ध में कराघात
एवं करापात,
दोनों एक ही व्यक्ति पर पड़ते हैं। उदाहरण के लिए, आयकर देने वाला व्यक्ति इसके भार को अन्य व्यक्तियों पर नहीं डाल सकता।
इसके विपरीत अप्रत्यक्ष करों के सम्बन्ध में कर का दबाव उस व्यक्ति पर पड़ता है जो
सर्वप्रथम कर का भुगतान करता है और कर-भार उस व्यक्ति पर पड़ता है, जो अन्तिम (वास्तविक) रूप से करों का भुगतान करता है।
कर का मौद्रिक एवं वास्तविक भार प्रत्येक कर का प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष भार होता है, जो मौद्रिक तथा वास्तविक दोनों प्रकार का हो सकता है। कर के रूप में एक व्यक्ति जो राशि सरकारी कोष में जमा करवाता है, वह उसका 'प्रत्यक्ष मौद्रिक भार' होता है।
जब कोई व्यापारी
अपनी वस्तुओं के किसी स्टॉक पर कोई कर देता है, तो
सामान्यतया वह वस्तु के मूल्य में कर की मात्रा के बराबर वृद्धि न करके उससे कुछ
अधिक वृद्धि कर देता है। इसका कारण यह है कि व्यापारी को अपना स्टॉक बेचने में कुछ
समय लगता है और उसी समय के लिए उसे कर के रूप में चुकाई गई राशि पर ब्याज का
नुकसान वहन करना पड़ता है। कर की राशि के अतिरिक्त वस्तु का मूल्य जितना अधिक
बढ़ाया जाता है, वह कर का 'अप्रत्यक्ष
मौद्रिक भार' कहलाता है।
कर-भार एवं कर-प्रभाव में अन्तर
कर-भार
के अन्तर्गत केवल करों के प्रत्यक्ष मौद्रिक भार का अध्ययन किया जाता है, किन्तु
कर के प्रभाव के अन्तर्गत कर के उत्पादन, उपभोग, कार्य करने की योग्यता, कार्य करने की इच्छा,
बचत करने की इच्छा एवं धन वितरण पर पड़ने वाले प्रभावों आदि का
अध्ययन किया जाता है। दूसरे शब्दों में, कर के प्रभावों के
अन्तर्गत करों से उत्पन्न होने वाले समस्त प्रकार के आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक परिणामों एवं प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है।
डाल्टन के शब्दों में, "प्रत्येक कर के अनेक आर्थिक
प्रभाव होते हैं। प्रश्न यह है कि कर-भार के
विशिष्ट-सामान्य प्रभावों को सामान्य समस्या से पृथक् कर सकते हैं या पृथक् करना
चाहते हैं।"
कर-भार एवं कर-विवर्तन में अन्तर
कर-भार के अन्तर्गत हम इस बात का अध्ययन करते हैं कि कर की राशि का भुगतान वास्तव में कौन कर रहा है। इसके विपरीत कर-विवर्तन वह विधि है जिसके अन्तर्गत कर का भार एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति पर हस्तान्तरित किया जाता है। यदि करों का विवर्तन नहीं होगा, तो ऐसी स्थिति में कराघात और करभार, दोनों एक ही व्यक्ति पर पड़ेगा।
कर-भार (करापात) तथा कर-विवर्तन को निर्धारित करने वाले तत्त्व
किसी व्यक्ति पर नये कर लगाने अथवा
पुराने करों की दर में वृद्धि किए जाने पर करदाता का यह प्रयास होता है कि कर के
भार को किसी दूसरे व्यक्ति पर टाल दिया जाए। करदाता अपने इस प्रयास में किस सीमा
तक सफल होगा, यह निम्नलिखित तथ्यों पर निर्भर करता है-.
(1) कर की प्रकति—
कर का विवर्तन बहुत
कुछ कर की प्रकृति पर निर्भर करता है। प्रत्यक्ष करों की प्रकृति इस प्रकार की
होती है कि उनका विवर्तन नहीं किया जा सकता; जैसे-आयकर, सम्पत्ति कर आदि।
इसके विपरीत अप्रत्यक्ष करों की प्रकृति इस प्रकार की होती है कि उनका विवर्तन
आसानी से किया जा सकता है, जैसे-व्यापार कर। किन्तु यदि
अल्पकाल में करों के भार को मूल्यों में शामिल करने पर बिक्री पर विपरीत प्रभाव
पड़ने की सम्भावना हो, तो विक्रेता करों के सम्पूर्ण भार को
उपभोक्ताओं की ओर विवर्तित न करके उसके एक भाग को स्वयं वहन कर लेता है।
(2) कर का आकार-
यदि कर की मात्रा
बहुत अधिक हो, तो उत्पादक अथवा विक्रेता कर के सम्पूर्ण भार को
स्वयं न उठाकर उसे उपभोक्ताओं की ओर टालने का प्रयास करता है। किन्तु यदि कर की
मात्रा वस्तु के मूल्य की अपेक्षा बहुत थोड़ी है, तो
सामान्यतया विक्रेता अपने ग्राहक को नाराज नहीं करना चाहते और कर-भार स्वयं वहन कर
लेते हैं।
(3) कर का आधार-
वस्तुओं की संख्या, वजन
अथवा आकार के आधार पर लगाए गए करों का विवर्तन आसानी से किया जा सकता है। किन्तु
वस्तु के मूल्य के आधार पर लगाए गए करों का विवर्तन सम्भव नहीं होता, क्योंकि जैसेजैसे वस्तु का मूल्य बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे
कर की राशि भी बढ़ती जाती है।
(4) करारोपण का उद्देश्य-
कुछ करों
को इस उद्देश्य से लगाया जाता है कि सके भार को आगे की ओर टाल दिया जाए; जैसे-उत्पादन
शुल्क, सीमा शल्क. पार
कर आदि। अतः इन करों का विवर्तन आसान होता है। इसके विपरीत कलकरों को लगाने का उद्देश्य
यह होता है कि कर देने वाला कर-भार को स्वयं वहन करे; जैसे-आयकर,
सम्पत्ति कर आदि। अत: ऐसे करों का विवर्तन नहीं किया जा सकता।
(5) माँग की लोच-
अन्य बातें समान
रहने पर किसी वस्तु की माँग की लोच जितनी अधिक लोचदार होगी, उतना
ही अधिक कर-भार विक्रेता को सहन करना पड़ेगा तथा जैसे-जैसे यह बेलोच होती जाएगी,
उतना ही अधिक कर का भार उपभोक्ताओं पर बढ़ता चला जाएगा। इसका कारण
यह है कि वस्तु की माँग लोचदार होने पर यदि व्यापारी कर की राशि को वस्तु के मूल्य
में सम्मिलित करता है अर्थात् वस्तु का मूल्य बढ़ाता है, तो
वस्तु की माँग कम हो जाएगी, जिससे व्यापारी को हानि होगी।
अत: लोचदार माँग वाली वस्तुओं के सम्बन्ध में कर-भार प्रायः व्यापारियों द्वारा ही
वहन किया जाता है। इसके विपरीत वस्तु की माँग बेलोचदार होने पर वस्तु के मूल्यों
में वृद्धि का वस्तु की माँग पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इसलिए व्यापारी कर-भार
को उपभोक्ताओं की ओर विवर्तित करने में सफल हो जाता है।
(6) पूर्ति की लोच-
करारोपित वस्तु की
पूर्ति की लोच बेलोचदार होने पर कर-भार को व्यापारियों को ही सहन करना पड़ता है, क्योंकि
ऐसी स्थिति में वे वस्तु का मूल्य बढ़ाकर उसकी पूर्ति को प्रभावित नहीं कर सकते।
इसके विपरीत करारोपित वस्तु की पूर्ति लोचदार होने पर कर-भार को उपभोक्ताओं पर
टाला जा सकता है। इसका कारण यह है कि कर के कारण वस्तु के मूल्य में वृद्धि होने
पर यदि वस्तु की माँग कम हो जाती है, तो व्यापारी भी वस्तु
की पूर्ति को कम कर देता है, जिससे वस्तु के मूल्यों में कमी
की सम्भावना समाप्त हो जाती है।
इस प्रकार यदि करारोपित वस्तु की माँग
लोचदार तथा पूर्ति बेलोचदार हो, तो कर-विवर्तन सम्भव नहीं होता। इसके विपरीत यदि
वस्तु की माँग बेलोचदार और पूर्ति लोचदार हो, तो कर का
विवर्तन किया जा सकता है। कर के कितने भार का विवर्तन किया जा सकता है, यह करारोपित वस्तु की माँग एवं पूर्ति की सापेक्षिक लोच पर निर्भर करता
है।
प्रो. डाल्टन के अनुसार, "प्रत्येक उपभोक्ता अपनी माँग में कमी के द्वारा कर-भार को व्यापारी पर ही
डालने का प्रयास करता है, जबकि प्रत्येक उत्पादक अथवा
व्यापारी वस्तु की पूर्ति में कमी करके कर-भार को उपभोक्ताओं पर डालने का
प्रयास करता है। अत: कर-भार का वास्तविक विभाजन उनकी सौदा करने की तुलनात्मक
शक्तियों द्वारा निर्धारित होता है।"
(7) स्थानापन्न वस्तुओं की उपलब्धता–
यदि करारोपित वस्तु की स्थानापन्न वस्तुए बाजार में उपलब्ध हों, तो कर-भार को सरलतापूर्वक विवर्तित नहीं किया जा सकता, क्योंकि ऐसी स्थिति में यदि उत्पादक कर-भार को उपभोक्ताओं की और टालना चाहेंगे (मूल्य वृद्धि के माध्यम से), तो उपभोक्ता उस वस्तु विशेष के प्रयोग को बन्द करके स्थानापन्न वस्तुओं (जिनके मूल्यों में कोई वृद्धि न हुई हो) को खरीदना आरम्भ कर देंगे। अत: कर-भार का अधिकांश भाग उत्पादकों अथवा व्यापारियों को ही वहन करना पड़ेगा। इसके विपरीत यदि करारोपित वस्तु की कोई स्थानापन्न वस्तु बाजार में उपलब्ध नहीं हो, तो कर-भार को आसानी से उपभोक्ताओं की ओर टाला जा सकता है, क्योंकि इस स्थिति में उपभोक्ता ऐसी वस्तु को खरीदने के लिए बाध्य होते हैं। __
(8) उत्पत्ति के नियम-
उत्पत्ति के तीनों नियमों के अन्तर्गत कर-भार के -विवर्तन को निम्न प्रकार
समझाया जा सकता है
(i) उत्पनि वृद्धि नियम-
उत्पत्ति
वृद्धि नियम अथवा लागत ह्रास नियम यह बताता है कि वस्तु के उत्पादन की मात्रा में
कमी करने पर लागत में वृद्धि होगी तथा उत्पादन की मात्रा में वृद्धि करने पर
लागतों में कमी आएगी। ऐसी स्थिति में कर लगाने पर वस्तु का मूल्य कर की मात्रा की
अपेक्षा अधिक बढ़ जाता है (कर लगाने पर मूल्य में वृद्धि होती है, मूल्य
में वृद्धि होने पर माँग में कमी आती है, माँग में कमी आने
पर उत्पादन की मात्रा में कमी की जाती है तथा उत्पादन की मात्रा में कमी होने पर
प्रति इकाई उत्पादन लागत बढ़ जाती है)। अत: ऐसी स्थिति में उपभोक्ताओं को कर की
सम्पूर्ण राशि का भार सहन करने के अतिरिक्त बढ़ी हुई लागतों का भार भी सहन करना
पड़ता है।
(ii) उत्पत्ति समता नियम-
उत्पत्ति
समता नियम अथवा लागत समता नियम के अन्तर्गत उत्पादन की मात्रा में कमी अथवा वृद्धि
होने पर प्रति इकाई लागत समान बनी रहती है और इस स्थिति में करारोपण के कारण होने
वाली मूल्य वृद्धि सदैव कर की राशि के बराबर होती है और इस स्थिति में सम्पूर्ण
कर-भार को उपभोक्ताओं द्वारा वहन कर लिया जाता है।
(iii) उत्पत्ति ह्रास नियम-
उत्पत्ति
ह्रास नियम अथवा लागत वृद्धि नियम यह बताता है कि जैसे-जैसे उत्पादन की मात्रा में
कमी की जाएगी, वैसे-वैसे लागतों में कमी आएगी तथा जैसे-जैसे
उत्पादन की मात्रा में वृद्धि की जाएगी, वैसे-वैसे लागतों
में वृद्धि होगी। ऐसी स्थिति में कर लगाने पर वस्तु का मूल्य कर की मात्रा की तुलना
में कम बढ़ता है (कर लगाने पर मूल्य में वृद्धि होती है, मूल्य
में वृद्धि होने पर मांग में कमी आती है, माँग में कमी होने
पर उत्पादन की मात्रा कम की जाती है, उत्पादन की मात्रा कम
करने पर लागतों में कमी आती है)। अत: ऐसी स्थिति में वस्तु पर लगाए गए करों के
बराबर कर-भार को उपभोक्ताओं द्वारा वहन नहीं किया जाता, बल्कि
लगाए गए कर की मात्रा से कुछ कम मात्रा में करों के भार को वहन किया जाता है।
(9) समय तत्त्व-
विक्रेता पर बहुत थोड़े समय के लिए (अस्थायी रूप से) यदि कोई कर लगाया जाता है, तो प्रायः विक्रेता कर-भार को उपभोक्ताओं पर न टालकर स्वयं वहन कर लेता है। इसके विपरीत स्थायी रूप से लगाए गए करों को विक्रेता उपभोक्ताओं पर टालने का प्रयास करता है।
(10) पूँजी की गतिशीलता–
यदि उत्पादक की पूँजी पूर्ण रूप से गतिशील है, तो
उत्पादक कर-भार को उपभोक्ताओं पर टाल सकता है। इसके विपरीत यदि उत्पादक की पूँजी
बहुत बड़ी मात्रा में अचल पूँजी के रूप में किसी व्यवसाय में लगी हुई है और वह उसे
आसानी से शीघ्र नहीं निकाल सकता, तो कर-भार प्रायः उत्पादकों
को ही वहन करना पड़ेगा।
Comments
Post a Comment