मारसीलियो के राजनीतिक विचार
प्रश्न 2.मध्यकालीन राजनीतिक चिन्तन को मारसीलियो ऑफ पेडुआ के योगदान की विवेचना कीजिए।
अथवा ''मारसीलियो(मार्सिलियो ) ऑफ पेडुआ के राजदर्शन
के मुख्य सिद्धान्तों का परीक्षण कीजिए। किस अर्थ में मारसीलियो अपने को मध्यकालीन
चिन्तन से अलग करता
अथवा "धर्मनिरपेक्ष राज्य और लौकिक सत्ता का प्रतिपादन सबसे पहले पेडुआ के मारसीलियो(मार्सिलियो ) ने किया।" व्याख्या कीजिए।
अथवा "मारसीलियो (मार्सिलियो ) पहला इरेस्टियन है।" सेबाइन के इस कथन को स्पष्ट कीजिए तथा मारसीलियो के राजनीतिक विचारों का वर्णन कीजिए।
अथवा ‘’मारसीलियो (मार्सिलियो ) के राज्य, चर्च एवं कानून सम्बन्धी विचारों का आलोचनात्मक वर्णन कीजिए।
अथवा ‘’अरस्तू की मृत्यु के पश्चात् मारसीलियो ऑफ पेडुआ को यूरोप का सबसे बड़ा
राजनीतिक चिन्तक क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
मध्य युग के राजनीतिक विचारकों में मारसीलियो ऑफ पेडुआ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। मारसीलियो की पुस्तक 'Defensor Pacis' राजनीतिक विचारधारा के इतिहास में बहुत महत्त्वपूर्ण है।
गैटेल के शब्दों में, "यह मध्य काल का महानतम एवं सर्वाधिक मौलिक राजनीतिक ग्रन्थ है।" इस पुस्तक के बारे में डनिंग ने लिखा है "यह पहली पुस्तक है जिसमें चर्च को समस्त लौकिक मामलों में राज्य का एक भाग स्वीकार किया गया है तथा पोप के किसी भी प्रकार के अधिकारों को अस्वीकार किया गया है। यह पुस्तक चर्च और राज्य के मध्य संघर्ष में एक विशेष स्थान नहीं रखती, बल्कि इसने राजनीतिक दर्शन के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
" मारसीलियो का दूसरा
ग्रन्थ 'Defensor Minor' है। यह ग्रन्थ एक प्रकार से प्रथम ग्रन्थ का सारांश है।
मारसीलियो के
राजनीतिक विचार –
मारसीलियो के
प्रमुख राजनीतिक विचारों का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता
है -
(1) राज्य सम्बन्धी विचार-
राज्य के
सम्बन्ध में मारसीलियो के विचार का एक मौलिक तथ्य यह है कि उसने राज्य को
सैद्धान्तिक रूप से शक्ति प्रदान की है और लोक शासन सम्बन्धी विश्व में चर्च को
राज्य के एक विभाग के रूप में स्वीकार किया है। राज्य की उत्पत्ति का कारण मनुष्य
की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति है। राज्य मनुष्य के शरीर के समान है जो स्वयं
विकसित होता है। यद्यपि राज्य के प्रत्येक अंग पृथक्-पृथक् होते हैं तथापि उनका
संगठन मजबूत होता है और तभी शरीर रूपी राज्य सुचारु रूप से कार्य करने में समर्थ
होता है। राज्य एक आत्म-निर्भर संस्था है। वह एक ऐसे समाज के निर्माण में विश्वास
करता है जो भौतिक एवं आध्यात्मिक सभी प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में
समर्थ हो।
यद्यपि
मारसीलियो भी मोक्ष की प्राप्ति का साधन चर्च को बताता है, लेकिन चर्च को वह
स्वतन्त्र सत्ता के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। राज्य अपनी
आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए न तो किसी के नियन्त्रण में है और न ही किसी के ऊपर
निर्भर करता है, इसीलिए वह एक स्वावलम्बी संस्था है।
राज्य परिवार का विकसित रूप-
अरस्तू की भाँति
मारसीलियो भी राज्य को परिवार का ही एक विकसित रूप मानता है। मानव समाज का कल्याण
करने का लक्ष्य ही राज्य का उद्देश्य होता है। कल्याण के लिए राज्य के सभी अंगों
में कर्तव्यपालन की भावना का होना आवश्यक है। जब समाज के सभी अंगों में सामंजस्य
तथा सहयोग की भावना होगी, तभी राज्य समाज में शान्ति व व्यवस्था कायम रखने में समर्थ हो सकता है।
मारसीलियो के मत में सद्गुणी जीवन को प्राप्त करना मनुष्य का मुख्य उद्देश्य है और
समस्त वस्तुएँ जो सद्गुणी जीवन के लिए आवश्यक हैं, राज्य
द्वारा ही प्राप्त हो सकती हैं।
मारसीलियो ने लौकिक तथा पारलौकिक, दोनों जीवनों को
सद्गुणी जीवन के अन्तर्गत रखा है। उसका विश्वास था कि लौकिक जीवन विवेक द्वारा
उत्पन्न होते हैं । विवेक शास्त्रों के अध्ययन से प्राप्त होता है। पारलौकिक ज्ञान
के लिए श्रद्धा की उत्पत्ति पादरियों के उपदेश से हो सकती है। इसलिए यदि पादरियों
की कोई उपयोगिता है तो इतनी ही कि वे मोक्ष प्राप्त करने में लोगों की सहायता
करें।
इस प्रकार मारसीलियो ने चर्च पर राज्य का नियन्त्रण
स्थापित करके दो तलवारों के सिद्धान्त को भंग कर दिया। वह चर्च को एक स्वतन्त्र
संस्था न मानकर राज्य का ही एक विभाग मानता है।
जनता की सम्प्रभुता –
मारसीलियो सीमित राजतन्त्र या निर्वाचित राजतन्त्र का
समर्थक था। उसका कहना था कि राजा को जनता के सामने अपने कार्यों के लिए उत्तरदायी
होना चाहिए। जनता कानूनों का निर्माण करे (प्रतिनिधि सभा के माध्यम से)। उसके
मतानुसार विवेकपूर्ण शासन का संचालन करने वाली शक्ति कानून है। अत: राज्य का मुख्य
तत्त्व कानून का निर्माण करना है। यदि जनता चाहे तो राजा को पदच्युत भी कर सकती
है।
किन्तु मारसीलियो का यह सिद्धान्त पूर्णतया
लोकतन्त्रात्मक नहीं है,
क्योंकि वह सम्पूर्ण जनता को कानून निर्माण का अधिकार न देकर कुछ
प्रतिष्ठित व्यक्तियों के अंश को अधिक महत्त्व देता है।
(2) चर्च सम्बन्धी विचार-
मारसीलियो चर्च के ऊपर राज्य की सम्प्रभुता स्थापित करना चाहता
था। पोप की निरंकुशता का उसने बहुत अधिक विरोध किया था। इस निरंकुशता का प्रभाव
समाप्त करके वह चर्च पर भी जनता की सम्प्रभुता को स्थापित करना चाहता था। उसके
अनुसार चर्च की संस्था पोप से उच्च है। चर्च की सर्वोत्तम शक्ति सामान्य सभा में
निहित होती है, पोप में नहीं। पोप वैधानिक अध्यक्ष के रूप में कार्य करे और सामान्य सभा
के सम्मुख अपने कार्यों के लिए उत्तरदायी हो। यदि पोप यह नियन्त्रण स्वीकार न करे
तो सामान्य सभा को उसे पद से हटाने का अधिकार है। इस प्रकार मारसीलियो ने पोप की।
देविक शक्ति का खण्डन किया।
मारसीलियो चर्च की निरंकुशता और स्वतन्त्रता को समाप्त
करके उसे राज्य का एक विभाग बना देना चाहता था, जिससे कि पादरियों के पास कोई ऐसी
शक्ति नहीं रहे कि उनको जनता का शोषण करने का अवसर प्राप्त हो सके। वह संसार की
अशान्ति का कारण पोपशाही को समझता था। इस प्रसंग में सेबाइन का कथन है कि "उसने पादरियों की तुलना चिकित्सक की सलाह से की है। धार्मिक संस्कारों को
करने के अतिरिक्त धर्माचार्य केवल सलाह और उपदेश दे सकते हैं। वे दुष्टों को डाँट-डपट
सकते हैं और बता सकते हैं कि पाप के भावी परिणाम क्या होंगे, लेकिन किसी मनुष्य को प्रायश्चित करने के लिए बाध्य नहीं कर सकते।"
(3) प्रतिनिधि शासन सम्बन्धी विचार –
प्रतिनिधि शासन मारसीलियो की दृष्टि में सर्वश्रेष्ठ
शासन है, लेकिन यह प्रणाली उसी समय सफल हो सकती है जब जनता में शिक्षा का प्रचार
तथा प्रसार हो। मारसीलियो के अनुसार राज्य की सत्ता प्रतिनिधि सभा में केन्द्रित
है और राज्य प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इसके प्रति उत्तरदायी है।
(4) कानून सम्बन्धी विचार -
मारसीलियो ने कानून के सम्बन्ध में भी अपने विचार व्यक्त किए
हैं। मारसीलियो कानून को मानव अथवा सैनिक इच्छा का साधन मात्र मानता है। यद्यपि
मारसीलियो इसमें भी विश्वास रखता है कि कानून बुद्धि पर आधारित होते हैं, परन्तु वह एक
निश्चित व नियमित शक्ति के द्वारा लागू होते हैं। मारसीलियो यह भी स्वीकार करता है
कि कानून के पीछे समाज की विवशकारी शक्ति है, अत: उसे लागू
करने का उद्देश्य भय है। इसी के आधार पर जनता कानूनों का पालन करती है। जिन
कानूनों में भय की भावना नहीं है, वह कानून नहीं है। समाज की
विवशकारी शक्ति का केन्द्र राज्य होता है। इसलिए यह राज्य की इच्छा के ऊपर निर्भर
करता है कि धर्म में किस अंश को कानून के अन्तर्गत रखता है और किसको नहीं। समस्त
धर्म कानून के अन्तर्गत नहीं आता है।
कानून के निर्माण का उद्देश्य सार्वजनिक कल्याण है। जो
कानून इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए नहीं बनाए जाते, वे कानून की परिधि में नहीं आ सकते।
इसलिए कानून का निर्माण राजा के द्वारा न किया जाकर जनता के प्रतिनिधियों द्वारा
किया जाता है। मारसीलियो जनता के प्रधान भाग द्वारा ही कानून बनवाना चाहता है
समस्त नागरिकों द्वारा नहीं। उसके मत में कानून बनाने की शक्ति उस समूह को प्राप्त
होनी चाहिए जिसका गुण एवं संख्या की दृष्टि से अधिक प्रभाव हो। कानून निर्माण करने
वाली संस्था को वह व्यवस्थापिका का नाम देता है।
(5) कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका का सम्बन्ध -
मारसोलियो के अनुसार व्यवस्थापिका का एक मुख्य कार्य कार्यपालिका
को चुनना है जिसके द्वारा वह अपनी इच्छाओं को कार्यान्वित करा सके। कार्यपालिका का
कार्य कानूनों का पालन कराना तथा राज्य के प्रत्येक अंग को कर्त्तव्यनिष्ठ बनाए
रखना है। यह व्यवस्थापिका के नियन्त्रण में रहती है। कार्यपालिका का नियन्त्रण सभी
प्रशासकीय अधिकारियों पर रहता है। कार्यपालिका को सशक्त बनाने के लिए सशक्त सेना
बनाने का अधिकार भी दिया गया है।
कुछ विद्वानों का मत है कि मारसीलियो ने शक्ति
पृथक्करण के सिद्धान्त का समर्थन किया है,
लेकिन मैकलवेन आदि विद्वान् इस बात को नहीं मानते हैं ।
चूंकि मारसीलियो का विश्वास प्रजातन्त्र या बहुतन्त्र में नहीं था, इसलिए उसकी व्यवस्थापिका और कार्यपालिका की विशेषताएँ आधुनिक व्यवस्थापिका
और कार्यपालिकाओं की विशेषताओं से नहीं मिलती। व्यवस्थापिका का ऐसा नियन्त्रण
कार्यपालिका पर नहीं था, जैसा कि आजकल संसद का मन्त्रिमण्डल
पर होता है।
मारसीलियो की मध्यकालीन चिन्तन से पृथकता –
मारसीलियो का चिन्तन अपने युग की परिस्थितियों की उपज था।
तत्कालीन परिस्थितियों ने उसके विचारों को गहन रूप से प्रभावित किया था। विभिन्न
इटैलियन राज्यों में व्याप्त फूट से वह बहुत दुःखी था और इसके लिए वह दाँते की तरह
पोप को उत्तरदायी मानता था। उसकी यह मान्यता थी कि अगर इटली के राजनीतिक जीवन में
पोप का अवांछित हस्तक्षेप नहीं होता तो इटली को कभी ऐसे बुरे दिन नहीं देखने
पड़ते। अतः इटली को पोप के अवांछित हस्तक्षेप से मुक्त करवाने के लिए उसे अपनी
लेखनी रूपी शस्त्र को पोप के विरुद्ध उठाने के लिए बाध्य होना पड़ा। फलतः उसके
लेखन का मुख्य उद्देश्य पोप की सर्वोच्च सत्ता के दावों का खण्डन करना और राज्य को
उसके अधिकार क्षेत्र से मुक्त करवाना था। यही नहीं वह चर्च पर राज्य के नियन्त्रण
का पक्षपाती भी था। अत: इस दृष्टि से वह मध्ययुगीन विचारकों से काफी आगे बढ़ा हुआ
था। उसने अपने से दो शताब्दी बाद होने वाले जर्मन धर्मशास्त्री ऐरेस्टस (1524-1583 ई.) के समान इस सम्बन्ध में
विचारों का प्रतिपादन किया है। इसलिए सेबाइन ने इसे 'प्रथम एरेस्टियन'
(First Erastian)
घोषित किया है।
मध्य युग के वैचारिक जगत् में मारसीलियो का अपना एक
विशिष्ट स्थान है। उसका चिन्तन मौलिक चरित्र का और पोप विरोधी आन्दोलन को नेतृत्व
प्रदान करने वाला था। पोप की प्रभुता और चर्च के संगठन के सम्बन्ध में उसके द्वारा
जिन विचारों का प्रतिपादन किया गया था उन्होंने अपने समय के और बाद में होने वाले
राजनीतिक चिन्तन पर गहरा प्रभाव डाला। इसके अतिरिक्त उसका महत्त्व इस दृष्टि से भी
है कि उसकी कृतियों द्वारा सही ढंग से अरस्तू एवं अन्य यूनानी विचारधाराओं का
पुनरुत्थान सम्भव हुआ।
शासन व्यवस्था के स्वरूप की दृष्टि से भी मारसीलियो
अन्य मध्ययुगीन विचारकों से एक कदम आगे है। वह इस दृष्टि से स्पष्ट लोकतन्त्रवादी
है और सीमित तथा चयनित राजतन्त्र का समर्थक है। उसने अपने युग के निरंकुश राजाओं
को व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी बनाया और अनुत्तरदायी व्यवहार करने पर
व्यवस्थापिका को उन्हें अपने पद से हटाने का अधिकार प्रदान किया। कुछ परिवर्तित
रूप में उसने यही सिद्धान्त चर्च की सामान्य परिषद् और पोप पर भी लागू किया। राज्य
और चर्च के सम्बन्ध में मारसीलियो की इस धारणा का राजनीतिक चिन्तन के विकास पर
गहरा प्रभाव पड़ा।
निष्कर्ष -
मध्य युग के राजनीतिक विचारकों में मारसीलियो को उसके
मालिक विचारों के कारण महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। पोप की सत्ता को सीमित करने
तथा बहुत हद तक उसको सीमित करने वाले क्रान्तिकारी विचारकों में वह सबसे आगे था।
वह अपने समय से बहुत आगे था। मारसीलियो ने जो विचार 14वीं शताब्दी में चर्च के संगठन तथा
राजनीतिक क्षेत्र में व्यक्त किए थे,
वे 16वीं शताब्दी के धार्मिक आन्दोलन तथा 17वीं व 18वीं शताब्दियों की राजनीतिक क्रान्तियों के
होने तक सामान्य रूप से स्वीकार नहीं किए गए थे। मारसीलियो ने अरस्तू के ग्रन्थ 'The
Politics' का सही रूप
में मूल्यांकन करके चर्च को गौण तथा राज्य को प्रधान स्थान दिया तथा जनता की
सम्प्रभुता और प्रतिनिधित्व के आधुनिक विचारों का सर्वप्रथम स्पष्ट रूप से
प्रतिपादन किया।
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