संविधानवाद से आप क्या समझते हैं ?

प्रश्न 9.संविधानवाद से क्या अभिप्राय है ? संविधानवाद के आधारों की

अथवा ''विवेचना कीजिए। संविधानवाद क्या है ? इसके आधारभूत तत्त्व बताइए।

अथवा ''संविधानवाद क्या है ? संविधान और संविधानवाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए।

अथवा ''संविधानवाद से आप क्या समझते हैं ? इसकी प्रमुख विशेषताएँ बताइए।

अथवा ''संविधानवाद की अवधारणा स्पष्ट करते हुए इसका भविष्य बताइए।

उत्तर  -  

संविधानवाद का अभिप्राय

राजनीतिक शक्ति के प्रादुर्भाव के समय से ही मानव इस शक्ति को परिभाषित करने एवं सीमित करने का प्रयत्न करता रहा है। इसे सीमित करने एवं परिभाषित करने के प्रयत्न को ही संविधानवाद कहा जा सकता है। नियम के अधीन रहने, नियम के अनुसार कार्य करने, नियम के अनुसार राजनीतिक शक्ति का प्रयोग करने तथा राज्य के उद्देश्यों की पूर्ति के प्रयत्न करने को संविधानवाद कहा जाता है।

संविधानवाद से आप क्या समझते हैं ?

यह माना जाता है कि सम्पूर्ण राजनीतिक तन्त्र को उच्चतर विधिसंवैधानिक विधि के अधीन रखा चाहिए तथा राजनीतिक शक्ति की नियन्त्रण व्यवस्था और इसके दुरुपयोग की बचाव प्रक्रियाओं को विधिवत् उद्घोषित ऐसे लोककृत प्रलेख संविधान में उल्लिखित करना चाहिए जिसकी सत्ता नीतिनिर्धारण व क्रियान्वयन करने वाली सरकार की संस्थाओं की शक्ति व पहुँच से सामान्यतया परे हो और इस प्रलेख की इतनी वैधता हो कि उन सब प्रयत्नों की, जो इसके अतिक्रमण के लिए किए जाएँ, अभिभूत कर सके और राजनीतिक समाज में हर व्यक्ति, संस्था व दल उच्चतर विधि द्वारा निर्धारित भूमिका ही निभाएँ। इस उच्चतर विधि में निहित मान्यताओं, मूल्यों व राजनीतिक आदर्शों की उपलब्धि हेतु शासकों को संविधान द्वारा नियमित अधिकार क्षेत्र में ही रहने के. लिए बाध्य करने की संवैधानिक नियन्त्रण व्यवस्था को ही संविधानवाद कहते हैं।

संविधानवाद उन विचारों व सिद्धान्तों की ओर संकेत करता है जो उस संविधान का समर्थन करते हैं जिसके माध्यम से राजनीतिक शक्ति पर प्रभावशाली नियन्त्रण स्थापित किया जा सके। यह संविधान पर आधारित विचारधारा है, जिसका मूल अर्थ यह है कि शासन संविधान में लिखित नियमों व विधियों के अनुसार ही संचालित हो व उस पर प्रभावशाली नियन्त्रण स्थापित रहे, जिसमें वे मूल्य व राजनीतिक आदर्श सुरक्षित रहें जिनके लिए समाज राज्य के बन्धन को   स्वीकार करता है। इस प्रकार संविधानवाद संविधान के नियमों के अनुकूल शासन संचालन से अधिक है। 

इसका अर्थ है निरंकुश शासन के विपरीत नियमानुकूल शासन जिसमें मनुष्य की आधारभूत मान्यताओं, आस्थाओं और मूल्यों की व्यवहार में उपलब्धि सम्भव हो। इससे यह निष्कर्ष निकलता है संविधानवाद शासन की वह पद्धति है जिसमें शासन जनता की आस्थाओं, मूल्यों व आदर्शों को परिलक्षित करने वाले संविधान के नियमों व सिद्धान्तों के आधार पर ही किया जाए व ऐसे संविधान के माध्यम से ही शासकों को प्रतिबन्धित व सीमित रखा जाए जिससे राजनीतिक व्यवस्था की आस्थाएँ सुरक्षित हों और व्यवहार में प्रत्येक व्यक्ति को उपलब्ध हो सकें। 

संविधानवाद उस निष्ठा का नाम है जो मनुष्य संविधान में निहित शक्ति में रखते हैं, जिससे सरकार व्यवस्थित बनी रहती है अर्थात् वह निष्ठा व आस्था की शक्ति, जिसमें राजनीतिक सत्ता सुसंगठित व नियन्त्रित रहती है, संविधानवाद है। इस प्रकार संविधानवाद एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें संविधान के माध्यम से ही सरकार की शक्तियों पर शक्ति वितरण द्वारा प्रभावशाली नियन्त्रण स्थापित किया जाता है।

पिनॉक एवं स्मिथ के शब्दों में, "संविधानवाद केवल प्रक्रिया या तत्त्व का नाम ही नहीं है, अपितु राजनीतिक सत्ता के सुविस्तृत समूहों, दलों व वर्गों पर प्रभावशाली नियन्त्रणों, अमूर्त तथा व्यापक प्रतिनिधितन्त्रात्मक मूल्यों, प्रतीकों, अतीतकालीन परम्पराओं और भावी महत्त्वाकांक्षाओं से सम्बद्ध भी है।"

कोरी एवं अब्राहम के अनुसार, "स्थापित संविधान के निर्देशों के अनुरूप शासन को संविधानवाद कहा जाता है।"

कार्ल जे. फ्रेड्रिक के अनुसार, "व्यवस्थित परिवर्तन की जटिल प्रक्रियात्मक व्यवस्था ही संविधानवाद है।"

इस प्रकार संविधानवाद विचारों, सिद्धान्तों व प्रक्रियाओं की ऐसी व्यवस्था है जिसमें संविधान के माध्यम से राजनीतिक शक्ति पर प्रभावशाली नियन्त्रण स्थापित किया जा सकता है।

संविधानवाद के आधारभूत तत्त्व  -

पिनॉक एवं स्मिथ ने अपनी पुस्तक 'Political Science : An Introduction' में संविधानवाद के चार आधारभूत तत्त्वों की विवेचना की है। किसी भी देश में संविधानवाद के इन तत्त्वों की उपस्थिति उसकी व्यावहारिकता को बढ़ाती है। संविधानवाद के आधारभूत तत्त्व निम्न प्रकार हैं  -

(1) संविधान की उपस्थिति-

संविधान की उपस्थिति संविधानवाद का प्रमुख तत्त्व माना जाता है। लिखित संविधानों में सरकार के प्रमुख पदाधिकारियों, उसके विभिन्न अंगों, उसकी शक्तियों व उन पर लगी सीमाओं का उल्लेख होता   है। संविधान में विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका के कार्य, सम्बन्ध व संगठन का उल्लेख होता है, जो संविधानवाद की स्थिति को सुदृढ़ बनाते हैं।

(2) राजनीतिक शक्ति का संगठन

संविधान द्वारा प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक शक्ति का संगठन होना आवश्यक है। संविधान राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना के साथ-साथ सरकार की विभिन्न संस्थाओं में शक्तियों का उचित ढंग से वितरण भी करता है। संविधान राजनीतिक शक्ति का संगठन इस प्रकार करता है कि सरकार भी वैध रहे तथा उसके कार्य भी अधिकार युक्त रहें।

(3) राजनीतिक शक्ति पर प्रतिबन्ध  -

संविधान राज्य में सरकार की संवैधानिकता को बनाए रखने के लिए राजनीतिक शक्ति पर प्रतिबन्ध की व्यवस्था करता है। प्रतिबन्ध की यह व्यवस्था मौलिक अधिकारों, शक्ति पृथक्करण, विधि के शासन आदि के द्वारा स्थापित की जाती है। इसके साथ ही विकेन्द्रीकरण की व्यवस्था व सामाजिक बहुलवाद की परिस्थितियों को भी इसमें बनाए रखा जाता

(4) राजनीतिक संघर्ष का सीमांकन

संविधानवाद के आधारभूत तत्त्वों में राजनीतिक संघर्ष का सीमांकन भी लिया गया है। इसके लिए आवश्यक है कि संविधानवाद राजनीतिक संघर्ष का प्रभावशाली ढंग से सीमांकन व ढाँचा स्थापित करे तथा राज्य की उन्नति हेतु नवीन योजनाएँ प्रस्तुत करे।

संविधानवाद की विशेषताएँ

संविधानवाद की कुछ विशेषताएँ हैं, जो प्रायः किसी-न-किसी मात्रा में प्रत्येक देश में उपलब्ध होती हैं। संविधानवाद की प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार  है।  -

(1) संविधानवाद मूल्य सम्बद्ध अवधारणा है -

संविधानवाद में देश के मानकों, दृष्टिकोणों, मूल्यों एवं आदर्शों का वर्णन निहित है, जिनको संविधान के माध्यम से संवैधानिक रीति का प्रयोग करके प्राप्त करने की चेष्टा की जाती है।

(i) लोकतान्त्रिक, जहाँ समानता एवं स्वतन्त्रता को राजनीतिक गतिविधियों का आदर्श मानकर तथा संवैधानिक रीति का प्रयोग करके उनकी रक्षा करने, उनको व्यावहारिक रूप देने के लिए एक राजनीतिक पद्धति गतिशील रहती है।

(ii) साम्यवादी अर्थात् एक ऐसे समाज की स्थापना जहाँ वर्ग न हो तथा प्रत्येक व्यक्ति की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति सम्भव हो सके।

(iii) विकासशील देशों की आधुनिकीकरण की भावना, जो प्रायः कम-सेकम हर क्षेत्र में अधिक-से-अधिक विकास कर सके, जिसकी प्राप्ति उसका लक्ष्य है।

(2) संविधानवाद संस्कृति सम्बद्ध अवधारणा  -

संविधानवाद का विकास एवं समाज के मूल्यों का निर्माण देश में स्थापित राजनीतिक संस्कृति से सम्बद्ध होता है। प्रायः प्रत्येक देश में राजनीतिक संस्कृति ही मूल्यों एवं विचारों को जन्म देती है। विकासशील देशों में ऐसी ही स्थिति है। जहाँ तक पाश्चात्य देशों का सम्बन्ध है, एण्ड्रज का यह मत कि संविधानवाद देश की राजनीतिक संस्कृति पर आधारित है, पूर्णतया सत्य है।

(3) संविधानवाद गत्यात्मक अवधारणा  -

संविधानवाद गतिहीन एवं स्थिर धारणा नहीं है तथा यह स्वाभाविक भी है। संविधानवाद वर्तमान के लोकप्रिय मूल्यों और आदर्शों के साथ ही भावी आकांक्षाओं का प्रतीक है। क्योंकि समाज गतिशील है, इसलिए संविधान भी स्वाभाविक रूप से गतिशील है।

(4) संविधानवाद समभागी अवधारणा है

प्राय: यह देखा जाता है कि राष्ट्र के मूल्यों व विश्वास अथवा राजनीतिक आदर्श व संस्कृति में अन्य देशों की भी निष्ठा होती है। अत: कई देशों के राजनीतिक आदर्श, आस्थाएँ व मान्यताएँ समान हो सकते हैं। ऐसे देशों में संविधानवाद आधारभूत समानताएँ रखता है। उदाहरण के लिए, पाश्चात्य सभ्यता वाले देशों में संविधानवाद में समानता पाई जाती है।

(5) संविधानवाद मुख्यतः साध्यमूलक अवधारणा  -

संविधानवाद मुख्यतः आदर्शों, मानकों, दृष्टिकोणों और साधनों से सम्बन्धित विचारधारा है। परन्तु साध्य साधनों की अवहेलना नहीं कर सकता है। संविधानवाद में यह विचार निहित है। साधनों से लगाव रखते हुए संविधानवाद का महत्त्वपूर्ण लगाव साध्यों अथवा लक्ष्यों से रहता है।

(6) संविधानवाद सामान्यतया संविधान आधारित अवधारणा है  -

प्रायः यह देखा जाता है कि प्रत्येक देश में स्थापित मानकों एवं मूल्यों का संविधान में ही वर्णन किया जाता है और इसलिए उन्हीं उद्देश्यों की प्राप्ति देश में राजनीतिक गतिविधियों का आधार होता है। यह भी सत्य है कि इन उद्देश्यों के सम्बन्ध में मतैक्यता हो, जो प्रायः प्रत्येक देश में पाई जाती है, परन्तु इन उद्देश्यों के प्रति मतभेद हो तो यह मतभेद राजनीतिक पद्धति में तनाव, संघर्ष एवं क्रान्ति की स्थिति उत्पन्न कर देता है। ऐसी स्थिति में संविधानवाद के लिए यह अति आवश्यक है कि वह संविधान में स्थापित मूल्यों पर आधारित हो जाते हैं, जो या तो सैन्य शासन अथवा एकदलीय शासन की स्थापना--सा प्रतीत होता है। इन्हीं देशों में यह देखा गया है कि राष्ट्र एकीकरण के स्थान पर देश में गह यद्ध या जातीय संघर्षों के परिणामस्वरूप विखण्डता की भावना अधिक होती है। इन देशों में उपनिवेशवाद के काल में जो दल व्यवस्थाएँ स्थापित हुई थीं या एक अच्छी नौकरशाही व्यवस्था बन गई थी, वह स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् धीरे-धीरे समाप्त होती चली जा रही है।

संविधान और संविधानवाद में अन्तर  -

संविधानवाद के अर्थ को स्पष्ट करते समय बहुधा इसे संविधान के रूप में देखने का भ्रम उत्पन्न कर लिया जाता है। वास्तव में ये दोनों विचार अपनी प्रकृति और स्वरूप की भिन्नता के कारण एक-दूसरे के निकट दिखाई पडते हरा भी समानार्थी नहीं हैं। संक्षेप में, संविधान और संविधानवाद में अन्तर को निम्न आधारों पर स्पष्ट कर सकते हैं  -

(1) परिभाषा में अन्तर-

संवैधानिक शासन का आधार व तत्त्व, दोनों मिलकर ही संविधानवाद का निर्माण करते हैं । संविधानवाद आवश्यक रूप से प्रजातान्त्रिक परम्परा का पोषक है, जबकि संविधान सभी प्रकार की शासन व्यवस्थाओं का पुंज है। वस्तुतः संविधान एक संगठन के रूप में है, जबकि संविधानवाद विचारधारा के रूप में है। संविधानवाद एक दर्शन है और संविधान उस दर्शन की अभिव्यक्ति का साधन है।

(2) प्रकृति में अन्तर

संविधानवाद को प्राप्त करने और उसे बनाए रखने के लिए संविधान साधन है। दूसरे शब्दों में, संविधानवाद जहाँ लक्ष्यों और उद्देश्यों की प्रधानता पर बल देता है, वहीं संविधान की मुख्य विशेषता साधनों की सुव्यवस्था होती है। संविधानवाद आवश्यक रूप से प्रजातान्त्रिक परम्परा का पोषक है, जबकि संविधान सभी प्रकार की शासन व्यवस्थाओं का पुंज है।

(3) क्षेत्र में अन्तर-

संविधानवाद का क्षेत्र अधिक विस्तृत होता है अर्थात् संविधानवाद एक से अधिक राज्यों से सम्बन्धित होता है अथवा हो सकता है, जबकि संविधान किसी एक राज्य विशेष के लिए होता है। संविधानवाद की अवधारणा सार्वभौमिक अवधारणा है, जिसका प्रभाव अनेक राज्यों के संविधानों पर समान रूप से पड़ सकता है। इससे स्पष्ट है कि संविधानवाद व्यापक अवधारणा है और अनेक राष्ट्रों में समान रूप से पाई जा सकती है। इस प्रकार से संविधानवाद व्यापक तथा विस्तृत अवधारणा है, जबकि संविधान सीमित अवधारणा है।

(4) उत्पत्ति की दृष्टि से अन्तर

यथार्थ में संविधानवाद एक विकसित विचारधारा का प्रतिफलन है, जबकि संविधान किसी.राज्य की परिस्थिति विशेष को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं। इस प्रकार उत्पत्ति की दृष्टि से संविधान व संविधानवाद में अन्तर स्पष्ट दिखाई देता है।

(5) औचित्य में अन्तर

संविधानवाद एक निश्चित विचारधारा पर आधारित होता है, जबकि संविधान राज्य विशेष की परिस्थितियों से प्रभावित होकर मुख्यतः विधि पर आधारित होता है। इस प्रकार संविधान संविधानवाद की विकसित परम्परा का प्रतिफल है। संविधानवाद राष्ट्र की आस्था, विश्वास एवं मान्यताओं को स्वयं में समेटकर  गतिमान रहता है। संविधानवाद राष्ट्र की प्रगति से गति लेकर उन्नति में सहायक होता है।

संविधानवाद का भविष्य

संविधानवाद के विकास में अनेक उतार-चढ़ाव आए हैं। आज विश्व के अधिकांश भागों में प्रजातान्त्रिक सिद्धान्तों को जिस प्रकार चुनौती मिल रही है, सैनिकवाद का शिकंजा विश्व के अधिकांश भाग को जकड़ रहा है, उससे संविधानवाद के भविष्य के प्रति प्रश्न-चिह्न लगना स्वाभाविक है।

संविधानवाद के विकास मार्ग में अनेक बाधाएँ सामने आती हैं। संविधानवाद के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा युद्ध है, क्योंकि संकटकालीन स्थिति में सरकार अबाध और असीमित शक्तियों का प्रयोग करती है। जनता पर नियन्त्रण स्थापित हो जाता है। ऐसे समय में संवैधानिक शासन की शिथिलता अवश्यम्भावी है।

द्वितीय, निरंकुशवाद बाध्यता बनती है। यह सर्वाधिकारवाद, सर्वहारा वर्ग का अधिनायक तन्त्र फासीवाद, नाजीवाद, किसी भी रूप में संविधान में ही प्रतिष्ठित कर दिया जाए, परन्तु यह संवैधानिक शासन के प्रतिकूल होगा। इसका कारण यह है कि वह बन्धनहीन, स्वेच्छाचारी और सर्वोपरि होने का दावा करता है।

तृतीय, आज विश्व गुटों में बँटा हुआ है। कहीं समाजवाद, कहीं पूँजीवाद, कहीं निर्गुट देश और इनके विभिन्न सन्धि संगठन। प्रत्येक देश अपने-अपने गुट की ओर जोर लगा रहा है। इससे विकासशील देश रस्साकशी के शिकार हो रहे  है। इन समस्याओं का समाधान सी. एफ. स्ट्रांग द्वारा प्रस्तुत किया गया है  -

(1) अराजकता से बचने के लिए राज्य को प्रभुसत्ता शक्तियाँ अपने पास रखनी होंगी। स्वतन्त्रता स्वच्छन्दता में न बदले, ऐसा प्रयास करना होगा।

(2) राज्य को उस जन-समुदाय को सन्तुष्ट करना चाहिए जिसके सर्वोत्तम हितों की रक्षा के लिए वह आशावान है।

(3) शिक्षित समाज में नागरिक समूह प्रभुसत्तात्मक राज्य को स्वीकार कर सकें, इसके लिए यह आवश्यक है कि वह उन्हें विश्वास दिलाए कि अपने राजनीतिक भाग्य के अन्तिम नियन्ता स्वयं वे ही हैं।

संविधानवाद की जड़ें जम चुकी हैं, उन्हें उखाड़ा नहीं जा सकता। परन्तु उभरती हुई बाधाओं को रोकना व समाधान खोजना अनिवार्य है। विश्व की जनता का कल्याण इसी में है कि संविधानवाद का अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विकास हो और इसका निरन्तर प्रसार हो। सी. एफ. स्ट्रांग का मत है कि अन्तर्राष्ट्रीय संगठन राजनीतिक संविधानवाद की सुरक्षा की एक अनिवार्य शर्त है।"

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