हिन्दी कहानी का विकास और इतिहास

प्रश्न 3. हिन्दी कहानी के विकास पर प्रकाश डालिए। (2021)

उत्तर- हिन्दी कहानी साहित्य के विकास को निम्नलिखित चार चरणों में बाँट सकते हैं

हिन्दी कहानी के विकास पर प्रकाश

(1) प्रथम चरण (सन् 1880 से 1910 तक)-

इस युग को कहानी का उदय काल या प्रारम्भिक काल का नाम दिया जा सकता है। इस युग की कहानी में मुख्य रूप से आदर्श की व्यंजना रहती है। हिन्दी कहानी के विकास में 'इन्दु' एवं 'सरस्वती' नामक पत्रिकाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इस युग की कहानियों में कहानी के कलापूर्ण रूप के दर्शन हुए। इनमें रहस्य, रोमांच, भावुकता, सुधार आदि को महत्त्व दिया गया।

इस युग के कहानीकारों में जी. पी. श्रीवास्तव, राजा राधिकारमण सिंह, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, विशम्भरनाथ जिज्जा, पं. किशोरीलाल गोस्वामी, भगवानदास, ज्वालाप्रसाद आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

इस युग की कहानियों में भावुकतापूर्ण, आदर्शवादी, घटनापूर्ण, पारिवारिक, यथार्थवादी और रहस्यपूर्ण आदि शैलियों का समावेश हुआ है।

हिन्दी कहानी का विकास और इतिहास

(2) द्वितीय चरण (सन् 1911 से 1934 तक) -

इस युग को प्रेमचन्द और प्रसाद युग भी कह सकते हैं। प्रेमचन्द की कहानियों में जीवन-प्रसंगों का वैविध्य है। देहाती एवं शहरी जीवन के अनेक पात्र उनकी रचनाओं में रूपायित हुए हैं। उपदेशमूलक कहानियों से आगे बढ़कर उन्होंने जीवन के जीवन्त यथार्थ को प्रभावपूर्ण रूप में रूपायित किया। प्रेमचन्द की कहानियाँ हास्य-व्यंग्य और करुणा से ओतप्रोत हैं। उनकी भाषा सहज और मुहावरेदार है। प्रेमचन्दजी पात्रानुकूल भाषा के प्रयोग में सिद्धहस्त हैं।

इस काल के सशक्त कहानीकारों में जयशंकर प्रसाद का नाम भी उल्लेखनीय है। जयशंकर प्रसाद मूलतः कवि थे। अत: उनकी कहानियाँ काव्य गुणों से युक्त हैं। 'आकाशदीप', पुकार', 'मधुआ', 'गुण्डा' आदि उनकी प्रतिनिधि रचनाएँ हैं।

प्रेमचन्दजी ने हिन्दी कहानी को स्वतन्त्र और यथार्थ रूप प्रदान किया। उनकी यथार्थवादी शैली से प्रभावित होकर लिखने वाले कहानीकारों में सुदर्शन, नवीन, हृदयेश, पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र', वृन्दावन लाल वर्मा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

प्रसाद की कहानी कला और आदर्श से प्रभावित कहानीकार राधिकारमण सिंह, विशम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक', 'चतुरसेन शास्त्री आदि हैं।

(3) तृतीय चरण (सन् 1935 से 1947 तक)-

तृतीय चरण के कहानी साहित्य में दो प्रमुख प्रवृत्तियों का प्राधान्य रहा। एक प्रवृत्ति है,मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों को आधार बनाकर लिखी गई कहानियों की, जिनका प्रतिनिधित्व जैनेन्द्रकुमार, अज्ञेय और इलाचन्द्र जोशी ने किया। दूसरी प्रवृत्ति है

प्रगतिवादी विचारधारा की, जिसका प्रतिनिधित्व यशपाल, रांगेय राघव, भैरवप्रसाद गुप्त तथा पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' ने किया।

(4) चतुर्थ चरण (सन् 1947 से वर्तमान तक)-

इस युग को स्वातन्त्र्योत्तर काल कहा जाता है। स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी कहानी एक नये वेग, नई वेशभूषा और नई तकनीक एवं विचारधारा के साथ आगे बढ़ी है। इस युग में पुराने-नये सभी कहानीकार अविराम गति से कहानी साहित्य का सृजन करते रहते हैं।

निर्मल वर्मा, मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, रामकुमार वर्मा, रमेश बख्शी, मन्नू भण्डारी, उषा प्रियंवदा आदि महानगर बोध  के लेखक हैं।

परिन्दे', 'एक और जिन्दगी', 'टूटना', 'राजा निरबंसिया', 'रेवा', 'शबरी', 'सावित्री न दो', 'यही सच है', 'वापसी' आदि ऐसी कहानियाँ हैं जिनमें आम आदमी की समस्याओं का निरूपण किया गया है।

प्रखर सामाजिक चेतना के नये लेखक हैं-अमरकान्त, शिवप्रसाद सिंह, फणीश्वरनाथ 'रेणु', शेखर जोशी, शैलेश मटियानी, भीष्म साहनी, मार्कण्डेय, शानी, हरिशंकर परसाई। इन लेखकों की प्रसिद्ध कहानियाँ हैं.'जिन्दगी और जोंक', 'कर्मनाशा की हार', 'तीसरी कसम', 'लाल पान की बेगम', 'बदबूं', 'प्रेत-मुक्ति', 'चौफ की दावत', 'हंसा जाई अकेला', 'एक सान्ध और', 'एक नाव के यात्री', 'भोलाराम का जीव। .

हास्य-व्यंग्य प्रधान कहानीकारों में हरिशंकर परसाई के अतिरिक्त शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, रवीन्द्रनाथ त्यागी के नाम उल्लेखनीय हैं।

महिला कहानीकारों में उल्लेखनीय नाम हैं ,कृष्णा सोबती, मृदुला गर्ग, राजी सेठ, मैत्रेयी पुष्पा, सुधा अरोड़ा, साराराय, मृणाल पाण्डे आदि।

उदीयमान कहानीकारों में उल्लेखनीय नाम हैं-रमेश उपाध्याय, संजीव, उदय प्रकाश, संजय, शिव मूर्ति, उषा प्रियंवदा, अब्दुल, बिस्मिल्लाह, अखिलेश आदि।


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