अलाउद्दीन खिलजी - दक्षिण भारत पर आक्रमण , कारण


M.J.P.R.U.,B.A.I,History I / 2020 
प्रश्न 6. अलाउद्दीन खिलजी की दक्षिण नीति की समीक्षा कीजिए। 
अथवा '' अलाउद्दीन खिलजी ने साम्राज्य का विस्तार किस प्रकार किया ?
अथवा '' अलाउद्दीन खिलजी के दक्षिण अभियानों का वर्णन कीजिए। इन अभियानों के क्या उद्देश्य थे?
अथवा '' दक्षिण भारत पर अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर - अलाउद्दीन खिलजी 1296. में दिल्ली की गद्दी पर बैठा। वह एक वीर, साहसी और महत्त्वाकांक्षी सुल्तान था। उसके पास अतुल धनराशि थी। उसके पास अजेय सेना थी और वह सिकन्दर की भाँति समस्त विश्व को जीतना चाहता था। बाद में उसने विश्व-विजय का विचार त्यागकर भारत विजय का संकल्प लिया।
alauddin-khilji

डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव के अनुसार, "उसके अधिकांश युद्ध समस्त देश की विजय के दृढ़ संकल्प को पूरा करने के लिए लड़े गए थे। हिन्दू राजाओं ने उसके विरुद्ध कोई ऐसे कार्य नहीं किए थे जिनसे उन पर आक्रमण करने का उसे कोई बहाना मिल सकता।"
उत्तर भारत की विजयें -
अलाउद्दीन खिलजी ने उत्तर भारत में निम्नलिखित प्रदेशों पर आक्रमण किया

(1) गुजरात पर आक्रमण (1299 ई.)-

अलाउद्दीन के समय में गुजरात, जो कि एक समृद्धशाली प्रदेश था, में बुन्देला वंश का राज्य था। वहाँ का शासक राजा करण देव बघेल (राय कर्ण) था। अलाउद्दीन ने उलूग खाँ और नसरत खाँ को आक्रमण के लिए भेजा। नसरत खाँ को राजपूतान की ओर से और उलूग खाँ को सिन्ध की ओर से भेजा गया। चित्तौड़ के निकट दोनों सेनाएँ मिल गईं। राजा करण देव बघेल (राय कर्ण) भाग गया।
सोमनाथ मन्दिर का खजाना व शाही खजाना लूट लिया गया। नसरत खाँ ने खम्भात को लूटा। उलूग खाँ को वहाँ का गवर्नर बना दिया गया। उल्लेखनीय है कि नसरत खाँ को खम्भात में मलिक काफूर नाम . का व्यक्ति (हिजड़ा) मिला, जिसे लूट के माल के साथ दिल्ली भेजा गया। बाद में इस व्यक्ति को बड़ी प्रसिद्धि मिली और वह अलाउद्दीन खिलजी का सेनापति भी बना।

(2) रणथम्भौर पर आक्रमण (1301 ई.)-

अलाउद्दीन का दूसरा आक्रमण रणथम्भौर पर हुआ। राजपूतों से खिलजी का यह पहला बड़ा संघर्ष था। जलालुद्दीन खिलजी रणथम्भौर के किले लो, जो कि बहुत मजबूत था, उसे नहीं जीत सका। यहाँ पृथ्वीराज चौहान द्वितीय का वंशज हम्मीर देव राज्य करता था। रणथम्भौर पर आक्रमण के दो कारण थे
(i) यहाँ का किला दिल्ली सल्तनत का अंग रह चुका था, और
(ii) हम्मीर देव ने कुछ मुसलमानों को अपने यहाँ शरण दे दी थी।
खिलजी ने उलूग खाँ और नसरत खाँ को हम्मीर देव के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेजा। हम्मीर ने पूरी तैयारी के साथ युद्ध लड़ा और इस युद्ध में नसरत खाँ मारा गया। तुर्कों में उदासी छा गई। उलूग खाँ को भी पीछे हटना पड़ा। जब अलाउद्दीन को इस हार का पता चला, तो वह स्वयं सेना लेकर आया। एक वर्ष तक उसने किले को घेरे रखा, फिर भी विजय न मिलने पर अलाउद्दीन ने छलकपट से काम लिया और हम्मीर देव के प्रधानमन्त्री रणमल को अपनी ओर कर लिया। जुलाई, 1301 में उसने किले पर अधिकार कर लिया। हम्मीर देव और उसके परिवार को मार दिया गया। अलाउद्दीन खिलजी की आज्ञा से रणमल को भी मार दिया गया। विजयी होकर अलाउद्दीन दिल्ली लौट गया।

(3) चित्तौड़ पर आक्रमण (1303 ई.) -

चित्तौड़ का राजा रतनसिंह बहुत ही शक्तिशाली था। कुछ इतिहासकारों का मत है कि अलाउद्दीन खिलजी ने राजा रतनसिंह की पत्नी पद्मिनी को प्राप्त करने के लिए युद्ध लड़ा था, जो कि बहुत ही सुन्दर थी। कारण कुछ भी हो, दोनों के मध्य घमासान युद्ध हुआ और जीत अलाउद्दीन की हुई। रानी पद्मिनी और अनेक स्त्रियाँ एक साथ चिता में जलकर भस्म हो गईं। राजा रतनसिंह लड़ाई में मारे गए। अमीर खुसरो, जिसने आँखों से युद्ध देखा था, ने लिखा है कि एक दिन में 30 हजार हिन्दू मार दिए गए। खिज्र खाँ को चित्तौड़ का शासक बनाया गया और चित्तौड़ का नाम 'खिज्राबाद' रख दिया गया।

(4) मालवा पर आक्रमण (1305 ई.) -

मालवा का शासक महालक देव था, जो खिलजी की पराधीनता स्वीकार करने को तैयार नहीं था। कोका उसका प्रधान सेनापति था। अलाउद्दीन ने 10 हजार सैनिकों के साथ आइनुल मुल्क को भेजा। कोका की युद्धभूमि में ही मृत्यु हो गई। मालवा जीतकर मुल्क माण्डू की ओर बढ़ा। खुसरो के अनुसार माण्डू दक्षिण विजय की कुंजी थी। यहाँ पर उसका अधिकार हो गया। इसके पश्चात् उज्जैन, घाट व चन्देरी पर भी उसका अधिकार हो गया। उसे माण्डू और मालवा का सूबेदार बनाया गया।

(5) सिवाना ( मारवाड़) पर आक्रमण (1308 ई.)-

अभी तक मारवाड़ पर अलाउद्दीन खिलजी की विजय नहीं हुई थी। यहाँ का शासक शीतलदेव परमार था। अलाउद्दीन की सेना ने इस प्रदेश के सबसे शक्तिशाली किले सवाना को घेर लिया। लम्बे संघर्ष के बाद, जिसमें स्वयं अलाउद्दीन ने ही घेरे का संचालन किया था, मारवाड़ के राजा शीतलदेव को हरा दिया। कमालुद्दीन को यहाँ का शासक नियुक्त किया गया।

(6) जालौर पर आक्रमण (1311 ई.)-

यह उत्तर भारत की अन्तिम विजय थी। यहाँ का शासक कनइर देव था। 1305 ई. में उसने अलाउद्दीन की अधीनता स्वीकार कर ली थी, परन्तु बाद में विद्रोह कर दिया। दोनों में भयंकर संघर्ष हुआ। प्रारम्भ में तो कनइर देव की विजय हुई। बाद में कमालुद्दीन के नेतृत्व में सेना भेजी गई। अन्त में अलाउद्दीन की विजय हुई।

दक्षिण के राज्यों पर आक्रमण के कारण ( उद्देश्य) -

उत्तर भारत पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् अलाउद्दीन खिलजी ने अपना ध्यान दक्षिणी राज्यों की ओर केन्द्रित किया। अलाउद्दीन खिलजी द्वारा दक्षिण के राज्यों पर आक्रमण के निम्नलिखित कारण थे"
(1) अलाउद्दीन खिलजी अत्यन्त लालची और साम्राज्यवादी था। उसने दक्षिण के राज्यों के आपसी संघर्ष का लाभ उठाना चाहा।
(2) उत्तर भारत की विजय तथा मंगोल आक्रमणों को रोकने के लिए सुल्तान " ने एक विशाल सेना का गठन किया था। उस सेना को सक्रिय बनाए रखने के लिए उसने दक्षिण के राज्यों को जीतने की योजना बनाई।
(3) विशाल सेना को वेतन देने के लिए धन की अत्यधिक आवश्यकता थी, जो दक्षिण से प्राप्त हो सकता था।
(4) सुल्तान अलाउद्दीन 1303 ई. की वारंगल पराजय का बदला लेना चाहता था।
(5) देवगिरि के शासक रामचन्द्र देव ने 1296 ई. में अपनी पराजय के कुछ वर्ष पश्चात् 'खिराज' (वार्षिक कर) देना बन्द कर दिया था।
दक्षिण भारत की विजयें अलाउद्दीन ने सुदूर दक्षिण के राज्यों को अपने अधीन करने के लिए एक सुदृढ़ नीति अपनाने का निश्चय किया, ताकि अन्य राज्य भी उसकी श्रेष्ठता को स्वीकार कर सकें और उसे वार्षिक कर दें। वास्तव में वह साम्राज्य का विस्तार नहीं करना चाहता था, अपितु धन एकत्र करना चाहता था। उसने दक्षिण अभियान का नेतृत्व मलिक काफूर को सौंपा।

(1) देवगिरि पर आक्रमण-

अलाउद्दीन की आज्ञा से मलिक काफूर ने सर्वप्रथम देवगिरि पर आक्रमण किया। वहाँ के राजा रामचन्द्र देव को इस आक्रमण की कोई जानकारी नहीं थी, इस समय वह युद्ध के लिए तैयार नहीं था। इसलिए उसने बिना युद्ध लड़े ही अलाउद्दीन की अधीनता स्वीकार कर ली। किन्तु फिर भी मलिक काफूर उसे बन्दी बनाकर दिल्ली ले गया। दिल्ली में कुछ महीने रहने के पश्चात् अलाउद्दीन ने उसे सम्मानपूर्वक देवगिरि भेज दिया। राजा रामचन्द्र देव के प्रति अलाउद्दीन के उदार व्यवहार के सम्बन्ध में इतिहासकारों की धारणा है कि अलाउद्दीन रामचन्द्र देव से मित्रता करके उसके सहयोग से सुदूर दक्षिण के प्रदेशों को जीतना चाहता था। बर्नी ने लिखा है, "राजा रामचन्द्र देव सुल्तान के उदार व्यवहार से अत्यन्त प्रसन्न हुआ, फिर उसने जीवनपर्यन्त सुल्तान का विरोध नहीं किया।"

(2) वारंगल पर आक्रमण-

देवगिरि पर विजय के पश्चात् अलाउद्दीन ने 1308 ई. में तेलंगाना की राजधानी वारंगल पर आक्रमण किया, क्योंकि अलाउद्दीन अपनी पुरानी पराजय का बदला लेना चाहता था। अत: उसने मलिक काफूर को वारंगल पर आक्रमण करने का आदेश दिया और यह भी निर्देश दिया कि यदि वहाँ का शासक प्रताप रुद्रदेव बिना युद्ध लड़े अधीनता स्वीकार कर ले और पर्याप्त मात्रा में धन भेंट करे, तो युद्ध लड़ना अनिवार्य नहीं है। अलाउद्दीन की आशा के अनुरूप प्रताप रुद्रदेव ने समर्पण कर दिया और मलिक काफूर को पर्याप्त धन-दौलत भेंट की।

(3) द्वारसमुद्र तट पर आक्रमण-

अलाउद्दीन ने दो सफलताओं से उत्साहित होकर दक्षिण के तीसरे शक्तिशाली राज्य द्वारसमुद्र (होयसल) पर आक्रमण किया। 1310 ई. में मलिक काफूर ने द्वारसमुद्र की ओर प्रस्थान किया। सर्वप्रथम वह देवगिरि पहुँचा और वहाँ से अपने चुने हुए सैनिकों के साथ वह द्वारसमुद्र की ओर बढ़ा। जिस समय मलिक काफूर ने द्वारसमुद्र पर आक्रमण किया, वहाँ का शासक वीर बल्लाल. तृतीय अपने पड़ोसी राज्य से संघर्ष में फँसा हुआ था। फलस्वरूप मलिक काफूर ने बड़ी सरलता से द्वारसमुद्र की सीमा में प्रवेश किया। आक्रमण की सूचना मिलते ही वीर बल्लाल ने उसका सामना किया, किन्तु वह सफल नहीं हो सका। पराजित होकर उसने अलाउद्दीन को भेंट देना स्वीकार कर लिया। इस प्रकार दक्षिण के तीनों महत्त्वपूर्ण राज्यों पर अलाउद्दीन ने विजय प्राप्त की।

(4) पाण्ड्य राज्य पर आक्रमण-

इस राज्य में उत्तराधिकार के लिए वीर पाण्ड्य एवं सुन्दर पाण्ड्य के मध्य संघर्ष चल रहा था। सुन्दर पाण्ड्य ने अलाउद्दीन से सहायता माँगी। अलाउद्दीन ने उपयुक्त अवसर देखकर मलिक काफूर को सुन्दर पाण्ड्य की सहायता का आदेश दिया। चूँकि वीर पाण्ड्य मलिक काफूर की शक्तिशाली सेना का सामना नहीं कर सकता था, इसलिए उसने कभी आमने-सामने युद्ध नहीं किया। मलिक काफूर उसका पीछा करते हुए विभिन्न नगरों को लूटता रहा। वह वीर पाण्ड्य का पीछा करते हुए रामेश्वरम के मन्दिर तक जा पहुँचा और लूटमार की। वहाँ उसने एक मस्जिद का भी निर्माण करवाया। इसके पश्चात् लूट की विशाल राशि लेकर वह दिल्ली लौट गया।

(5) देवगिरि पर पुनः आक्रमण -

राजा रामचन्द्र देव की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र सिंहन देव गद्दी पर बैठा। उसने अपने पिता द्वारा की गई सन्धि को ठुकरा दिया और दिल्ली सल्तनत को कर देना बन्द कर दिया। मलिक काफूर ने देवगिरि पर आक्रमण करके सिंहन देव को पराजित कर दिया और देवगिरि को दिल्ली साम्राज्य में मिला लिया।
अलाउद्दीन खिलजी की. दक्षिण नीति की सफलता के कारण
(1) मलिक काफूर की योग्यता, वीरता एवं कूटनीतिक योग्यता का इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान था।
(2) आपसी मतभेदों के कारण दक्षिण के राज्य संगठित होकर तुर्की सेना का सामना करने में असफल रहे।
(3) दक्षिण के राजाओं ने धन और उपहार देकर अपनी स्वतन्त्रता को बनाए रखा।
इस प्रकार अलाउद्दीन की दक्षिण नीति का मुख्य उद्देश्य साम्राज्य-विस्तार के साथ धन प्राप्त करना था। इस उद्देश्य में उसे पूर्ण सफलता भी मिली। वस्साफ ने लिखा है, "दक्षिण में काफूर की शानदार सफलताओं ने महमूद गजनवी की हिन्दुस्तान की विजयों को भुला दिया।"

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