मेटरनिख की उपलब्धिया और पतन


M.J.P.R.U.,B.A.II,History II/2020
प्रश्न 9."मैटरनिख अपने युग का महान् प्रतिक्रियावादी नेता था।" इस कथन के सन्दर्भ में मैटरनिख की गृह व विदेश नीति की व्याख्या कीजिए।
अथवा  ''मैटरनिख की नीति का मूल्यांकन करते हुए उसकी असफलता के कारण बताइए।
अथवा  ''मैटरनिख की उपलब्धियों का मूल्यांकन कीजिए एवं उसके पतन के कारणों पर प्रकाश डालिए।
अथवा  ''1815 से 1848 ई. तक का समय यूरोप के इतिहास में 'मैटरनिख युग' के नाम से क्यों पुकारा जाता है ?

मेटरनिख - उपलब्धिया और पतन 
Metternich hindi biography
Metternich

उत्तर - 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में मैटरनिख यूरोप की प्रतिक्रियावादी शक्तियों का नेतृत्वकर्ता था। 1815 से 1848 . तक ऑस्ट्रिया के चांसलर के रूप में वह यूरोप का सर्वाधिक प्रभावशाली व्यक्ति था। इसीलिए 34 वर्ष की इस अवधि को यूरोप के इतिहास में 'मैटरनिख युग' कहा जाता है।

मैटरनिख का जीवन-परिचय

मैटरनिख का जन्म 15 मई, 1773 को कॉब्लेंज नामक नगर में हुआ था। नेपोलियन बोनापार्ट ने उसके पिता की जागीर को जर्मनी के पुनर्गठन के समय जब्त कर लिया था। 1789 ई. की फ्रांस की राज्यक्रान्ति के समय मैटरनिख शिक्षा प्राप्त कर रहा था। कुलीनों एवं सामन्तों पर क्रान्तिकारियों के अत्याचारों की कहानी सुनकर मैटरनिख का हृदय सदैव के लिए क्रान्ति विरोधी हो गया था। 1795 ई. में उसकी शादी ऑस्ट्रिया के तत्कालीन चांसलर कानिज की पौत्री के साथ हुई। इस घटना के पश्चात् उसके राजनीतिक जीवन का प्रारम्भ हुआ। 1801 से 1806 . तक वह यूरोप के अनेक देशों में राजदूत के पद पर नियुक्त हुआ। उसकी योग्यता से प्रभावित होकर ऑस्ट्रिया के सम्राट् फ्रांसिस प्रथम ने 1809 ई. में उसे ऑस्ट्रिया का चांसलर नियुक्त किया तथा 1848 ई. तक वह निरन्तर इस पद पर बना रहा।

मैटरनिख की राजनीतिक विचारधारा -

(1) मैटरनिख को अपनी शक्ति पर अत्यधिक विश्वास था। वह समझता था कि उसका जन्म यूरोप महाद्वीप के बिगड़े हुए राजनीतिक ढाँचे को ठीक करने के लिए हुआ है। ।
(2) मैटरनिख क्रान्ति का कट्टर शत्रु था। वह क्रान्ति को सड़ा हुआ मांस का टुकड़ा, संक्रामक रोग,
ज्वालामुखी आदि नामों से पुकारता था।
(3) वह सुधारों का विरोधी तथा यथास्थिति का समर्थक था।
उपर्युक्त विचारों के आधार पर मैटरनिख ने ऑस्ट्रिया साम्राज्य की गृह तथा विदेश नीति में नई व्यवस्था का सूत्रपात किया था। इस व्यवस्था को 'मैटरनिख व्यवस्था' कहा जाता है। इस व्यवस्था का मूल मन्त्र 'यथास्थिति' को कायम रखना था।

मैटरनिख की गृह नीति -

मैटरनिख कार्यकाल में ऑस्ट्रिया साम्राज्य में विभिन्न जातियाँ निवास कातीला देश का सामाजिक ढाँचा सामन्तवादी था। देश की अधिकांश भूमि व सम्पत्ति पर विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग का अधिकार था। दूसरी ओर साधारण वर्ग की दशा अत्यन्त दयनीय थी। उन्हें कृषि उपज का अधिकांश भाग कर के रूप में देना पड़ता था। इस प्रकार धन के असमान वितरण के कारण साम्राज्य की सामाजिक च आर्थिक स्थिति असन्तोषजनक थी। इस तरह के वातावरण में मैटरनिख ने साम्राज्य में शान्ति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए निम्नलिखित कदम उठाए-
(1) साम्राज्य को कई प्रान्तों में बाँट दिया गया। प्रत्येक प्रान्त पर एक गवर्नर नियुक्त किया गया।
(2) विद्यालयों पर कठोर सरकारी नियन्त्रण स्थापित किया गया। सभी पाठ्यक्रमों को बदल दिया गया। इतिहास व दर्शन के अध्ययन पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया।
(3) अभिव्यक्ति, लेखन आदि पर नियन्त्रण के लिए समाचार-पत्रों पर कठोर प्रतिबन्ध लगा दिए गए।
(4) साम्राज्य में गुप्तचरों का जाल बिछा दिया गया।
(5) विदेशी यात्राओं पर रोक लगा दी गई।
(6) ऑस्ट्रिया की सीमा पर निरीक्षकों को नियुक्त किया गया। उनका कार्य राष्ट्रीयता के समर्थक व्यक्तियों एवं साहित्य के प्रवेश पर रोक लगाना था।
(7) व्यापारिक क्षेत्र में मैटरनिख ने संरक्षित शुल्क व्यवस्था को अपनाया, ताकि विदेशों में व्यापारिक सम्पर्क न बढ़ सके।

मैटरनिख की विदेश नीति

 वैदेशिक नीति के क्षेत्र में मैटरनिख के महत्त्वपूर्ण कार्य निम्नलिखित थे

(1) वियना समझौता (1815 ई.)

 वाटरलू के युद्ध में नेपोलियन के पतन के पश्चात् 1815 ई. में ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना में यूरोप के सभी देशों के राजनीतिज्ञों का सम्मेलन बुलाया गया। मैटरनिख इस सम्मेलन का संयोजक था। इस सम्मेलन में हुए समझौते की शर्तों पर मैटरनिख के विचारों को स्पष्ट प्रभाव पड़ा। ऑस्ट्रिया साम्राज्य की सीमा में वृद्धि करने के साथ-साथ इटली व जर्मनी में भी अपना प्रभाव स्थापित करने में मैटरनिख को सफलता प्राप्त हुई थी।

(2) पवित्र संघ-

रूस के जार अलेक्जेण्डर प्रथम ने यूरोप महाद्वीप में स्थायी शान्ति की स्थापना के लिए ईसाई धर्म पर आधारित 'पवित्र संघ' की योजना को प्रस्तुत किया। मैटरनिख ने इस योजना का कड़ा विरोध किया और इसे 'ढोल की पोल' तथा 'नैतिकता का कोरा प्रदर्शन' बतलाया। उसके विरोध के कारण यह योजना असफल हो गई।

(3) चतुर्मुख संघ-

मित्र राष्ट्रों ने वियना समझौते को स्थायी बनाने के लिए चतुर्मुख संघ की स्थापना की थी। ऑस्ट्रिया भी इस संघ का सदस्य था, किन्तु शीघ्र ही हस्तक्षेप के प्रश्न पर मैटरनिख का इंग्लैण्ड से मतभेद हो गया। मैटरनिख संयुक्त व्यवस्था का प्रयोग यूरोप में राष्ट्रीयता एवं उदारवाद के दमन के लिए करना चाहता था, जबकि इंग्लैण्ड के विदेश मन्त्री कैसलरे तथा कैनिंग ने इस हस्तक्षेप को अनुचित बतलाते हुए मैटरनिख की नीति का कड़ा विरोध किया। इस पारस्परिक फूट के कारण यह व्यवस्था 1825 ई. में समाप्त हो गई।

(4) जर्मनी -

वियना समझौते के अनुसार जर्मनी को 39 राज्यों का एक संघ बनाकर ऑस्ट्रिया को इस संघ का अध्यक्ष बनाया गया था। मैटरनिख का उद्देश्य जर्मनी में राष्ट्रवादी व क्रान्तिकारी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाना था, किन्तु जर्मनी की जनता ने इस व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। मैटरनिख ने 1819 ई. में 'कार्ल्सबाद अध्यादेश' (Carlsbad Decrees) पारित करके जर्मनी के विद्यालयों, शिक्षकों, छात्रों, समाचार-पत्रों एवं पत्रकारों पर कठोर नियन्त्रण लगा दिया। यह व्यवस्था 1848 ई. तक चलती रही।

(5) इटली

इटली को छोटे-छोटे राज्यों में बाँटकर वहाँ पर पुनः निरंकुश शासकों को सत्तारूढ़ करने में मैटरनिख की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। इस व्यवस्था के विरुद्ध नेपिल्स पीडमॉण्ट राज्यों की जनता ने विद्रोह कर दिया। मैटरनिख ने ट्रोपो (1820 .) तथा लाईबेख (1821 ई.) की कॉन्फ्रेंस द्वारा अधिकार प्राप्त करके अपनी सेना भेजकर इन दोनों राज्यों के विद्रोहों का दमन कर दिया। इस प्रकार 1848 . तक इटली में भी यथास्थिति बनी रहीं।
शक्ति सन्तुलन बनाए रखने के लिए उसने यूरोप और ऑस्ट्रिया में पाए जाने वाले विरोधों एवं मतभेदों को बनाए रखा। इटली और जर्मनी को विभाजित रखा तथा ऑस्ट्रिया में बसने वाली विभिन्न जातियों का एक-दूसरे के विरुद्ध उपयोग किया।

मैटरनिख की असफलता के कारण तथा मैटरनिख का पतन

1848 ई. में फ्रांस की जनता ने सम्राट् लुई फिलिप के विरुद्ध क्रान्ति कर दी। लुई फिलिप भाग गया और फ्रांस में गणतन्त्र की घोषणा कर दी गई। इस समाचार को सुनकर ऑस्ट्रिया की जनता का उत्साह बढ़ गया। 13 मार्च, 1848 को मैटरनिख के विरुद्ध वियना में क्रान्ति हो गई। क्रान्तिकारियों ने मैटरनिख के महल को घेर लिया। भीड़ नारे लगा रही थी, 'मैटरनिख त्याग-पत्र दो। मैटरनिख का नाश हो।' मैटरनिख ने परिस्थितियों की नाजुकता को पहचान लिया और कहा, "मैं एक बूढ़ा हकीम हूँ। मैं साध्य और असाध्य बीमारियों के अन्तर को जानता हूँ। यह बीमारी प्राणघातक है।" उसने तुरन्त चांसलर पद से त्याग-पत्र दे दिया और इंग्लैण्ड भाग गया।

मैटरनिख के पतन के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे

(1) मैटरनिख की शासन प्रणाली पूर्णतया प्रतिक्रियावादी और क्रान्तिजनित विचारों की विरोधी थी। परिणामस्वरूप उसका शासन विचारशील लोगों और देशभक्तों के लिए असहनीय हो गया। .
(2) मैटरनिख की दमनकारी नीति के कारण समस्त यूरोप में आतंक छा गया। मैटरनिख को जो भी सहयोग मिला, वह भय के कारण मिला, स्वेच्छा से नहीं। ऐसी स्थिति में उसका पतन अवश्यम्भावी था। .
(3) यूरोप में समाजवाद की भावना का जन्म होने से श्रमिकों एवं पूँजीपतियों का विरोध बढ़ गया और उसका भी मैटरनिख के शासन पर व्यापक प्रभाव पड़ा।
(4) मैटरनिख शासन प्रगति का विरोधी था। वह यथास्थिति बनाए रखने का पक्षपाती था। उसने समाजवादी, उदारवादी और राष्ट्रवादी-इन तीनों आन्दोलनों को कुचलने का प्रयास किया और इसलिए उसे प्रबल जनमत का विरोध सहन करना पड़ा।
(5) शिक्षा के क्षेत्र में कठोर प्रतिबन्धों के लगने के फलस्वरूप शिक्षक और बौद्धिक वर्ग मैटरनिख का विरोधी बन गया।
(6) औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप फ्रांस, बेल्जियम, जर्मनी आदि में इंग्लैण्ड की भाँति कल-कारखाने स्थापित हुए। फलस्वरूप यूरोप के अनेक राज्यों में नवयुग का प्रादुर्भाव हुआ। पुरातन व्यवस्था को अव्यावहारिक माना जाने लगा और इस स्थिति में प्रतिक्रियावादी शक्तियों का पतन होना स्वाभाविक था।

मैटरनिख का मूल्यांकन

मैटरनिख तत्कालीन यूरोप का महानतम राजनीतिज्ञ था। उसने नेपोलियन के युद्धों से लहूलुहान यूरोप में काफी समय तक शान्ति बनाए रखी और उसने ऑस्ट्रिया के गौरव को बढ़ाया। अपने प्रतिक्रियावाद में मैटरनिख एक लम्बे समय तक सफल रहा। वह कहता था, "यूरोप में शान्ति की स्थापना के लिए मेरी नीति आवश्यक और अनिवार्य साधन है।" यह ठीक है कि नेपोलियन के युद्धों से जर्जरित यूरोप में शान्ति की स्थापना में मैटरनिख को सफलता मिली, परन्तु फिर भी मैटरनिख लगभग सभी इतिहासकारों की आलोचना का पात्र रहा। इसका कारण यह था कि वह अपने युग का महान् प्रतिक्रियावादी नेता था। वह क्रान्ति, राष्ट्रीयता, उदारवाद, प्रजातन्त्र आदि विचारों का कट्टर विरोधी तथा यथास्थितिवाद व पुरातनवाद का सफल पुजारी था। उसके चरित्र का सबसे बड़ा दोष यह था कि उसमें समय के अनुसार समायोजित होने की योग्यता का अभाव था। वह प्रायः कहता था
"मैं इस संसार में या बहुत जल्दी आया हूँ अथवा देर से आया हूँ। पहले आने पर युग का आनन्द लेता और बाद में आने पर युग की पुनर्रचना में सहायता करता। किन्तु इस समय मुझे अपना जीवन बिगड़े हुए समाज को ठीक करने में लगाना पड़ा है।"
लिप्सन के शब्दों में, "उसने अपने शक्तिशाली दीर्घकाल में यूरोप की शान्ति बनाए रखने का प्रयत्न किया। उसने एक ऐसी दुनिया के लिए, जो नेपोलियन के रक्त से रँगी हुई थी, उसे अत्यन्त आवश्यक शान्ति प्रदान की।"

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