1857 का विद्रोह - न राष्ट्रीय था और न स्वतन्त्रता संग्राम था
MJPRU-BA-III-History I-2020
प्रश्न 8. "1857 ई. का
विद्रोह भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम था।" इस
सम्बन्ध में 1857 ई. के विद्रोह के कारण बताइए।
1857 ई. के विद्रोह की प्रकृति
प्रश्न 8. "1857 ई. का
विद्रोह भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम था।" इस
सम्बन्ध में 1857 ई. के विद्रोह के कारण बताइए।
अथवा "1857 ई. का
प्रथम राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम न तो प्रथम था, न
राष्ट्रीय था और न स्वतन्त्रता संग्राम था।" व्याख्या
कीजिए।
अथवा ''1857 ई. के विद्रोह
के क्या कारण थे ? क्या इसे प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता
संग्राम कहना उचित है ?
अथवा ''1857 ई. की
राज्यक्रान्ति के क्या कारण थे? क्या हम उसे भारतीय
स्वतन्त्रता का प्रथम युद्ध कह सकते हैं ?
उत्तर -1857 ई. की क्रान्ति का
आरम्भ एक सैनिक विद्रोह के रूप में हुआ, जो धीरे-धीरे कलकत्ता से लेकर दिल्ली तक के
प्रदेशों में फैल गया। किन्तु उसके पीछे अनेक कारण थे, जिन्होंने
इसके शीघ्र विस्तार में सहयोग प्रदान किया और जनता ने सक्रिय भाग लेकर अंग्रेजी
सत्ता का विनाश करने का प्रयत्न किया। 1857 ई. की क्रान्ति
के कारणों को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है
(1) राजनीतिक कारण
(1) गोद निषेध प्रथा- इस
सिद्धान्त का प्रतिपादन लॉर्ड डलहौजी ने किया था। कम्पनी के राज्य का विस्तार करने
के लिए उसने एक नवीन कूटनीतिक सिद्धान्त का निर्माण किया, जो 'गोद निषेध प्रथा' के नाम से प्रसिद्ध है। डलहौजी
ने घोषणा की कि जो देशी राज्य कम्पनी के साथ सन्धि से बँधे हैं या अधीन हैं,
उनके नरेशों के यदि कोई पुत्र न हो, तो वे
बिना अंग्रेजों की अनुमति के किसी को गोद नहीं ले सकते। उसने अपने इस सिद्धान्त के
द्वारा सतारा, झाँसी, नागपुर के
राज्यों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। इस प्रकार डलहौजी द्वारा राज्यों के अपहरण ने देशी नरेशों के हृदय में ब्रिटिश साम्राज्य के
विरुद्ध घृणा की भावना उत्पन्न कर दी।
(2) कुशासन के नाम पर अपहरण -
डलहौजी ने साम्राज्य-विस्तार का
दूसरा हथियार निकाला, कुशासन के नाम पर देशी राज्यों को कम्पनी के अधीन करना अर्थात् जिन
राज्यों में कम्पनी भ्रष्टाचार तथा कुशासन का साम्राज्य समझती थी, उन्हें अपने राज्य में विलीन कर लेती थी। उसकी इस नीति के शिकार हैदराबाद
के निजाम तथा अवध के नवाब हुए।
(3) पेंशनों और पदों की समाप्ति-
जिन देशी नरेशों के राज्यों को
कम्पनी ने छीन लिया था, उन्हें वह पेंशन तथा उपाधियाँ प्रदान करती थी। लॉर्ड डलहौजी ने यह कहकर
नाना साहब की पेंशन तथा उपाधियों को बन्द कर दिया कि वे व्यक्तिगत होती हैं और
उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके उत्तराधिकारियों को नहीं मिलनी चाहिए।
(4) अवध के नवाब के साथ अत्याचार-
अवध के नवाब से अपना राज्य कम्पनी
को देने को कहा गया, नवाब ने उस सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया। इससे कम्पनी
के अधिकारी अपना धैर्य खो बैठे और सेना लेकर बलपूर्वक लखनऊ के महलों में घुस पड़े।
महलों की सम्पत्ति को लूटा, बेगमों के साथ अत्याचार किया और
उनका अपमान किया तथा नवाब वाजिद अली शाह को कैद कर लिया। अवध पर कम्पनी ने अपना
अधिकार कर लिया। अवध के नवाब के साथ अंग्रेजों का व्यवहार निन्दनीय था।
(5) बहादुरशाह के साथ अंग्रेजों का अपमानजनक व्यवहार-
प्रारम्भ
में कम्पनी के अधिकारियों ने मुगल सम्राटों से अनेक अधिकार पत्र प्राप्त किए थे।
कम्पनी के सिक्कों पर मुगल सम्राट का नाम अंकित होता था। उसे आदरपूर्ण शब्दों में
सम्बोधित किया जाता था। परन्तु धीरे-धीरे स्थिति परिवर्तित हो गई। आमहर्ट ने
बादशाह से स्पष्ट शब्दों में कहा, "आपकी बादशाहत नाममात्र की है।
केवल शिष्टता के लिए आपको बादशाह कहा जाता है।" भारत
की प्रजा अभी भी मुगल सम्राट को आदर की दृष्टि से देखती थी। अंग्रेजों द्वारा
सम्राट् का अनादर किया जाग जनता को सहन नहीं हुआ और उसकी क्रोधाग्नि क्रान्ति के
रूप में प्रकट हुई।
(6) भारतीय उच्च वर्ग के साथ अन्याय-
भारतीय उच्च वर्ग को देशी नरेशों
के शासनकाल में अनेक विशेषाधिकार तथा सुविधाएँ मिली हुई थीं, परन्तु कम्पनी के
शासन की स्थापना से वे समस्त विशेषाधिकारों एवं सुविधाओं से वंचित हो गए। ऐसी दशा में उनमें असन्तोष होना स्वाभाविक था। उनकी जगह
जो अंग्रेज पदाधिकारी नियुक्त किए जाते थे, वे जनता के प्रति उदासीन, अनुचित माँग करने वाले तथा कल्पनाहीन थे। वे देशी उच्च वर्ग का अपमान करते
थे और उनको प्रभावहीन बनाने के लिए प्रयासरत रहते थे।
(II) धार्मिक कारण
1857 ई. की क्रान्ति में धार्मिक कारणों ने पर्याप्त सहयोग दिया। अंग्रेजों ने
भारत में ईसाई धर्म का प्रचार किया, यद्यपि प्रत्यक्ष रूप से
कम्पनी की धार्मिक नीति उदार थी।
(1) पादरियों द्वारा ईसाई धर्म का प्रचार-
अंग्रेजों के साथ-साथ बहुत-से ईसाई
पादरी भारत आए और उन्होंने भारत में ईसाई धर्म का प्रचार करना आरम्भ किया। इन
पादरियों को अंग्रेजों ने गुप्त रूप से सहायता दी। कम्पनी के संचालकों की यह नीति
थी कि जिस प्रकार से सम्भव हो, भारत में ईसाई धर्म का प्रचार किया जाए।
ईसाइयों को उच्च पदों पर आसीन किया जाता था। इसके विपरीत हिन्दू तथा मुसलमानों के
साथ कम्पनी के कर्मचारियों का व्यवहार अच्छा नहीं था।
(2) धार्मिक सिद्धान्तों की अवहेलना-
अंग्रेजों ने हिन्दू व मुस्लिम
धर्मों के सिद्धान्तों को भी स्वीकार नहीं किया, जैसे-गोद लेने की
प्रथा। इसके अतिरिक्त हिन्दू या इस्लामी धार्मिक जुलूस व जलसे बन्द कर दिए गए।
विद्यालयों में हिन्दू और मुसलमान नवयुवकों को भारतीय धर्मों के प्रति
अनास्था के पाठ पढ़ाए जाते थे। इसका प्रभाव यह हुआ कि हिन्दू और मुसलमान जनता
ब्रिटिश सरकार को अपने धर्म का शत्रु समझने लगी थी।
(3) कारतूस का प्रचलन -
इसी समय अंग्रेजों ने एक कारतूस का प्रचलन किया, जिसको चिकना करने
के लिए गाय और सुअर की चर्बी का प्रयोग किया जाता था और जिसको बन्दूक में भरने से
पूर्व मुँह से काटना पड़ता था। जब सैनिकों को इस बात का ज्ञान हुआ, तो उन्हें विश्वास हो गया कि कम्पनी उनके धर्म को भ्रष्ट करने का प्रयत्न
कर रही है और इस भावना के अन्तर्गत उनमें अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध विद्रोह करने
की भावना स्वाभाविक रूप से उत्पन्न हो गई।
(III) सैनिक कारण
(1)उच्च पदों पर भारतीयों को नियुक्त न करना - सेना
में जितने भी उच्च पद थे, उन पर भारतीयों की नियुक्ति नहीं की जाती
थी। ये पद अंग्रेजों के लिए ही सुरक्षित रहते थे। कम्पनी के संचालक भारतीयों
को इन पदों के योग्य नहीं समझते थे। इस प्रकार वे जीवनभर निम्न पदों पर कार्य करने
के लिए बाध्य किए जाते थे। यह बाध्यता उनमें मानसिक असन्तोष को जन्म देती थी।
(2)वेतन में असमानता -
अंग्रेज सैनिकों की तुलना में भारतीय सिपाहियों को बहुत कम
वेतन मिलता था। डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार, "सिपाही को ₹7 तनख्वाह मिलती थी, इसमें
उसे अपनी फौजी पोशाक के लिए पैसे देने होते थे, खाने-पीने का
प्रबन्ध करना होता था। इस पर भी उसे गोरे सार्जेण्ट या हवलदार की पूजा के लिए भी
कुछ देना पड़ता था। अंग्रेज आराम से खाता-पीता था। मेमों के अलावा हिन्दुस्तानी
स्त्रियाँ भी रखता थां, मेहनत के काम काले आदमी को सौंप दिए
जाते थे। वेतन की यह असमानता भारतीय सिपाहियों और सैनिक पदाधिकारियों के हृदय में
वेदना उत्पन्न करती थी।"
(3)सैनिकों और पदाधिकारियों के साथ अभद्र व्यवहार-
भारतीय
सैनिकों और पदाधिकारियों, दोनों के साथ अंग्रेज पदाधिकारियों का
व्यवहार बड़ा ही कठोर एवं अपमानजनक होता था। अंग्रेज अफसर भारतीय सैनिकों पर रौब
जमाने के लिए भद्दी गालियाँ दिया करते थे। 'The Rebellion of India'
नामक पुस्तक में उल्लेख है, "अंग्रेज
सार्जेण्ट बड़े-से-बड़े भारतीय अफसर पर हुक्म चला सकता था।"
(4) सिपाहियों की धार्मिक भावनाओं पर आघात -
लॉर्ड कैनिंग ने एक ऐसा कानून पास
किया था कि जिसके अनुसार भारतीय सिपाहियों को समुद्र पार विदेशों में भेजा जा सकता
था। भारतीय सिपाहियों ने इस बात को अत्यधिक बुरा माना, क्योंकि उनका
विश्वास था कि समुद्र यात्रा करने से उनका धर्म भ्रष्ट हो जाएगा। दूसरे, हिन्दू सैनिकों का मुसलमान सैनिकों के साथ खाना-पीना भी उनकी प्राचीन
परम्पराओं के विरुद्ध पड़ता था। अन्त में चर्बी वाले कारतूसों ने तो इन दबे हुए
शोलों को और भड़का दिया।
(IV) सामाजिक कारण -
अंग्रेजों ने अपने साम्राज्य की स्थापना के
उपरान्त भारतीय सामाजिक व्यवस्था में हस्तक्षेप करना आरम्भ किया। भारतीय सब कुछ
शान्त भाव से सहन कर सकते थे, किन्तु उनको अपनी सामाजिक
व्यवस्था बड़ी प्रिय थी, जिसके ऊपर किए गए आघातों को वे किसी
भी दशा में सहन करने के लिए तैयार नहीं हो सकते थे। अतः जब कम्पनी ने इस ओर ध्यान
न देकर उनमें पाश्चात्य ढंग का समावेश करना आरम्भ किया, तो
वे क्षुब्ध हो गए।
(1)अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार तथा विदेशी वस्तुओं के प्रयोग को बढ़ावा -
अंग्रेजों
ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार-प्रसार किया तथा विदेशी वस्तुओं के प्रयोग
को बढ़ावा दिया। भारतीय जनता ने अंग्रेजी शिक्षा का विरोध किया। उनकी धारणा थी कि
कम्पनी अंग्रेजी भाषा के प्रचार द्वारा उन्हें ईसाई बनाना चाहती है। उन्होंने उन
वस्तुओं के प्रचलन का भी विरोध किया जिनका आरम्भ अंग्रेजों ने भारत में किया था, क्योंकि वे उन्हें
पाश्चात्य समझते थे।
(2) सामाजिक प्रथाओं पर प्रतिबन्ध -
कम्पनी ने सती प्रथा, बाल-विवाह आदि का
प्रचलन बन्द करने का प्रयत्न किया और उनको अवैध घोषित कर दिया। जनता ने इसका विरोध
किया। जब कम्पनी ने विधवा पुनर्विवाह को न्यायसंगत घोषित कर दिया, तो भी जनता ने उसका विरोध ही किया, क्योंकि वे यह
समझते थे कि ये सब कार्य कम्पनी इसलिए कर रही है कि हम पाश्चात्य सिद्धान्तों को
अपनाएँ और अपनी भारतीय संस्कृति व सभ्यता का परित्याग कर दें।
(3) अंग्रेजों द्वारा पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति का प्रचार -
अंग्रेजों
ने भारत "में पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति का प्रचार किया। उनका भारतीय साहित्य
तथा भाषाओं के प्रति भी व्यवहार उचित नहीं था। उन्होंने उनके प्रोत्साहन के स्थान
पर पाश्चात्य साहित्य और भाषा का प्रचलन किया, जिससे जनता
में उनके विरुद्ध असन्तोष की भावना उदय होने लगी। लॉर्ड मैकाले ने
भारतीय साहित्य की.. 'खिल्ली उड़ाते हुए कहा था, "पाश्चात्य साहित्य की एक अलमारी समस्त एशिया के साहित्य से श्रेष्ठतर है।"
(V) आर्थिक कारण -
भारत
में अंग्रेजों के आने से पूर्व भारत की गणना विश्व के समृद्धशाली देशों में की
जाती थी। कृषि तथा उद्योग-धन्धे अत्यन्त उन्नतशील अवस्था में थे। किन्तु ईस्ट
इण्डिया कम्पनी की स्थापना के बाद स्थिति बदल गई। अंग्रेजों का वास्तविक उद्देश्य
भारत का आर्थिक शोषण करना था। इंग्लैण्ड के उद्योग-धन्धों के लिए कच्चा माल
प्राप्त करने के लिए भारत एक उपयुक्त क्षेत्र था। अंग्रेजों ने भारत से कच्चा माल
इंग्लैण्ड भेजा तथा वहाँ से निर्मित माल मँगाकर भारत के बाजारों में भर दिया। इसके फलस्वरूप भारत के कुटीर
उद्योग-धन्धों का अन्त हो गया तथा बेरोजगारी में वृद्धि हुई। भारतीय कृषि व्यवस्था
पहले से ही बुरी स्थिति में थी। - इस प्रकार 'सोने की चिड़िया' कहा
जाने वाला देश भारत भूखों व नंगों का देश " बन गया।
भारत की निर्धनता का प्रमुख कारण अंग्रेजों की आर्थिक नीति थी, जिसने भारतीयों में असन्तोष उत्पन्न कर दिया।
1857 ई. के विद्रोह की प्रकृति
अथवा
क्या यह
विद्रोह प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम था?
1857 ई. के विद्रोह की प्रकृति के सम्बन्ध में इतिहासकारों में गम्भीरे मतभेद
हैं। कुछ इतिहासकार इस विद्रोह को केवल एक सैनिक विद्रोह बताते हैं, जबकि अन्य इस विद्रोह को 'ईसाइयों के विरुद्ध
धर्म युद्ध' तथा 'अंग्रेजों के विरुद्ध
हिन्दू व मुसलमानों का षड्यन्त्र' की संज्ञा देते हैं। इसके विपरीत आधुनिक इतिहासकारों का एक बड़ा वर्ग इस विद्रोह को भारत का
प्रथम स्वाधीनता संग्राम बताता है, जो भारत की आजादी के लिए
सर्वप्रथम देशव्यापी स्तर पर लड़ा गया था। उपर्युक्त सभी मतों की व्याख्या निम्न
प्रकार है..
(1) 1857 ई. का
विद्रोह एक सैनिक विद्रोह था, जिसमें देश की जनता ने सेना के
साथ कोई सहयोग नहीं किया था। इस मत का समर्थन सर जॉन लॉरेंस तथा शीले ने किया है।
उनकी मान्यता है कि 1857 ई. के विद्रोह में केवल उन राज्यों
की सेना ने सहयोग किया था जिन्हें लॉर्ड डलहौजी ने हड़प नीति के माध्यम से जबरन
ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था। किन्तु इस मत को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
यद्यपि यह सत्य है कि इस विद्रोह का प्रारम्भ सैनिकों ने किया था, तथापि बहुत बड़ी संख्या में देश
के नागरिक भी इस विद्रोह में सम्मिलित हुए थे और विद्रोह के पश्चात् उन्हें दण्डित
, भी किया गया था।
(2) टेलर तथा कुछ अन्य विद्वानों की मान्यता है कि 1857 ई.
का विद्रोह 'अंग्रेजों के विरुद्ध हिन्दू और मुसलमानों का
षड्यन्त्र' था। किन्तु यह विचार भी सत्य नहीं है। अब यह पूरी
तरह सिद्ध हो चुका है कि इस विद्रोह के समय भारत के हिन्दू और मुसलमानों में मतभेद
था। अतः इस बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता कि दोनों जातियों ने मिलकर अंग्रेजों
के विरुद्ध कोई षड्यन्त्र किया था।
(3) इस विद्रोह के सम्बन्ध में आधुनिक युग के दो प्रमुख इतिहासकारों डॉ. आर.
सी. मजूमदार तथा डॉ. एस. एन. सेन के विचार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। मजूमदार इस
विद्रोह के राष्ट्रीय स्वरूप को स्वीकार नहीं करते। इसके विपरीत डॉ. सेन का मत है
कि 1857 ई. का विद्रोह राष्ट्रीय न होते हुए भी भारतीय
स्वतन्त्रता का प्रथम संग्राम कहा जा सकता है। इस सम्बन्ध में डॉ. सेन ने
लिखा है-
"विप्लव विद्रोह बन गया और उसने उस समय से राजनीतिक स्वरूप धारण कर लिया जब
मेरठ के विद्रोही सैनिकों ने अपने को दिल्ली के बादशाह के अधीन कर दिया और भूमिपति
कुलीनों तथा जनता के एक भाग ने उसमें सहयोग देने का निर्णय कर
लिया। जो युद्ध धर्म की रक्षा के नाम से प्रारम्भ हुआ था, वह स्वतन्त्रता
युद्ध में जाकर समाप्त हुआ, क्योंकि इसमें लेशमात्र भी
सन्देह नहीं कि विद्रोही विदेशी शासन से मुक्ति प्राप्त करके पुनः प्राचीन
व्यवस्था को स्थापित करना चाहते थे, जिसका वास्तविक
प्रतिनिधित्व दिल्ली का बादशाह करता था।"
''अन्त में निष्कर्ष के रूप में डॉ. आर. सी. मजूमदार का यह कथन उचित प्रतीत
होता है''
"इस निर्णय से इन्कार करना कठिन है कि तथाकथित 1857 ई.
का प्रथम राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम न तो प्रथम था, न
राष्ट्रीय था और न स्वतन्त्रता संग्राम था।"
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