टी एच ग्रीन के राजनीतिक विचार

B. A. II, Political Science I

प्रश्न 17. ग्रीन (टी एच ग्रीन) के अनुसार राज्य के कार्य क्या हैं ? ग्रीन किन परिस्थितियों में व्यक्ति को राज्य का विरोध करने का अधिकार प्रदान करता है ?

अथवा "राज्य का आधार इच्छा है, शक्ति (बल) नहीं।" (टी. एच. ग्रीन) विवेचना कीजिए।

उत्तर - अंग्रेज दार्शनिक टी. एच. ग्रीन द्वारा प्रतिपादित आदर्शवाद को उदार या मध्यमार्गी कहा जाता है। कारण यह है कि ग्रीन हीगल की भाँति राज्य को ईश्वर तुल्य और सर्वशक्तिमान नहीं मानता है। ग्रीन बाह्य और आन्तरिक, दोनों ही क्षेत्रों में राज्य की सत्ता को सीमित स्वीकार करता है। वह नागरिकों को राज्यों की अवज्ञा करने का अधिकार भी देता है।

ग्रीन के राज्य की प्रकृति सम्बन्धी विचार-

ग्रीन के अनुसार राज्य कृत्रिम समुदाय नहीं है। राज्य का जन्म तो मनुष्य के मस्तिष्क से हुआ है। ग्रीन की विचारधारा को बार्कर ने इस प्रकार स्पष्ट किया है, "मानव चेतना उसे स्वतन्त्र होने को प्रेरित करती है, स्वतन्त्रता के लिए अधिकारों का होना आवश्यक है और अधिकारों की प्राप्ति के लिए राज्य की आवश्यकता है।"

ग्रीन के राज्य की प्रकृति सम्बन्धी विचार-

यद्यपि ग्रीन दूसरे आदर्शवादियों की भाँति राज्य को नैतिक संस्था मानता है, फिर भी ईश्वर तुल्य नहीं। ग्रीन के अनुसार राज्य और व्यक्ति, दोनों ही दैवीय आत्मा के प्रतिनिधि या मूर्त रूप हैं, पर दोनों ही कभी-कभी अपने रास्ते से विचलित हो सकते हैं। जब राज्य अपने नैतिक रास्ते से दूर चला जाता है, तो उसे यह अधिकार नहीं रहता कि वह व्यक्तियों से अपनी आज्ञा का पालन करा सके।

सामान्य इच्छा का सिद्धान्त

 ग्रीन ने सामान्य इच्छा को हॉब्स रूसो के विचारों का अध्ययन करके अपनाया है। ग्रीन के अनुसार राज्य का जन्म एक सामान्य हित की चेतना में होता है। सामान्य हित की सामान्य चेतना को ग्रीन सामान्य इच्छा कहकर पुकारता है। सामान्य चेतना अधिकारों और कर्तव्यों को जन्म देती है और साथ में उनकी रक्षा करने वाली संस्थाओं को भी जन्म देती है। इसके साथ-साथ वह सम्प्रभु को भी जन्म देती है, जिसका लक्ष्य अधिकारों को व्यावहारिक रूप प्रदान करना है। व्यक्ति सम्प्रभु की आज्ञाओं का पालन क्यों करता है, इस सम्बन्ध में ग्रीन का कहना है कि "यह पूछना कि मैं राज्य की शक्ति के सामने क्यों झुकूँ, यह पूछना कि मैं अपने जीवन को उन संस्थाओं द्वारा विनियमित क्यों होने देता हूँ जिनके बिना काम करने के लिए मेरा कोई जीवन ही न होता और न जो कुछ मुझसे करने के लिए कहा जाता है, उसका मैं औचित्य पूछ सकता हूँ। इस बात के लिए कि मेरा एक जीवन हो, जिसे मैं अपना कह सकूँ, मुझे न केवल अपनी और अपने उद्देश्य की चिंता होनी चाहिए , जबकि समाज के सदस्य एक दूसरे की स्वतंत्रा को मान्यता दें , क्योकि वह सामान्य हित के लिए आवश्यक है।"

इन शब्दों के द्वारा ग्रीन ने यह बताने का प्रयल किया है कि राज्य का जन्म सामन्य हित को पूरा करने के लिए हुआ है , राज्य ने वस्तुतः जन-स्वीकृति समझौते की धारणा का तो तिरस्कार किया है, परन्तु रूसो के इस कथन का स्वीकार किया है कि राज्य का आधार इच्छा है, शक्ति नहीं।'

अब प्रश्न उठता है कि सामान्य हित की चेतना सभी व्यक्तियों में पाई जाती है या नहीं। इस सम्बन्ध में यह जानना अनिवार्य है कि ग्रीन का सिद्धान्त राज्य की सामान्य इच्छा का सिद्धान्त न होकर एक ऐमा सिद्धात है, जो राज्य को कायम रखता है। ग्रीन के अनुसार सामान्य हित की चेतना साधारण व्यक्तियों में पाई जा सकती है। सामान्य हित और नैतिक कर्तव्य की धारणा एक ही तथ्य पर आधारित है। इस धारणा को विकसित करना राज्य का कर्तव्य है। मनुष्य को सार्वजनिक कार्यों में भाग देकर विवेकवान और देशभक्त बनाना राज्य के ऊपर निर्भर करता है। सामान्य इच्छा राज्य की शक्ति का स्रोत है।

ग्रीन के अनुसार, "राज्य की शक्ति का स्रोत सामान्य इच्छा है।" ग्रीन का सम्प्रभु जनता नहीं है, न वह कोई निश्चित व्यक्ति है, न कोई अधिकारी या मन्त्री है, अपित वह एक आध्यात्मिक सत्ता है, जो सार्वभौमिक है और सभी के विश्वास की वस्तु है।

ग्रीन का कहना है कि व्यक्ति राज्य की आज्ञा का पालन इसलिए करता है कि वह सामान्य इच्छा अथवा उसी व्यक्ति के आदर्श की अभिव्यक्ति करता है। ग्रीन ने कहा है कि शक्ति के आधार पर कोई राज्य अधिक दिनों तक नहीं टिका रह सकता है। ग्रीन ने कहा है कि "न्याय के बिना शक्ति अल्पकाल के लिए ही ठीक हो सकती है, परन्तु न्याय के साथ संयुक्त होने पर वह राज्य का स्थायी आधार बन जाती है।"

'राज्य का आधार इच्छा है, शक्ति नहीं

इसे निम्नलिखित आधारों पर समझा जा सकता है

(1) यदि राज्य का आधार शक्ति होता, तो वह बहुत पहले समाप्त हो गया होता। शक्ति राज्य की स्थायी आधार नहीं हो सकती, क्योंकि शक्ति अस्थायी 'तत्त्व है, जबकि राज्य निरन्तर बना हुआ है।

(2) राज्य एक स्थायी तत्त्व है, जबकि शक्ति अस्थायी तत्त्व।

(3) यदि शक्ति को राज्य का आधार माना जाए तो प्रश्न उठता है कि सेना और पुलिस राज्य की आज्ञा का पालन क्यों करती है ?

(4) अनुभव बताता है कि व्यक्ति राज्य की आज्ञा का पालन इच्छा से करता है, क्योंकि वह व्यक्ति की सामान्य इच्छा का ही परिचायक है, इसलिए नहीं कि व्यक्ति आज्ञा का पालन न करने पर मिलने वाले दण्ड से घबराता है।

(5) यदि राज्य का आधार शक्ति होती तो अंग्रेज भारत में ही बने रहते क्योंकि उनके पास पर्याप्त शक्ति थी।

ग्रीन राज्य की सत्ता पर निम्नलिखित प्रतिबन्ध लगाता है

(1) नागरिकों का सविनय अवज्ञा का अधिकार।

(2) समाज में दूसरे समुदायों का अस्तित्व।

(3) राज्य का भौतिक स्वरूप (राज्य नैतिकता का विकास स्वयं नहीं कर सकता)।

(4) अन्तर्राष्ट्रीय कानून।

ग्रीन का राज्य के कार्यों से सम्बन्धित सिद्धान्त-

ग्रीन के अनुसार राज्य का कार्य सकारात्मक या भावात्मक नहीं वरन् निषेधात्मक है। भावात्मक कार्यों का तात्पर्य उनसे है जिनके द्वारा व्यक्ति को प्रत्यक्ष रूप से नैतिक बनाया जा सके। ग्रीन ने कहा है कि राज्य का आदर्श नैतिक जीवन की अभिवृद्धि करना है, परन्तु यह कार्य राज्य परोक्ष रूप से या निषेधात्मक ढंग से ही कर सकता है।

दूसरे शब्दों में, राज्य को अपनी ओर से (प्रत्यक्ष रूप से) किसी व्यक्ति को नैतिक बनाने के लिए कार्य नहीं करना चाहिए। राज्य का कार्य तो यही है कि वह उन बाधाओं को दूर करे जो व्यक्ति के नैतिक विकास में बाधक हैं।

ग्रीन के ही शब्दों में, "राज्य का कार्य नैतिक जीवन की बाधाओं के मार्ग में बाधा पहुँचाना है।" ग्रीन ने यह भी कहा है कि "राज्य का कार्य उन दशाओं को जन्म देना है जिनमें नैतिकता सम्भव हो सके।"

इस प्रकार ग्रीन के अनुसार राज्य का कार्यक्षेत्र मनुष्य का बाहरी आचरण ही हो सकता है, अन्त:करण नहीं। उदाहरण के लिए, राज्य प्रत्यक्ष रूप से किसी शराबी की शराब पीने की आदत नहीं छुड़ा सकता, वह परोक्ष रूप से (अपने कानून द्वारा मद्य-निषेध करके) उस व्यक्ति को शराब पीने से रोक सकता है।

ग्रीन के उपर्युक्त दृष्टिकोण को निषेधात्मक कहा जा सकता है, परन्तु यह गलत है, क्योंकि ग्रीन ने राज्य के कार्यों की निम्न सूची भी दी है

(1) शिक्षा की वृद्धि

ग्रीन के अनुसार शिक्षा की अभिवृद्धि करने के लिए राज्य को शिक्षालय खोलने चाहिए। ऐसा होने पर ही लोग अपने अधिकारों का सही प्रयोग कर सकेंगे।

(2) मद्य-निषेध-

ग्रीन के अनुसार राज्य का कर्तव्य है कि मदिरालयों को बन्द करे। ग्रीन मद्य-निषेध का इतना समर्थक था कि उसने अपनी ओर से 'कॉफी हाउस' खोला था, जिसमें वह लोगों को मुफ्त कॉफी पिलाता था, जिससे लोग शराब न पिएँ।

(3) सम्पत्ति सम्बन्धी कार्य-

ग्रीन व्यक्ति को उसकी सम्पत्ति का उपभोग करने की आज्ञा देता है, परन्तु दरिद्रता के निवारण के लिए वह भूमि प्रथा पर राज्य के नियन्त्रण के पक्ष में है।

(4) अन्य सुधारात्मक कार्य

ग्रीन ने राज्य को सुधार सम्बन्धी कार्य करने को भी कहा था। ग्रीन ने राज्य को चिकित्सालयों की स्थापना की सलाह दी। ग्रीन का मत था कि नैतिक विकास के लिए जो सुधार आवश्यक हों, वे राज्य द्वारा किए जाने चाहिए।

इस प्रकार ग्रीन का दृष्टिकोण उग्र आदर्शवाद और समाजवाद के मध्य एक मध्यम मार्ग उपस्थित करता है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ग्रीन द्वारा सुझाए गए राज्य के उपर्युक्त सभी कार्य निषेधात्मक हैं।

बार्कर इन्हें सकारात्मक कार्य मानता है और अपने मत को सिद्ध करने के लिए दो कारण प्रस्तुत करता है। उसके मतानुसार,

"प्रथम, परिस्थितियों के निर्माण और बाधाओं को दूर करने के लिए इनके मार्ग में आने वाली प्रत्येक बात के सम्बन्ध में राज्य का सक्रिय हस्तक्षेप आवश्यक है। अत: अपनी शक्ति द्वारा स्वतन्त्रता विरोधी शक्तियों का प्रतिकार करना और

 द्वितीय, राज्य का उद्देश्य सामान्य हित की प्राप्ति के लिए मानव प्रतिभा को स्वतन्त्र करना । है। इससे बढ़कर कोई सकारात्मक लक्ष्य नहीं हो सकता है।"

इस प्रकार बार्कर ग्रीन के कार्यों को सकारात्मक सिद्ध करता है। लेकिन ग्रीन ने उनका निषेधात्मक अथवा नकारात्मक भाषा में ही वर्णन किया है, क्योंकि उसका दृढ़ विश्वास था कि नैतिक विकास व्यक्ति के अन्त:करण से सम्बन्धित है। अत: राज्य व्यक्ति की अपने कार्यों से उसमें सहायता अवश्य कर सकता है, लेकिन उसे नैतिक नहीं बना सकता।

राज्य का विरोध करने का अधिकार -

ग्रीन का मत है कि राज्य का उद्देश्य व्यक्ति का अधिकतम कल्याण करना है और जब राज्य अपने इस उद्देश्य में विफल हो जाता है अथवा वह सामान्य इच्छा या नैतिक मार्ग से दूर चला जाता है, तो ग्रीन के अनुसार व्यक्ति राज्य की आज्ञा का उल्लंघन कर सकता है। परन्तु वह इस अधिकार को कुछ शर्तों के साथ जोड़ देता है। प्रथम शर्त तो यह है कि इस आज्ञा के उल्लंघन का उद्देश्य निजी स्वार्थ न होकर राज्य का सुधार होना चाहिए। यह उल्लेखनीय है कि ग्रीन राज्य की अवज्ञा को नागरिकों के कर्तव्य में सम्मिलित नहीं करता है। वह तो इसे 'सविनय अवज्ञा का अधिकार' ही मानता है। 

ग्रीन के अनुसार ऐसे अवसर पर भी व्यक्ति राज्य के किसी विशिष्ट कानून की अवज्ञा कर सकता है, सम्पूर्ण राज्य की नहीं। ग्रीन कहता है कि "अवज्ञा के अधिकार का प्रयोग बहुत सावधानी से किया जाना चाहिए।" नागरिकों को यह विश्वास होना चाहिए कि समाज के एक बड़े भाग का विचार भी ऐसा ही है। इसके अतिरिक्त राज्य का विरोध करने से पर्व नागरिकों को सभी संवैधानिक साधनों का प्रयोग करना चाहिए। साथ ही उसी समय राज्य का ऐसा विरोध करने में समाज की शान्ति भंग न होती हो तथा अराजकता नहीं फैलेगी, इस बात का विश्वास होना चाहिए। ग्रीन का यह भी कहना है कि विरोध के फलस्वरूप मिलने वाले दण्ड का भी नागरिकों को सम्मान करना चाहिए। इन सब बातों से स्पष्ट है कि ग्रीन विद्रोह व क्रान्ति को प्रोत्साहित नहीं करते हैं।

कोकर के शब्दों मेंग्रीन राज्य के विरोध को कोई मामूली बात नहीं समझता। वह यह अपेक्षा करता है कि नागरिक किसी कानून का प्रतिवाद नैतिक आधारों पर करने की इच्छा करते समय अनेक प्रश्नों पर विचार करे - क्या कानून के विरुद्ध उसकी जो आपत्ति है, वह जन-कल्याण की चिन्ता पर आधारित है या स्वयं अपनी ही सुख-सुविधाओं की चिन्ता पर?

क्या कानून में परिवर्तन शान्तिमय या वैधानिक उपायों से किया जा सकता है ? यदि नहीं, तो इस बात की क्या सम्भावना है कि बलपूर्वक विरोध से कानून में उचित परिवर्तन हो सकेगा? क्या समाज की सामाजिक विवेक-बुद्धि उस स्थिति को उसी रूप में देखती है जिसमें वह स्वयं उसे देखता है ?

यदि मामला इतना महत्त्वपूर्ण हो कि वर्तमान शासन को उलटना ही उचित ज्ञात होता है, तो यह देखना चाहिए कि क्या जनता की मनोवृत्ति एवं योग्यता ऐसी है जिससे यह विश्वास हो सके कि अराजकता नहीं होगी?

अथवा क्या बुराई इतनी बड़ी है कि अराजकता का खतरा उठाना ही चाहिए ? स्वयं राज्य के हित को ही छोड़ किसी अन्य हित के लिए राज्य की अवज्ञा का अधिकार नहीं हो सकता अर्थात् राज्य को उसके वास्तविक कानूनों के सम्बन्ध में स्वयं उसकी प्रवृत्ति या कल्पना के अनुरूप बनाने अर्थात् मनुष्यों के सामाजिक सम्बन्धों में जो अधिकार उत्पन्न होते हैं, उनमें सामंजस्य स्थापित करने वाला तथा उनका पोषक बनाने के लिए यह अधिकार हो सकता है।"

कोकर के इस कथन से यह सिद्ध होता है कि ग्रीन राज्य के विरोध को व्यक्ति का आवश्यक कर्त्तव्य नहीं समझता, अपितु इसे केवल कुछ विशेष दशाओं में ही उचित मानता है।

 बार्कर ने इसका समर्थन करते हुए लिखा है कि "जब विरोध के लिए आवश्यक प्रत्येक शर्त पूरी हो जाती है, तभी विरोध करना सम्भवतः न्यायोचित होता है, यह अनिवार्य रूप से आवश्यक नहीं है।"

इस प्रकार ग्रीन हीगल के विरुद्ध अपने उदारवादी प्रभाव के कारण व्यक्ति को राज्य का विरोध करने का अधिकार प्रदान करता है।

 

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