करारोपण के सिद्धान्त

प्रश्न 10. कर से क्या आशय है ? करारोपण के सिद्धान्तों की विवेचना कीजिए।

उत्तर-कर से आशय

कर मुद्रा के रूप में दिया जाने वाला वह अनिवार्य अंशदान है जो करदाता द्वारा सरकार को इसलिए दिया जाता है कि सरकार जनता के सामान्य हित एवं कल्याण सम्बन्धी अपने दायित्वों को पूर्ण कर सके।

डाल्टन के शब्दों में, "कर किसी सार्वजनिक सत्ता द्वारा लगाया गया एक अनिवार्य अंशदान है, चाहे करदाता को इसके बदले में निश्चित मात्रा में सेवाएँ प्रदान न की गई हों और न यह किसी अपराध के दण्ड के रूप में लगाया जाता है ,

करारोपन का सिधान्त

फिण्डले शिराज के अनुसार, "कर सार्वजनिक व्यक्तियों द्वारा सरकार के लिए किया जाने वाला वह अनिवार्य भुगतान है जो सार्वजनिक भलाई के व्यय को पूरा करने हेतु किया जाता है और जिसका किसी लाभ से कोई सम्बन्ध नहीं होता

सैलिगमैन के अनुसार, "कर व्यक्तियों द्वारा सरकार के लिए किया जाने वाला वह अनिवार्य भुगतान है जो सामान्य लाभ के कार्यों के भुगतान हेतु किया जाता है और जिसका मिलने वाले विशेष लाभ से कोई सम्बन्ध नहीं होता है।"

करारोपण के सिद्धान्त-

प्रो. एडम स्मिथ ने अपनी पुस्तक 'Wealth of Nations' में करारोपण के निम्न सिद्धान्तों की व्याख्या प्रस्तुत की है-

(1) समानता या न्यायशीलता का सिद्धान्त-

एडम स्मिथ ने समानता या न्यायशीलता के सिद्धान्त को स्पष्ट करते हुए लिखा कि "प्रत्येक राज्य की प्रजा को सरकार के समर्थन हेतु यथासम्भव अपनी-अपनी क्षमता के अनुपात में अर्थात् राज्य की संरक्षता में जिस आय का वे उपार्जन करते हैं, उसके अनुपात में अंशदान । करना चाहिए।"

आधुनिक अर्थशास्त्री एडम स्मिथ के इस विचार से सहमत नहीं हैं कि आनुपातिक कर न्यायपूर्ण होते हैं। वे समानता के सिद्धान्त का पालन करने के लिए प्रगतिशील करारोपण (Progressive Taxation) का समर्थन करते हैं। एडम स्मिथ का मत है कि "धनी लोगों को अपनी आय के अनुपात में नहीं, वरन् इस अनुपात से अधिक कर देना चाहिए।"

(2) निश्चितता का सिद्धान्त-

करदाता को इस बात का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए कि उसे कब और कितना धन कर के रूप में राज्य को देना है तथा राज्य को भी इस बात का ज्ञान रखना चाहिए कि उसे कब और कितना धन कर के रूप में व्यक्तियों से लेना है। एडम स्मिथ के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति जो कर देता है, वह मनमाना न होकर निश्चित होना चाहिए। उसके भुगतान का समय, विधि व राशि समस्त करदाताओं को स्पष्ट होनी चाहिए। एडम स्मिथ ने पहले सिद्धान्त की अपेक्षा इस सिद्धान्त को अधिक महत्त्व दिया है, क्योंकि एक व्यक्ति को जितना  कर देना है, उसका निश्चित होना महत्त्वपूर्ण है। करों की बहुत बड़ी असमानता इतनी हानिकारक नहीं होती जितनी कि अनिश्चितता की थोड़ी-सी मात्रा होता है।

(3) सुविधा का सिद्धान्त-

कर का भुगतान करते समय करदाता को कुछ मानसिक असुविधा होती है। इसलिए एडम स्मिथ का कहना है कि करों को इस प्रकार एकत्रित किया जाना चाहिए जिससे करदाताओं को कम असुविधा हो। एडम स्मिथ ने लिखा है, "प्रत्येक कर इस प्रकार से तथा ऐसे समय पर लगाया जाना चाहिए जिससे कि करदाता को कम असुविधा हो।" उदाहरण के लिए, कर्मचारियों से कर वेतन मिलने के समय और कृषकों से लगान उपज के विक्रय के समय लेना चाहिए।

(4) मितव्ययता का सिद्धान्त-

एडम स्मिथ के शब्दों में, "प्रत्येक कर इस प्रकार लगाया और वसूल किया जाना चाहिए कि उसके द्वारा सरकारी कोष में जितना द्रव्य आए, उससे बहुत अधिक मात्रा में जनता की जेब से द्रव्य न निकाला जाए।" एडम स्मिथ के अनुसार कर एकत्र करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए -

(i) कर को एकत्रित करने में बहुत-से व्यक्तियों को नहीं रखना चाहिए, अन्यथा वेतन पर अधिक धनराशि व्यर्थ हो जाएगी।

(ii) करारोपण से विनियोजन और रोजगार को प्रोत्साहन मिलना चाहिए। 

(iii) कर अधिकारी को करदाताओं को परेशान नहीं करना चाहिए।

एडम स्मिथ द्वारा प्रतिपादित करारोपण के उपर्युक्त सिद्धान्त के अतिरिक्त प्राचीन समय से लेकर अब तक करारोपण के कुछ अन्य सिद्धान्त भी प्रतिपादित किए गए हैं, जिनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है  -

(1) उत्पादकता का सिद्धान्त-

संकुचित अर्थ में इसका आशय यह है कि कर ऐसा होना चाहिए जिससे राज्य की आय अधिक और खर्च कम हो। विस्तृत अर्थ में इसका आशय यह है कि कर राज्य की वर्तमान तथा भविष्य की आमदनी का स्रोत बना रहे । वास्तव में देखा जाए तो यह सिद्धान्त मितव्ययता पर आधारित है, इसलिए जे. के. मेहता ने इसकी आलोचना की है।

(2) लोच का सिद्धान्त-

करारोपण इस प्रकार से किया जाना चाहिए जिसमें तनिक वृद्धि या कमी करने से सरकार की आय में कमी या वृद्धि हो जाए अर्थात् कर प्रणाली में लोच का होना आवश्यक है और यह गुण आयकर में पाया जाता है।

(3) सरलता का सिद्धान्त-

कर प्रणाली सीधी और सरल होनी चाहि जिससे कि किसी भी व्यक्ति को इसको समझने में किसी भी प्रकार की कठिना का सामना न करना पड़े। कर प्रणाली में सरलता होने पर भ्रष्टाचार व वकीलों ने खर्चों से मुक्ति मिल जाती है।

(4) विविधता का सिद्धान्त-

कर प्रणाली ऐसी होनी चाहिए जिसमें प्रत्येक प्रकार के कर हों, जिससे देश के सभी नागरिक अपना अंशदान कर सकें। इस दृष्टि से इसमें प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों का ठीक प्रकार से विभाजन होना चाहिए और उन्हें समुचित वस्तुओं पर लगाना चाहिए। इस विविधता से करदाता को कर-भार का सामना नहीं करना पड़ता और वस्तु की माँग बनी रहती है।

(5) एकरूपता का सिद्धान्त-

सभी करों की दरों का निर्धारण सामान्य उद्देश्यों से किया जाना चाहिए और उनको लगाने की विधि समान होनी चाहिए। । इससे कर प्रणाली सरल हो जाती है।

(6) वांछनीयता का सिद्धान्त-

प्रत्येक कर का कोई-न-कोई औचित्य अवश्य होना चाहिए, ताकि नागरिक उसके महत्त्व को समझकर अंशदान कर सकें। प्रजातन्त्रीय अर्थव्यवस्था में इस सिद्धान्त का अधिक महत्त्व है।

(7) लचीलापन एवं पर्याप्तता का सिद्धान्त

कर प्रणाली ऐसी होनी चाहिए जिसमें किसी नये कर का समावेश किया जा सके तथा पुराने कर को निकाला जा सके। इसके अतिरिक्त राज्य को पर्याप्त मात्रा में आय भी प्राप्त होनी चाहिए।

(8) समन्वय का सिद्धान्त

कर प्रणाली इस प्रकार की होनी चाहिए कि विभिन्न कर अधिकारी एक-दूसरे के कार्य में हस्तक्षेप न करें और उनकी क्रियाओं में अधिकतम समन्वय हो सके।

 

 

Comments

Important Question

ऋणजल धनजल - सारांश

गोपालकृष्ण गोखले के राजनीतिक विचार

मैकियावली अपने युग का शिशु - विवेचना

सरकारी एवं अर्द्ध सरकारी पत्र में अन्तर

जवाहरलाल नेहरू के राजनीतिक विचार

कौटिल्य का सप्तांग सिद्धान्त

प्लेटो के शिक्षा सिद्धांत की आलोचना

राजा राममोहन राय के राजनीतिक विचार

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस - 1885 से 1905

तृतीय विश्व - अर्थ और समस्या