सार्वजनिक एवं निजी वित्त में अंतर
प्रश्न 3. "लोक वित्त न केवल मात्रा में, वरन् स्वरूप में भी निजी वित्त से भिन्न है।" क्या आप इस कथन से सहमत हैं ? स्पष्ट रूप से समझा।
अथवा सार्वजनिक
वित्त एवं निजी वित्त में भेद कीजिए।
अथवा सार्वजनिक
वित्त एवं व्यक्तिगत वित्त में समानताएँ तथा असमानताएँ बताइए।
अथवा सार्वजनिक
वित्त निजी वित्त से किस प्रकार भिन्न होता है ?
उत्तर-लोक वित्त अथवा सार्वजनिक वित्त के अन्तर्गत इस बात का अध्ययन किया जाता है
कि सरकार (केन्द्रीय, प्रान्तीय तथा स्थानीय) किस
प्रकार अपनी आय प्राप्त करती है और अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए तथा समाज के
प्रति अपने उत्तरदायित्वों को पूर्ण करने के लिए आय को किस प्रकार व्यय करती है।
इसके विपरीत निजी वित्त से आशय ऐसी व्यक्तिगत इकाइयों की वित्तीय नीतियों एवं
समस्याओं से होता है जो सरकार का अंग नहीं हैं।
सार्वजनिक वित्त एवं
निजी वित्त के तुलनात्मक अध्ययन को दो भागों में प्रस्तुत किया जा सकता है-
लोक (सार्वजनिक) वित्त
और निजी वित्त में समानताएँ-
लोक (सार्वजनिक)
वित्त एवं निजी वित्त में निम्नलिखित समानताएँ पाई जाती हैं-
(1) व्यक्ति एवं राज्य, दोनों का यही प्रयास रहता है कि आय एवं व्यय को सन्तुलित किया जाए और अपने व्यय से अधिकतम सन्तुष्टि प्राप्त की जाए।
(2) लोक वित्त और निजी वित्त,
दोनों ही न्यूनतम साधनों से अधिकतम सन्तुष्टि प्राप्त करना चाहते
हैं। अत: दोनों को ही सदैव आय और व्यय के समायोजन की समस्या तथा आर्थिक विकल्प के
चुनाव की समस्या का सामना करना पड़ता है।
(3) व्यक्ति तथा राज्य, दोनों का उद्देश्य प्रायः एक समान रहता है। जहाँ निजी वित्त का सम्बन्ध
व्यक्तिगत आवश्यकताओं की सन्तुष्टि से होता है, वहीं लोक
वित्त का सम्बन्ध सामाजिक अथवा सामूहिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि से होता है।
(4) लोक वित्त तथा निजी वित्त, दोनों की ही स्थिति में जब चालू आय चालू व्यय की अपेक्षा कम हो जाती है, तो ऋण लेना आवश्यक हो जाता है।
इसके अतिरिक्त
व्यक्ति की भाँति राज्य को भी घाटे के समय लिए गए ऋण की वापसी करना पड़ती है।
लोक (सार्वजनिक) वित्त और निजी वित्त में अन्तर-
लोक (सार्वजनिक)
वित्त और निजी वित्त के मध्य पाई जाने वाली असमानताओं को निम्नलिखित शीर्षकों के
अन्तर्गत रखा जा सकता है-
(1) आय एवं व्यय के समायोजन में अन्तर-
एक व्यक्ति अपनी आय
के अनुसार व्यय को निश्चित करता है, किन्तु सरकार अपनी आय को व्यय
के अनुसार निश्चित करती है। व्यक्तिगत वित्त व्यवस्था में आय की मात्रा निश्चित
होती है और समस्या केवल व्यय को आय के अनुसार समायोजित करने की होती है। यदि व्यय
अधिक हो, तो अस्थायी रूप से ऋण लेकर उसे पूरा किया जा सकता
है। किन्तु स्थायी रूप से आय के अनुसार व्यय का समायोजन करके ही व्यक्तिगत वित्त
की व्यवस्था की जाती है। इसके विपरीत सार्वजनिक वित्त में पहले व्यय की मात्रा
निश्चित की जाती है और फिर उसके लिए आय के साधनों की खोज की जाती है। ऐसा इसलिए
होता है क्योंकि सरकार अपनी आय को एक सीमा तक बढ़ाकर व्यय के बराबर कर सकती है।
इसका मुख्य कारण यह है कि सरकार को नये कर लगाकर अथवा ऋण लेकर अपने साधन बढ़ाने की
जो क्षमता प्राप्त है, वह व्यक्ति को नहीं होती है।
(2)
आय के साधनों में लोच सम्बन्धी अन्तर-
सरकार की आय के साधन
बहुत अधिक लोचदार होते हैं। सरकार विदेशों से ऋण ले सकती है,
नागरिकों से ऋण ले सकती है अथवा उन पर कर लगा सकती है और अन्त में
नये नोट छापकर अपने घाटे को पूरा कर सकती है। किन्तु एक व्यक्ति को आय बढ़ाने के
ये सब साधन उपलब्ध नहीं होते हैं। अत: उसकी आय प्राय: बेलोचदार होती है।
(3) उद्देश्यों में अन्तर-
एक व्यक्ति अधिकतम
सन्तुष्टि प्राप्त करने के लिए अपनी आय को सम-सीमान्त तुष्टिगुण नियम के अनुसार
व्यय करता है। इसके विपरीत सार्वजनिक वित्त अधिकतम सामाजिक लाभ के सिद्धान्त पर
आधारित होता है।
(4) दृष्टिकोण में अन्तर-
वित्त व्यवस्था के
सम्बन्ध में निजी दृष्टिकोण सरकारी दृष्टिकोण की अपेक्षा अधिक संकुचित एवं
अल्पकालीन होता है। राज्य का जीवनकाल व्यक्तियों की भाँति सीमित नहीं होता।
व्यक्ति केवल अपने जीवनकाल तथा अपने बच्चों के भविष्य के विषय में सोचता है।
किन्तु सरकार को आने वाली पीढ़ियों के विषय में भी सोचना होता है,
अत: वह वित्तीय मामलों में दीर्घकालीन दृष्टिकोण अपनाती है।
(5) बजट का आधार-
व्यक्ति के लिए उसका
पारिवारिक बजट साख का आधार होता है, इसलिए वह अपने बजट को किसी
दूसरे के समक्ष प्रकट नहीं करता। परन्तु सरकार को अपना वार्षिक बजट तैयार करके
जनता के समक्ष लाना पड़ता है, ताकि जनता को सरकार के आय-व्यय
के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त हो सके तथा वह उस पर विचार प्रकट कर सके।
(6) बजट की प्रकृति में अन्तर-
सरकारी और व्यक्तिगत
बजट में मौलिक भद पाया जाता है। एक व्यक्ति के बजट में यदि बचत दिखाई जाती है,
तो वह उस व्यक्ति की दूरदर्शिता तथा कुशल अर्थ प्रबन्धन का प्रतीक
माना जाता है। किन्तु सरकारी बजट में बचत का होना वित्त मन्त्री की अकुशलता का
प्रतीक है।
आधिक्य के बजट का
होना इस बात का प्रतीक है कि सरकार जनहित के लिए पर्याप्त व्यय नहीं कर रही है।
(7) राजकीय ऋण की अनिवार्य प्रकृति-
राज्य अपने नागरिकों
से अनिवार्य (बलपूर्वक) ऋण प्राप्त कर सकता है, किन्तु
एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से केवल स्वेच्छा के आधार पर ही ऋण प्राप्त कर सकता है।
(8) ऋण के साधनों में अन्तर-
राज्य का अस्तित्व
निगम या कम्पनी की भाँति होता है, इसलिए राज्य आन्तरिक और बाह्य,
दोनों स्रोतों से ऋण प्राप्त कर सकता है। इसके विपरीत एक व्यक्ति
केवल बाह्य स्रोतों से ही ऋण प्राप्त कर सकता है। वह अपनी आय से ऋण नहीं ले सकता।
M.A first ka syllabus
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