सार्वजनिक व्यय के आर्थिक प्रभाव
प्रश्न 7. सार्वजनिक व्यय के आर्थिक प्रभावों का वर्णन कीजिए।
अथवा '' उत्पादन और वितरण पर सार्वजनिक
व्यय के क्या प्रभाव पड़ते हैं ? समझाइए।
उत्तर–
प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री सार्वजनिक व्ययों को अनुत्पादक मानते हैं।
एडम स्मिथ, मिल, रिकार्डो आदि अर्थशास्त्रियों का मत था कि सार्वजनिक व्यय अनुत्पादक कार्यों के लिए किए गए भुगतान से सम्बन्धित होते हैं, इसीलिए सार्वजनिक व्ययों से राष्ट्रीय आय में कोई वृद्धि नहीं होती। किन्तु प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों का दृष्टिकोण वर्तमान परिस्थितियों के सन्दर्भ में उचित नहीं माना जा सकता। अधिकांशतया सार्वजनिक व्ययों का प्रत्यक्ष प्रभाव समाज की उत्पादन क्षमता पर पड़ता है अर्थात् देश का उत्पादन सार्वजनिक व्ययों द्वारा प्रभावित होता है I
किसी देश की अर्थव्यवस्था पर सार्वजनिक
व्ययों का महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। सार्वजनिक व्ययों के माध्यम से उत्पादन, रोजगार
एवं धन के वितरण को प्रभावित करके अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन लाए जा
सकते हैं। सार्वजनिक व्ययों के द्वारा उत्पत्ति के साधनों का विभिन्न उद्योगों में
वितरण भी प्रभावित होता है। सार्वजनिक व्ययों के आर्थिक प्रभावों को मुख्य रूप से
तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है –
(I) सार्वजनिक व्ययों का उत्पादन पर प्रभाव-
सार्वजनिक व्ययों के उत्पादन पर पड़ने
वाले प्रभावों को निम्नलिखित तीन वर्गों में रखा जा सकता है -
(1) कार्य करने तथा बचत करने की क्षमता पर प्रभाव-
सार्वजनिक व्यय । इसको निम्न प्रकार
प्रभावित करते हैं-
(i) क्रय-शक्ति में वृद्धि-पेंशन, भत्ते,
बेरोजगारी तथा बीमारी के समय मिलने वाले लाभ एवं सेवाओं पर किए गए
व्ययों से लोगों की क्रय-शक्ति में वृद्धि होती है, जिससे
उनके जीवन-स्तर और कार्यकुशलता में वृद्धि होती है।
(ii) वस्तुओं एवं सेवाओं का प्रबन्ध-राज्य अपने
व्ययों द्वारा निर्धन व्यक्तियों को प्रत्यक्ष रूप से वस्तुएँ एवं सेवाएं प्रदान
करके उनकी कार्यक्षमता को बढ़ा सकता है।
(iii) सुविधाएँ प्रदान करना-राज्य अपने
व्ययों द्वारा कुछ ऐसी सुविधाएँ प्रदान कर सकता है जिनकी सहायता से उत्पादक और
अच्छी तरह से उत्पादन कर सकते हैं।
(iv) बचत करने की शक्ति-चूँकि
सार्वजनिक व्ययों से व्यक्तियों की क्रयशक्ति में वृद्धि होती है, इसलिए
व्यक्ति अधिक बचत करने में समर्थ हो जाते हैं।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि
सार्वजनिक व्ययों का व्यक्तियों की कार्य करने एवं बचत करने की शक्तियों पर अच्छा
प्रभाव पड़ता है।
(2) कार्य करने तथा बचत करने की इच्छा पर प्रभाव-
इसका अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के
अन्तर्गत किया जा सकता है-
(i) कार्य करने की इच्छा पर प्रभाव–यदि
सार्वजनिक व्यय इस प्रकार के विकास कार्यों पर किए जा रहे हों कि व्यक्तियों की आय
में पर्याप्त वृद्धि हो रही हो, तो निश्चय ही व्यक्ति कम काम करना पसन्द करेंगे,
क्योंकि वे थोड़ा काम करके ही अपने रहन-सहन के स्तर को बनाए रख
सकेंगे।
(ii) बचत करने की इच्छा पर प्रभाव-सरकार
द्वारा किए जाने वाले वर्तमान व्यय से लोगों के काम करने एवं बचत करने की इच्छा को
प्रोत्साहन मिलता है। इसके विपरीत सार्वजनिक व्ययों से भविष्य में प्राप्त होने
वाले लाभ की आशा व्यक्तियों की बचत की इच्छा पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं।
(3) आर्थिक साधनों की दिशा परिवर्तन का प्रभाव-
सार्वजनिक व्ययों से विभिन्न क्षेत्रों
में नई सड़कें, रेलें, नहरें, कारखाने आदि बन जाते हैं। कृषि एवं उद्योगों का तीव्र गति से विकास होता
है। परिवहन एवं सिंचाई के साधनों का विस्तार होता जाता है और अन्ततोगत्वा साधनों
का श्रेष्ठतम उपयोग होने लगता है तथा उत्पादन व्यय में कमी आती है।
(II) सार्वजनिक व्ययों का वितरण पर प्रभाव-
डाल्टन के मतानुसार, "सार्वजनिक व्यय की वह पद्धति श्रेष्ठ मानी जाती है जो आय की असमानता को कम
करने की शक्तिशाली क्षमता रखती है।" सार्वजनिक व्यय
सामाजिक तथा आर्थिक न्याय का एक महत्त्वपूर्ण उपकरण बन सकता है। सार्वजनिक व्यय
वितरण को निम्न प्रकार से प्रभावित करता है-
(1) आर्थिक समानता–यदि सरकार
अल्प-विकसित तथा पिछड़े क्षेत्रों में पर्याप्त राशि व्यय करके सिंचाई, बिजली
तथा परिवहन के साधन जुटाती है, तो इससे जनता को अधिक रोजगार
मिलेगा, सन्तुलित विकास होगा और आर्थिक विषमता कम होगी। इसकी
विपरीत स्थिति में आर्थिक विषमता और अधिक बढ़ जाएगी।
(2) औद्योगिक विकास–यदि
अधिकांश सरकारी कारखाने पिछड़े क्षेत्रों में खोले जाएँ, तो
स्वाभाविक रूप से सार्वजनिक व्ययों का एक महत्त्वपूर्ण भाग इन क्षेत्रों
में विनियोजित किया जाएगा। इस व्यय के फलस्वरूप क्षेत्रीय आर्थिक विषमता कम होगी।
इसकी विपरीत स्थिति में आर्थिक विषमता और अधिक बढ़ जाएगी।
(3) सामाजिक सेवाएँ-यदि
सार्वजनिक व्यय में शिक्षा, चिकित्सा, श्रा कल्याण,
बेरोजगारी भत्ता, पेंशन आदि की समुचित
व्यवस्था की जा रही है, तो स्वाभाविक रूप से राष्ट्रीय आय का
वितरण अधिक न्यायपूर्ण बन सकता है।'
(III) सार्वजनिक व्ययों के अन्य प्रभाव-
सार्वजनिक व्ययों के अन्य प्रभावों को
निम्न प्रकार स्पष्ट कर सकते हैं-
(1) रोजगार के परिवर्तनों में कमी-सरकार
विभिन्न प्रकार के कर्मचारियों के लिए अपनी माँग को स्थिर रखकर रोजगार में होने
वाले परिवर्तन को कम कर सकती है। सरकार को चाहिए कि वह अपने अधीन काम करने वाले
कर्मचारियों की माँग को स्थिर रखे और उनमें अनावश्यक गिरावट न आने दे।
(2) रोजगार में वृद्धि-सार्वजनिक
क्षेत्र में काम करने वाले व्यक्तियों का रोजगार व्यक्तिगत उद्योगों में काम करने
वाले श्रमिकों के रोजगार के साथ इस प्रकार सम्बन्धित किया जा सकता है कि व्यक्तिगत
क्षेत्र में होने वाली रोजगार की कमी को सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार की वृद्धि
के द्वारा पूरा किया जा सके। सरकार को अपने व्यय विभिन्न साधनों में इस प्रकार
बाँटने चाहिए कि विभिन्न प्रकार के श्रमिकों के लिए सरकारी माँग व्यक्तिगत माँग से
विपरीत दिशा में बदले। सार्वजनिक व्ययों के उचित वितरण के द्वारा इस उद्देश्य को
प्राप्त किया जा सकता है।
(3) बेरोजगारी का अन्त–सार्वजनिक
व्ययों के द्वारा आर्थिक मन्दी के कारण उत्पन्न होने वाली बेरोजगारी को कम किया जा
सकता है। प्रो. कीन्स के अनुसार मन्दी काल में बेरोजगारी का मुख्य कारण प्रभावकारी
माँग का कम होना है। निजी क्षेत्र में विनियोग कम हो जाने से लोगों की आय कम हो
जाती है और वे कम वस्तुओं की माँग करने लगते हैं। प्रभावशाली माँग कम होने से
उत्पादन तथा रोजगार गिर जाता है। इस प्रकार की बेरोजगारी को दूर करने का एकमात्र
उपाय विनियोग में वृद्धि करना है। मन्दी काल में निजी विनियोग की कमी को सार्वजनिक
व्ययों में वृद्धि करके पूरा किया जा सकता है। सरकार नये उद्योगों की स्थापना करके
तथा जनहितकारी कार्यों पर अधिक व्यय करके समाज में विनियोग की मात्रा को गिरने से
रोक सकती है और इस प्रकार रोजगार के स्तर में स्थिरता उत्पन्न की जा सकती है।
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