संस्मरण और रेखाचित्र में क्या अन्तर है ?
प्रश्न 6. रेखाचित्र को परिभाषित करते हुए संस्मरण से
रेखाचित्र का अन्तर स्पष्ट कीजिए।
अथवा
आधुनिक
हिन्दी साहित्य की विभिन्न गद्य विधाओं में रेखाचित्र का स्थान निर्धारित कीजिए।
अथवा
रेखाचित्र
का स्वरूप स्पष्ट करते हुए इसके उद्भव और विकास पर प्रकाश डालिए।
उत्तर–
प्राय: यह माना जाता
है कि रेखाचित्र का उद्भव पश्चिम में हुआ। यूनानी लेखक थियोफ्रेस्ट
को इसका जन्मदाता माना जाता है। उनकी कृति 'कैरेक्टर्स' में समाज के विभिन्न व्यक्तियों के रेखाचित्र हैं। अंग्रेजी
साहित्य में 'करेक्टर्स' के अनुसरण
पर यह विधा स्वतन्त्र रूप में सामने आई। इस श्रेणी के कई लेखक हैं।
रेखाचित्र का स्वरूप
'रेखाचित्र' शब्द मूलतः चित्रकला का शब्द है। रेखाओं द्वारा निर्मित चित्र को रेखाचित्र कहा जाता है। साहित्य में रेखाओं के स्थान पर शब्दों का प्रयोग किया जाता है। अतः कुछ विद्वान् इसे 'शब्द चित्र' (Pen Picture) भी कहते हैं। यह शब्द अंग्रेजी शब्द 'स्केच' (Sketch) का पर्यायवाची है। रेखाचित्र को व्यक्ति-चित्र एवं चरित्र-चित्र भी माना जाता है।
रेखाचित्र
में प्रमुख रूप से किसी व्यक्ति के चरित्र की बाह्य रेखाओं को ही उभारा जाता है।
अतः रेखाचित्र गद्य साहित्य की उस विधा को कहते हैं जिसमें व्यक्ति के
मर्मस्पर्शी चरित्र की बाह्य विशेषताओं को विभिन्न संक्षिप्त घटनाओं के माध्यम से
एक प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त किया जाए तथा जिसमें घटनाओं का उतार-चढ़ाव न होकर
तथ्य-कथन मात्र हो। इसका कार्य केवल इतना ही है कि वह वर्णित व्यक्ति के
रूप-सौन्दर्य तथा विभिन्न परिस्थितियों में उसके द्वारा की गई विभिन्न चेष्टाओं से
उसके चरित्र का एक प्रभावक एवं संवेदनशील चित्र अंकित कर दे।
डॉ.
भागीरथ मिश्र के अनुसार, "अपने सम्पर्क
में आए किसी विलक्षण व्यक्तित्व अथवा संवेदना को जगाने वाली सामान्य विशेषताओं से
युक्त किसी प्रतिनिधि चरित्र के मर्मस्पर्शी स्वरूप को देखी, सुनी या संकलित घटनाओं की पृष्ठभूमि में इस प्रकार उभारकर रखना कि उसका
हमारे हृदय में एक निश्चित प्रभाव अंकित हो जाए, रेखाचित्र या शब्द-चित्र कहलाता है।"
डॉ.
गोविन्द त्रिगुणायत के अनुसार,
"रेखाचित्र वस्तु, व्यक्ति
अथवा घटना का शब्दों द्वारा विनिर्मित वह मर्मस्पर्शी और भावमय रूप विधान है,
जिसमें कलाकार का संवेदनशील हृदय और उसकी सूक्ष्म पर्यवेक्षण दृष्टि
अथवा निजीपन छोड़कर प्राण-प्रतिष्ठा कर देता है।"
संस्मरण और रेखाचित्र में अन्तर
संस्मरण और रेखाचित्र में निम्नलिखित अन्तर हैं-
(1) विषय-
संस्मरण
प्रसिद्ध व्यक्ति का वर्णन समेटता है और रेखाचित्र साधारण का। विषय की
दृष्टि से संस्मरण आत्मपरक और रेखाचित्र वस्तुपरक होते हैं।
संस्मरण
लेखक वर्ण्य व्यक्ति के साथ अपने सम्बन्धों का वर्णन करते हुए अपने विषय में भी
बहुत कुछ कह देता है, जबकि रेखाचित्र का
लेखक अपने विषय में प्रायः कम ही लिखता है।
रेखाचित्र
चारित्रिक चित्र है। संस्मरण केवल चित्र न होकर चरित्र का दर्पण होता है।
उसमें लेखक रेखाचित्र की भाँति कुछ प्रमुख रेखाओं को ही नहीं उभारता, वरन् सम्पूर्ण परिस्थिति का बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से वर्णन करता है।
(2) भाव-
संस्मरण
रेखाचित्र की अपेक्षा कहीं अधिक भावात्मक होते हैं। रेखाचित्र में
भावात्मकता के प्रति उन्मुखता अथवा रागात्मकता के स्पर्श मात्र से ही काम चल जाता
है।
(3) देशकाल-
संस्मरण
में पात्र के व्यक्तित्व को देश और देश की पीठिका पर आधारित करके उभारा जाता है। रेखाचित्र
में पात्र महत्त्वपूर्ण होता है। इसमें उसका परिवेश ही उभरकर आता है, देशकाल पीछे छूट जाता है।
(4) स्वरूप-
संस्मरण
का रूप आत्मकथात्मक होता है, यद्यपि उसमें आत्मकथा की
भाँति पूर्णता के प्रति आग्रह नहीं होता, जबकि रेखाचित्र
का रूप कथात्मक और वर्णनात्मक होता है। अत: संस्मरण भाव एवं आत्मपरक होता
है, जबकि रेखाचित्र भावात्मक एवं पात्रपरक।
हिन्दी और रेखाचित्र
यद्यपि विद्वान् रेखाचित्र
को अंग्रेजी की देन मानते हैं, पर कुछ विद्वान् यह भी
मानते हैं कि 'पृथ्वीराज रासो', 'रामचरितमानस'
आदि प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित पात्रों के रूप-वर्णन रेखाचित्र
के पूर्व रूप ही हैं।
रीतिकाल
में नाटक की नायिका के रूप-चित्रण तथा विभिन्न प्रकार की शारीरिक चेष्टाओं के
वर्णन में भी रेखाचित्र जैसे शब्द-चित्र मिल जाते हैं।
कुछ विद्वान् यह भी
मानते हैं कि रेखाचित्र के तत्त्व बीज रूप में हिन्दी के उपन्यासों में भी
मिलते हैं। चरित्र को उभारने के लिए रेखाचित्र शैली का आश्रय
देवकीनन्दन खत्री, दुर्गाप्रसाद खत्री,
प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद, वृन्दावनलाल वर्मा, आचार्य चतुरसेन शास्त्री,
इलाचन्द जोशी आदि ने भी लिया है।
कुछ विद्वान् यह भी
मानते हैं कि भारतेन्दु काल में ही रेखाचित्र का सूत्रपात हो गया था। उस
युग में जो निबन्ध ऐतिहासिक पुरुषों पर लिखे गए, उनमें
यथास्थान रेखाचित्रों की झलक मिल जाती है। भारतेन्दु जी के चरित्र प्रधान
निबन्ध 'कालिदास', 'शंकराचार्य',
'सुकरात' आदि में यह स्थिति देखी जा सकती है।
हिन्दी में रेखाचित्र का विकास
आज जिस रूप में
रेखाचित्र पर विचार होता है, उसका विकास 20वीं शताब्दी का प्रथम चरण में ही है। इस विधा का जनक पं. पद्मसिंह
शर्मा 'कमलेश' को माना जाता
है। इनका 'पद्मपराग'(PADAMPARAG) नामक संग्रह सन् 1929 में प्रकाशित हआ। इसके
बाद रेखाचित्रों की सफल शुरुआत होती है। पं. श्रीराम शर्मा (बोलती प्रतिमा),
पं. बनारसीदास चतुर्वेदी के कई रेखाचित्र
सामने आप जिनमें प्रमुख हैं—'
रेखाचित्र', 'हमारे आराध्य', 'सेतुबन्ध', पर कुछ विद्वान् इन्हें संस्मरणात्मक रेखाचित्र मानते हैं।
रामवृक्ष बेनीपुरी (माटी की मरतें, गेहूँ और गुलाब, मील के पत्थर आदि संकलन) तथा महादेवी वर्मा का नाम तो इस क्षेत्र में
अत्यन्त आदर के साथ लिया जाता है। इनके अतीत के चलचित्र' में
सफल और कलात्मक हिन्दी रेखाचित्रों के प्रथम बार दर्शन होते हैं। जगदीशचन्द्र
माथुर (दस तस्वीरें, जिन्होंने जीना जाना) का स्थान भी
महत्त्वपूर्ण है। ।
इसके अतिरिक्त
रेखाचित्रों की सूची पर्याप्त लम्बी है। यहाँ कतिपय अति विशिष्ट नामों का ही
उल्लेख किया जा रहा है
सूर्यकान्त
त्रिपाठी 'निराला', पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, प्रकाशचन्द्र गुप्त,
देवेन्द्र सत्यार्थी, हरिशंकर परसाई, कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर', डॉ.
प्रेमनारायण टण्डन, सत्यवती मलिक, रघुवीर
सहाय, भगवतशरण उपाध्याय, सेठ
गोविन्ददास, माखनलाल चतुर्वेदी, वृन्दावनलाल
वर्मा, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, दिनकर,
डॉ. शिवदान सिंह चौहान, गोपीकृष्ण गोपेश,
सत्यजीवन वर्मा, राजा राधिकारमण सिंह, विनोदशंकर व्यास, शान्तिप्रिय द्विवेदी, बाबू गुलाबराय, श्रीप्रकाश, रामनाथ
सुमन, जैनेन्द्र, अज्ञेय आदि।
निष्कर्ष-
आधुनिक अन्य गद्य
विधाओं के समान रेखाचित्र भी पर्याप्त लम्बी यात्रा पूर्ण कर चुका है और पर्याप्त
सफल, श्रेष्ठ, कलात्मक रेखाचित्रों
ने हिन्दी का गौरव बढ़ाया है।
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