जोसेफ द्वितीय - गृह एवं विदेश नीति
M.J. P.R.U., B.A. I, History II / 2020
प्रश्न 12. ऑस्ट्रिया के जोसेफ द्वितीय की उपलब्धियों का उल्लेख कीजिए।
प्रश्न 12. ऑस्ट्रिया के जोसेफ द्वितीय की उपलब्धियों का उल्लेख कीजिए।
अथवा '' जोसेफ द्वितीय की गृह एवं विदेश नीति की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-ऑस्ट्रियन साम्राज्य की शासिका मारिया थेरेसा के पति फ्रांसिस प्रथम की
मृत्यु के पश्चात् 1765 ई. में उसका
पुत्र जोसेफ द्वितीय जर्मन सम्राट के पद पर आसीन हुआ। 1765 से 1780 ई तक उसने अपनी
माता मारिया थेरेसा के साथ शासन किया। 1780 ई. में मारिया थेरेसा की मृत्यु के उपरान्त 1780 से 1790 ई. तक वह
ऑस्ट्रियन साम्राज्य का सर्वसत्ताधारी शासक रहा। अपनी माता के विपरीत जोसेफ
द्वितीय प्रबुद्ध निरंकुशता का प्रबल समर्थक व पोषक था। वह रूसो तथा वॉल्टेयर के
विचारों से अत्यधिक प्रभावित था। उसका कहना था कि "मैंने दर्शन को अपने
साम्राज्य का व्यवस्थापक बनाया है और इसके तर्कपूर्ण सिद्धान्तों से ऑस्ट्रियन
साम्राज्य की कायापलट हो जाएगी।" अपने उच्च आदर्शों और विचारों के कारण ही वह समसामयिक शासकों में सबसे आगे था। उसने अपने
साम्राज्य को आन्तरिक दृष्टि से सुदृढ़ करने हेतु अनेक कार्यक्रम आरम्भ किए,
परन्तु वे सफल न हो सके। वैदेशिक दृष्टि से भी
वह ऑस्ट्रियन सीमाओं का विस्तार करके उसे सुदृढ़ बनाना चाहता था।
जोसेफ द्वितीय की गृह नीति
जोसेफ द्वितीय की आन्तरिक सुधार योजनाएँ अत्यन्त व्यावहारिक थीं। उसने धार्मिक,
राजनीतिक व सामाजिक क्षेत्र में सुधार हेतु
निम्नलिखित कार्य किए -
(1) धार्मिक नीति—
जोसेफ द्वितीय धर्मसहिष्णु शासक था। उसकी धार्मिक नीति का प्रमुख उद्देश्य था
कैथोलिक चर्च को राज्याधीन संस्था बनाना तथा पोप के अधिकारों और अन्धविश्वासों का अन्त करना। उसके द्वारा विज्ञप्ति जारी की गई कि ऑस्ट्रियन साम्राज्य में बिना राजाज्ञा के पोप के आदेश लागू नहीं होंगे। चर्च की सम्पत्ति राज्य के अधीन कर ली गई। बिशपों की नियुक्ति वह स्वयं करने लगा। पारम्परिक पूजा विधि का खण्डन कर मठों को नष्ट कर दिया गया। पुरोहितों की राजकीय विद्यालयों में शिक्षा अनिवार्य कर दी गई। उसने अपनी समस्त ईसाई प्रजा कैथोलिक, प्रोटेस्टैण्ट तथा यहूदियों को समान धार्मिक व राजनीतिक अधिकार प्रदान किए।
कैथोलिक चर्च को राज्याधीन संस्था बनाना तथा पोप के अधिकारों और अन्धविश्वासों का अन्त करना। उसके द्वारा विज्ञप्ति जारी की गई कि ऑस्ट्रियन साम्राज्य में बिना राजाज्ञा के पोप के आदेश लागू नहीं होंगे। चर्च की सम्पत्ति राज्य के अधीन कर ली गई। बिशपों की नियुक्ति वह स्वयं करने लगा। पारम्परिक पूजा विधि का खण्डन कर मठों को नष्ट कर दिया गया। पुरोहितों की राजकीय विद्यालयों में शिक्षा अनिवार्य कर दी गई। उसने अपनी समस्त ईसाई प्रजा कैथोलिक, प्रोटेस्टैण्ट तथा यहूदियों को समान धार्मिक व राजनीतिक अधिकार प्रदान किए।
धर्म के क्षेत्र में किए गए उसके ये सुधार सफल न हो सके, क्योंकि तत्कालीन कट्टर कैथोलिक श्रद्धालु उसके
इन सुधारों को सहन कर सके। अतः उनमें असन्तोष व्याप्त हो गया, जिससे जोसेफ द्वितीय के लिए आन्तरिक समस्याएँ
बढ़ गईं और वह धर्म सुधार नीति में सफल न हो सका।
(2) राजनीतिक क्षेत्र में सुधार-
अपने राज्य की सीमाओं के विस्तार तथा पर्व सत्ता के
केन्द्रीकरण हेतु जोसेफ द्वितीय ने राजनीतिक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण सुधार
विस्तार कार्य किए। उसने सम्पूर्ण ऑस्ट्रियन साम्राज्य के लिए एक समान शासन
व्यवस्था यदि वह लाग की। उसने हंगरी की संसद को भंग कर दिया। उसने सम्पूर्ण
साम्राज्य को 13बोहेमिया
प्रान्तों में विभक्त कर दिया। प्रत्येक प्रान्त को कई मण्डलों में, प्रत्येक मण्डल का जोसेफ कई जिलों में और
प्रत्येक जिले को नगरों में विभक्त कर दिया। समस्त स्थानीय इन उद्देश अधिकार
समाप्त कर दिए गए। समस्त अधिकार राजधानी वियना में केन्द्रित हुए स्थापित और वहीं
से शासन संचालन किया जाने लगा। अनिवार्य सैनिक सेवा का सिद्धान्त अपनाया गया,
किसानों को एक निश्चित अवधि के लिए सैनिक
प्रशिक्षण अनिवार्य कर दिया गया। सेना में तोपखाने पर विशेष बल दिया गया।
साम्राज्य की राजभाषा जर्मन स्वीकृत की गई। सर्वसाधारण जनता के हित और अपने
विस्तृत साम्राज्य को एकता के सूत्र में बाँधने के उद्देश्य से ही जोसेफ द्वितीय
ने उपर्युक्त सुधार किए। निःसन्देह उसके राजनीतिक सुधारों का सैद्धान्तिक रूप
प्रशंसनीय था, परन्तु उनका
व्यावहारिक रूप अत्यन्त असफल सिद्ध हुआ। उसे प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा।
बेल्जियम की संसद ने स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। नीदरलैण्ड्स, हंगरी तथा टायरोल में उसकी कन्द्रीकरण की नीति
के विरोध में विद्रोह हो गया।
(3) सामाजिक सुधार-
जोसेफ द्वितीय समानता का पक्षधर था। उसने समस्त प्रजा को समान अधिकार प्रदान
कर समाज का नवनिर्माण करने का प्रयास किया। उसने सभी अर्द्ध-दासों को पूर्ण
स्वतन्त्रता प्रदान की। अब वे सामन्तों की स्वीकृति प्राप्त किए बिना ही विवाह कर
सकते थे, सम्पत्ति का क्रय-विक्रय
कर सकते थे, स्वतन्त्रतापूर्वक
एक स्थान से दूसरे स्थान को जा सकते थे और कुछ धन देकर बेगार से मुक्ति पा सकते
थे। सामन्तों व किसानों को समान कर देने पड़ते थे। जोसेफ द्वितीय ने सभी
व्यक्तियों के लिए नि:शुल्क प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था करने, उद्योग-धन्धों के विकास और समस्त प्रजा को सुखी
एवं सम्पन्न बनाने की योजनाएँ बनाईं। उसके इन सुधारों से सामन्त वर्ग रुष्ट हो
गया। मध्यम वर्ग उसकी व्यापार व वाणिज्य में हस्तक्षेप की नीति के कारण अत्यन्त
रुष्ट हो गया।
वस्तुत: जोसेफ द्वितीय ने अपने काल और परिस्थितियों की सर्वथा उपेक्षा कर
सुधारों को क्रियान्वित करने की चेष्टा की। इसके परिणामस्वरूप उसे महान् विफलताओं
का सामना करना पड़ा।
जोसेफ द्वितीय की विदेश नीति
जोसेफ द्वितीय अग्रगामी तथा आक्रामक विदेश नीति का समर्थक था। उसने पार तथा
पूर्व में काला सागर की ओर व दक्षिण में एड्रियाटिक सागर की ओर साम्राज्य विस्तार की नीति
अपनाई। वह टर्की के समीपवर्ती क्षेत्रों को जीतना चाहता था। रावस्था यदि वह
बवेरिया पर अधिकार करने में सफल हो जाता, तो टायरोल और बोहेमिया से ऑस्ट्रिया का सीधा सम्बन्ध स्थापित हो जाता।
इसके अतिरिक्त पटल का जोसेफ द्वितीय जर्मन राजकुमारों पर भी अपना प्रभुत्व स्थापित
करना चाहता था। स्थानीय इन उद्देश्यों की पूर्ति हेतु उसने यूरोपीय देशों के साथ
निम्न आधारों पर सम्बन्ध स्थापित किए ,
(1) रूस, फ्रांस और पोलैण्ड के प्रति नीति-
जोसेफ द्वितीय ने
रूस, फ्रांस और पोलैण्ड से सम्बन्ध स्थापित करने में
पृथक्-पृथक् रुख अपनाया। उसकी साम्राज्य-विस्तार की नीति में प्रशा और फ्रांस सबसे
बड़ी बाधा थे। अतः प्रशा के विरोध का सामना न करने के उद्देश्य से उसने उसके साथ
मित्रतापूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया। फ्रांस के प्रति उसने स्वयं
तटस्थता की नीति का पालन किया। पोलैण्ड के प्रथम विभाजन में उसने सक्रिय रूप से
भाग लिया, ताकि साइलेशिया की क्षति
की पूर्ति हो सके। ऑस्ट्रिया को क्राको नगर को छोड़कर समस्त गैलेशिया का प्रान्त
मिल गया।
(2) बवेरिया में प्रथम हस्तक्षेप एवं टेशेन की सन्धि –
जोसेफ द्वितीय ने
अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा पूर्ण करने के उद्देश्य से बवेरिया में हस्तक्षेप
करने की नीति अपनाई। 1777 ई. में बवेरिया
के शासक मैक्सिमिलियन की मृत्यु हो गई। इसी समय जोसेफ द्वितीय में बवेरिया के
सीमावर्ती क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। प्रशा द्वारा इस कार्यवाही का विरोध करने
पर ऑस्ट्रिया और प्रशा के मध्य युद्ध छिड़ गया। अन्ततः फ्रांस व रूस से सहायता न
मिलने की स्थिति को देखते हुए विवश होकर जोसेफ द्वितीय को 1779 ई. में प्रशा के साथ टेशेन की सन्धि करनी
पड़ी। इस सन्धि के द्वारा ऑस्ट्रिया को बवेरिया का छोटा-सा भाग प्राप्त हो गया और
पैलेटाइन के चार्ल्स थियोडोर को बवेरिया का शासक मान लिया गया।
(3) नीदरलैण्ड्स (हॉलैण्ड) के मामले में असफलता -
हॉलैण्ड और इंग्लैण्ड के पारस्परिक तनाव का लाभ
उठाते हुए जोसेफ द्वितीय ने हॉलैण्ड के सीमान्त अवरोधक दुर्गों पर अपना प्रभुत्व
स्थापित करने का प्रयास किया। इन सीमान्त दुर्गों पर अधिकार होने से ऑस्ट्रियन
नीदरलैण्ड्स का सीधा सम्पर्क समुद्र से हो जाता और उसको व्यापार में पर्याप्त लाभ
होता। परन्तु फ्रांस द्वारा जोसेफ द्वितीय की इस कार्यवाही का विरोध किया गया।
इसका कारण यह था कि उसे हॉलैण्ड और इंग्लैण्ड की मैत्री से अपने हितों पर विपरीत
प्रभाव पड़ने की आशंका थी। अन्तत: जोसेफ द्वितीय ने विवश होकर हॉलैण्ड के मामले
में अपने हित फ्रांस के ऊपर छोड़ दिए और शेल्ट नदी में फ्रांसीसी जहाजों के आवागमन को भी स्वीकार कर
लिया। यद्यपि इसके बदले में उसे फ्रांस से पर्याप्त मुआवजा मिला, तथापि 1785 ई. की यह सन्धि ऑस्ट्रिया की भयंकर पराजय का संकेत थी।
(4) बवेरिया में द्वितीय हस्तक्षेप -
जोसेफ द्वितीय ने अपनी महत्त्वाकांक्षा की अप्रभावित था।
इसके पूर्ति हेतु ऑस्ट्रियन नीदरलैण्ड्स के स्थान पर बवेरिया को पुनः हस्तगत करने
का प्रयास किया। उसकी इस योजना को बवेरिया के शासक
ने भी स्वीकार कर कैथोलिक टेनों लिया। परन्त प्रशा और फ्रांस के भय से बवेरिया का
शासक इस योजना को मानन कोई प्रभावी के लिए सहमत न हो सका और उसने योजना को स्वीकार
करने से इन्कार कर दिया।
(5) टर्की से युद्ध -
डेन्यूब और बाल्कन क्षेत्र को हस्तगत करने के
उद्देश्य से जोसेफ द्वितीय टर्की से युद्ध करना चाहता था। इधर रूस के हित भी टर्की
से सम्बद्ध थे। अत: जोसेफ द्वितीय ने रूस के साथ समझौता कर 1788 ई. में टर्की के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर
दी। परन्तु 1790 ई. में उसकी
मृत्यु के पश्चात् उसके उत्तराधिकारी लियोपोल्ड द्वितीय ने टर्की के साथ सिस्टीवा
की सन्धि कर ली। इस प्रकार जोसेफ द्वितीय का यह प्रयास भी विफल रहा।
जोसेफ द्वितीय की गृह एवं विदेश नीति से स्पष्ट होता है कि वह एक ऐसा शासक था
जिसने अपनी प्रजा के हित के लिए अनेक सुधार योजनाएँ क्रियान्वित की। उसने
राष्ट्रीय एकता एवं धार्मिक सहिष्णुता स्थापित करने का प्रयास किया, परन्तु न तो वह अपनी प्रजा के हृदय को जीतने
में सफल हो सका और न ही विदेश नीति के क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सका। उसकी
समाधि पर अंकित स्मरण लेख उसके सुधारों और विदेश नीति की विफलताओं की स्थिति का
यथार्थ स्पष्ट करता है
"यह उस व्यक्ति की समाधि है जो अपने सुन्दरतम उद्देश्यों के
होते हुए भी कभी किसी क्षेत्र में सफल न हो सका।"
MJPRUSTUDYPOINT , M.J. P.R.U., B.A. I, History II
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