अरस्तू का दासता सिद्धान्त
BA-II-Political Science-I
प्रश्न
5. अरस्तू
के दास प्रथा सम्बन्धी विचारों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
अथवा ''अरस्तू द्वारा दिए गए दास प्रथा के औचित्य के कारणों की व्याख्या कीजिए। आप उनसे कहाँ तक सहमत हैं ?
अथवा
''अरस्तू
के दासता सिद्धान्त का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
उत्तर- अरस्तू
ने दासता को एक प्राकृतिक संस्था माना है। प्राचीन काल में यूनान में दास प्रथा
का सर्वत्र प्रचार था। यह कहना गलत नहीं होगा कि यूनानी सभ्यता का आधार ही दास
प्रथा थी। अत: अरस्तू जैसा उच्च कोटि का दार्शनिक्र भी अपने समय की
मान्यताओं व परिस्थितियों से बच नहीं सकता था और उसने दास प्रथा को उचित
ठहराने के लिए अपनी सम्पूर्ण दार्शनिक योग्यता लगा दी।
डॉ. बार्कर ने इस
सम्बन्ध में टिप्पणी करते हुए लिखा है कि
"यह ऐसी संस्था का विवेकयुक्त बचाव है जिसे अस्वीकार करने की
योजना सभ्य संसार बना चुका है। जिसे ग्रीक सभ्यता पर एक धब्बा कहा गया है, उसे उचित सिद्ध करने का एक
प्रयास है।"
अरस्तू ने अपने ग्रन्थ 'Politics' के प्रथम भाग में अपने दासता सम्बन्धी विचार प्रकट किए हैं, जिनके सम्बन्ध में कैटलिन ने निष्कर्ष निकाला है कि "अरस्तू इस सम्बन्ध में कोई सन्देह व्यक्त नहीं
करता कि दासता न केवल मानव जाति की अति प्राचीन संस्था है, वरन् वह पूर्ण रूप से उचित भी है।"अरस्तू का कहना है कि परिवार की जीविका चलाने के लिए दो प्रकार की सम्पत्ति आवश्यक है
(1) सजीव सम्पत्ति, और (2) निर्जीव सम्पत्ति।
अरस्तू के अनुसार सजीव सम्पत्ति में दास तथा पशु आते हैं और निर्जीव सम्पत्ति में घर, खेत, सोना-चाँदी, फर्नीचर व अन्य भौतिक वस्तुएँ आती हैं। एक सफल पारिवारिक जीवन के लिए आवश्यक है कि परिवार में दोनों प्रकार की। सम्पत्ति हो। यहाँ पर यह स्पष्ट है कि अरस्तू. घरेलू दासों की बात करता है, औद्योगिककृत दासों की नहीं।
डॉ. टेलर ने लिखा है कि "अरस्तू जिन दासों की चर्चा करता है, वे घरेलू नौकर हैं, जो मालिक के छोटे-छोटे कार्यों में सहायता करते हैं। दासों की सेवा द्वारा चलाए जाने वाले बड़े-बड़े कारखानों की ओर अरस्तू का ध्यान नहीं गया।"
दास की प्रकृति - अरस्तू ने दास की प्रकृति के सम्बन्ध में लिखा है कि जैसे शरीर के अंग का शरीर से पृथक् कोई अस्तित्व नहीं है, वैसे ही दास का भी स्वामी से पृथक् कोई अस्तित्व नहीं है। दास की परिभाषा के सम्बन्ध में अरस्तू ने लिखा है कि "जो व्यक्ति मनुष्य होकर भी सम्पत्ति की वस्तु है, वह दूसरों का दास है।"
अरस्तू द्वारा दास प्रथा के समर्थन के आधार
अरस्तू दास प्रथा का समर्थन निम्न आधारों पर करता है-
(1) दास प्रथा प्राकृतिक -
अरस्तू का विश्वास है कि "कुछ स्वतन्त्र उत्पन होते हैं व कुछ जन्म से दास।" अरस्तू का कहना है कि प्रकृति स्वयं कुछ लोगों को इस ढंग से बनाती है कि उनमें बुद्धि का अभाव होता है, परन्तु उनमें शारीरिक बल होता है। वे स्वतन्त्र रूप से न तो सोच सकते हैं और न ही कोई निर्णय ले .सकते हैं। दूसरी ओर कुछ लोग स्वभावत: इस योग्य होते हैं कि वे शासन का कार्य कर सकें, उनमें बौद्धिक प्रतिभा होती है। इस प्रकार के दोनों लोगों का साथ रहना न केवल आवश्यक है, वरन् दोनों के लिए लाभदायक भी है।
(2) दास प्रथा आवश्यक है -
अरस्तू का मत है कि "वह राज्य जो दास प्रथा पर आधारित नहीं है,
वह स्वयं दास होता है।" इस प्रसंग में यह उल्लेखनीय है कि अरस्तू यूनान के लोगों को ऐतिहासिक प्रमाणिकता के आधार पर विश्व के अन्य लोगों की तुलना में अधिक बौद्धिक स्तर का मानता था। इसलिए उसका मत था कि यूनानियों को कभी भी दास नहीं बनना चाहिए। अरस्तू मानता था कि दूसरे राज्यों के नागरिक अल्प बुद्धि के हैं, इसलिए यूनानी उनके स्वामी हैं और राज्य में उद्योगों, व्यापार आदि का कार्य यही दास करेंगे, जो परिवार के सदस्यों के साथ रहते हैं।
(3) नैतिक दृष्टि से भी दास प्रथा आवश्यक है -
नैतिक दृष्टि से अरस्तू ने दास
प्रथा को न्यायसंगत और आवश्यक बताया है। अरस्तू के अनुसार दासों में
गुणों का उत्पन्न होना तभी स्वाभाविक है जबकि स्वामी व दास, दोनों का साथ हो। अरस्तू ने कहा है कि
प्रकृति का सार्वभौम नियम है कि जब अनेक भाग मिलकर एक समग्र की रचना करें, तो उन भागों में जो ऊँचा है वह अपने से नीचे के अंगों पर शासन करे। इस
प्रकार दासों का काम है कि वे अपने स्वामी को शारीरिक कार्य में बोझ से मुक्त करें
और उसे बौद्धिक जीवन के विकास का अवसर दें।
दास प्रथा स्वामी और दास, दोनों के लिए उपयोगी है
उपर्युक्त से स्पष्ट है कि अरस्तू स्वामी
और दास, दोनों के
लिए ही दास प्रथा को उपयोगी मानता है। स्वामी दासों के अभाव में बौद्धिक व
सद्गुणी जीवन व्यतीत नहीं कर सकते हैं।
दूसरी ओर दासों की दृष्टि से भी दास
प्रथा उपयोगी है, क्योंकि उनमें बुद्धि का अभाव है। अत:
वे संयम के जीवन का साक्षात्कार नहीं कर सकते। किन्तु अपने से अधिक योग्य
व्यक्तियों के साथ रहने से उन्हें नैतिक लाभ हो सकता है। दास स्वामी के सद्गुणों
को अपनाकर अपना नैतिक विकास कर सकता है।
दासता के प्रकार
अरस्तू ने दासता के दो प्रकार बताए हैं
(1) स्वाभाविक दासता - जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, अरस्तु का मत है कि कुछ मनुष्य स्वभाव से ही दास होते हैं, यही स्वाभालिक दासला है।
(2) कानूनी दासता - इस प्रकार के दास वे लोग होते हैं जो युद्ध में विजयी राज्य द्वारा बन्दी बना लिए जाते हैं।
दासता के सम्बन्ध में अरस्तू की कुछ
अन्य मान्यताएँ -
(1) अरस्तू दास प्रथा कों
पैतृक नहीं मानता। दास प्रथा का आधार गुणों के अनुसार होता है।
(2) स्वामी को दास के साथ शिष्टता का व्यवहार करना चाहिए।
(3) स्वामी का कर्तव्य है कि वह दास के नैतिक विकास में
सहायक बने।
(4)
यूनानियों को दास नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि
वे बुद्धि व विवेक में -आगे हैं।
(5) दासों को मुक्त करने की भी आज्ञा दी जानी चाहिए।
अरस्तू के दासता सम्बन्धी विचारों की आलोचना
अरस्तू के दासता सम्बन्धी विचारों की
आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की जा सकती है
(1) विवेक के आधार पर विभाजन में कठिनाई -
अरस्तू यह सिद्ध करने में असफल रहा है कि दासता और स्वामित्व के तत्त्व किसमें हैं और किसमें नहीं। अत: अरस्तू की जन्मजात दास और स्वामी की संज्ञाएँ किस प्रकार मनुष्यों को प्रदान की जाएँगी ?
(2) मित्रता का विचार -
अरस्तू का कथन है कि दास और स्वामी में पारस्परिक मित्रता होनी चाहिए। परन्तु व्यवहार में ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि स्वामी उसको निम्नतर मानता है, अतः वह उससे मित्रता का व्यवहार कैसे कर सकता है ?
(3) जातिगत अहंकार -
विचारकों का यह भी आरोप है कि अरस्तू ने यूनानी सभ्यता व संस्कृति को विश्व में सर्वश्रेष्ठ ठहराने के लिए दासता के सिद्धान्त का औचित्य सिद्ध करने का प्रयास किया है। अरस्तु के इस कथन से हमारे मत की पुष्टि होती है जब वह कहता है कि "विदेशियों को यूनानियों की सेवा करने दो, वे दास हैं और यूनानी स्वतन्त्र हैं।"
(4) दास को पशुवत् बनाने का विचार -
अरस्तू का कहना है कि दास को अपना व्यक्तित्व स्वामी के व्यक्तित्व में विलीन कर देना चाहिए। ऐसा कहकर अरस्तू ने दासों को पशुओं की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है। यही नहीं, अरस्तू दासों व पशुओं के कार्यों में अन्तर भी नहीं करता है। अरस्तू के ये विचार अत्यन्त संकीर्ण हैं।
(5) दासता मानव समता और स्वतन्त्रता के प्रतिकूल है -
अरस्तू का दासता सम्बन्धी सिद्धान्त अमानवीय भी है, क्योंकि वह मानव की समता व स्वतन्त्रता को स्वीकार नहीं करता है।
(6) शारीरिक श्रम की उपेक्षा -
अरस्तू ने केवल मानसिक एवं बौद्धिक श्रम को महत्त्व दिया है, शारीरिक श्रम को नहीं। अरस्तू के ये विचार अत्यन्त हास्यास्पद लगते हैं कि प्रकृति स्वस्थ और पुष्ट शरीर केवल दासों को देती है और दुर्बल शरीर परन्तु विवेक वाला मस्तिष्क स्वामी को देती है।
(7) विरोधाभास से पूर्ण -
अरस्तू एक ओर तो दासों को विवेक रहित बताता है और इसलिए इन्हें स्वामी के चरणों में अर्पित कर देता है। परन्तु दूसरी ओर वह दासों के नैतिक विकास की बात करते हुए उनकी मुक्ति की भी बात कहता है, जो सम्भव नहीं है।
(8) वर्तमान युग में अव्यावहारिक -
अरस्तू का सिद्धान्त आज के युग के सर्वथा विपरीत है। कारण यह है कि अरस्तू के अनुसार तो सभी श्रमजीवी दास हैं, जिसे श्रमजीवी स्वीकार नहीं कर सकते।
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