अरस्तू का क्रान्ति सम्बन्धी सिद्धान्त

BA-II-Political Science-I
प्रश्न 4. अरस्तू के क्रान्ति सम्बन्धी सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
अथवा ''अरस्तू के क्रान्ति सम्बन्धी विचारों का मूल्यांकन कीजिए।
अथवा "राजद्रोह का कारण सदैव ही असमानता में पाया जाता है।" व्याख्या कीजिए।
अथवा " अरस्तू के अनुसार क्रान्ति के क्या कारण हैं तथा क्रान्ति को किस प्रकार रोका जा सकता है ?

उत्तर- अरस्तू ने अपने ग्रन्थ 'Politics' में इस बात पर भी विचार किया है कि विभिन्न प्रकार के राज्यों में किन कारणों से क्रान्ति होती है और उनका प्रतिकार कैसे किया जा सकता है ? यहाँ यह उल्लेखनीय है कि अरस्तू ने क्रान्तियों के आर्थिक कारणों पर विचार नहीं किया। उसके अनुसार इनका कारण राजनीतिक अत्याचार है। अरस्तू ने क्रान्ति के निम्नलिखित स्वरूप बताए हैं----

अरस्तू -  क्रान्ति सम्बन्धी सिद्धान्त

(1) पूर्ण क्रान्ति-जब राज्य का स्वरूप पूर्ण रूप से बदल जाता है, तो वह पूर्ण क्रान्ति कहलाती है।

(2) अर्द्ध क्रान्ति-जब राजसत्ता वर्तमान अधिकारियों के हाथ से निकलकर अन्य व्यक्तियों के हाथ में चली जाती है।

अरस्तू के अनुसार क्रान्ति का अर्थ

अरस्तू की क्रान्ति सम्बन्धी धारणा आज की क्रान्ति की धारणा से भिन्न है। आज क्रान्ति का अर्थ है-'राज्य में जनता अथवा उसके एक भाग द्वारा सशस्त्र विद्रोह करके शासन में परिवर्तन लाना'। परन्तु अरस्तू के अनुसार क्रान्ति का अर्थ है-'संविधान में परिवर्तन।

दूसरे शब्दों में, संविधान में किसी प्रकार का संशोधन होना क्रान्ति है। अरस्तू के अनुसार क्रान्ति का अर्थ रक्तपात से किए गए परिवर्तन से ही नहीं है। इसलिए अरस्तू द्वारा बताई गई क्रान्तियों की तुलना आज की क्रान्तियों, जैसे फ्रांस, रूस या चीन की क्रान्ति से करना उचित नहीं है। उसकी क्रान्तियों का अर्थ तो परिवर्तन मात्र है।

अरस्तु का विचार है कि क्रान्ति मस्तिष्क में ही उपजती है, किसी बाह्य कारण से इसकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है। क्रान्तिकारी का ध्येय समाज में लाभ एवं सम्मान प्राप्त करना होता है। जब-जब किसी राज्य द्वारा अपने नागरिकों को तंग व परेशान किया जाता है या कुछ महत्त्वाकांक्षी पुरुष समाज में अपना सम्मान व लाभ कमाना चाहते हैं, तभी क्रान्ति जन्म लेती है। समाज में राज्यक्रान्ति एक ऐसी महान् समस्या है जो दैनिक सामाजिक जीवन में विघ्न उत्पन्न करती है। राज्य का : स्वरूप बदल जाने या सरकार बदल जाने या सत्ता के एक वर्ग से दूसरे वर्ग में चले जाने को ही अरस्तू क्रान्ति कहते हैं।

राज्यक्रान्ति के कारण

अरस्तु ने क्रान्ति के अनेक कारण बताए हैं, जिनमें से पृथक्-पृथक् कारणों का उल्लेख निम्न प्रकार है

(1) अन्याय की भावना - 

अरस्तू के मतानुसार राज्यक्रान्ति का सबसे प्रमुख व महत्त्वपूर्ण कारण अन्याय की भावनाओं का होना है। अरस्तू का अन्याय से तात्पर्य जनता में न्याय और समानताओं का दुरुपयोग हैं। समाज में जब कुछ गिने-चुने व्यक्तियों के लिए ही न्याय एवं समानता का प्रयोग किया जाने लगता है, तब क्रान्ति के अंकुर पनपने लगते हैं और धीरे-धीरे राज्यक्रान्ति का रूप धारण कर लेते हैं। इनका भी एक प्रमुख कारण यह है कि जब समानता एवं न्याय केवल कुछ गिने-चुने व्यक्तियों के लिए रह जाता है, तब निश्चित रूप से ही यह गिने-चुने लोग महत्त्वाकांक्षी होते हैं और अपने सम्मान एवं लाभ को प्राप्त करने के लिए अन्य लोगों के साथ अत्याचार करने लगते हैं। फलत: इन अत्याचार सहने वालों में महत्त्वाकांक्षी व्यक्तियों के प्रति घृणा उत्पन्न होती है और ये सम्मिलित रूप से इनके विरुद्ध या राज्य के विरुद्ध क्रान्ति करते हैं।

(2) शासक वर्ग में आपसी कलह - 

कई बार ऐसा होता है कि सत्ताधारी वर्ग में से विरोध रखने वाले दो या अधिक गुटों का मनमुटाव खुले रूप से उभर कर सामने आता है। ऐसी परिस्थितियों में वे अपने-अपने पक्ष की स्थापना करने और पक्ष के तत्त्वों को ही लाभ पहुंचाने में जुट जाते हैं। इस पारस्परिक विवाद आदि से एक ऐसी स्थिति आती है जब जन-साधारण को असुविधा व अनर्थ का शिकार होना पड़ता है, तब जन-साधारण में से कुछ समझदार व्यक्ति नेता बनकर सत्ताधारी गुट को बलपूर्वक सत्ता से उखाड़ फेंकते हैं। ..

(3) बहुसंख्यकों की अल्पसंख्यकों के प्रति असन्तुष्टि - 

राज्य में जब किसी वर्ग विशेष का पलड़ा भारी हो जाता है, तब दूसरे वर्ग या वर्गों के लोग उस वर्ग' की महत्ता का उन्मूलन करने के लिए सक्रिय क्रान्ति कर देते हैं। अरस्तू के अनुसार, "जब एक लोकतन्त्र में निर्धनों की संख्या बढ़ जाती है और उन्हें अभाव ' में अपमान रह-रहकर भुगतने और सहने पड़ते हैं, तो लोग शासन के विरुद्ध । विद्रोह का झण्डा उठा देते हैं।"

(4) कुलीनतन्त्रात्मक शासन - 

अल्पसंख्यक कुलीन वर्ग के शासन में राज्य क्रान्ति का पनपना बहुत ही स्वाभाविक है। सत्तारूढ़ दल पदहीन वर्ग को घृणा व तिरस्कार की दृष्टि से देखता है और अपमानजनक व्यवहार करता है। कुलीन सत्ताधारी निर्धन लोगों का मानसिक व आर्थिक शोषण करते हैं। ये कुछ ऐसे तथ्य हैं जिन्हें किसी भी राज्य की जनता अधिक समय तक सहन नहीं कर पाती। फलतः विद्रोह की ध्वनि उठने लगती है। इस स्तर पर कुलीन सत्तारूढ़ वर्ग जन-साधारण के मूल अधिकारों पर कुठाराघात करने लगता है। परिणामतः क्रान्ति हो जाती है।

(5) जनता की स्वार्थपरता - 

बहुधा महत्त्वाकांक्षी, पद लाभ की आशा में डूबे हुए अपराधी, तिरस्कृत, सम्पत्ति लोलुप और दण्ड व दण्डित होने से बचने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति भी शासन को उलटने का षड्यन्त्र रच डालते हैं। इस प्रकार की क्रान्ति में न्याय व कल्याण की भावनाएँ नहीं होती और लोग आपस में ही एक-दूसरे को मारने व लूटने की जघन्य क्रियाएँ करने लगते हैं। यह गृह युद्ध की सी स्थिति होती है और इसमें शासन व शासित, दोनों ही वर्गों का भारी नुकसान होता है।

(6) शासितों में शासकों के प्रति निम्नता की भावना - 

शासित वर्ग के दिलों में यह बात घर कर जाती है कि शासक वर्ग उनसे निकृष्ट कोटि का है। प्रत्येक व्यक्ति दूसरों से अपने को कुलीन और योग्य समझता है। इस प्रकार की भावनाएँ मानव में क्रान्ति के बीज बो देती हैं। परिणामत: शासक वर्ग का सामना क्रान्ति नामक घटना से होता है।

(7) शासित वर्ग में विभिन्न जातियों का होना

एक राज्य में जब अनेक प्रकार की भिन्न मतावलम्बी जातियाँ होती हैं, तो स्वाभाविक ही उनमें अपने-अपने धर्म और रीति-रिवाजों के कारण मतभेद उत्पन्न होते हैं। ये मतभेद कभी-कभी बौद्धिक असन्तोष और क्रोध से बढ़कर हिंसक रूप भी ले लेते हैं। इस स्थिति में शासक की दशा. बड़ी शोचनीय हो जाती है। परिणाम यह होता है कि शासन तन्त्र ढीला होने लगता है। बाद में कभी-कभी बहुसंख्यक और कभी-कभी एकाध वर्ग क्रान्ति कर देता है। र

(8) शासन की भूलें - 

शासन की छोटी-छोटी भूलें, कुछ मामलों में की गई उपेक्षा आदि भी राज्य की जनता को क्रान्ति के दरवाजे पर ला खड़ा करती हैं और शासक वर्ग सरकारी कार्यालयों को छोड़ भागते हैं। ..

(9) अन्य कारण

अरस्तू के अनुसार क्रान्तियों के सदैव उपर्युक्त कारण ही नहीं होते। कुछ सामाजिक कारण, जनता का किसी घटना विशेष से प्रभावित होना, राज्यों की भौगोलिक स्थिति व अन्य कई कारण हैं, जो कभी भी उभरकर सामने आ सकते हैं। लोकतन्त्र के भ्रष्ट रूप और जनतन्त्र के अत्यधिक विकसित 5 रूप में जनता विश्चय ही क्रान्ति कर देती है। भ्रष्ट शासन तन्त्रों में कभी भी क्रान्ति हो सकती है। योग्य शासकों में सैद्धान्तिक मतभेद के परिणामस्वरूप सक्रिय असहयोग प्रकट होता है, ऐसे समय में सैनिक क्रान्ति मंच पर प्रकट होती है। स्वेच्छाचारी राजतन्त्र और निरंकुश राजाओं के शासन क्रान्तियों को अधिक मात्रा में जन्म देते हैं।

विभिन्न प्रकार के राज्यों में क्रान्ति के कारण

(1) समूह तन्त्र -

समूह तन्त्र में क्रान्ति के कारण पर प्रकाश डालते हुए अरस्तू कहता है कि इसमें क्रान्ति का मुख्य कारण नेताओं का अस्तित्व है। ये लोग अपनी सस्ती नेतागीरी को बनाए रखने के लिए अनाप-शनाप भाषण देते हैं। ये लोग अपने भाषणों के द्वारा जनता को धनिकों के प्रति भड़काते रहते हैं। जब धनिक अपनी निन्दा से थक जाते हैं, तो वे इनके प्रति विद्रोह कर क्रान्ति लाते हैं। .

(2) धनिक तन्त्र -

धनिक तन्त्र में क्रान्ति का मुख्य कारण शासक वर्ग में पारस्परिक द्वेष व संघर्ष और शासकों का आम जनता के प्रति अन्यायपूर्ण व्यवहार

(3) निरंकुश प्रजातन्त्र - 

अरस्तू का विचार है कि जब राजतन्त्र का रूप विकृत हो जाता है अर्थात् शासक जनहित को भूलकर स्वार्थी हो जाते हैं और उनका शासन निरंकुश तन्त्र में बदल जाता है, तो उसमें क्रान्ति के बीज स्वतः ही आ जाते हैं, क्योंकि जनता उसके अत्याचारों व अपमानजनक व्यवहार के कारण उनसे घृणा करने लगती है। _

(4) कुलीन तन्त्र-

कुलीन तन्त्र में क्रान्ति के कई कारण हो सकते हैं, जैसे
(i) शासकों में मतभेद हो जाने से, . 
(ii) शासक वर्ग द्वारा जनता की उपेक्षा, - 
(iii) शासक वर्ग के द्वारा अन्याय के मार्ग पर चलना, तथा 
(iv) शासक वर्ग द्वारा अपनी श्रेष्ठता व सम्मान तथा स्वार्थ-सिद्धि के लिए बहुमत के हितों की उपेक्षा करना।

राज्यक्रान्ति को रोकने के उपाय

अरस्तू ने क्रान्तियों को रोकने के लिए निम्न उपाय बताए हैं

(1) जनता में जागृति उत्पन्न करना- 

राज्य को अनेक प्रकार के अनिष्टों से बचाने का सर्वोत्तम उपाय हैविधि-विधान, संविधान, यथार्थ परिस्थितियों, राज्य के भविष्य, राज्य की आधारभूत नीतियों, सम्यक् शिक्षा और राज्य के शत्रु-मित्रों का सही-सही ज्ञान कराने की दिशा में राज्य सक्रिय व ठोस कदम उठाए। राज्य को जाग्रत जनता न कुछ गलत सोच सकती है और न ही ऐसा कुछ कर सकती है।

(2) परिवर्तनकारी शक्तियों पर रोकथाम - 

शासक वर्ग का मिथ्याचरण, आडम्बरपूर्ण व्यवहार और छोटी-छोटी समस्याओं के प्रति उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण के कारण समाज में क्रान्ति की ओर ले जाने वाले परिवर्तन आते हैं। अत: इन परिवर्तनों को रोका जाना चाहिए।

(3) अधिकारी वर्ग की सेवा अवधि का निर्धारण -

क्रान्तियों को रोकने के लिए अरस्तू ने पदाधिकारियों की सेवा अवधि 6 माह निर्धारित की। इतनी छोटी अवधि का निर्धारण आज के युग में तो सम्भव नहीं है। किन्तु यह अवश्य है कि अल्पकालीन सेवा अवधि में शासन में अधिकाधिक सुधारों का संयोग बढ़ता है और बारी-बारी से महत्त्वाकांक्षी व्यक्तियों को अपनी योग्यता दिखाने का समय मिल जाता है।

(4) शासक व शासित वर्ग में उचित सम्पर्क

अधिकारियों व नेताओं का जन-साधारण के प्रति समान रूप से सद्भावना का सम्मानपूर्ण व्यवहार जनता के. हृदय में शासक वर्ग के प्रति सौहार्द्र बनाए रखने की अचूक कुंजी है।

(5) जनता को भावी खंतरों की सूचना-

शासक वर्ग को चाहिए कि वह जनता को सदैव राज्य पर छाये हुए सम्भावित खतरों का सम्यक् ज्ञान कराता रहे। इससे जनमानस में आलस्य नहीं भरेगा और अधिकांश दुर्बल चरित्रों को स्वार्थपूर्ण षड्यन्त्रों को रचने का मानसिक अवकाश भी नहीं मिलेगा।

(6) विरोधी मत के शासक वर्गों को समान पद -

क्रान्ति को दूर रखने का एक उचित उपाय यह भी है कि विरोधी मतावलम्बी गुटों को शासन सौंप दिया जाए। धनी और निर्धन वर्ग का शासकीय संगठन बराबर प्रतिशत में हो, धनी और गुणी व्यक्तियों का ऐसा ही सामंजस्य बहुधा राज्य के सभी वर्गों की जनता के लिए लाभप्रद व सन्तुष्टिपरक होता है।

(7) भ्रष्टाचारोन्मूलन - 

शासक वर्ग यदि चाहता है कि शासित वर्ग उसके लिए सिर दर्द न बने, तो उसे चाहिए कि वह राज्य में एक सुदृढ़ और भ्रष्टाचार रहित शासकीय संगठन की रचना करे, जिसमें शासितों के हितों का पूरा-पूरा ध्यान रखे जाने की व्यवस्था हो।

(8) स्वेच्छाचारी राजतन्त्र के लिए गुप्तचर विभाग - 

स्वेच्छाचारी राजतन्त्र के गर्भ में अरस्तू के अनुसार राज्यक्रान्ति के बीज सर्वाधिक मात्रा में होते हैं। . स्वेच्छाचारी राजा को परामर्श देते हुए अरस्तू कहता है कि ऐसे शासक को सबसे पहले एक गुप्तचर विभाग की स्थापना करनी चाहिए, जिससे जनमत की सूचना शासन को प्रति पल मिलती रहे।

(9) अन्य उपाय -

स्वेच्छाचारी राजा को एक अन्य सलाह देते हुए अरस्तू कहते हैं कि ऐसे राज्य को अपनी समस्त क्रूरताओं व महत्त्वाकांक्षाओं पर पर्दा अवश्य डाले रहना चाहिए। नागरिकों को गृह कलह में डालकर उनकी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहना चाहिए। उसे नागरिकों की धार्मिक भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए। उसे अपनी फूट डालने की नीति के अनुसार कुछ अत्यन्त प्रभावशाली नागरिकों को पुरस्कार आदि दे देना चाहिए और ऐसे लोगों से मित्रतापूर्ण व्यवहार बनाए रखना चाहिए जिनका नागरिकों पर असर हो। आवश्यकता पड़ने पर गुप्त रूप से काबू में न आ सकने वाले तत्त्वों के विरुद्ध संगीनों (हथियारों) का भी प्रयोग करना चाहिए।
अरस्तू की राज्यक्रान्ति सम्बन्धी विचारधारा अत्यन्त मौलिक है। अपने गुरु प्लेटो से वह सदैव आगे रहा है, किन्तु यहाँ तो कई कदम आगे है। राजनीतिक विचारों के इतिहास में क्रान्ति की विशद् व्याख्या, उसके कारण और रोकथाम के उपायों से पहली बार परिचित कराने का श्रेय इस प्रकार अरस्तू को ही जाता है।

Comments

Post a Comment

Important Question

कौटिल्य का सप्तांग सिद्धान्त

सरकारी एवं अर्द्ध सरकारी पत्र में अन्तर

शीत युद्ध के कारण और परिणाम

प्लेटो का न्याय सिद्धान्त - आलोचनात्मक व्याख्या

बड़े भाई साहब कहानी की समीक्षा

प्रयोजनमूलक हिंदी - अर्थ,स्वरूप, उद्देश्य एवं महत्व

संक्षेपण का अर्थ एवं परिभाषा

व्यवहारवाद- अर्थ , विशेषताएँ तथा महत्त्व

नौकरशाही का अर्थ,परिभाषा ,गुण,दोष

पारिभाषिक शब्दावली का स्वरूप एवं महत्व