रूसो का सामान्य इच्छा का सिद्धान्त

 B. A. II, Political Science I

प्रश्न 10. रूसो के सामान्य इच्छा के सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।

अथवा "रूसो का प्रभुसत्ताधारी हॉब्स का शीशविहीन लेवियाथन है।" परीक्षण कीजिए।

अथवा ''रूसो के सामान्य इच्छा के सिद्धान्त का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

अथवा "रूसो का राजसत्ताधारी पुरुष हॉब्स का लेवियाथन है, जिसका सिर कटा हुआ है।" समीक्षा कीजिए।

उत्तर जीन जैक्स रूसो फ्रांस के 18वीं शताब्दी के उन विचारकों में था जिसे फ्रांस की राज्यक्रान्ति का अग्रदूत कहा जा सकता है। रूसो ने राज्यक्रान्ति सम्बन्धी अपने विचार अपने ग्रन्थ 'Social Contract' में दिए हैं, जो 1762 ई. में प्रकाशित हुआ। रूसो के विचार में एक ओर व्यक्तिवाद और दूसरी ओर निरंकुशता की झलक दिखाई देती है। इसीलिए प्रो. वॉहन (Vaughan) ने लिखा है कि "रूसो राज्य का परम समर्थक और व्यक्ति का परम भक्त था, जो एक आदर्श को दूसरे पर न्योछावर करने में सफल हो सका।"

रूसो के समझौता सम्बन्धी विचार-

रूसो भी हॉब्स और लॉक की भाँति यही मानता है कि राज्य का जन्म सामाजिक समझौते द्वारा हुआ है, फिर भी रूसो दोनों के विचारों से असहमत है। रूसो का कहना है कि प्राकृतिक अवस्था में व्यक्ति सरल व सुखपूर्ण जीवन व्यतीत करता था। परन्तु यह स्थिति अधिक दिनों तक नहीं रह सकी, क्योंकि जनसंख्या की वृद्धि व व्यक्तिगत सम्पत्ति प्रथा के कारण 'मेरे-तेरे' का प्रश्न उठ खड़ा हुआ। अब रूसो का साधु पुरुष (Noble Savage) कपटी, स्वार्थी आदमी बन गया और प्राकृतिक अवस्था का सौन्दर्य नष्ट हो गया व हॉब्स की बताई हुई प्राकृतिक अवस्था का उदय हुआ, जिसे समाप्त करने के लिए सामाजिक समझौता हुआ।

रूसो का सामान्य इच्छा के सिद्धान्त

रूसो के अनुसार उपर्युक्त दु:खदायी प्राकृतिक अवस्था से बचने के लिए व्यक्तियों ने परस्पर एक समझौता किया व राज्य का निर्माण किया। रूसो ने अपने ग्रन्थ 'Social Contract' में बताया है कि मनुष्यों ने अपने समस्त अधिकार सामान्य इच्छा में विलीन कर दिए, जो कि रूसो का सम्प्रभ शासक है। यह सामान्य इच्छा ही राज्य की सर्वोच्च सत्ताधारी अभिव्यक्ति है. जिसे सम्प्रभता कहते हैं।

रूसो का सामान्य इच्छा का सिद्धान्त

सामान्य इच्छा को समझाने के लिए मनुष्य की 'यथार्थ इच्छा' और 'आदर्श इच्छा' के अन्तर को समझ लेना आवश्यक है। यथार्थ इच्छा मनुष्य की स्वार्थपूर्ण इच्छा है, जिसके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति अपने हित के विषय में चिन्तन करता है और अन्य व्यक्तियों के हित के प्रति उदासीन रहता है। आदर्श इच्छा मनुष्य की वह इच्छा है जिसके द्वारा वह अपने हित से भी उठकर सार्वजनिक हित के विषय में चिन्तन करता है। इस प्रकार सभी व्यक्तियों की आदर्श इच्छाओं के समूह (योग) को सामान्य इच्छा कहते हैं।

सामान्य इच्छा की विशेषताएँ

सामान्य इच्छा की कुछ विशेषताएँ होती हैं, जो निम्न प्रकार हैं

(1) स्थायित्व

सामान्य इच्छा स्थायी है, भावात्मक नहीं। रूसो के अनुसार, "इसका अन्त नहीं होता है, यह नष्ट नहीं होती है, यह अपरिवर्तनशील और नैतिक होती है।"

(2) एकता-

इसका अर्थ यह है कि संगत होने के कारण वह आत्मविरोधी नहीं हो सकती।

(3) अदेयता

सामान्य इच्छा को हस्तान्तरित नहीं किया जा सकता। वह तो समस्त समुदाय की इच्छा होती है, केवल एक ही व्यक्ति उसका प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है।

(4) सदैव सही होती है-

सामान्य इच्छा सदैव उचित इच्छा और लोककल्याणकारी होती है।

(5) अविभाज्यनीय-

रूसो ने कहा है कि "सामान्य इच्छा न तो बँट सकती है और न ही वह दूर की जा सकती है।"

सामान्य इच्छा सिद्धान्त की आलोचना

विद्वानों ने रूसो के सामान्य इच्छा सिद्धान्त की निम्न आधारों पर कटु आलोचना की है

(1) संकीर्ण व्यक्तिवाद-

एक ओर रूसो लोगों की स्वतन्त्रता की बात करता है, उसमें संकीर्ण व्यक्तिवाद की भावना है, दूसरी ओर वह पूर्ण राजनीतिक एकता की इच्छा भी रखता है। अतः यह सिद्धान्त आत्म-विरोधी है।

(2) अस्पष्ट सिद्धान्त

वेपर का कहना है कि "जब सामान्य इच्छा का पता ही हमें रूसो नहीं दे सकता है, तो सिद्धान्त के प्रतिपादन से क्या लाभ है। यद्यपि रूसो ने सामान्य इच्छा के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा है, फिर भी वह अपर्याप्त है। ठीक तो यह है कि उसने हमें ऐसे अँधेरे में छोड़ दिया है जहाँ हम सामान्य इच्छा के सम्बन्ध में अच्छी तरह विचार भी नहीं कर सकते।"

(3) आधुनिक राज्यों पर लागू नहीं होता-

सामान्य हित का निर्धारण छोटे राज्यों में भले ही सम्भव हो, परन्तु बड़े राज्यों में यह असम्भव है। जहाँ संसदीय शासन है, वहाँ सामान्य इच्छा का प्रतिनिधित्व सम्भव नहीं। यही कारण है कि ऐसे शासन में बहसंख्यक लोग ही समाज के प्रतिनिधि होते हैं। इस प्रकार रूसो का कहना कि 'सामान्य इच्छा न तो बँट सकती है और न वह दूर की जा सकती है। असंसदीय है।

(4) सामान्य हित के निर्धारण की समस्या

यह सिद्धान्त सामान्य हित की धारणा पर टिका हुआ है। इस प्रकार यह तय कर पाना एक कठिन समस्या हो जाएगी कि किस खास परिस्थिति में यह सामान्य हित है। एक क्रूर शासक लोक-कल्याण की दुहाई देकर किन्हीं भी कार्यों को उचित व नैतिक ठहरा सकता है, क्योंकि असत्य परिणाम तो बाद में ही पता लगेगा।

(5) निरंकुशता को प्रोत्साहन

 व्यक्ति की इच्छा से पृथक् राज्य की कोई इच्छा अथवा उसके किसी व्यक्तित्व की कल्पना ठीक नहीं है। इसके फलस्वरूप सर्वसत्ताधिकार का समर्थन होता है। आलोचकों का यह कहना ठीक ही है कि रूसो का सामान्य इच्छा का सिद्धान्त हॉब्स के 'लेवियाथन' की भाँति निरंकुश व स्वेच्छाचारी है। अन्तर इतना ही है कि हॉब्स का निरंकुश शासक एक व्यक्ति है, रूसो का निरंकुश शासक एक समूह है।

(6) मानव इच्छा को दो भागों में बाँटना अव्यावहारिक

सामान्य इच्छा का सिद्धान्त भावात्मक ही है। मानव की इच्छाओं को स्पष्ट रूप से दो वर्गों में बाँटना उचित नहीं है।

(7) अन्य आलोचनाएँ

(i) रूसो की सामान्य इच्छा अनैतिहासिक और काल्पनिक है।

(ii) रूसो की सामान्य इच्छा व्यक्ति के महत्त्व को ही नष्ट कर देती है। यह बात तर्कसंगत नहीं कि यदि सामान्य इच्छा व्यक्ति को फाँसी की सजा देती है, तो वह व्यक्ति की वास्तविक इच्छा है।

सामान्य इच्छा सिद्धान्त का महत्त्व

उपर्युक्त दोषों के बावजूद रूसो के सामान्य इच्छा के सिद्धान्त को कोरी दार्शनिक कल्पना मानकर उसके महत्त्व को स्वीकार करने से इन्कार नहीं किया जा सकता। इसके महत्त्व को निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है

(1) इस सिद्धान्त ने आधुनिक राजनीतिक चिन्तन का मार्ग प्रशस्त किया है। इसके द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि राज्य का उद्देश्य किसी वर्ग विशेष का नहीं, अपितु सम्पूर्ण समाज का हित करना है, क्योंकि व्यक्तिगत हितों की अपेक्षा

सामाजिक हित अधिक श्रेष्ठ और उत्कृष्ट है। इस प्रकार इस सिद्धान्त ने व्यक्तिगत हित के स्थान पर सामान्य हित को अधिक महत्त्व प्रदान किया है।

(2) इस सिद्धान्त ने जन-प्रभुसत्ता के विचार को बल प्रदान करके जनतन्त्र के विचार को लोकप्रिय और सुदृढ़ बनाया है। आधुनिक लोकतन्त्र अपने विकास के लिए किसी-न-किसी रूप में रूसो का ऋणी है।

(3) रूसो के सिद्धान्त ने आदर्शवादी विचारधारा को प्रेरणा प्रदान की है, क्योंकि इसने यह प्रतिपादित किया है कि "शक्ति नहीं वरन् इच्छा राज्य का आधार

(4) यह सिद्धान्त व्यक्ति और समाज में शरीर तथा उसके अंगों के समान सम्बन्ध स्थापित करके उसे प्राकृतिक स्वरूप प्रदान करता है और इस प्रकार उन दोनों के मध्य विद्यमान विषमताओं का अन्त कर एकता को सुदृढ़ नींव पर स्थापित करता है तथा उसे प्राकृतिक बताता है।

(5) यह सिद्धान्त यह भी घोषित करता है कि राज्य कृत्रिम न होकर एक । स्वाभाविक संस्था है। कोल के अनुसार, "यह हमें सिखाता है कि राज्य मनुष्य की प्राकृतिक आवश्यकताओं और इच्छाओं पर आधारित है, इसलिए राज्य के प्रति हमें आज्ञाकारी होना चाहिए, क्योंकि यह हमारे व्यक्तित्व का ही स्वाभाविक विस्तार है।"

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि इस सिद्धान्त के द्वारा रूसो ने लोकतन्त्र का समर्थन किया। उसने शासन को पूर्णतया जन-सहमति पर आधारित किया। लेन्सन ने ठीक ही कहा है कि "वह आधुनिक युग के प्रत्येक द्वार पर खड़ा दिखाई देता है।" डॉ. आशीर्वादम के अनुसार, "कुछ विचारकों की दृष्टि में सामान्य इच्छा का सिद्धान्त यदि भयंकर नहीं तो सारहीन अवश्य है, जबकि दूसरे विचारकों के लिए यह सिद्धान्त प्रजातन्त्र दर्शन का एक बुनियादी पत्थर है।"

"रूसो का राजसत्ताधारी पुरुष हॉब्स का लेवियाथन है,जिसका सिर काट दिया गया है।"

रूसो के उपर्युक्त विचारों से स्पष्ट है कि वह हॉब्स के बहुत निकट है। कारण यह है कि दोनों के अनुसार समझौते में व्यक्तियों ने अपने समस्त अधिकारों का त्याग कर दिया है। दोनों की प्रभुसत्ता की व्याख्या में भी कोई अन्तर नहीं है. सिवाय इसके कि रूसो के अनुसार प्रभुसत्ता सामान्य इच्छा में निहित है. जबकि हॉब्स के अनुसार वह राज्य में निहित है। परन्तु जब रूसो एक बार सामान्य इच्छा में प्रभुसत्ता को निहित कर देता है, तो वह उसे उसी तरह पूर्ण निरंकश व अविभाज्यं बताता है, जैसे कि हॉब्स ने अपने राजा को शक्तियाँ प्रदान की हैं। रूसो के अनुसार भी सामान्य इच्छा न तो गलत हो है और न अन्यायपूर्ण। हॉब्स तथा रूसो, दोनों ही व्यक्ति को प्रभ शनि खिलौना बना देते हैं।

संक्षेप में

(1) हॉब्स तथा रूसो, दोनों ही प्रभुसत्ता को अविभाज्य, अदेय और असीमित मानते हैं।

(2) दोनों ही विचारक प्रभुसत्ता को स्थायी एवं न्यायप्रिय मानते हैं। दोनों का ही कहना है कि वह (सम्प्रभु) गलत कार्य नहीं कर सकता।

(3) जिस प्रकार हॉब्स 'लेवियाथन' के समक्ष व्यक्तियों का आत्म-समर्पण करा देता है, उसी प्रकार रूसो 'सामान्य इच्छा के समक्ष'

(4) दोनों ही प्रभुसत्ता को सर्वोच्च एवं निरंकुश मानते हैं।

हॉब्स तथा रूसो के विचारों में उपर्युक्त समानता के कारण ही प्रो. वॉहन ने कहा है कि "रूसो का राजसत्ताधारी पुरुष (सामान्य इच्छा) भी पूर्ण निरंकुश, अविभाज्य व अदेय है।" सिर कटे होने का अर्थ यह है कि रूसो का सम्प्रभु या शासक हॉब्स के राजा की भाँति एक व्यक्ति नहीं है।

 

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