प्रशा का फ्रेड्रिक महान - गृह, विदेश एवं धार्मिक
B.A. I, History II / 2020
प्रश्न 15. प्रशा के फ्रेड्रिक महान की गृह, विदेश एवं धार्मिक नीति की व्याख्या कीजिए।
अथवा '' प्रबुद्ध निरंकुश शासक के रूप में फ्रेड्रिक महान के सुधारों पर प्रकाश डालिए।
प्रश्न 15. प्रशा के फ्रेड्रिक महान की गृह, विदेश एवं धार्मिक नीति की व्याख्या कीजिए।
अथवा '' प्रबुद्ध निरंकुश शासक के रूप में फ्रेड्रिक महान के सुधारों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर- 18वीं शताब्दी के
उत्तरार्द्ध में प्रबोधन युग का आरम्भ हुआ। इस युग ने न केवल प्राकृतिक विज्ञान,
सामाजिक विज्ञान, प्राकृतिक दर्शन, देववाद आदि को प्रभावित किया, अपितु मध्यवर्गीय
बुद्धिजीवी, कुलीन, पुरोहित और यहाँ तक कि यरोप के निरकुश राजाओं
को भी अत्यधिक प्रभावित किया। निरंकश राजा अब 'प्रबुद्ध शासक' कहे जाने लगे। प्रबुद्ध निरंकुश राजाओं में फ्रेड्रिक महान सर्वश्रेष्ठ था। 1740 ई. में अपने राज्यारोहण के समय फ्रेड्रिक महान
अपने गुरुतर कर्तव्यों व दायित्वों से पूर्णतया परिचित था। वह वॉल्टेयर, रूसो, मॉण्टेस्क्यू, दिदरो, अलम्बर्ट आदि प्रसिद्ध विद्वानों के विचारों से
अत्यन्त प्रभावित था। फ्रेड्रिक महान को अपने शासनकाल के पूर्वार्द्ध में अर्थात् 1763 ई. तक अनवरत् युद्धों में व्यस्त रहना पड़ा।
परन्तु युद्धों में फंसे रहने पर भी उसने सुधार कार्यों की ओर पूरा ध्यान दिया।
दीर्घकालीन युद्धों से क्षत-विक्षत प्रशा की आर्थिक व भौतिक उन्नति के लिए
फ्रेड्रिक महान ने अथक प्रयास किए।
वस्तुतः उसके शासनकाल का उत्तरार्द्ध प्रजा
हितकारी सुधारों से परिपूर्ण था। अपने सुधारों के कारण ही फ्रेड्रिक महान
सर्वश्रेष्ठ प्रबुद्ध निरंकुश शासक कहलाता है। उसका कहना था, "राजा निरंकुश अधिपति नहीं, वरन् अपने राज्य का प्रथम सेवक होता है। वह
राज्याधिकार को एक महान् दायित्व और पवित्र धरोहर समझता था। उसका कथन था,
"राष्ट्र में राजा का वही
स्थान है जो शरीर में मस्तिष्क का होता है। वह सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए व
राष्ट्र-हित में देखता, सोचता और कार्य
करता है। वह राज्य का सर्वप्रधान न्यायाधीश, आर्थिक विषयों का नियामक व मन्त्री होता है। शासक राज्य का
प्रतिनिधि होता है।"
फ्रेड्रिक महान की गृह नीति
फ्रेड्रिक महान की गृह नीति अथवा सुधारों का उल्लेख निम्नांकित शीर्षकों के
अन्तर्गत किया जा सकता है
(1) आर्थिक सुधार-
सप्तवर्षीय युद्ध की समाप्ति के पश्चात् फ्रेड्रिक महान ने राज्य की आर्थिक
उन्नति व कृषि के विकास की ओर ध्यान दिया। उसने सामन्तों व जमींदारों को वैज्ञानिक
पद्धति से खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया। उसने कृषि क्षेत्रों का विस्तार
किया तथा पशुओं की नस्ल में भी सुधार का प्रयास किया। उसने नहरें और सड़कें
बनवाईं। बेकार भूमि 'कृषि भूमि में बदली गई। दलदलों को सुखाकर कृषि योग्य भूमि बनाई गई।
युद्ध से प्रभावित को बीज बाँटे गए तथा उनके कर कम कर दिए गए। परन्तु उसने किसान दास प्रथा को ज्यों-का-त्यों कायम रखा। उसने
विदेशियों को प्रशा में बसने लिए प्रोत्साहित
किया। यद्यपि फ्रेड्रिक के काल में राजकीय कर कम न थे ,परन्तु
राजकीय आय को बड़ी
मितव्ययता के साथ खर्च किया जाता था। राजकीय आय-व्यय का निरीक्षण स्वयं करता था।
अत: उसके कर्मचारिया अपव्यय करने का साहस नहीं होता था। संक्षेप में, राजकीय आय का सदुपयोग होता था।
(2) सैनिक सुधार-
फ्रेड्रिक महान ने अपनी सफल व व्यवस्थित आति सुधार योजना के फलस्वरूप दो लाख
सैनिकों की सेना संगठित की। सैनिकों प्रशिक्षण, अनुशासन, शस्त्रास्त्र आदि
पर बहुत ध्यान दिया जाता था। सम्पूर्ण यूरोप में फ्रेड्रिक की सेना उत्तम व आदर्श मानी जाती थी। इसी
कुशल सेना के बल पर वह साइलेशिया व पोलैण्ड के कुछ भाग को जीत सका। उसने सेना पर
अधिकसे-अधिक धन खर्च किया। वस्तुत: 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में प्रशा की सेना समस्त यूरोप के लिए भय और
ईर्ष्या का कारण बन गई।
(3) न्यायिक सुधार -
फ्रेड्रिक महान ने न्यायिक व्यवस्था पर भी अत्यधिक - ध्यान
दिया व अनेक प्रशंसनीय सुधार किए। उसने समस्त प्रचलित कानूनों व विधियों का पुनः
संग्रह व संकलन किया। अदालतों की कार्य-पद्धति सरल व सुगम कर दी गई, ताकि न्याय देने में देरी न हो। फौजदारी
मुकदमों में पहले अपराधों को स्वीकार कराने के लिए जो यातनाएँ दी जाती थीं,
वे बन्द कर दी - गईं। उसने समस्त प्रजा के लिए
एक-सी व निष्पक्ष न्याय व्यवस्था स्थापित की। न्यायाधीशों द्वारा पक्षपात करने पर
उन्हें भी दण्डित किया जाता था। यद्यपि फ्रेड्रिकमहान ने न्याय व्यवस्था में अनेक
सराहनीय सुधार किए, फिर भी प्रशा के
अनेक कानूनों में पर्याप्त कठोरता रह गई।
(4) वाणिज्यिक सुधार -
फ्रेड्रिक महान ने व्यापार-वाणिज्य तथा उद्योगधन्धों की
उन्नति के लिए भी कई उल्लेखनीय सुधार किए। उसने ऊन और लिनन के उत्पादन को
प्रोत्साहित किया तथा रेशम उद्योग का विकास किया। उसने प्रशा को आर्थिक दृष्टि से
आत्म-निर्भर बनाना चाहा। अत: उसने संरक्षण की व्यापार नीति अपनाई। व्यापारिक
उन्नति के उद्देश्य से उसने विदेशियों को प्रशा में बसने के लिए प्रोत्साहित किया।
उसने योग्यता के आधार पर नियुक्तियाँ कीं।
(5) बौद्धिक सुधार -
फ्रेड्रिक महान समकालीन बौद्धिक आन्दोलन से अत्यधिक
प्रभावित था। उसने समकालीन बौद्धिक विकास अर्थात् विज्ञान, कला, दर्शन आदि में
हार्दिक सहयोग किया था। उसने प्राकृतिक विज्ञान, फ्रांसीसी साहित्य तथा कला व दर्शन पर लिखे गए ग्रन्थों का
गहन अध्ययन किया। सर्वसाधारण जनता को
साक्षर व शिक्षित बनाने के उद्देश्य से उसने प्रशा में अनेक प्रारम्भिक स्कूल खोले। उसने फ्रेंच साहित्यकारों को
बर्लिन आने के लिए न्योता दिया । उसके आग्रह व
आमन्त्रण के कारण ही वॉल्टेयर को अपनी इच्छा के विरुद्ध बर्लिन आना पड़ा। फ्रेड्रिक
महान को जर्मन साहित्य के स्थान पर फांसीसी साहित्य में विशेष लगाव था। उसने प्रशा
की वैज्ञानिक अकादमी को और अधिक समृद्ध बनाया। उसने उच्च वर्ग के छात्रों की
समुचित शिक्षा पर अत्यधिक बल दिया, क्योंकि उन्हीं
में से राज्य के भावी अफसर नियुक्त किए जाते थे। उसने बौद्धिक विकास के लिए अपनी
प्रजा को कुछ सीमा तक लेखन, भाषण व मुद्रण की
स्वतन्त्रता प्रदान की।
वस्तुतः फ्रेड्रिक महान ने प्रशा के हितों को ध्यान में रखकर ही समस्त सुधार
किए। परन्तु आलोचकों ने फ्रेड्रिक महान के सुधारों की आलोचना भी की है। आलोचकों के
मतानुसार फ्रेड्रिक के सुधारों के मुख्य उद्देश्य थे—ऑस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध की तैयारी, हहेनजालर्न राजवंश की
प्रतिष्ठा में वृद्धि तथा व्यक्तिगत उद्देश्यों की पर्ति। फ्रेड्रिक महान ने प्रजा
के हित में सुधार अवश्य किए, परन्तु प्रजा को
शासन कार्यों में सम्मिलित कर उसको राजनीतिक तथा स्वशासन की शिक्षा देने का उसने
कोई प्रयास नहीं किया। वह प्रजा के हित के शासन में विश्वास करता था, न कि प्रजा द्वारा। वह अपनी प्रजा की योग्यता
या क्षमता में विश्वास नहीं रखता था। तात्पर्य यह है कि भले ही फ्रेड्रिक महान ने
लोक-कल्याणकारी सिद्धान्तों के आधार पर बहुत-से सराहनीय व लाभदायक सुधार किए,
परन्तु उसने जनसत्ता या प्रजा द्वारा शासन
सिद्धान्त को स्वीकार नहीं किया। यही कारण है कि फ्रेड्रिक महान के सुधार स्थायी
सिद्ध न हुए। वस्तुतः फ्रेड्रिक महान के सुधारों की सफलता व्यक्तिगत मात्र सिद्ध
हुई, क्योंकि उसने किसी ऐसी
संस्था या व्यवस्था का निर्माण नहीं किया जो उसके अयोग्य उत्तराधिकारियों के
शासनकाल में भी सुचारु रूप से चल सकती।
फ्रेड्रिक महान की परराष्ट्र (विदेश) नीति
फ्रेड्रिक महान की परराष्ट्र (विदेश) नीति के दो मुख्य उद्देश्य थे—जर्मनी में प्रशा के प्रभुत्व की स्थापना और
ऑस्ट्रिया के हैप्सबर्गों को परास्त कर यूरोपीय राजनीति में प्रशा के लिए
महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त करना। संक्षेप में फ्रेड्रिक महान का मुख्य उद्देश्य
राज्य का विस्तार, ऑस्ट्रिया को
नीचा दिखाना और प्रशा को एक शक्तिशाली यूरोपीय राज्य बनाना था। फ्रेड्रिक महान की
विदेश नीति को निम्न. शीर्षकों के अन्तर्गत स्पष्ट कर सकते हैं
(1) ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकार की समस्या -
ऑस्ट्रिया के हैप्सबर्ग सम्राट चार्ल्स षष्ठ
का कोई पुत्र न था। उसके सम्मुख ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकार का प्रश्न उपस्थित हआ।
उसने प्रचलित उत्तराधिकार के नियम (पुत्रों तक ही सीमीत उत्तराधिकार का नियम) को बदलकर अपनी ज्येष्ठ
पुत्री मारिया थेरेसा को सा साम्राज्य का एकमात्र उत्तराधिकारी बनाने का संकल्प
किया। अत: उसने 'Pragmatic Sanction' नामक एक अध्यादेश जारी किया, जिसके द्वारा हैप्सबर्ग साम्राज्य को अविभाज्य तथा मारिया थेरेसा के
उत्तराधिकार की घोषणा की 1740 ई. में सम्राट्
चार्ल्स षष्ठ की मृत्यु के उपरान्त मारिया थेरेसा हैप्सबर्ग साम्राज्य की
उत्तराधिकारिणी हुई। फ्रेड्रिक महान ने मारिया थेरेसा के उत्तराधिका को चुनौती दी।
उसने फ्रांस, बवेरिया, स्पेन, सेवॉय, प्रशा, सैक्सनी आदि राज्यों को मिलाकर एक गुट बना लिया
और मारिया थेरेसा के उत्तराधिकार को अमान्य कर दिया। फलस्वरूप 1740 से 1748 ई. तक ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकार का युद्ध चला।
अन्त में 1748 ई. में एक्स-ला-शापेल
की सन्धि के द्वारा यह युद्ध समाप्त हुआ। इस सन्धि के द्वारा फ्रेड्रिक महान ने
मारिया थेरेसा को ऑस्ट्रियन साम्राज्य की स्वामिनी स्वीकार कर लिया और बदले में
मारिया थेरेसा ने साइलेशिया प्रान्त पर फ्रेड्रिक महान का आधिपत्य स्वीकार कर
लिया।
(2) सप्तवर्षीय युद्ध -
साइलेशिया प्रान्त की प्राप्ति से सम्पूर्ण यूरोप में
फ्रेड्रिक महान के अपूर्व साहस और कुशल सैन्य नेतृत्व की धाक जम गई। अब यूरोपीय
राजनीति में प्रशा एक प्रभावशाली व शक्तिशाली राज्य समझा जाने लगा। उधर मारिया
थेरेसा साइलेशिया प्रान्त को पुनः प्राप्त करने के लिए लालायित थी। वस्तुत:
ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकार युद्ध के साथ ही यूरोपीय राजनीति में जर्मनी के नेतृत्व
के लिए प्रशा व ऑस्ट्रिया के मध्य संघर्ष प्रारम्भ हो गया। परिणामस्वरूप यूरोप में
दो महान् संघ बन गए। एक ओर इंग्लैण्ड और प्रशा थे। दूसरी ओर फ्रांस, ऑस्ट्रिया, स्वीडन, रूस, स्पेन, नेपिल्स, सार्डीनिया और परमा राज्य थे। परिणामस्वरूप यूरोप में सप्तवर्षीय
युद्ध (1756 से 1763 ई.) प्रारम्भ हो गया। इस युद्ध में फ्रेड्रिक
महान को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, परन्तु फ्रेड्रिक महान के कुशल नेतृत्व और सैन्य-संचालन के
आगे ऑस्ट्रिया की सेना पराजित हुई। 15 फरवरी, 1763 को
ह्यूबर्ट्सबर्ग की सन्धि के द्वारा सप्तवर्षीय युद्ध समाप्त हो गया। इस सन्धि के
अनुसार मारिया थेरेसा ने साइलेशिया पर फ्रेड्रिक महान के आधिपत्य को स्वीकार कर
लिया और बदले में फ्रेड्रिक महान ने मारिया थेरेसा के राज्याधिकार का समर्थन किया।
(3) पोलैण्ड का विभाजन-
सप्तवर्षीय युद्ध के परिणामस्वरूप प्रशा एक शक्तिशाली
यूरोपीय राज्य समझा जाने लगा। अब उसका स्थान ऑस्ट्रिया के समकक्ष हो गया। उत्तरी
जर्मनी पर प्रशा का प्रभुत्व स्थापित हो गया। परराष्ट्र नीति में फ्रेड्रिक महान
का सर्वोच्च लक्ष्य था-प्रशा का हित । प्रशा के विस्तार के लिए उसे साइलेशिया पर
आक्रमण करने व पोलैण्ड के विभाजन में हाथ बँटाने मे किसी प्रकार का संकोच न था। 1773 ई. में उसने ऑस्ट्रिया और रूस के साथ मिलकर
पोलैण्ड का प्रथम विभाजन किया, जिससे प्रशा को
पोलैण्ड के डेन्जिंग और थार्न के प्रदेशों को
छोड़कर सम्पूर्ण पश्चिमी पोलैण्ड प्राप्त हुआ।
इस प्रकार फ्रेड्रिक महान ने प्रशा के राज्य-विस्तार तथा प्रशा को एक
शक्तिशाली यूरोपीय राज्य बनाने के अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त की। उसने यरोप
में प्रशा की प्रतिष्ठा को स्थापित किया, जिसके लिए प्रशा सदैव उसका ऋणी रहेगा।
फ्रेड्रिक महान की धार्मिक नीति
फ्रेड्रिक महान धार्मिक मामलों में अत्यन्त सहिष्णु था। उसमें अपने हहेनजालर्न पूर्वजों की भाँति धर्म के प्रति उतनी लगन व
निष्ठा न थी। वह उनकी भाँति कट्टर प्रोटेस्टैण्ट नहीं था। वह स्वयं ईसाई धर्म व
नैतिकता के बारे में सन्देह करता था। वह बाइबिल पर भी सन्देह करता था। वह पादरियों
का उपहास करता था और कहता था, "सभी धर्मों का सम्मान करना चाहिए। सभी को धार्मिक स्वतन्त्रता मिलनी
चाहिए।" प्रबुद्ध होने
के नाते वह समकालीन बौद्धिक आन्दोलन से अत्यधिक प्रभावित था। उसने सभी व्यक्तियों
व सम्प्रदायों को धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की। वह कहा करता था, "यदि तुर्क भी प्रशा में बसने के लिए आएँ,
तो मैं स्वयं उनके लिए
मस्जिदें बनवा दूँगा। प्रत्येक
व्यक्ति को अपने ढंग से स्वर्ग को जाने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए व प्रत्येक
धर्म के प्रति सहिष्णुता दिखाई जानी चाहिए।" यहूदियों के प्रति फ्रेड्रिक
महान पूर्ण धार्मिक स्वतन्त्रता या सहिष्णुता की नीति न अपना सका। यद्यपि उन्हें
पूर्ण धार्मिक स्वतन्त्रता प्राप्त थी, परन्तु प्रशा में बसने के लिए उन्हें अनुमति लेनी पड़ती थी व उन्हें कई प्रकार
के नागरिक अधिकारों या सुविधाओं से वंचित रहना पड़ता था।
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