प्लेटो का दार्शनिक शासक का सिद्धान्त
BA-II-Political Science-I
प्रश्न 1. प्लेटो के दार्शनिक शासक के
सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
उत्तर - फोस्टर का कथन है कि प्लेटो के सम्पूर्ण राजनीतिक चिन्तन में
सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथा मौलिक विचार यह है कि वह दार्शनिक राजाओं का शासन चाहता
है। प्लेटो के समय में यूनान के नगर राज्यों की दशा अत्यन्त खराब थी। एथेंस नगर की
दुर्दशा उसने देखी थी। वहाँ के शासन में फूट, भ्रष्टाचार, व्यभिचार और अपराध चरम सीमा
पर थे। वह इन बुराइयों को दूर करने के लिए शासन में हस्तक्षेप चाहता था।
उसने अपने
ग्रन्थ The Republic' में स्पष्ट लिखा है कि जब
तक दार्शनिक राजा नहीं होंगे, तब तक राज्य और समाज के
कष्ट दूर नहीं होंगे। जिस प्रकार जहाज कुशलतापूर्वक संचालन तभी हो सकता है जबकि
उसका चालक योग्य, कुशल तथा सच्चरित्र हो,
उसी प्रकार राज्य का संचालन भी योग्य हाथों में होना चाहिए।
एक दार्शनिक शासक ही प्रजा का भला-बुरा सोच सकता है। वह अपने ज्ञान के बल पर प्रजा
का हित सोचने की सामथ्र्य रखता है। अज्ञानी व्यक्ति यह कार्य नहीं कर सकते,
उन्हें तो ज्ञानियों के पछि लग जाना चाहिए। इस प्रकार
प्लेटो दार्शनिकों के शासन का समर्थन करता है
प्लेटो का कथन है कि
अज्ञान शासकों के लिए त्याज्य है। उन्हें तो उच्च आध्यात्मिक ज्ञान से विभूषित
होना चाहिए, तभी वे आदर्श राज्य की
स्थापना कर सकते हैं। वह दार्शनिक शासक के गुणों पर भी प्रकाश डालता है, जो निम्नलिखित हैं
(1) सदगुण सम्पन्न -
प्लेटो का दार्शनिक शासक सद्गुण सम्पन्न होगा।
उसमें उच्च शिक्षा, संस्कार, बुद्धि और संयम शक्ति होगी।
(2) त्यागी और वीतरागी –
दार्शनिक शासक त्यागी और वीतरागी होगा। उसे
सम्पत्ति, स्त्री उपभोग आदि की लालसा नहीं होगी। वह
जन-कल्याण के लिए तत्पर रहने वाला होगा।
(3) प्रजा का संरक्षक -
वह प्रजा का सच्चा संरक्षक
होगा। वह एकान्तवासी, संन्यासी और दार्शनिक होगा।
प्रजा के सख का चिन्तन ही उसका धर्म होगा। वह सांसारिक लोभ से दूर रहेगा।
(4) उदार –
दार्शनिक शासक उदार हृदय वाला होगा। संकीर्णता उसस कोसों
दूर होगी। प्रजा के कल्याण के लिए उसका हृदय लालायित रहेगा।
(5) तर्क, बुद्धि और ज्ञान की मूर्ति -
दार्शनिक शासक तर्क, बुद्धि और ज्ञान की साकार
मूर्ति होगा। उसका शासन भी इन्हीं पर आधारित होगा। वह अपने गुरु सुकरात की तरह यह
मानता है कि ज्ञानवान को ही शासन करने का अधिकार है।
यद्यपि प्लेटो
सामान्यतया एक ही दार्शनिक राजा का शासन स्थापित करने के पक्ष में है, किन्तु उसका विचार है कि यदि किसी राज्य में दार्शनिक राजा
के समान ही शिक्षा, चरित्र की श्रेष्ठता और
दूरदर्शिता से सम्पन्न व्यक्ति हों, तो दार्शनिक राजा को
इनके साथ मिलकर शासन का संचालन करना चाहिए।
प्लेटो द्वारा
प्रतिपादित दार्शनिकों के शासन की एक विशेषता यह है कि दार्शनिक शासक को शासन करने
की पूर्ण शक्ति प्राप्त है। यह कानून, परम्परा और जनमत के अधीन
नहीं है। लेकिन दार्शनिक शासक की यह निरंकुशता असीमित नहीं है, वह संविधान के मूल प्रबन्धों से स्वतन्त्र नहीं है। इसके
साथ ही । प्लेटो ने अपने दार्शनिक शासक को विशेष रूप से निम्नलिखित चार नियमों के
पालन हेतु बाध्य बताया है
(1) दार्शनिक शासक को अपने राज्य में धनी-निर्धन का भेद अथवा सम्पन्नता या निर्धनता को नहीं बढ़ने देना चाहिए, क्योंकि इससे अनेक प्रकार की बुराइयाँ उत्पन्न होती हैं।
(2) राज्य का आकार इतना अधिक नहीं बढ़ाना चाहिए कि उसकी एकता खण्डित हो जाए।
(3) उन्हें न्याय की ऐसी
व्यवस्था बनाए रखनी चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति अपने निश्चित कार्य का पालन करता
रहे।
(4) शासक के द्वारा राज्य की शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन नहीं किया जाना चाहिए।
अत: प्लेटो अपने
दार्शनिक राजा को इन बन्धनों द्वारा एक अपरिवर्तनशील सामाजिक व्यवस्था का संचालक
एवं सेवक बनाता है तथा उसकी सत्ता को मर्यादित करता है।
प्लेटो के दार्शनिक शासक के सिद्धान्त की आलोचना
प्लेटो के दार्शनिक
शासक के सिद्धान्त में अनेक दोष हैं, जिनका उल्लेख निम्न
प्रकार किया जा सकता है
(1) निरंकुश शासन का मार्ग प्रशस्त करना-
प्लेटो ने अपने दार्शनिक शासक को असीमित अधिकार देकर निरंकुश शासन का मार्ग
प्रशस्त कर दिया है। यद्यपि उसने अपने दार्शनिक शासक पर चार प्रकार के प्रतिबन्ध
लगाए हैं, किन्तु वे दार्शनिक शासक की निरंकुशता को रोकने
के लिए पर्याप्त नहीं हैं। प्लेटो ने अपने दार्शनिक शासक को असीमित अधिकार देकर उसके सत्ता के मद से टाका और भ्रष्ट
होने की आशंका को बढ़ा दिया है।
(2) लोकतन्त्र विरोधी -अवधारणा–
प्लेटो का
दार्शनिक शासक संविधान मस्त कानून, परम्परा और लोकमत
के आधार पर शासन संचालन हेतु बाध्य नहीं है। वह अपने कार्यों के लिए जनता के प्रति
उत्तरदायी नहीं है और न ही जनता उसे उसके पद से हटा सकती है। स्वतन्त्रता, समानता और स्वशासन जैसे लोकतान्त्रिक मल्यों के
लिए उसका कोई महत्त्व नहीं है। इस प्रकार प्लेटो ने अपने दार्शनिक कि शासक को शासन
संचालन का एकमात्र ठेकेदार मानकर लोकतान्त्रिक मूल्यों की अवहेलना की है।
(3) अव्यावहारिक शासन -
प्लेटो अपने दार्शनिक शासक को एक लम्बी रेट
शिक्षण प्रक्रिया के माध्यम से गणित, द्वन्द्व और दर्शन की शिक्षा देकर उसे ज्ञानवान बनाता है और उसे शासन करने के
योग्य घोषित करता है। प्लेटो का ऐसा दार्शनिक शासक उसके आदर्श राज्य का संचालन
करने में भले ही सफल हो, किन्नु वह
व्यावहारिक जगत् में कभी सफल नहीं हो सकता। प्लेटो का दार्शनिक शासक शासन संचालन
की दृष्टि से दुर्बल तथा व्यावहारिक दृष्टि से अनुभव शून्य होगा।
(4) अहितकर शासन -
प्लेटो ने लोक-कल्याण की
सिद्धि के लिए दार्शनिक शासक की
अवधारणा का प्रतिपादन किया था। किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से इस उद्देश्य की
प्राप्ति सन्देहास्पद है। अत्यधिक दार्शनिकता सनकीपन उत्पन्न करती है और सनकी व्यक्ति
का शासन निश्चित रूप से असन्तुलित और अहितकर ही होगा। इस सम्बन्ध में जोवेट ने
लिखा है, "दार्शनिक राजा या
तो भविष्य में बहुत दूर तक देखने वाला होता है अथवा अतीत में पीछे की ओर देखता है,
वर्तमान की वास्तविकता से उसका कोई सम्बन्ध
नहीं होता।"
(5) विरोधाभासों से पूर्ण -
प्लेटो का दार्शनिक शासक का सिद्धान्त
विरोधाभासों से पूर्ण है। एक ओर तो वह अपने दार्शनिक शासक को असीमित अधिकार प्रदान
करता है, वहीं दूसरी ओर उस पर कुछ
सैद्धान्तिक प्रतिबन्ध भी लगाता है। यह निश्चित रूप से एक विरोधाभास है।
Sir eska prastawana or nishkarsh v btayi
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