प्लेटो का न्याय सिद्धान्त - आलोचनात्मक व्याख्या
BA-II-PoliticalScience I/2021
प्रश्न 2. प्लेटो के न्याय सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
प्रश्न 2. प्लेटो के न्याय सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
अथवा
' प्लेटो के समय में न्याय
के विभिन्न सिद्धान्त क्या थे? प्लेटो के न्याय सम्बन्धी विचारों की समीक्षा कीजिए।
अथवा "The Republic' में वर्णित प्लेटो के न्याय सिद्धान्त का
परीक्षण कीजिए।
उत्तर- प्लेटो के ग्रन्थ 'The
Republic' को न्यायपरक ग्रन्थ कहा
गया है। उसके सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ 'The Republic' में हमें जितने विचार मिलते हैं, उन विचारों को
आधारशिला उसका न्याय सिद्धान्त ही है।
दूसरे शब्दों में, प्लेटो के समस्त विचार न्याय सिद्धान्त का केन्द्र-बिन्दु
और उसके वार्तालाप का विषय है।
प्लेटो के समय में प्रचलित न्याय सिद्धान्त
प्लेटो ने अपने न्याय सिद्धान्त को
स्पष्ट करने से पहले उस समय प्रचलित न्याय सिद्धान्तों का उल्लेख किया है, जिनका संक्षिप्त उल्लेख आवश्यक हो जाता है। उस
समय न्याय सम्बन्धी तीन सिद्धान्त प्रचलित थे
(1) परम्परावादी सिद्धान्त-
इस सिद्धान्त का प्रतिपादन सिफालस ने किया था। उसके अनुसार, "सत्य बोलना और ऋण चुकाना ही न्याय है।" लेकिन प्लेटो ने इस सिद्धान्त का खण्डन यह कहकर किया कि सत्य या असत्य का ज्ञान परम्पराओं से नहीं आंका जा सकता, क्योंकि परम्पराओं में पारस्परिक भेद सम्भव(2) क्रान्तिकारी सिद्धान्त या ऐसीमेकस सिद्धान्त -
थ्रेसीमेकस के अनुसार "जिसकी लाठी उसकी भैंस' ही न्याय का आधार है। प्लेटो इस सिद्धान्त को भी ठीक नहीं मानता है, क्योंकि वास्तव में न्याय दुर्बल के हित में है, न कि शक्तिशाली के हित में।(3) ग्लाउकन (Gloucon) का सिद्धान्त -
इस विचारधारा के अनुसार दर्बलों के लिए समझौते द्वारा न्याय स्थापित किया जाना चाहिए। प्लेटो ग्लाउकन के मत से भी सहमत नहीं है। उसके अनुसार न्याय को समझौते द्वारा स्थापित नहीं किया जा सकता। प्लेटो के अनुसार न्याय प्राकृतिक है, यह आन्तरिक वस्तु है और मानव आत्मा की सही स्थिति है।प्लेटो की न्याय सम्बन्धी अवधारणा
'न्याय' प्लेटो के राजनीतिक दर्शन
का आधार है। प्लेटो अपने ग्रन्थ 'The Republic' में आदर्श राज्य का निर्माण करना चाहता है। उसका आदर्श
राज्य उसके द्वारा प्रतिपादित न्याय सिद्धान्त पर ही टिका हुआ है। 'The
Republic' में प्लेटो ने न्याय की
परिभाषा इस प्रकार दी है, "न्याय यह है कि
प्रत्येक मनुष्य उन कार्यों को पूरा करे जिनकी सामाजिक प्रयोजना के अनुसार उससे
आशा की जाती है। न्याय का अर्थ है- न इससे कम, न अधिक। इसीलिए प्लेटो ने 'एक व्यक्ति एक कार्य' अर्थात् 'कार्यरत
विशेषीकरण' के सिद्धान्त का
प्रतिपादन किया।"
प्लेटो जिस न्याय की बात करता है, उसके दो रूप हैं____
(1) व्यक्तिगत न्याय -
प्लेटो ने मानव आत्मा की तीन प्रवृत्तियाँ-ज्ञान, साहस और वासना बताई हैं। इन मल प्रवृत्तियों के आधार पर न्याय की प्राप्ति के लिए प्लेटो ने समाज को तीन भागों में बाँटा है-(i) शासक वर्ग, (ii) सैनिक वर्ग, भार (iii) उत्पादक वर्ग। इन तीनों वर्गों के अलग-अलग कार्य हैं और जब वे एसा करते हैं, तभी न्याय की स्थापना होती है। दसरे शब्दों में, अपने प्राकतिक गणों के अनसार कार्य करना ही न्याय है। तीनों वर्गों का अपना सामान कार्य करना ही व्यक्तिगत न्याय है।(2) सामाजिक न्याय -
जब समाज के तीनों वर्ग अपने गुणों के अनुकूल अपन-अपने कार्य करते हैं. तब सामाजिक न्याय की प्रतिष्ठा होती है। जहा व्यक्तिगत न्याय के द्वारा व्यक्ति स्वयं आदर्श बनता है, वहीं सामाजिक न्याय के अन्तर्गत वह समाज का आदर्श नागरिक बनकर समस्त समाज को लाभान्वित करता है।
प्लेटो व्यक्तिगत और सामाजिक न्याय को एक-दसरे से अलग नहा मामला है, जैसा कि फोस्टर ने स्पष्ट किया है,
"प्लेटो के लिए न्याय मानव
सद्गुण का अंग है और साथ ही वह सत्र है जो राज्यों के लोगों को परस्पर बाध रहता
है। यह समान गुण ही मनुष्य को अच्छा और सामाजिक बनाता है। यह समरूपता प्लेटो के राजनीतिक
दर्शन का प्रथम एवं आधारभूत सिद्धान्त है।
संक्षेप में, जहाँ न्याय एक ओर
समाज में सामंजस्य स्थापित करने के कारण, राज्य को एक सत्र में बाँधने वाला सामाजिक गण है. वहीं दूसरी ओर वयाक्तक गुण
भी है, क्योंकि यह मनुष्य के
आध्यात्मिक सन्तुलन को ठीक रखकर उस श्रष्ठा और सामाजिक बनाता है।
प्लेटो के न्याय सिद्धान्त की विशेषताएँ
प्लेटो की न्याय सम्बन्धी उपर्युक्त विचारधारा का विश्लेषण करने पर उसकी
निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं
(1) न्याय आत्मा का गुण है — प्लेटो अपनी पुस्तक 'The Republic' में न्याय को किसी प्रकार की कृत्रिम वस्तु
नहीं मानता है। वह न्याय को आत्मा के गुण के रूप में स्वीकार करता है। प्लेटो के
अनुसार न्याय मानव की आत्मा एवं आन्तरिक भावना का पवित्र स्रोत है।
(2) न्याय कार्यों के विशेषीकरण का सिद्धान्त है — प्लेटो के अनसार न्याय कार्यों के विशिष्टीकरण
का सिद्धान्त है। प्लेटो के शब्दों में ही "एक मनष्य को एक ही कार्य करना
चाहिए, वह कार्य जो उसकी प्रकृति
के सबसे अनकल है।"
(3) न्याय के दो रूप - प्लेटो ने न्याय के दो रूपों का उल्लेख किया है
'व्यक्तिगत न्याय और
सामाजिक न्याय।
(4) न्याय हस्तक्षेपहीनता का सिद्धान्त है - प्लेटो का स्पष्ट कहना है राज्य के तीनों
वर्गों- शासक, सैनिक और उत्पादक
को केवल अपने-अपने का ही करने चाहिए। इन्हें दूसरों के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं
करना चाहिए।
(5) न्याय सामाजिक सिद्धान्त है - प्लेटो का मत है कि न्याय सामाजिक एकता का
सिद्धान्त है। न्याय वह सूत्र है जो समाज के व्यक्तियों को सामंजस्यपर्ण सगठन में बाँधे रखता है। बार्कर के अनुसार ,
"प्लेटो के न्याय
सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति अलग इकाई नहीं है, वरन् एक व्यवस्था का अंग है।"
(6) अन्य विशेषताएँ-
(i) प्लेटो का न्याय कानूनी नहीं है। इसका सम्बन्ध नैतिकता और
साधुता से है।
(ii) प्लेटो के अनुसार राज्य व्यक्ति वा ही विराट रूप हैं। राज्य
में ही है। व्यक्ति की उन्नति सम्भव है। राज्य के अतिरिक्त व्यक्ति का अस्तित्व
सम्भव नहीं
(iii) न्याय प्रत्येक व्यक्ति के मन में ही निहित रहता है।
(iv) न्याय व्यक्ति पर थोपा नहीं जाता, यह तो उसकी आत्मा का विशिष्ट गुण है।
संक्षेप में, प्लेटो की न्याय
सम्बन्धी धारणा नैतिकता, धर्म, आदर्श, सद्गुण आदि आध्यात्मिक तत्त्वों को पर्यायवाची है, जिसमें मानव जीवन के आन्तरिक पक्ष का सर्वश्रेष्ठ मिश्रण है।
प्लेटो के न्याय सिद्धान्त की आलोचना
प्लेटो के न्याय सिद्धान्त को विद्वानों ने अव्यावहारिक और काल्पनिक बताया है।
उसे मनोविज्ञान की दृष्टि से भी गलत बताया गया है। सेबाइन ने तो यहाँ तक लिखा है
कि "प्लेटो की न्याय सम्बन्धी कल्पना निष्क्रिय, अत्यानुवादी, अनैतिक और अव्यावहारिक है।"
(1) केवल नैतिकता का सिद्धान्त – वास्तविकता यह है कि प्लेटो का न्याय सिद्धान्त
न्याय का सिद्धान्त न होकर नैतिकता व सद्गुणों का सिद्धान्त है। प्लेटो की न्याय
व्यवस्था नैतिक है, कानूनी नहीं।
कानून के अभाव में न्याय थोथा है।
(2) केवल कर्तव्यों से सम्बन्धित सिद्धान्त - प्लेटो का न्याय सिद्धान्त इसलिए भी अधरा है
क्योंकि यह व्यक्तियों के कर्त्तव्यों की ही बात करता है. अधिकारों की नहीं।
(3) दार्शनिक शासक की निरंकुशता - प्लेटो के आदर्श राज्य में जिसकी स्थापना वह अपने कथित न्याय के द्वारा करना
चाहता है, दार्शनिक शासकों को
असीमित शक्तियाँ दी गई हैं। इस बात की क्या गारण्टी है कि वह मोह, लोभ और मद से भ्रष्ट होकर निरंकुश नहीं हो
जाएंगे।
(4) व्यक्ति का राज्य में विलीनीकरण - प्लेटो व्यक्ति का राज्य
में पूर्ण विलय चाहता है, यह व्यक्तियों की
स्वतन्त्रता के लिए हानिकारक है।
(5) एक व्यक्ति एक कार्य का सिद्धान्त गलत - प्लेटो की न्यायिक
कल्पना 'एक व्यक्ति एक कार्य'
और 'कार्य के विशिष्टीकरण' पर आधारित है,
जिसे स्वीकार कर लेने पर व्यक्ति का सर्वांगीण
विकास सम्भव नहीं है।
(6) अत्यधिक पृथक्करण का सिद्धान्त - कुछ विचारक प्लेटो के न्याय
सिद्धान्त को अत्यधिक पृथक्करण का सिद्धान्त बताते हैं, क्योंकि प्लेटो समाज के तीन वर्गों पर अत्यधिक जोर देते
हैं। इस वर्ग-विभाजन का कुप्रभाव तीन राज्यों के रूप में भी प्रकट हो सकता है।
जोड ने प्लेटो के न्याय सिद्धान्त की आलोचना करते हुए लिखा
है "प्लेटो के न्याय सिद्धान्त और फासीवाद में बहुत कम अन्तर है।"
यह ठीक है कि प्लेटो के न्याय सिद्धान्त में अनेक त्रुटियाँ हैं, फिर भी यह एकदम व्यर्थ नहीं है। प्लेटो ने अपने
न्याय सिद्धान्त द्वारा राजनीतिक चिन्तन में नैतिकता को महत्ता प्रदान की है।
प्लेटो ने 'न्याय' शब्द को उस कानूनी अर्थ में प्रयोग नहीं किया
है, जैसा कि हम आजकल करते
हैं। प्लेटो के लिए तो न्याय एक स्वधर्म है। यह वह सिद्धान्त है जो समाज के
विभिन्न वर्गों के पारस्परिक सम्बन्धों को नियन्त्रित एवं निर्धारित करता है।
MJPRU SRUDY POINT , B. A. II, Political Science I,
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ReplyDeleteGood
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