बिस्मार्क की विदेश नीति - समीक्षा और व्याख्या

MJPRU-BA-III-History II / 2020 


प्रश्न 1 . बिस्मार्क की विदेश नीति की समीक्षा कीजिए -  
अथवा "1871 से जर्मन साम्राज्य की विदेश नीति शान्ति बनाए रखना और जर्मनी के विरुद्ध संघ न बनने देना रही है और इस नीति की धुरी रूस है।" (गूच) व्याख्या कीजिए।
अथवा "1871 के उपरान्त बिस्मार्क की नीति का प्रमुख सिद्धान्त अपनी विजयों को सुरक्षित रखना तथा फ्रांस को अलग रखकर यूरोप की शक्ति को सुरक्षित रखना था।" (गूच) व्याख्या कीजिए।
अथवा - "फ्रांस को मित्रहीन रखना बिस्मार्क की विदेश नीति का प्रमुख उद्देश्य था।" किस सीमा तक बिस्मार्क को इस उद्देश्य में सफलता मिली ?
Otto von Bismarck

उत्तर - 1870 ई. में सीडान के युद्ध में फ्रांस के सम्राट् नेपोलियन तृतीय की पराजय हुई। उसे प्रशा की सेना के समक्ष आत्म-समर्पण करना पड़ा। इस युद्ध के बाद 1871 ई. में फ्रांस व जर्मनी के मध्य फ्रैंकफुर्ट की सन्धि हुई । सन्धि के अनुसार फ्रांस से अल्सास व लोरेन के प्रदेश छीन लिए गए। युद्ध के हर्जाने के रूप में 20 करोड़ पौण्ड की धनराशि के भुगतान का भार फ्रांस पर लाद दिया गया तथा इस धनराशि का भुगतान न होने तक जर्मनी की एक सैनिक टुकड़ी फ्रांस में तैनात कर दी गई, जिसका खर्चा वहन करने का दायित्व फ्रांस को सौंपा गया। इस प्रकार फ्रैंकफुर्ट की सन्धि की सभी शर्ते फ्रांस के लिए अपमानजनक थीं। यह सन्धि 1871 ई. के पश्चात् जर्मनी की विदेश नीति का आधार बनी।

बिस्मार्क की विदेश नीति की पृष्ठभूमि

1871 से 1890 ई. तक बिस्मार्क की विदेश नीति निम्नलिखित विचारों पर आधारित थी

(1) जर्मनी का एकीकरण हो जाने के बाद बिस्मार्क यूरोप महाद्वीप में शान्ति चाहता था। अतः उसने सीमा-विस्तार की नीति को छोड़कर घोषणा की कि जर्मनी एक सन्तुष्ट राष्ट्र है।"

(2) बिस्मार्क महाद्वीपीय दृष्टिकोण का समर्थक था। वह जर्मनी को साम्राज्यवादी नीति से दूर रखना चाहता था। वह इंग्लैण्ड, ऑस्ट्रिया, रूस और इटली, इन प्रमुख राज्यों से घनिष्ठता स्थापित करना चाहता था,ताकि यूरोप में शान्ति स्थापित हो सके।

(3) बिस्मार्क को सबसे बड़ा खतरा फ्रांस से था। अतः वह फ्रांस को यूरोप की राजनीति में मित्रहीन व एकाकी बनाना चाहता था । फ्रांस को आन्तरिक रूप से भी निर्बल बनाए रखा जाए, इस दृष्टि से भी फ्रांस में गणतन्त्रीय व्यवस्था का समर्थन किया जाए, ताकि इस व्यवस्था के अन्तर्गत फ्रांस अपने मतभेदों का शिकार बना रहे ।

(4) बिस्मार्क की दृष्टि में रूस का सर्वाधिक महत्त्व था। उसने कहा था, "रूस मेरी विदेश नीति की धुरी है ।" 

(5) उस समय इंग्लैण्ड शानदार अलगाव की नीति का पालन कर रहा था। बिस्मार्क ने ऐसी विदेश नीति का पालन करना उचित समझा जिसका इंग्लैण्ड की विदेश नीति पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। अतः उसने जर्मनी की जल सेना का विस्तार करने का विचार छोड़कर थल सेना का ही विस्तार किया। उसने कहा था, "जर्मनी स्थल चूहा है,जबकि इंग्लैण्ड जल चूहा है । स्थल चूहा व जल चूहा में संघर्ष नहीं हो सकता।"
(6) पूर्वी समस्या में बिस्मार्क की कोई रुचि नहीं थी। वह इसे तनावपूर्ण समस्या मानता था। इसलिए वह कहता था-"कुस्तुनतुनिया से आने वाली डाक को मैं कभी नहीं खोलता।"


बिस्मार्क की विदेश नीति के सिद्धान्त

बिस्मार्क की विदेश नीति के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित थे

(1) अपनी विजयों को सुरक्षित रखना,


(2) यूरोप महाद्वीप में शान्ति स्थापित करना;


(3) फ्रांस को मित्रहीन बनाना,तथा

(4) फ्रांस के विरुद्ध व जर्मनी के पक्ष में गुटबन्दी करना।

एक इतिहासकार ने लिखा है, "बिस्मार्क यूरोप महाद्वीप में जर्मनी को सन्तुष्ट साम्राज्य बनाना चाहता था। उसकी विशेष इच्छा थी कि जर्मनी की राजधानी बर्लिन यूरोप की राजधानी का केन्द्र बने ।

बिस्मार्क की वैदेशिक उपलब्धियाँ

अथवा

बिस्मार्क की विदेश नीति की सफलताएँ

उपर्युक्त सिद्धान्तों के आधार पर बिस्मार्क ने अपने बीस वर्ष के कार्यकाल में वैदेशिक क्षेत्र में निम्नलिखित कार्य किए

(1) त्रिसम्राट् संघ की स्थापना -

रूस व ऑस्ट्रिया की मित्रता प्राप्त करने के उद्देश्य से बिस्मार्क ने इन राष्ट्रों को 1872 ई. में बर्लिन में आमन्त्रित किया। तीनों देशों के सम्राटों ने एक सन्धि-पत्र पर हस्ताक्षर किए। इसके आधार पर ऑस्ट्रिया, जर्मनी व रूस के मध्य 1872 ई. में 'त्रिसम्राट् संघ' की स्थापना हुई । तीन राष्ट्रों के संघ के द्वारा यह निश्चय किया गया

(i) 1871 ई. की प्रादेशिक व्यवस्था को बनाए रखा जाएगा।

(ii) बाल्कन समस्या का तीनों के लिए मान्य हल निकाला जाएगा।

(iii).अपने-अपने देश में क्रान्तिकारी भावनाओं का दमन किया जाएगा।

तीन सम्राटों की यह मित्रता आगे चलकर और भी मजबूत हो गई।

(2) द्विगुट निर्माण - 

1878 ई.की बर्लिन सन्धि के फलस्वरूप रूस व जर्मनी के सम्बन्ध खराब हो गए। अतः बिस्मार्क को रूस व फ्रांस की मित्रता के प्रति आशंका प्रतीत हुई। इस संकट को टालने तथा उसका मुकाबला करने के लिए बिस्मार्क ने 1879 ई.में ऑस्ट्रिया व जर्मनी के मध्य द्विराज्य सन्धि को सम्पन्न किया । इस सन्धि के फलस्वरूप रूस व फ्रांस के संयुक्त आक्रमण के विरुद्ध जर्मनी व ऑस्ट्रिया द्वारा मिलकर प्रतिरोध करने का निश्चय किया गया।

(3) त्रिगुट या त्रिराज्य सन्धि – 

बिस्मार्क यूरोप की राजनीति में जर्मनी की स्थिति को त्रिकोणात्मक बनाना चाहता था । त्रिसम्राट् संघ के भंग हो जाने के कारण बिस्मार्क की विदेश नीति का सन्तुलन बिगड़ गया था। वह हरसम्भव तरीके से जर्मनी के पक्ष में तीन राष्ट्रों की मित्रता को आवश्यक समझता था। अतः 1882 ई. में उसने द्विराज्य सन्धि में इटली को सम्मिलित करके त्रिराज्य संघ की स्थापना की और जर्मनी की स्थिति को मजबूत कर लिया। इस त्रिगुट या त्रिराष्ट्र समझौते के अनुसार यह तय किया गया

(i) इटली ऑस्ट्रिया के विरुद्ध कोई प्रचार नहीं करेगा।

(ii) फ्रांस के आक्रमण से इटली की रक्षा की जाएगी।

(iii) इटली भी अन्य देशों की ऐसे अवसर पर सहायता करेगा।

(iv) यदि दोनों देशों पर कोई भी देश आक्रमण करेगा, तो तीनों देश मिलकर उसका मुकाबला करेंगे।
यह सन्धि भी गुप्त और रक्षात्मक थी और 5 वर्ष के लिए की गई थी।

(4) रूस के साथ पुनराश्वासन सन्धि – 

बिस्मार्क अपनी विदेश नीति में रूस को सर्वाधिक महत्त्व देता था। यद्यपि 1878 ई. में रूस जर्मनी से नाराज हो गया था, फिर भी बिस्मार्क रूस की मित्रता को जर्मनी के हित में आवश्यक समझता था। अतः उसने 1887 ई.में रूस के साथ गोपनीय ढंग से पुनराश्वासन सन्धि की,जिसकी शतं गुप्त रखी गई। इन शर्तों का नवीनीकरण प्रति तीन वर्ष बाद होना था।

बिस्मार्क की विदेश नीति की समीक्षा

बिस्मार्क ने अपने बीस वर्ष के कार्यकाल में जर्मनी की सुरक्षा व यूरोपीय शान्ति के लिए गुटबन्दी का सहारा लिया। उसकी विदेश नीति मुख्य रूप से रूस के क्रियाकलापों तथा फ्रांस की मित्रहीनता पर आधारित थी। अपनी कूटनीतिक योग्यता के द्वारा बिस्मार्क ने रूस व ऑस्ट्रिया तथा इटली व ऑस्ट्रिया जैसे प्रतिद्वन्द्वी देशों को जर्मनी का मित्र बनाने में सफलता प्राप्त की। ऑस्ट्रिया के आक्रमण के विरुद्ध रूस की तटस्थता, रूस के आक्रमण के विरुद्ध ऑस्ट्रिया की तटस्थता, फ्रांस के आक्रमण के विरुद्ध इटली की सहायता तथा रूस व फ्रांस के संयुक्त आक्रमण के विरुद्धं ऑस्ट्रिया व इटली की सहायता के रूप में बिस्मार्क ने ऐसा कूटनीतिक जाल बिछाया, जिसे बिस्मार्क के अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति नहीं समझ सका। इन्हीं विशेषताओं के कारण बिस्मार्क को 'पाँच गेंदों से खेलने वाले कुशल बाजीगर' की संज्ञा दी गई है।






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