कानून की परिभाषा स्रोत तथा प्रकार

B.A. I, Political Science I 


प्रश्न 12. कानून की परिभाषा दीजिए तथा कानून के प्रमुख स्रोतों का वर्णन कीजिए । 
अथवा ''कानून किसे कहते हैं ? कानून के स्रोतों की विवेचना कीजिए। कानून कितने प्रकार के होते हैं ?
अथवा ''कानून की परिभाषा दीजिए। कानून और स्वतन्त्रता का सम्बन्ध स्थापित कीजिए।
               
उत्तर - राज्य का उद्देश्य अपने सदस्यों की भलाई करना है। परन्तु राज्य अपने इस उद्देश्य की प्राप्ति तभी कर सकता है जब राज्य वे नागरिक आचरण के सामान्य नियमों का पालन करें। प्रत्येक राज्य लोकहित के लिए कुछ सामान्य नियमों का निर्माण करता है और इन नियमों (कानूनों) का उल्लांघन करने वालों को दण्ड देता है।

कानून का अर्थ और परिभाषाएँ

' कानून ' शब्द आंग्ल भाषा के 'Law' शब्द का हिन्दी रूपान्तरण है, जिसकी उत्पत्ति वास्तव में ट्यूटौनिक 'lag' से हुई है, जिसका अर्थ है ऐसी वस्तु जो सदा स्थिर स्थायी और निश्चित तथा सभी परिस्थितियों में समान रूप रहे। ऑक्सफोर्ड शब्दकोश में इसकी परिभाषा 'सत्ता द्वारा आरोपित आचार व्यवहार के नियम के रूप में की गई है।
कानून की परिभाषा

ऑस्टिन के अनुसार, कानून सम्प्रभु की आज्ञा है।"

पाउण्ड के शब्दों में,"न्याय के प्रशासन में जनता और नियमित न्यायालयों द्वारा मान्यता प्राप्त लागू किए गए नियमों को कानन कहते हैं।"

ग्रीन के अनुसार,अधिकारों और कर्तव्यों की उस पद्धति को कानून कहा जा सकता है जिसे सरकार लागू करती है।

हॉलैण्ड के अनुसार, आचरण के उन सामान्य नियमों को कानून कहते हैं जो मनुष्य के बाहरी आचरण से सम्बन्धित रहते हैं और जिन्हें एक निश्चित सत्ता लागू करती है। यह निश्चित सत्ता राजनीतिक क्षेत्र की मानवीय सत्ताओं में सर्वोच्च होती है

-उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि कानून राज्य द्वारा बनाए गए वे सुनिश्चित नियम हैं जो व्यक्ति, समाज व राज्य के पारस्परिक सम्बन्धों को नियन्त्रित करते हैं। कानून का सम्बन्ध व्यक्ति की बाहरी क्रियाओं से होता है तथा उनकी अवहेलना करने वालों को दण्डित किया जाता है।

कानून के तत्त्व

कानून की उपर्युक्त व्याख्या और परिभाषा से कानून के निम्नलिखित तत्त्व स्पष्ट होते हैं

(1) कानून में नागरिक समाज की व्याख्या निहित है।


(2) समाज की सामाजिक परिस्थितियाँ कानून के माध्यम से परिलक्षित होती हैं।


(3) कानून व्यक्ति के केवल बाह्य आचरण को ही नियन्त्रित करता है।


(4) कानून नियमों का समूह है।


(5) कानून का आधार राज्य की शक्ति या भौतिक दण्ड और दमन की क्षमता है अर्थात कानून का उल्लंघन दण्डनीय अपराध है।

कानून के प्रमुख स्रोत

कानून के स्रोतों से तात्पर्य उन साधनों से है जो कानून के निर्माण में सहायक होते हैं। वर्तमान युग या आधुनिक राज्यों में कानून बनाने की शक्ति प्रायः विधानमण्डल को प्राप्त होती है। किन्तु विधानमण्डल के अतिरिक्त भी अनेक स्रोत हैं, जो कानून बनाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। ये स्रोत निम्नलिखित हैं

(1) रीति-रिवाज या परम्परा - 

रीति-रिवाज कानून का प्राचीन तथा महत्त्वपूर्ण स्त्रोत हैं। रीति-रिवाजों का निर्माण नहीं होता, वरन् वे विकास का परिणाम हैं । समाज मे  प्रचलित वह रीति-रिवाज,जो पुराने समय से चला आ रहा हो तथा उसे समाज में व्यापक समर्थन प्राप्त हो,उसे कानून का रूप दे दिया जाता है । इस प्रकार रीति-रिवाज के निर्माण में न तो किसी संगठन का योगदान होता है और न ही उसे अपनाने या पालन करने के पीछे दण्ड की शक्ति होती है। वह एक क्रमिक विकास का परिणाम होता है, जिसके पीछे समाज के व्यक्तियों का नैतिक बल होता है। ऐसे ही अनेक रीति रिवाज, जिनका कानून के रूप में पालन होता है, वे हैं - रोम में 'Twelve Tables', भारत में 'स्मृतियाँ' तथा ब्रिटेन में 'कॉमन लॉ'। ऐसे कानून को प्रथागत कानून कहा जाता है।

मैकाइवर ने तो इसके सम्बन्ध में यहाँ तक लिखा है कि कानून के विशाल ग्रन्थ में राज्य केवल कुछ ही शब्द लिखता है और कहीं-कहीं एकाध वाक्य कार देता है। इस ग्रन्थ के अधिकांश भागों की रचना में राज्य का कभी कोई हाथ नहीं होता, परन्तु राज्य स्वयं सम्पूर्ण ग्रन्थ में मर्यादित होता है।"


(2) धर्म - 

धर्म परम्परागत कानून को धार्मिक विश्वास की मान्यता प्रदान कर जो सबल बनाता है । इस प्रकार कानून तथा धर्म में घनिष्ठ सम्बन्ध है । प्राचीन काल मे ईश्वर को ही समस्त सत्ता तथा कानून का निर्माता माना जाता था। अतः पाधिकारियों तथा धर्म शासकों के मध्य अभिव्यक्त कानूनों का स्वरूप दैवीय होता है। प्राचीन काल में धर्म तथा कानून में इतना सम्बन्ध था कि सभी कानूनों के पीछे पार्मिक मान्यता पर बल दिया जाता था। आज भी हिन्दुओं का कानून 'हिन्दू कोड बि', 'मनुस्मृति' तथा इस्लामी कानून 'शरीयत' पर आधारित है।

(3) न्यायिक निर्णय - 

सामाजिक व्यवस्था जटिल होने के कारण कभी-कभी ति रिवाजों में संघर्ष उपस्थित हो जाता है और इस संघर्ष के कारण रीति-रिवाजों पर सदेह की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। अतः ऐसे विवादों को सुलझाने के लिए समाज के बुद्धिमान व्यक्तियों की सलाह ली जाती है, जिनका निर्णय सर्वमान्य होता है। ऐसे | निर्णयों ने ' कानूनी दृष्टान्तों' (Precedents) का रूप ले लिया है, जिससे बाद में उपस्थित विवादों को सुलझाने में इन दृष्टान्तों का अनुसरण किया जाने लगा। इस प्रकार न्यायिक निर्णयों ने कानून का रूप धारण कर लिया।

(4) कानूनी टीकाएँ - 

प्रत्येक देश में कानून के ज्ञाता कठिन कानूनों के रूप को स्पष्ट करने हेतु कानून की व्याख्या कर ग्रन्थों का निर्माण करते हैं, जिन्हें कानूनी टीकाएँ कहा जाता है । टीकाकार कानून के आधारभूत अमूर्त सिद्धान्त की विवेचना करते हुए उसके यथार्थ स्वरूप पर प्रकाश डालते हैं तथा न्याय और कल्याण की दृष्टि से मान्यता देते हैं । न्यायाधीश आवश्यकता पड़ने पर टीकाओं को मान्यता देकर अपने निर्णय में इसका उल्लेख करते हैं। इस प्रकार की टीकाएँ कानून के विकास में सहायक होती हैं। ब्रिटेन में सर एडवर्ड कोक, ब्लैकस्टोन, डायसी आदि महान् टीकाकारों की व्याख्याओं ने कानून में बहुत कुछ संशोधन किया। हिन्दुओं में 'मिताक्षरा' तथा 'दायभाग' तथा मुसलमानों में 'फतवा-ए-आलमगीरी' आदि कानूनी टीकाएँ कानून के विकास में सहायक रही हैं।

(5) समन्वय नीति या औचित्य -

कभी-कभी न्यायाधीशों के समक्ष ऐसे विवादास्पद मामले आ जाते हैं जिनका हल वर्तमान कानूनों के आधार पर करना सम्भव नहीं होता है। ऐसे समय पर न्यायाधीश अपने विवेक के आधार पर निर्णय करते हैं । इस विवेक के पीछे उनका अनुभव तथा न्याय की सामान्य मान्यता होती है और इस आधार पर दिया गया निर्णय ही औचित्यपूर्ण निर्णय कहलाता है। इस सम्बन्ध में निर्णय (Adjudication) तथा औचित्यपूर्ण निर्णय (Equity) में भेद कर लेना आवश्यक है,क्योंकि दोनों में मूलभूत अन्तर है। निर्णय से तात्पर्य उस फैसले से है जिसे न्यायाधीश संविधान द्वारा बनाए गए नियमों के अन्तर्गत देता है।

औचित्यपूर्ण निर्णय से तात्पर्य ऐसे फैसले से है जिसका निर्णय संविधान द्वारा व्याख्यायित कानूनों के आधार पर साधारणतः नहीं किया जा सकता है अर्थात् वह विवाद जो पेचीदा होता है तथा जिसका समाधान संवैधानिक नियमों के आधार पर करना सम्भव न हो । इस प्रकार औचित्यपूर्ण निर्णय द्वारा कानून का विकास होता है तथा अनुपयुक्त कानूनों में सुधार और परिवर्तन होता है। ब्रिटेन में तो कानून के विकास में औचित्यपूर्ण निर्णयों का बड़ा ही महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।

(6) व्यवस्थापन - 

व्यवस्थापन कानून का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत है। प्राचीन काल में तो राजा ही सर्वेसर्वा होता था, जिसके द्वारा कानून का निर्माण किया जाता था तथा जनता को कानून-निर्माण कार्य में कोई स्थान नहीं दिया जाता था । परन्तु वर्तमान समय में सभी राज्यों में व्यवस्थापन का कार्य व्यवस्थापिका द्वारा किया जाता है। इस व्यवस्थापिका के सदस्य जनता के प्रतिनिधि होते हैं। इस प्रकार अब जनता व्यवस्थापन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भाग लेती है। आज प्रत्येक देश में विधानमण्डल द्वारा कानून बनाए जाते हैं तथा यह एकमात्र स्रोत का रूप धारण करता जा रहा है।

इस प्रकार उपर्युक्त सभी स्रोतों को देखते हुए कहा जा सकता है कि आधुनिक शुग में विधानमण्डल सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कानून निर्माणी संस्था है, परन्तु अन्य स्रोत भी कानून के निर्माण, संशोधन तथा नये कानूनों को बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान देते है।

कानून के प्रकार या भेद

राजनीतिक विचारकों ने कानून के निम्नलिखित भेद बताए हैं

(1) संवैधानिक कानून - 

ये वे कानून हैं जो किसी विशेष संस्था द्वारा राज्य के शासन के लिए बनाए जाते हैं। ये कानून विधानमण्डल द्वारा भी बनाए जा सकते हैं और परम्पराओं के द्वारा भी इनका विकास हो सकता है। ये लिखित तथा अलिखित, दोनों प्रकार के हो सकते हैं।

(2) साधारण कानून -

ये वे लिखित कानून हैं जो राज्य के विधानमण्डल द्वारा बनाए जाते हैं और व्यक्तियों एवं राज्यों के सम्बन्धों को निर्धारित करते हैं।

(3) अध्यादेश - 

ये वे आदेश हैं जो असाधारण परिस्थितियों में राज्य की कार्यपालिका के प्रधान द्वारा जारी किए जाते हैं। ये एक निश्चित समय के लिए जारी किए जाते हैं और इसका प्रभाव वही होता है, जो विधानमण्डल द्वारा पारित कानून का ।

(4) सामान्य कानून - 

ये कानून प्राचीन रीति-रिवाज तथा परम्पराओं पर आधारित होते हैं । इंग्लैण्ड के शासन में इनका विशेष महत्त्व है।

(5) प्रशासकीय कानून - 

कुछ देशों में जैसे फ्रांस में सरकारी कर्मचारियों तथा नागरिकों के पारस्परिक सम्बन्धों का निर्धारण करने वाला एक विशेष कानून होता है, जिसे प्रशासकीय कानून कहते हैं।

(6) अन्तर्राष्ट्रीय कानून - 

अन्तर्राष्ट्रीय कानून से अभिप्राय उन कानूनों से है जो विभिन्न देशों के पारस्परिक सम्बन्धों का निर्धारण करते हैं । इनके पीछे कोई न्यायिक जावित नहीं होती, जो उन्हें बलपूर्वक लागू कर सके।

लास्की के शब्दों में यह कहा जा सकता है कि कानून ही सामाजिक शान्ति का मूल अथवा उदगम है। कानून के अभाव में समाज के अन्दर अव्यवस्था और अराजकता उत्पन्न हो जाएगी।"

कानून और स्वतन्त्रता में सम्बन्ध

स्वतन्त्रता और कानून के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय पर राजनीतिक विचारकों में तीव्र मतभेद हैं। एक ओर तो कुछ विद्वानों और विचारधाराओं के अनुसार स्वतन्त्रता और कानून को परस्पर विरोधी बताते हुए कहा गया है कि जितने अधिक कानून होंगे, व्यक्ति की स्वतन्त्रता उतनी ही सीमित हो जाएगी। इस प्रकार का प्रतिपादन अराजकतावादी व व्यक्तिवादी विचारकों ने किया है। अराजकतावादियों के अनुसार स्वतन्त्रता का तात्पर्य व्यक्तियों को अपनी इच्छानुसार कार्य करने की शक्ति है और राज्य के कानून शक्ति पर आधारित होने के कारण व्यक्तियों के इच्छानुसार कार्य करने में बाधक होते हैं ।

 अतः स्वतन्त्रता और कानून परस्पर विरोधी हैं । व्यक्तिवादी राज्य को एक आवश्यक बुराई मानते हैं। उनका विचार है कि स्वतन्त्रता और कानून परस्पर विरोधी हैं। इसी विचारधारा के आधार पर डायसी ने कहा है कि एक की मात्रा जितनी अधिक होगी, दूसरे को उतनी ही कम हो जाएगी। । किन्तु आधुनिक युग में स्वतन्त्रता और कानून के पारस्परिक सम्बन्धों के विषय पर अराजकतावादी और व्यक्तिवादी धारणा को स्वीकार नहीं किया जाता । वर्तमान में तो. उपर्युक्त धारणाओं के नितान्त विपरीत इस विचार को मान्यता प्राप्त है कि । कानून स्वतन्त्रता को सीमित नहीं करते, अपितु स्वतन्त्रता की रक्षा करते हुए उसमें वृद्धि करते हैं ।

लॉक के शब्दों में,“जहाँ कानून नहीं होता, वहाँ स्वतन्त्रता भी नहीं हो सकती है।विलोबी का मत है कि जहाँ नियन्त्रण होते हैं, वहीं स्वतन्त्रता का अस्तित्व होता है।"

लॉक और विलोबी द्वारा व्यक्त विचार काफी सीमा तक सही हैं। कानून निम्नलिखित तीन प्रकार से व्यक्ति की स्वतन्त्रता की रक्षा करते हैं और उसमें वृद्धि करते हैं


(1) राज्य के कानून व्यक्ति की स्वतन्त्रता की अन्य व्यक्तियों के हस्तक्षेप से रक्षा करते हैं- 

यदि समाज के अन्तर्गत किसी भी प्रकार के कानून न हों, तो समाज के शक्तिशाली व्यक्ति निर्बल व्यक्तियों पर अत्याचार करेंगे और संघर्ष की इस अनवरत् प्रक्रिया में किसी भी व्यक्ति की स्वतन्त्रता सुरक्षित नहीं रहेगी।

(2) कानून व्यक्ति की स्वतन्त्रता की राज्य के हस्तक्षेप से रक्षा करते हैं

साधारणतया वर्तमान समय के राज्यों में दो प्रकार के कानून होते हैं-साधारण कानून और संवैधानिक कानून । इन दोनों प्रकार के कानूनों में से संवैधानिक कानूनों द्वारा राज्य के हस्तक्षेप से व्यक्ति की स्वतन्त्रता को रक्षित करने का कार्य किया जाता है। भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका आदि देशों में संविधान में मौलिक अधिकारों की व्यवस्था इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। यदि राज्य इन मौलिक अधिकारों (संवैधानिक कानूनों) के विरुद्ध कोई कार्य करता है, तो व्यक्ति न्यायालय की शरण लेकर राज्य के हस्तक्षेप से अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा कर सकता है।

(3) स्वतन्त्रता का सकारात्मक पक्ष भी है - 

स्वतन्त्रता के सकारात्मक पक्ष का तात्पर्य है व्यक्तित्व के विकास हेतु आवश्यक सुविधाएँ प्रदान करना। कानून प्यक्तियों को व्यक्तित्व के विकास की सुविधाएँ प्रदान करते हुए उनकी स्वतन्त्रता में वृद्धि करते हैं या दूसरे शब्दों में, इन्हें सकारात्मक स्वतन्त्रता प्रदान करते हैं । आधुनिक युग में लगभग सभी राज्यों द्वारा लोक-कल्याणकारी राज्य के विचार को अपना लिया गया है और राज्य कानूनों के माध्यम से ऐसे वातावरण के निर्माण में संलग्न है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सके । राज्य द्वारा की गई शिक्षा की व्यवस्था, कारखानों में स्वस्थ जीवन की व्यवस्था और जन-स्वास्थ्य का प्रबन्ध भादि कार्यों से नागरिकों को व्यक्तित्व के विकास की सुविधाएँ प्राप्त हो रही हैं और इस प्रकार राज्य नागरिकों को वह सकारात्मक स्वतन्त्रता प्रदान कर रहा है जिसे ग्रीन ने 'करने योग्य कार्यों को करने की स्वतन्त्रता' के नाम से पुकारा है।

यदि राज्य सड़क पर चलने के सम्बन्ध में किसी प्रकार के नियमों का निर्माण करता है,मद्यपान पर रोक लगाता है या अनिवार्य शिक्षा और टीकाकरण की व्यवस्था करता है, तो राज्य के इन कार्यों से व्यक्ति की स्वतन्त्रता सीमित नहीं होती, अपितु उसमें वृद्धि ही होती है । इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि साधारण रूप से राज्य । के कानून व्यक्ति की स्वतन्त्रता की रक्षा करते हैं और उसमें वृद्धि करते हैं। लेकिन राज्य द्वारा निर्मित सभी कानूनों के सम्बन्ध में यह नहीं कहा जा सकता है कि वे मानवीय स्वतन्त्रता में वृद्धि करते हैं। यदि राज्य का कानून जनता की इच्छा पर आधारित है,तो स्वतन्त्रता का पोषण होगा और यदि वह निरंकुश शासन की इच्छा का परिणाम है, तो वह (कानून) स्वतन्त्रता का विरोधी हो सकता है।





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