कौटिल्य का अर्थशास्त्र - कौटिल्य के राजनीतिक विचार


B. A. III, Political Science II / 2020
प्रश्न 2. 'अर्थशास्त्र' में वर्णित कौटिल्य के प्रमुख राजनीतिक विचारों का वर्णन कीजिए।
अथवा ''राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में कौटिल्य के योगदान का मूल्यांकन कीजिए।
अथवा '' राजनीति पर कौटिल्य की प्रमुख संकल्पनाओं को स्पष्ट कीजिए।
अथवा '' कौटिल्य के राजनीतिक विचार बताइए तथा एक राजनीतिक विचारक के रूप में कौटिल्य के महत्त्व का परीक्षण कीजिए।

कौटिल्य का अर्थशास्त्र - कौटिल्य के राजनीतिक विचार 

kautily arthashaastr
अर्थशास्त्र चित्र

उत्तर - प्राचीन भारत के राजशास्त्रियों में कौटिल्य का स्थान सबसे ऊँचा है 'और उसे शासन, कला तथा कूटनीति का सबसे महान् प्रतिपादक माना जाता है। कौटिल्य का 'अर्थशास्त्र एक ऐसा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है जिसका मुख्य विषय राजनीति है। सलेटोरे के अनुसार, "प्राचीन भारत की राजनीतिक विचारधाराओं में सबसे अधिक देन कौटिल्य की विचारधारा की है।"

कौटिल्य के राजनीतिक विचार :-

कौटिल्य का 'अर्थशास्त्र' मूल रूप से राजनीति का ग्रन्थ है। इसकी विषय-वस्तु में जिन अन्य बातों को समाहित किया गया है, वे सभी राजनीति से सम्बद्ध होने के कारण इसमें स्थान पा सकीं। कौटिल्य के प्रमुख राजनीतिक विचार निम्नलिखित हैं

(1) राज्य की उत्पत्ति :-

कौटिल्य ने राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में सामाजिक समझौते के सिद्धान्त को स्वीकार किया है। एक स्थान पर कौटिल्य का कथन है कि राज्य के पूर्व समाज में मत्स्य न्याय का प्रभाव था। जिस प्रकार बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है, उसी प्रकार समाज के सबल पुरुष निर्बल पुरुषों के विनाश में हमेशा सक्रिय रहा करते थे। इस व्यवस्था से तंग आकर लोगों ने मनु को अपना राजा बनाया। ये लोग अपनी अन्न की उपज का छठवाँ भाग तथा व्यापार द्वारा प्राप्त धन का दसवाँ भाग कर के रूप में राज्य को देने लगे। मनु को राजा नियुक्त करते समय इन लोगों ने यह स्पष्ट कर दिया था कि वे लोग राजा को कर तब दें,जबकि वह उनके क्षेत्र की समुचित व्यवस्था करे। इस प्रकार राज्य की उत्पत्ति एक सामाजिक समझौते का परिणाम थी।

(2) राज्य का सावयव स्वरूप :-

कौटिल्य द्वारा वर्णित राज्य का सावयवी रूप कोई विदेशी आयात नहीं है, वरन् शुद्ध रूप से भारतीय है । वह राज्य की सर्वोच्च कार्यपालिका का मूर्त रूप है। उसके बाद मन्त्री आते हैं, जो राजा को आवश्यक परामर्श देते हैं तथा शासन का संचालन करते हैं। दुर्ग राज्य की प्रतिरक्षा का प्रमुख साधन होते हैं और उनके द्वारा ही जनता की सुरक्षा सम्भव है। जनपद अथवा भूभाग राज्य के अस्तित्व का भौतिक आधार है। राज्य व जनता की सुख-समृद्धि के लिए कोष का होना अत्यन्त आवश्यक है। बिना दण्ड के राज्य में शान्ति और व्यवस्था सम्भव नहीं है । अन्त में मित्र राज्य का होना भी राज्य के अस्तित्व एवं सुरक्षा के लिए आवश्यक है।

(3) राज्यों के प्रकार:-

'अर्थशास्त्र के अध्ययन से स्पष्ट है कि कौटिल्य राजतन्त्र का पोषक था और वह समस्त भारत पर एक सशक्त और सम्पन्न राजा का शासन स्थापित करना चाहता था। उसकी मान्यता है कि राजतन्त्र में राज्य शक्ति शक्तिशाली वर्ग के हाथ में रहती है और उपयुक्त अनुशासन द्वारा प्रजा में स्वामी शक्ति की स्थापना की जा सकती है। किन्तु 'अर्थशास्त्र में अन्य प्रकार के राज्यों का उल्लेख भी मिलता है, क्योंकि उस काल में तथा उससे पूर्व भारत में ऐसे राज्यों का अस्तित्व था व अन्य प्रकार के राज्यों को द्वैराज्य, वैराज्य तथा संघ राज्य कहा जाता.था।

(4) राज्य का उद्देश्य :-

कौटिल्य द्वारा वर्णित राज्य केवल पुलिस राज्य न था अर्थात् राज्य केवल शान्ति व्यवस्था और सुरक्षा बनाए रखना ही अपना कार्य नहीं समझता था। राज्य का उद्देश्य व्यक्ति को उसके पूर्ण विकास में पूरी तरह से सहायता देना है। अच्छा राज्य स्वस्थ और सुदृढ़ अर्थव्यवस्था पर आधारित होता है। राज्य का भूमि क्षेत्र इतना हो कि वह निवासियों की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके और उनकी शत्रुओं से भी रक्षा कर सके । कौटिल्य के अनुसार राज्य के कार्यों का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत होना चाहिए। अच्छे राज्य का आधार सुदृढ़ अर्थव्यवस्था है, जिससे । उसके निवासी अपने जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति कर सकें।

(5) सप्तांग सिद्धान्त :-

 प्राचीन भारत में राज्य के सावयव रूप का उल्लेख मिलता है। उस समय के विद्वान् राज्य को एक सजीव प्राणी मानते थे। प्राचीन विचारकों के अनुसार सप्तांग राज्य की कल्पना एक जीवित शरीर की कल्पना है, जिसके सात अंग होते हैं। राज्य के सात अंगों के कारण ही उसके राज्य की प्रकृति सम्बन्धी सिद्धान्त 'सप्तांग' कहलाता है।
कौटिल्य के अनुसार राज्य के निम्न सात अंग हैं-
(i) स्वामी, (ii) अमात्य, (iii) जनपद, (iv) दुर्ग,(v) कोष,(vi) दण्ड,तथा (vii) मित्र । प्राचीन भारत में राज्य के इन सात अंगों में से सभी का सुदृढ़ और स्वस्थ सहयोग आवश्यक माना जाता था।

(6) राजा :-

कौटिल्य ने राज्य रूपी शरीर में राजा को सबसे ऊँचा स्थान प्रदान किया है। उसने राजा की सत्ता को समुदाय के सभी कार्यों की एकमात्र आधारशिला माना है। उसकी समृद्धि से ही राज्य की समृद्धि सम्भव है । राजनीति की सफलता या असफलता तथा राज्य का भविष्य राजा की शक्ति और नीति पर निर्भर है। बी. पी. सिन्हा के अनुसार, “कौटिल्य की प्रणाली में राजा शासन तन्त्र की धुरी है और वह शासन के संचालन में सक्रिय रूप से भाग लेने तथा शासन को गति प्रदान करने का कार्य करता है ।" स्वयं कौटिल्य के शब्दों में,“यदि राजा सम्पन्न हो, तो उसकी समृद्धि से प्रजा भी सम्पन्न होती है। राजा का जो शील हो, वह शील प्रजा का भी होता है। यदि राजा उद्यमी और उत्थानशील होता है,तो प्रजा में भी ऐसे गुण आ जाते हैं। यदि राजा प्रमादी हो, तो प्रजा भी वैसी ही हो जाती है। अतः राज्य में केन्द्र-बिन्दु राजा ही है।

 (7) राजा के गुण :-

कौटिल्य ने राजा के गुणों पर बहुत बल दिया है। वह अपने राजा को केवल सत्ता उपयोग करने वाले व्यक्ति के रूप में नहीं देखता,वह उसे राजर्षि बनाना चाहता है। उसके अनुसार राजा को कुलीन, धर्म की मर्यादा रखने वाला, कृतज्ञ, दृढ़ निश्चयी, विचारशील, सत्यवादी, वृद्धों के प्रति आदरशील, विवेकपूर्ण, दूरदर्शी, उत्साही तथा युद्ध में चतुर होना चाहिए। उसे क्रोध, मद, लोभ, भय आदि से दूर रहना चाहिए। युद्ध के समय प्रजा का निर्वाह करने और शत्रु की दुर्बलता पहचानने की आवश्यक योग्यता होनी चाहिए। राजा को विशेष रूप से कभी भी वृद्ध, अपंग तथा दीन-हीन की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।

(8) राजा के कर्तव्य:-

 राजा के कर्तव्यों का वर्णन करते हुए कौटिल्य ने लिखा है,“प्रजा के सुख में राजा का सुख है,प्रजा के हित में राजा का हित है। राजा के लिए प्रजा के सुख से भिन्न अपना सुख नहीं है।" उसके अनुसार राजा और प्रजा में पिता और पुत्र का सम्बन्ध होना चाहिए। जैसे पिता पुत्र का ध्यान रखता है, वैसे ही राजा के द्वारा प्रजा का ध्यान रखा जाना चाहिए।
कौटिल्य के अनुसार राजा के मुख्य कर्त्तव्य निम्नलिखित हैं
(i) वर्णाश्रम धर्म को बनाए रखना :- राजा का प्रमुख कर्त्तव्य वर्णाश्रम धर्म को बनाए रखना और सभी प्राणियों को अपने धर्म से विचलित न होने देना है, क्योंकि जिस राजा की प्रजा वर्ण और आश्रम के नियमों का पालन करती है,वह सदा प्रसन्न रहती है और उसका कभी नाश नहीं होता।
(ii) दण्ड की व्यवस्था करना :- राजा का दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य दण्ड की व्यवस्था करना है,क्योंकि दण्ड अप्राप्त वस्तु को प्राप्त कराता है,उसकी रक्षा करता है, रक्षित वस्तु को बढ़ाता है और बढ़ी हुई वस्तु का उपयोग करता है। यदि दण्ड का उचित प्रयोग नहीं होता, तो बलवान मनुष्य निर्बलों को ऐसे खा जाता है जैसे बड़ी मछली छोटी को।
(iii) आय-व्यय सम्बन्धी कर्त्तव्य :- राजा को आय-व्यय का पूरा हिसाब और प्रबन्ध रखना चाहिए। उसे यह कार्य समानता के द्वारा करना चाहिए।
 (iv) नियुक्ति सम्बन्धी कर्त्तव्य :-  राजा सेनापति और प्रमुख कर्मचारियों की नियुक्ति करता है, सभी कर्मचारियों के कार्यों का निरीक्षण करता है तथा श्रेष्ठ कार्य करने वाले कर्मचारियों की पदोन्नति करता है।
(v) लोकहित सम्बन्धी कार्य-राजा को यथाशक्ति दान देना चाहिए और अनाथ, वृद्ध तथा असहाय लोगों के पालन-पोषण की व्यवस्था करनी चाहिए। असहाय और गर्भवती स्त्रियों की उचित देखभाल की व्यवस्था करनी चाहिए। जो किसान खेती न करके भूमि परती छोड़ देते हैं, उनसे भूमि लेकर दूसरे किसानों को दे देनी चाहिए। इसके अतिरिक्त बाँध, जल मार्ग, स्थल मार्ग, बाजार और जलाशय बनवाना, अकाल के समय जनता की रक्षा करना भी राजा के कार्य हैं।
(vi) युद्ध करना :- कौटिल्य के अनुसार युद्ध करना राजा का प्रमुख कार्य है। कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र'का केन्द्र विजिगीषु राजा है, जिसका उद्देश्य निरन्तर नई भूमि प्राप्त कर अपने क्षेत्र में वृद्धि करना है। कौटिल्य राज्य की सभी आर्थिक और अन्य संस्थाओं की महत्ता इसी मापदण्ड से निश्चित करता है कि ये राज्य को किस सीमा तक युद्ध के लिए तैयार करती है।

(9) अमात्य या मन्त्रिपरिषद् :- 

कौटिल्य ने अपने ग्रन्थ 'अर्थशास्त्र में राजा के लिए मन्त्रिपरिषद् की आवश्यकता पर बहुत बल दिया है। उसके अनुसार राज्य एक रथ है। जिस प्रकार रथ एक पहिये से नहीं चल सकता, उसी प्रकार मन्त्रियों की सहायता के बिना अकेला राजा राज्य का संचालन नहीं कर सकता। अतः राजा के लिए यह उचित है कि वह योग्य मन्त्री रखे और उनके परामर्श पर उचित ध्यान दे । कौटिल्य ने बल देते हुए कहा है कि समस्त कार्यों का प्रारम्भ मन्त्रणा कर लेने के उपरान्त ही होना चाहिए |
राजा और मन्त्रिपरिषद् के आपसी सम्बन्धों के विषय में कौटिल्य का विचार है कि राजा सामान्यतः मन्त्रिपरिषद् के आधार पर कार्य करे, किन्तु मन्त्रिपरिषद् की मन्त्रणा कार्य सिद्धिकर प्रतीत न होने पर राजा अपनी इच्छानुसार कार्य कर सकता है।

राजनीतिक विचारक के रूप में कौटिल्य का महत्त्व :-

आचार्य कौटिल्य का प्रसिद्ध ग्रन्थ 'अर्थशास्त्र'न्हें नीतिशास्त्र,राजनीतिशास्त्रअर्थशास्त्र का महान् विद्वान् सिद्ध करता है। कौटिल्य महान् देशभक्त व राष्ट्रवादी थे। वह भारत को एकता के सूत्र में बाँधना चाहते थे तथा भारत को विश्व शक्ति के रूप में देखना चाहते थे। इसीलिए कौटिल्य को 'आधुनिक मैकियावली' कहा जाता है। राजनीतिक विचारधारा के रूप में कौटिल्य का महत्त्व निम्न शीर्षकों में व्यक्त किया जा सकता है

(1) लोक-कल्याणकारी राज्य :-

आज जिस लोक-कल्याणकारी राज्य की बात की जाती है,यह धारणा कौटिल्य की ही देन है। कौटिल्य राज्य को पुलिस राज्य के रूप में नहीं चाहते,वरन् उन्होंने तो यह कहा,"प्रजा के सुख में ही राजा का सुख है।" उन्होंने लोक-कल्याणकारी राज्य के कार्य भी बताए हैं चिकित्सालयों का निर्माण, अनाथों व दीन-दुःखियों की सहायता करना आदि।

(2) धर्मनिरपेक्षता के जनक :-

यद्यपि कौटिल्य वर्ण व्यवस्था का समर्थन करते हैं और राजा को धर्म के अनुसार चलने की सलाह देते हैं,परन्तु फिर भी वे यथार्थवादी हैं और धर्मनिरपेक्षता को स्वीकार करते हैं। कौटिल्य पुरोहित को महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में स्वीकार करते हैं,राज्य के आवश्यक अंग के रूप में नहीं। वे ईश्वर के स्थान पर विवेक को प्रमुख स्थान देते हैं । कौटिल्य की धर्मनिरपेक्षता इसी से प्रमाणित हो जाती है कि मूर्तियों में अस्त्र रखे जाएँ, ताकि जब शत्रु राजा पूजा करने आए तो उसका वध कर दिया जाए।

(3) राजनीतिशास्त्र को पृथक् शास्त्र मानना :-

 कौटिल्य ही पहला विचारक था जिसने तत्कालीन राजनीतिक संस्थाओं, विचारों व घटनाओं का परीक्षण और पर्यवेक्षण किया तथा अनुभव के आधार पर मूल्यांकन करके राजनीतिशास्त्र को पृथक् शास्त्र का स्वरूप प्रदान किया।

(4) नियोजित अर्थव्यवस्था का जनक :-

 कौटिल्य का राज्य राजनीतिक होने के साथ-साथ आर्थिक भी है। यही कारण है कि कौटिल्य ने अपने ग्रन्थ 'अर्थशास्त्र में अर्थ की प्राप्ति. सुरक्षा और उसकी वृद्धि के साधनों का भी उल्लेख किया है। कौटिल्य ने निजी व सार्वजनिक क्षेत्रों का अलग-अलग निर्धारण किया है।

(5) राज्य शक्ति का संचय करें :-

मैकियावली की तरह कौटिल्य ने भी राज्य की शक्ति व सुरक्षा के लिए सभी प्रकार के साधनों का औचित्य सिद्ध किया है, फिर चाहे यह साधन नैतिक हों अथवा अनैतिक । कौटिल्य कूटनीति का प्रयोग राज्य की उन्नति के लिए आवश्यक मानता है तथा राज्य का विस्तार भी चाहता है।

(6) धर्म और राजनीति का पृथक्करण :-

मैकियावली की भाँति कौटिल्य भी धार्मिक मर्यादाओं को राज्य के कार्यों में बाधक नहीं बनने देता। उन्होंने अपने ग्रन्थ 'अर्थशास्त्र में लिखा है, “चरित्र तथा लोकाचार का धर्म के साथ जिस विषय में विरोध हो, वहाँ धर्मशास्त्र को ही प्रमाण मानना चाहिए। परन्तु यदि कहीं धर्मशास्त्र का धर्मानुकूल राजकीय शासन के साथ विरोध हो, तो वहाँ राजकीय शासन को प्रमाण मानना चाहिए।स्पष्ट है कि कौटिल्य धर्म व राजनीति को अलग-अलग रखता है।

(7) दण्डनीति या राजनीति की प्रधानता :- 

कौटिल्य धर्म को राजनीति से अलग ही नहीं मानता, वरन् वह धर्म को राजनीति से निम्न श्रेणी का मानता है। कौटिल्य ने इस विषय को स्पष्ट करते हुए लिखा है, “सम्पूर्ण सांसारिक जीवन राजनीति (दण्डनीति) पर आधारित है।"
उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि कौटिल्य भारतीय राजनीतिक चिन्तन के नक्षत्र हैं। उनकां ग्रन्थ 'अर्थशास्त्र,राजनीति, अर्थशास्त्र तथा नीतिशास्त्र का अद्वितीय संग्रह है। कौटिल्य अपने ग्रन्थ 'अर्थशास्त्र के बारे में स्वयं कहते हैं, पृथ्वी को प्राप्त करने और प्राप्त की रक्षा करने के लिए जितने 'अर्थशास्त्र'प्राचीन आचार्यों ने लिखे हैं,प्रायः उन सबको संगृहीत करके यह एक 'अर्थशास्त्र' बनाया गया है।"

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