जैन धर्म - सिद्धान्त,उपदेश,मान्यताएँ,योगदान
प्रश्न 3. महावीर स्वामी के जीवन एवं उपदेशों पर एक लेख लिखिए।
अथवा , महावीर स्वामी के जीवन-चरित्र तथा उनकी शिक्षाओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा , जैन धर्म के सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए। भारतीय संस्कृति में इस धर्म का क्या
योगदान है?
उत्तर- महावीर स्वामी का जीवन-चरित्र
महावीर स्वामी का जन्म 599 ई. पू. वैशाली
के समीप कुण्डग्राम (बिहार में मुजफ्फरपुर जिले के अन्तर्गत) में बज्जिसंघ
के शाक्यवंशीय राजा सिद्धार्थ के यहाँ हुआ। उनकी माता का नाम त्रिशला
था। वह वैशाली के लिच्छवि राजा चेटक की बहिन थी। चेटक
की पुत्री चेल्लना मगध नरेश बिम्बिसार के साथ ब्याही थी।
महावीर स्वामी के बचपन का नाम वर्धमान था। उनकी शिक्षा-दीक्षा
बहुत ही व्यवस्थित ढंग से हुई थी। महावीर का विवाह यशोदा नामक एक राजकुमारी
से हुआ था। उससे उनको एक पुत्री की प्राप्ति हुई। महावीर प्रारम्भ से ही विचारशील थे।
अत: उनके पिता की मृत्यु होने पर 30 वर्ष की अवस्था
से ही उन्होंने अपने बड़े भाई नन्दिवर्धन की आज्ञा प्राप्त करके गृह
परित्याग कर दिया। वे ज्ञान पाने के लिए कठोर तपस्या करने लगे।
उन्होंने अन्न, जल, वस्त्र आदि को छोड़ दिया। 12 वर्ष की कठोर
तपस्या के उपरान्त वैशाख माह की दशमी को उनको जम्भियग्राम के
समीप ऋजुपलिका नदी के तट पर कैवल्य (मोक्ष या ज्ञान) की प्राप्ति हो
गई। इस परम ज्ञान को प्राप्त कर वे केवतिन जिन (विजेता), अर्हन्त (पूज्य), निग्रन्थ (बन्धन मुक्त),
महावीर (परमप्रतापी) कहलाए व उनके अनुयायी जैन
कहलाए।
तत्पश्चात् 30 वर्ष तक महावीर
स्वामी घूम-घूमकर अपने धर्म का प्रचार करते रहे । वे स्वयं राजा के पुत्र थे। वे
अपने समय के प्रायः सभी मुख्य राजाओं से सम्बन्धित थे। अतः उन्हें धर्म-प्रचार में
पूरी सफलता मिली। मगध व कौशल के नरेश उनका बहुत सम्मान करते थे। राजगृह, श्रावस्ती, वैशाली, मिथिला, चम्पा आदि नगरों में
वे वर्षाकाल बिताते थे। 527 ई. पू. में 72 वर्ष की आयु में राजगृह के समीप पावापुरी नामक
स्थान पर महावीर स्वामी ने इस नश्वर शरीर को त्याग दिया।
जैन धर्म के सिद्धान्त (विशेषताएँ)
महावीर स्वामी द्वारा दी गई शिक्षाओं की मूल रूप में जानकारी प्राप्त करना
आधुनिक समय में कठिन है, क्योंकि आजकल जो
जैन साहित्य उपलब्ध है, वह वर्धमान
महावीर के जीवनकाल के बहुत बाद संकलित किया गया। महावीर स्वामी के उपदेश या
शिक्षाएँ निम्न प्रकार हैं,
(1) पंच महाव्रत -
जैन धर्म के सिद्धान्तों
में प्रत्येक गृहस्थ के लिए पाँच महावत बताए गए हैं, जो निम्न प्रकार हैं
(1) अहिंसा-
प्रत्येक जैन
मतावलम्बी को अहिंसा का पालन करना चाहिए। मन, वचन और कर्म से हिंसा का पूर्ण त्याग कर देना चाहिए।
गृहस्थों के लिए स्थूल अहिंसा का विधान है, जिसका अर्थ है राजा अपराधियों को दण्ड दे सकता है, हिंसक जन्तुओं को मार सकता है और जनता की रक्षा
करने के लिए हिंसा कर सकता है। किन्तु जैन मुनियों के लिए स्थूल अहिंसा का कोई
प्रावधान नहीं है। उन्हें पूर्ण अहिंसा का पालन करना चाहिए।
(ii) सत्य -
मनुष्यों को सदा सत्य
बोलना चाहिए और असत्य से दूर रहना चाहिए। असत्य भाषा का मुख्य कारण द्वेष, स्नेह और मोह होता है। अतः इन प्रवृत्तियों पर
अंकुश लगाकर मनुष्य को सदा सत्य बोलना चाहिए।
(iii) अस्तेय -
मनुष्य को चोरी के कार्य
से दूर रहने का व्रत लेना चाहिए। जो वस्तु अपनी नहीं है, वह भले ही कहीं गिरी या पड़ी हुई मिले, उसे कभी ग्रहण नहीं करना चाहिए। यह कार्य भी
वर्जित है।
(iv) ब्रह्मचर्य -
जैन मुनियों को पूर्ण
ब्रह्मचर्य व्रत का पालन अनिवार्य है। परन्तु गृहस्थ लोगों के लिए पर स्त्रीगमन
अथवा पर पुरुषगमन से दूर रहकर अपनी पत्नी या पति से सन्तुष्ट रहना ब्रह्मचर्य व्रत
में सम्मिलित हैं।
जैन धर्म के अनुसार धन
संग्रह करना वर्जित है। गृहस्थ लोग धनोपार्जन कर सकते हैं, किन्तु धन के प्रति आसक्त रहना तथा आवश्यकता से अधिक धन का
संग्रह करना पूर्णतया वर्जित है।
(2) त्रिरत्न -
जैन धर्म मिथ्यात्व तथा
बाह्य आडम्बरों में विश्वास नहीं करता। महावीर स्वामी ने मोक्ष प्राप्ति के लिए
निम्न तीन रत्नों की स्थापना की
(i) सम्यक् ज्ञान -
जीव का कल्याण शुद्ध ज्ञान द्वारा करके ही हो सकता है।
(ii) सम्यक् दर्शन -
सच्चे देव दर्शन तथा शुद्ध विचारों से ही मोक्ष
की प्राप्ति सम्भव होती है।
शुद्ध आचरण ही जीव के कल्याण का मार्ग है।
इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को शुद्ध आचरण करना चाहिए।
(3) तप का महत्त्व -
महावीर स्वामी ने जैन धर्म के
अन्तर्गत तप को विशेष महत्त्व दिया था। जैन भिक्षुओं को निरन्तर तपस्या के द्वारा
तथा अनेक प्रकार के शारीरिक कष्टों के द्वारा आत्म-शुद्धि करके मोक्ष के लिए
प्रयासरत रहना चाहिए। स्वयं महावीर स्वामी ने 12 वर्ष की कठोर तपस्या के पश्चात् कैवल्य (मोक्ष) ज्ञान
प्राप्त किया था। इस प्रकार जैन धर्म तप के मार्ग पर विशेष बल देता है।
(4) वेदों और ब्राह्मणों की सर्वोच्चता में अविश्वास -
वर्धमान महावीर को वेदों में विश्वास नहीं था।
वैदिक कर्मकाण्डों तथा समाज में ब्राह्मण वर्ग की सर्वोच्च स्थिति में भी उनका कोई
विश्वास नहीं था। महावीर स्वामी ने मानव जीवनयापन के लिए अत्यन्त सादा जीवन,
उच्च विचार तथा उच्च नैतिक आदर्शों का समर्थन
किया था। निर्वाण प्राप्त करने के लिए वह जातीय बन्धन को एक बाधा मानते थे। इसलिए
उन्होंने सभी वर्गों व जातियों के लोगों को जैन धर्म अपनाने की स्वतन्त्रता प्रदान
कर दी थी।
(5) ईश्वर के अस्तित्व में अविश्वास -
महावीर
स्वामी ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते थे और न ही उसे संसार का निर्माता
मानते थे। जैन धर्म के अनुसार मनुष्य की सभी शक्तियों के सर्वोच्च विकास का नाम ही
ईश्वर है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है। उसे मोक्ष प्राप्त करने के लिए
ईश्वर की दया पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, इसलिए जैन धर्म के समर्थक ईश्वर के स्थान पर तीर्थंकरों की पूजा करते हैं।
(6) कर्म का
सिद्धान्त -
जैन धर्म के अनुसार आत्मा सदैव कर्म के बन्धनों से जकड़ी रहती है। मनुष्य का
आगामी जन्म पूर्व कर्मों के आधार पर होता है। सांसारिक कष्टों से छुटकारा पाने के
लिए मनुष्य को अच्छे कर्म करने चाहिए।
जैन धर्म के अनुयायी निवृत्त मार्ग में विश्वास
करते हैं। उनका मत है कि यह संसार कष्टों व दुःखों से पूर्ण है, जिसका मूल कारण यह है कि मनुष्य विभिन्न प्रकार
की इच्छाएँ रखता है। इच्छाओं व वासनाओं के पूर्ण न होने पर उसे अत्यन्त दुःख होता
है। इसलिए हमें दु:खों की जननी तृष्णा का त्याग कर देना चाहिए। दूसरे शब्दों में,
जैन धर्म पलायनवाद के लिए प्रेरित करता है।
जैन धर्म की मान्यताएँ
जैन धर्म की दो मान्यताएँ
हैं, जो निम्न प्रकार
हैं
(1) अनीश्वरवाद - जैन दर्शन ईश्वर और वेद
में विश्वास नहीं करता। जैन दर्शन के अनुसार संसार अनादि और अनन्त है। आत्मा जीव
से भिन्न है।
(2) स्याद्वाद - इसे 'अनेकान्तवाद' और 'सप्तभंगी न्याय' भी कहते हैं। इस
सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक वस्तु की भिन्नता सात प्रकार की हो सकती है
(i)
है, (ii) नहीं, (iii) है भी और नहीं भी, (iv) कहा नहीं जा सकता, (v) है, किन्तु
कहा नहीं जा सकता, (vi) नहीं है, और
कहा नहीं जा सकता, (vii) है भी और नहीं भी है, परन्तु
कहा नहीं जा सकता।
जैन धर्म की शाखाएँ
महावीर स्वामी की मृत्यु के उपरान्त जैन धर्म दो मतों में बँट गया
(1) श्वेताम्बर, और
(2) दिगम्बर
श्वेत वस्त्र धारण करने वाले श्वेताम्बर कहे जाते हैं।
दिगम्बर शरीर पर वस्त्र धारण नहीं करते अर्थात् निर्वस्त्र
रहते हैं।
भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान
भारतीय संस्कृति में जैन धर्म के योगदान को निम्न प्रकार स्पष्ट कर सकते हैं।
(1) अहिंसा का सिद्धान्त - भारतीय संस्कृति को जैन धर्म की मुख्य देन
अहिंसा है। यद्यपि वैदिक सभ्यता और बौद्ध धर्म में भी इस सिद्धान्त को मान्यता
प्राप्त थी, तथापि जैन धर्म
ने इसे वास्तविक स्वरूप प्रदान किया। जैन धर्म में मन, वचन और कर्म से अहिंसा पालन करने का सन्देश दिया गया था। इस धर्म ने
ऐसे व्यक्तियों को जन्म दिया था जिन्होंने अपने उच्च आदर्शों के आधार पर संसार को
दया और धर्म का सन्देश ही नहीं दिया, अपितु पूरे देश को शाकाहारी देश बना दिया। आज भी जैन भिक्षु पानी को छानकर
पीते हैं और अपने मुख पर पट्टी बाँधे रहते हैं।
(2) कर्म का सिद्धान्त - इस सिद्धान्त के रूप में जैन धर्म ने भारतीय
संस्कृति की महान् सेवा की है। इस धर्म के प्रवर्तकों तथा अनुयायियों ने कर्म के
सिद्धान्त को वैज्ञानिक, सरल तथा सुबोध
रूप में जनता के समक्ष प्रस्तुत किया था। देश का प्रत्येक नागरिक इस तथ्य से अवगत
हो गया कि मनुष्य जिस प्रकार के कर्म करता है, उसी के अनुसार उसे फल प्राप्त होता है। अर्थात् मोक्ष
प्राप्त करने तथा आवागमन के चक्र से मुक्ति पाने के लिए मनुष्य को अच्छे कर्म करने
चाहिए। अब यह सिद्धान्त भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग बन गया है।
(3) जैन दर्शन - जैन भिक्षुओं ने
तीर्थंकरों के आदर्श जीवन को जनता के समक्ष इस प्रकार प्रस्तुत किया कि जैन धर्म
के दर्शन से भारतीय संस्कृति प्रभावित हुए बिना न रह सकी। जैन दर्शन में तार्किक
दृष्टिकोण को प्रमुखता दी गई है। जैन धर्मशास्त्रियों की मान्यता है कि प्रत्येक वस्तु को
केवल एक ही विधि अथवा पक्ष से देखने पर समस्त शक्ति का ज्ञान प्राप्त नहीं होता।
वास्तव में भारतीय दर्शनशास्त्र में तर्क-वितर्क जैन धर्म की ही देन है।
(4) जैन साहित्य - जैन धर्म से सम्बन्धित साहित्य व्यापक
है। यद्यपि जैन धर्म के अनुयायियों की संख्या बहुत कम है, तथापि भाषा व साहित्य के विकास में उसका अद्वितीय योगदान है। जैन साहित्य प्राकृत,
मागधी तथा अपभ्रंश भाषा में लिखा गया है। इसके अतिरिक्त उन
विधियों पर सिद्धान्तों का उल्लेख कि गया है जिसका पालन करके मनुष्य मोक्ष प्राप्त
कर सकता है। जैन साहित्य मुख्यतः छः भागों में विभाजित है। इसके अतिरिक्त व्याकरण,
गणित, शब्दको काव्य आदि पहलुओं पर भी अनेक ग्रन्थों की रचना हुई है। इन
ग्रन्थों ने भारत संस्कृति पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है।
(5) कला का विकास - कला के क्षेत्र में भी जैन धर्म का योगदान
है। इस धर्म के अन्तर्गत मन्दिरों, पाषाण स्तम्भों तथा मूर्तियों के निर्माण पर विशेष बल दिया
गया, इसलिए सम्पूर्ण देश में
जैन मन्दिरों का जाल विछा हुआ है। कर्नाटकमें श्रवणबेलगोला नामक स्थान पर निर्मित गोमटेश्वर की 57 फीट ऊँची मूर्ति जैन कला का उत्कृष्ट नमूना है। आबू का जैन मंदिर भवन-निर्माण कला का अद्वितीय उदाहरण है। जैन कला की मुख्य विशेषता है कि यह
श्रृंगार प्रधान नहीं है। जैन तीर्थंकरों की विशाल नग्न मूर्तियों के मुख
जो सरलता, गम्भीरता और
सौम्यता पाई जाती है, वह दर्शको को स्वतः ही अप ओर आकर्षित करती है। इसके अतिरिक्त उदयगिरिकी पहाड़ियों व एलोरा गुफाओं की कलाकृतियाँ भी प्रशंसनीय हैं।
(6) सामाजिक सुधार - बौद्ध धर्म की भाँति जैन धर्म ने भी समाज प्रचलित जाति
प्रथा पर कुठाराघात किया तथा देश की गरीब जनता को व्यर्थ धार्मिक
आडम्बरों तथा खर्चीले कर्मकाण्डों से मुक्ति दिलाई। जैन तीर्थंकरों
अपने सादा जीवन और उच्च विचार के आदर्श को समाज के सम्मुख प्रस्तुत किया। उन्होंने अपरिग्रह के सिद्धान्त
के द्वारा समाज में भौतिकवाद की बढ़ती लहर को रोकने में सराहनीय योगदान दिया।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन धर्म का भारतीय दर साहित्य,
कला, नैतिक स्तर आदि प्रत्येक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान है। इस उल्लेख करते
हुए डॉ. आर. के. मुकर्जी ने लिखा है
"यद्यपि जैन धर्म अब भारत में अधिक प्रभावशाली नहीं रहा है,
तथापि वह एक सशक्त सम्प्रदाय के रूप में अब भी स्थिर है। जैन धर्म
की रूढ़िवादि ब्राह्मण धर्म से उसकी समानता, धर्म प्रचार में उग्रता और उत्साह का अभाव तथा अन्य धर्मों के साथ विरोध की प्रबलता होते
हुए भी यह धर्म आज फलता-फूलता दिखाई पड़ता है।"
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