स्वतन्त्रता का अर्थ एवं परिभाषा

B. A. I, Political Science I 
प्रश्न 9. स्वतन्त्रता को परिभाषित कीजिए तथा इसके विभिन्न रूपा (प्रकारों) का उल्लेख कीजिए। 
अथवा  "स्वतन्त्रता और समानता एक-दूसरे के विरोधी नहीं, वरन् पूरक हैं।" लास्की के इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
अथवा '' समानता क्या है ? इसके विभिन्न रूपों की व्याख्या कीजिए। 
अथवा " स्वतन्त्रता और समानता का अभिप्राय स्पष्ट कीजिए। समानता का स्वतन्त्रता से क्या सम्बन्ध है ?
अथवा " समानता क्या है ? क्या स्वतन्त्रता और समानता एक-दूसरे के पूरक हैं ?
अथवा "स्वतन्त्रता और समानता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।" इस कथन के सन्दर्भ में स्वतन्त्रता और समानता की अवधारणाओं की विवेचना कीजिए।

उत्तर -

स्वतन्त्रता का अर्थ एवं परिभाषाएँ

'स्वतन्त्रता' शब्द का अंग्रेजी पर्याय 'Liberty' लैटिन भाषा के 'Liber' शब्द से बना है, जिसका अर्थ होता है 'मुक्त' अथवा 'स्वतन्त्र' । अतः शाब्दिक अर्थ के अनुसार स्वतन्त्रता से तात्पर्य इच्छानुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता' है । दूसरे शब्दों कानून की अनुपस्थिति ही स्वतन्त्रता है । परन्तु यह सभी जानते हैं कि सभ्य समाज मनमाने ढंग से कार्य करने की स्वतन्त्रता किसी भी व्यक्ति को नहीं दी जा सकती। व्यक्ति को ऐसे ही कार्य करने की स्वतन्त्रता दी जा सकती है जिनके करने से सामाजिक कल्याण में कोई बाधा न पहुँचे । इसलिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर ऐसे प्रतिबन्ध लगें जिनसे दूसरों की स्वतन्त्रता बनी रहे ।
स्वतन्त्रता क्या है


1789 ई. में फ्रांस की राज्यक्रान्ति में नेताओं ने 'मानवाधिकारों के घोषणा-पत्र' में , स्वतन्त्रता की परिभाषा अग्र प्रकार दी थी-
"स्वतन्त्रता प्रत्येक कार्य को करने की वह शक्ति अथवा अधिकार है जिससे किसी दूसरे को हानि न पहुँचे।"
 सीले के शब्दों में,“स्वतन्त्रता अति शासन का विपरीत रूप है।

·    जी. डी. एच. कोल ने कहा है, "बिना किसी बाधा के अपने व्यक्तित्व को प्रकट करने के अधिकार का नाम स्वतन्त्रता है।

स्वतन्त्रता के दो पहलू - उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि स्वतन्त्रता के दो पहलू अथवा स्वरूप हैं, जिन पर पृथक् से विचार करना आवश्यक है

(1) निषेधात्मक पहलू : स्वतन्त्रता नियन्त्रणों का अभाव है - 

अनेक विचारकों के अनुसार किसी भी प्रकार के प्रतिबन्धों या नियन्त्रण का अभाव ही स्वतन्त्रता है । यह स्वतन्त्रता का निषेधात्मक पहलू है । इसके अनुसार राज्य का प्रत्येक कानून नागरिक की स्वतन्त्रता को सीमित कर देता है । सीले के अनुसार प्रतिबन्धों की अनुपस्थिति ही स्वतन्त्रता है।

(2) सकारात्मक पहत - 

गैटेल के अनुसार स्वतन्त्रता का केवल निषेधात्मक पहलू ही नहीं है, वरन् इसका सकारात्मक पहलू भी है। केवल प्रतिबन्धों के अभाव से ही कोई व्यक्ति स्वतन्त्र नहीं हो जाता । जिस प्रकार कुरूपता की अनुपस्थिति ही सुन्दरता नहीं है,अन्धकार की अनुपस्थिति ही प्रकाश नहीं है, वैसे ही नियन्त्रणों का अभाव मात्र ही स्वतन्त्रता नहीं है । स्वतन्त्रता उसी समय स्थिर रह सकती है जब राज्य ऐसे अवसर उपस्थित करे जिनमें मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास हो सके। अतः स्वतन्त्रता में प्रतिबन्धों का अभाव ही नहीं, अवसर की उपस्थिति भी सम्मिलित है। ग्रीन ने स्वतन्त्रता के सकारात्मक पहलू को स्पष्ट करते हुए कहा है, "स्वतन्त्रता उन वस्तुओं को करने तथा उपभोग करने की शक्ति अथवा सामर्थ्य में निहित होती है जो कि करने अथवा उपभोग करने योग्य है।

स्वतन्त्रता का वास्तविक अभिप्राय -

बार्कर ने ठीक ही कहा है कि जिस प्रकार बदसूरती का न होना खूबसूरती नहीं है,उसी प्रकार बन्धनों का न होना स्वतन्त्रता नहीं है।" वास्तविकता यह है कि लोगों के कार्यों पर ऐसे नियन्त्रण लगने चाहिए जो उचित हों तथा जिनमें सार्वजनिक कल्याण निहित हो । ऐसे नियन्त्रणों से स्वतन्त्रता कम नहीं होती, वह तब कम होती है जब नियन्त्रण अन्यायपूर्ण होते हैं। अत: स्वतन्त्रता का अस्तित्व तभी रह सकता है जब नियन्त्रणों का भी अस्तित्व होता है।

स्वतन्त्रता के प्रकार (रूप)

स्वतन्त्रता के प्रमुख प्रकारों (रूपों) का वर्णन निम्न प्रकार किया जा सकता है

(1) प्राकृतिक स्वतन्त्रता - 

प्राकृतिक स्वतन्त्रता व्यक्ति की उस स्वतन्त्रता को कहते हैं जो उसे जन्म से ही प्रकृति की ओर से प्राप्त होती है । प्राकृतिक अवस्था में न राजा था और न ही राज्य द्वारा बनाए गए कानून । मनुष्य अपनी इच्छा के अनुसार कुछ भी करने को स्वतन्त्र था। सामाजिक समझौते के परिणामस्वरूप राज्य का निर्माण हो जाने तथा प्राकृतिक अवस्था का अन्त हो जाने पर प्राकृतिक स्वतन्त्रता का लोप हो गया और वह समाज तथा राज्य द्वारा बनाए हुए कानूनों में जकड़ गया। यह नजरिया सामाजिक समझौते के समर्थक विचारकों हॉब्स, लॉक तथा रूसो का है।
·         रूसो का कहना था कि मनुष्य स्वतन्त्र जन्मा है, लेकिन वह हर जगह बन्धनों में जकड़ा है । "
परन्तु स्वतन्त्रता की यह धारणा गलत है। राज्य के बाहर और कानून की अनुपस्थिति में स्वतन्त्रता का कोई अर्थ नहीं है।

(2) नागरिक स्वतन्त्रता - 

नागरिक स्वतन्त्रता का तात्पर्य व्यक्ति की उन स्वतन्त्रताओं से है जो व्यक्ति समाज या राज्य का सदस्य होने के कारण प्राप्त करता है। लोकतन्त्र नागरिक स्वतन्त्रता के लिए सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली है । जिन-जिन देशों लोकतन्त्र की स्थापना हुई है, वहाँ व्यक्तियों को नागरिक स्वतन्त्रता की पूर्ण छूट प्राप्त हुई है। उन्हें जन-धन, मान-सम्मान व अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार की गारण्टी प्राप्त हुई है।

(3) राजनीतिक स्वतन्त्रता - 

राजनीतिक स्वतन्त्रता के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार राजनीतिक कार्यों को करने व अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करने का अधिकार सम्मिलित है। शासन में प्रत्येक नागरिक को भाग लेने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए।

(4) आर्थिक स्वतन्त्रता -

आर्थिक स्वतन्त्रता से तात्पर्य आर्थिक सुरक्षा से है। इसमें रोजगार पाने का अधिकार,सम्पत्ति का निर्माण करने का अधिकार,व्यापार करने
अधिकार देश के साधनों में समान अधिकार, एक-सा कार्य करने के लिए एक से वेतन का अधिकार आदि आते हैं। आर्थिक स्वतन्त्रता के अभाव में सभी स्वतन्त्रताएँ

(5) धार्मिक स्वतन्त्रता - 

लोकतन्त्र में प्रत्येक व्यक्ति को धार्मिक स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए । धार्मिक स्वतन्त्रता के अन्तर्गत विश्वास की स्वतन्त्रता, अपने विश्वास के अनुसार धार्मिक आचरण करने की स्वतन्त्रता व धर्मस्थान के निर्माण की स्वतन्त्रता

(6) सामाजिक स्वतन्त्रता - 

जब तक समाज में ऊँच-नीची भावना बनी रहेगी, तब तक समाज में सामाजिक स्वतन्त्रता स्थापित नहीं हो सकती है। सामाजिक स्वतन्त्रता लोकतन्त्र का अनिवार्य तत्त्व है । भारत में कुछ वर्ग दलित व निम्न माने जाते हैं। उनके साथ अन्य वर्गों का खानपान, रहन-सहन तथा विवाह आदि का कोई सम्बन्ध नहीं रहता। इस प्रकार के समाजों में लोकतन्त्र उस समय तकं सफल नहीं हो सकता जिस समय तक समस्त व्यक्तियों को सामाजिक स्वतन्त्रता प्राप्त न हो।

(7) नैतिक स्वतन्त्रता -

नैतिक स्वतन्त्रता का अर्थ अन्तःकरण के अनुसार आचरण करना है। नैतिक स्वतन्त्रता की धारणा का प्रवर्तन काण्ट ने किया था। नैतिक स्वतन्त्रता से तात्पर्य यह है कि हम वही कार्य करें जो हमारी आत्मा के अनुकूल हों और वे कार्य न करें जो हमारी आत्मा के प्रतिकूल हों। महात्मा गांधी इसी को महत्त्व देते थे। प्लेटो, हीगल, ग्रीन, बोसाँके आदि ने भी इसी स्वतन्त्रता का समर्थन किया है।

समानता का अर्थ एवं परिभाषा

समानता का तात्पर्य यह है कि राज्य के सभी व्यक्तियों को व्यक्तित्व के विकासा हेतु समान अवसर दिए जाने चाहिए। किसी भी व्यक्ति को यह कहने का अवसर न मिले कि यदि उसे यथेष्ट सुविधाएँ प्राप्त होती, तो वह भी अपने जीवन का विकास कर सकता था। अतः समानता की विधिवत् परिभाषा करते हुए कहा जा सकता है कि समानता का तात्पर्य ऐसी परिस्थितियों के अस्तित्व से होता है जिनके कारण व्यक्तियों को व्यक्तित्व के विकास हेतु समान अवसर प्राप्त हो सकें और इस प्रकार उस असमानता का अन्त हो सके जिसका मूल कारण सामाजिक वैषम्य है।
लास्की के अनुसार, “समानता मूल रूप से समाजीकरण की एक प्रक्रिया है। इसलिए प्रथमतः समानता का आशय विशेषाधिकारों के अभाव से है । द्वितीय रूप में इसका आशय यह है कि सभी व्यक्तियों को विकास हेतु पर्याप्त अवसर प्राप्त होने चाहिए।"
संक्षेप में,समानता के अर्थ में तीन बातें शामिल हैं
(1) विशेषाधिकारों का अन्त,
(2) सभी लोगों को व्यक्तित्व के विकास के लिए समान अवसर,तथा
(3) न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति ।

समानता के विविध रूप (वर्गीकरण)

समानता के विविध रूपों (वर्गीकरण) का वर्णन निम्न प्रकार किया जा सकता  है ।

(1) प्राकृतिक समानता

प्राकृतिक समानता के प्रतिपादक इस बात पर बल देते हैं कि प्रकृति ने मनुष्य को समान बनाया है और सभी मनुष्य आधारभूत रूप से बराबर हैं । सामाजिक समझौता सिद्धान्त के प्रतिपादकों ने प्राकृतिक अवस्था में मनुष्यों की समानता का विशेष रूप से उल्लेख किया है। वर्तमान समय में प्राकृतिक समानता की हा धारणा को अमान्य किया जा चुका है।

(2) सामाजिक समानता - 

सामाजिक समानता का तात्पर्य यह है कि समाज के विशेषाधिकारों का अन्त हो जाना चाहिए और समाज में सभी व्यक्तियों को व्यक्ति होने के नाते ही महत्त्व दिया जाना चाहिए। समाज में जाति, धर्म,लिंग और व्यापार के आधार पर विभिन्न व्यक्तियों में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाना

(३) नागरिक समानता -

नागरिक समानता के सामान्यतः दो अभिप्राय लिये जाते है। प्रथम, राज्य के कानून की दृष्टि से सभी व्यक्ति समान होने चाहिए और राज्य के कानूनों द्वारा दण्ड या सुविधा प्रदान करने में व्यक्तियों में कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। दूसरा,सभी व्यक्तियों को नागरिकता के अवसर प्राप्त होने चाहिए।

(4) राजनीतिक समानता -

वर्तमान समय में राजनीतिक समानता पर बहुत अधिक बल दिया जाता है। राजनीतिक समानता का अभिप्राय सभी व्यक्तियों को समान राजनीतिक अधिकार एवं अवसर प्राप्त होने से है। परन्तु इस सम्बन्ध में पागल, नाबालिग और घोर अपराधी व्यक्ति अपवाद कहे जा सकते हैं, क्योंकि इनके द्वारा अपने मत का उचित प्रयोग नहीं किया जा सकता। राजनीतिक समानता का आशय यह है कि राजनीतिक अधिकार प्रदान करने के सम्बन्ध में रंग,जाति, धर्म,लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए।

(5) आर्थिक समानता - 

मानव जीवन में आर्थिक समानता का महत्त्व सबसे अधिक है और आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक एवं नागरिक समानता का कोई मूल्य नहीं है । आर्थिक समानता का तात्पर्य केवल यह है कि व्यक्तियों की आय बहुत अधिक असमानता नहीं होनी चाहिए।

स्वतन्त्रता और समानता में सम्बन्ध

स्वतन्त्रता और समानता के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में राजनीतिशास्त्रियों में पर्याप्त मतभेद हैं। कुछ विद्वानों द्वारा स्वतन्त्रता और समानता के लोक प्रचलित अर्थों के आधार पर इन्हें परस्पर विरोधी बताया गया है। उनके अनुसार स्वतन्त्रता अपनी इच्छानुसार कार्य करने की शक्ति का नाम है, जबकि समानता का तात्पर्य प्रत्येक प्रकार से सभी व्यक्तियों को समान समझने से है। इन विद्वानों का विचार है कि यदि सभी व्यक्तियों को स्वतन्त्रता प्रदान कर दी जाती है, तो जीवन के परिणाम नितान्त असमान होंगे और यदि शक्ति के आधार पर सभी व्यक्तियों को समान कर दिया जाए, तो यह समानता व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को नष्ट कर देगी। डी. टॉकविले और लाई एक्टन जैसे राजनीति विज्ञान के प्रसिद्ध विद्वानों का विचार है कि स्वतन्त्रता और समानता परस्पर विरोधी हैं। वस्तुतः लॉर्ड एक्टन आदि विद्वानों द्वारा स्वतन्त्रता और समानता की जिस रूप में कल्पना की गई है,स्वतन्त्रता और समानता का वह रूप न तो समाज में कहीं प्राप्त है और न ही राजनीति विज्ञान में स्वतन्त्रता और समानता को उस रूप में स्वीकार किया गया है।

राजनीति विज्ञान में स्वतन्त्रता और समानता का जो अभिप्राय लिया जाता है, उस अर्थ में स्वतन्त्रता और समानता परस्पर विरोधी नहीं वरन् पूरक हैं। स्वतन्त्रता की उचित परिभाषा करते हुए कहा जा सकता है कि "स्वतन्त्रता जीवन की ऐसी व्यवस्था का नाम है जिसमें व्यक्ति के जीवन पर न्यूनतम प्रतिबन्ध हों, विशेषाधिकार का नितान्त अभाव हो और व्यक्तियों को अपने व्यक्तित्व के विकास हेतु अधिकतम सुविधाएँ प्राप्त हों।" इसी प्रकार समानता को सही रूप से परिभाषित करते हुए कहा जा सकता है कि "समानता का तात्पर्य ऐसी परिस्थितियों के अस्तित्व से होता है जिसके अन्तर्गत सभी व्यक्तियों को व्यक्तित्व के विकास हेतु समान अवसर प्राप्त हों और इस प्रकार उस असमानता का अन्त हो सके जिसका मूल सामाजिक वैषम्य है।"

स्वतन्त्रता और समानता की इन परिभाषाओं के अनुसार स्वतन्त्रता और समानता, दोनों का उद्देश्य मानवीय व्यक्तित्व का उच्चतम विकास है और इस प्रकार स्वतन्त्रता व समानता एक-दूसरे के सहायक और पूरक हैं,परस्पर विरोधी नहीं। इस सम्बन्ध में लॉर्ड एक्टन ने लिखा है कि विरोधाभास यह है कि समानता और स्वतन्त्रता, जो परस्पर विरोधी विचार के रूप में प्रारम्भ होते हैं,विश्लेषण करने पर एक-दूसरे के लिए आवश्यक हो जाते हैं। सत्य यह है कि समानता के अर्थ की उचित व्याख्या स्वतन्त्रता के सन्दर्भ में ही की जा सकती है।" यदि समान अवसरों के द्वार सब के लिए खुले रहते हैं, तो व्यक्ति अपनी रुचि के अनुसार अपनी शक्तियों का विकास करने की यथार्थ स्वतन्त्रता का उपभोग कर सकता है। जिस समाज में किसी एक वर्ग को विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं और सामाजिक तथा आर्थिक अन्तर पाए जाते हैं,वहाँ वह वर्ग अन्य वर्गों पर दबाव डालने की अनुचित शक्ति प्राप्त कर लेता है और निम्न वर्गों को केवल नाममात्र की स्वतन्त्रता प्राप्त होती है।

लास्की के मतानुसार,सम्पत्ति की असमानता स्वतन्त्रता की विरोधी है। साधनों के अभाव के कारण निर्धन व्यक्ति न्यायालयों से उचित न्याय प्राप्त नहीं कर पाते और मुकदमेबाजी की एक लम्बी प्रक्रिया से धनी लोग अपने निर्धन पड़ोसियों को तबाह कर देते हैं।

इस प्रकार स्वतन्त्रता और समानता एक-दूसरे की पूरक तथा सहायक हैं।

आर. एच. टोनी ने ठीक ही कहा है कि समानता की एक बड़ी मात्रा स्वतन्त्रता की विरोधी न होकर इसके लिए आवश्यक है।

 लास्की का यह कथन कि स्वतन्त्रता और समानता एक दूसरे के विरोधी नहीं, वरन् पूरक हैंसही प्रतीत होता है।



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