औरंगजेब की दक्षिण नीति और मौत के 4 कारण

MJPRU-B.A.II-History I

प्रश्न 11. औरंगजेब की दक्षिण नीति का वर्णन कीजिए तथा इसकी असफलता के कारण बताइए।
अथवा  दक्षिण नीति औरंगजेब की ख्याति और शरीर, दोनों की कब्र बनी।" स्पष्ट कीजिए।
अथवा ''  औरंगजेब की दक्षिण नीति पर एक निबन्ध लिखिए।
अथवा  '' औरंगजेब की दक्षिण नीति के क्या उद्देश्य थे ? इसके परिणामों की समीक्षा कीजिए।  
अथवा '' औरंगजेब की मौत के मुख्य 4 कारणो का विस्तार पूर्वक व्याख्या कीजिये ।


उत्तर जहाँ अकबर ने अपनी नीतियों के द्वारा मुगल साम्राज्य को मजबूत किया और उसे स्थायित्व प्रदान किया, वहीं औरंगजेब ने अपनी नीतियों के द्वारा दृढ़ और स्थायित्व प्राप्त मुगल साम्राज्य को जर्जर तथा खोखला कर दिया। औरंगजेब की धार्मिक नीति, राजपूत नीति तथा दक्षिण नीति भी मुगल साम्राज्य के प्रतिकूल ही साबित हुई। औरंगजेब की दक्षिण नीति के सम्बन्ध में वी. स्मिथ ने लिखा है, "औरंगजेब की दक्षिण नीति न केवल औरंगजेब की कब्र बनी, वरन् मुगल साम्राज्य की भी कब्र बनी।"
Aurangzeb-Mughal Emperor-ki-maut

(A) औरंगजेब की दक्षिण नीति के उद्देश्य

साम्राज्यवादी तथा महत्त्वाकांक्षी औरंगजेब अपने विशाल साम्राज्य से सन्तुष्ट नहीं हुआ और इसके विस्तार की योजनाएँ बनाने लगा। अपने साम्राज्य-विस्तार के लिए उसने दक्षिण भारत के लिए नीति भी बनाई। संक्षेप में, औरंगजेब की दक्षिण नीति के निम्नलिखित उद्देश्य थे

(1) औरंगजेब कट्टर सुन्नी मुसलमान था। अत: वह दक्षिण भारत में शिया राज्यों को सहन न कर सका और उन्हें समाप्त करने के लिए दक्षिण भारत गया।
(2) शिवाजी तथा शम्भाजी से भी औरंगजेब को काफिर (हिन्दू) होने के कारण घृणा थी और इन्हें समाप्त कर वह मराठा शक्ति को नष्ट करना चाहता था।
(3) शहजादे अकबर को विद्रोह करने में दक्षिण से मदद मिली थी।
(4) औरंगजेब गोलकुण्डा तथा बीजापुर की खराब आन्तरिक दशा का लाभ उठाना चाहता था।
(5) औरंगजेब एक साम्राज्यवादी सुल्तान था। अत: वह दक्षिण भारत को, जीतकर अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था।

(B) औरंगजेब की दक्षिण नीति

औरंगजेब की यह इच्छा थी कि वह समस्त भारत पर एकछत्र राज्य करे। दक्षिण भारत का काफी भाग उसके राज्य के बाहर था। वह उसे मिलाकर पूरे देश को अपने अधिकार में करना चाहता था। उत्तर भारत के विद्रोह को दबाकर जब उसे फुरसत मिली, तो उसने दक्षिण भारत की ओर ध्यान दिया। उसने शाही सेना को दक्षिण में आक्रमण करने का आदेश दिया। उसे दक्षिण की तीन शक्तियों से संघर्ष करना पड़ा। इन शक्तियों से संघर्ष का विवेचन इस प्रकार है

(1) बीजापुर पर अधिकार

अपने शासनकाल के प्रारम्भिक 25 वर्षों में औरंगजेब उत्तर भारत की राजनीति में व्यस्त रहा। इस अवधि में उसने दक्षिण राज्यों पर विजय प्राप्त करने का उत्तरदायित्व विभिन्न मुगल सरदारों को सौंपा। 1665-66 ई. में मुगल सेना ने सर्वप्रथम बीजापुर राज्य पर अधिकार करने के लिए राजपूत राजा जयसिंह के नेतृत्व में प्रयास किया, किन्तु सफलता प्राप्त नहीं हो सकी।
1682 ई. में औरंगजेब ने शहजादा शाहआलम को विशाल सेना के साथ बीजापुर के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेजा, परन्तु उसे भी सफलता नहीं मिली। अप्रैल, 1685 में औरंगजेब बीजापुर के सुल्तान सिकन्दर अलीशाह के विरुद्ध लड़ने के लिए स्वयं चल पड़ा। मुगलों ने बीजापुर का घेरा डाल दिया। यद्यपि मराठों ने बीजापुर की सहायता की और वहाँ की सेना भी मुगलों के विरुद्ध बहुत वीरतापूर्वक लड़ी, परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। अन्त में सितम्बर, 1686 में बीजापुर ने आत्म-समर्पण कर दिया। औरंगजेब ने बीजापुर के शासक को गद्दी से हटाकर पेंशन देना स्वीकार किया। इसी वर्ष बीजापुर राज्य को मुगल साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।

(2) गोलकुण्डा पर अधिकार-

गोलकुण्डा का शासक अबुल हसन औरंगजेब का विरोधी था। औरंगजेब भी उससे घृणा करता था। इसलिए उसने 1685.ई. में गोलकुण्डा पर आक्रमण करने के लिए शहजादा शाहआलम को भेजा। अबुल हसन ने भयभीत होकर गोलकुण्डा के किले में शरण ली। शाहआलम और अबुल हसन के मध्ये एक सन्धि हुई, किन्तु औरंगजेब ने इस सन्धि को स्वीकार नहीं किया और 1687 ई. में गोलकुण्डा के किले का घेरा डाल दिया। अक्टूबर, 1687 में औरंगजेब चालाकी से गोलकुण्डा के किले को जीतने में सफल हो गया। इस प्रकार गोलकुण्डा को मुगल साम्राज्य में शामिल कर लिया गया। 

(3) शिवाजी से संघर्ष-

औरंगजेब के समय में दक्षिण भारत में मराठों की शक्ति का उदय हुआ था। मराठा राज्य के संस्थापक शिवाजी थे। औरंगजेब के सामने मराठों की शक्ति को कुचलने की कठिन समस्या थी। उसने इस कार्य के लिए शाइस्ता खाँ तथा बाद में राजपूत राजा जयसिंह को भेजा। 1666 . में शिवाजी औरंगजेब से भेंट करने आए, तो उन्हें आगरा में बन्दी बना लिया गया। किन्तु शिवाजी चालाकी से वहाँ से बचकर निकल भागे। शिवाजी जीवनभर मुगलों की शक्ति को रोकने का प्रयास करते रहे। 1680 ई. में शिवाजी की मृत्यु हो गई और उनका पुत्र शम्भाजी मराठा राज्य का शासक बना। मराठा शक्ति को नष्ट करने के उद्देश्य से औरंगजेब ने शम्भाजी के राज्य पर आक्रमण कर दिया। कड़े संघर्ष के पश्चात् 1689 ई. में शम्भाजी पराजित हो गया और उसका वध कर दिया गया।


शम्भाजी के पुत्र शाहू के पकड़े जाने के पश्चात् मराठों ने राजाराम का राजतिलक किया। मराठे अब रणनीति में कुशल हो गए थे। मराठों ने मुगलों की सेना को स्थान-स्थान पर पराजित किया। उन्होंने शाही कर्मचारियों को हटाकर अपने सूबेदार नियुक्त किए। मराठा सेनापति सन्ताजी का ऐसा आतंक था कि कोई भी अमीर उससे युद्ध करने के लिए तैयार न था। सन्ताजी का भय चारों ओर फैल गया। परन्तु सन्ताजी घरेलू युद्ध में मारा गया। औरंगजेब ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति, मराठों के दुर्गों को अपने अधिकार में करने में लगा दी। इसी बीच राजाराम की मृत्यु हो गई। मराठों ने राजाराम की विधवा पत्नी ताराबाई के नेतृत्व में संघर्ष प्रारम्भ किया। यह युद्ध औरंगजेब की मृत्यु तक चलता रहा। इस प्रकार औरंगजेब सम्पूर्ण दक्षिण भारत पर अधिकार करने में सफल नहीं हो सका। मराठा स्वतन्त्रता संग्राम ने उसकी दक्षिण नीति की सफलता को नष्ट कर दिया और औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् मराठों ने महाराष्ट्र में अपना राज्य स्थापित करने में सफलता प्राप्त की।

(C) औरंगजेब की दक्षिण नीति के परिणाम -

औरंगजेब की दक्षिण नीति के निम्नलिखित परिणाम हुए-
(1) उत्तर भारत में अशान्ति - औरंगजेब ने 25 वर्ष तक दक्षिण विजय का प्रयास किया। इसका परिणाम यह हुआ कि उत्तर भारत में अव्यवस्था फैल गई। उत्तर भारत में अनेक स्थानों पर विद्रोह हो गया। केन्द्रीय शासन शिथिल हो गया।

(2) मराठों की शक्ति का विकास - 

बीजापुर और गोलकुण्डा की विजय के पश्चात् मराठों को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर प्राप्त हुआ। औरंगजेब ने यदि इन दोनों राज्यों को मुगल साम्राज्य में न मिलाया होता, तो दोनों सल्तनत मराठों के पतन में उसकी सहायक सिद्ध होती।

(3) सैनिक शक्ति को आघात

लगातार युद्ध के कारण औरंगजेब के अनेक सैनिक मारे गए। इससे उसकी सैनिक शक्ति को गहरा आघात पहुंचा। ..

(4) मारवाड़ की स्वतन्त्रता-

दक्षिण में व्यस्त होने के कारण औरंगजेब को मारवाड़ की ओर ध्यान देने का समय नहीं मिला। अतः मारवाड़ स्वतन्त्र हो गया। ।

(5) राजकोष रिक्त हो जाना- 

लगातार युद्ध के कारण औरंगजेब को बहुत अधिक व्यय करना पड़ा। फलस्वरूप उसका राजकोष रिक्त हो गया। सैनिकों को 3-3 वर्ष तक वेतन नहीं मिल सका। इससे उनमें असन्तोष फैल गया।

(6) कृषि तथा उद्योग-धन्धे नष्ट हो जाना-

दक्षिण के युद्धों का प्रभाव कृषि तथा उद्योग-धन्धों पर विशेष रूप से पड़ा। कृषि तथा उद्योग-धन्धे नष्ट हो गए।

(7) सांस्कृतिक उन्नति न होना-

औरंगजेब ने केवल युद्धों में ही अपना ध्यान लगाया। इसका परिणाम यह हुआ कि उसके काल में किसी प्रकार की सांस्कृतिक उन्नति नहीं हुई।

(8) मुगल साम्राज्य का पतन-

औरंगजेब की दक्षिण नीति मुगल साम्राज्य के पतन का कारण सिद्ध हुई। वी. स्मिथ ने लिखा है, "दक्षिणं भारत उसकी प्रतिष्ठा तथा उसके शरीर की समाधि सिद्ध हुआ।" जदुनाथ सरकार का कथन है, "जिस प्रकार स्पेन के नासूर ने नेपोलियन का विनाश कर दिया, उसी प्रकार दक्षिण के नासूर ने औरंगजेब का विनाश कर दिया।"

जदुनाथ सरकार का कहना सही है, "ऐसा प्रतीत होता था कि औरंगजेब को दक्षिण में भारी लाभ हुआ, परन्तु वास्तव में उसे यहाँ हानि ही उठानी पड़ी। यह उसके जीवन के सबसे अधिक दुःखपूर्ण और निराशाजनक अध्याय का आरम्भ था।"

ग्राण्ट डफ ने लिखा है कि "औरंगजेब की दक्षिण अभियान में असफलता का कारण शिवाजी की चालाकी और वीरता थी। दक्षिण अभियान वास्तव में मुराल साम्राज्य के लिए, औरंगजेब के लिए नासूर बन गया था, जिसने औरंगजेब का पतन कर दिया।"

(D)औरंगजेब की असफलता के कारण -

औरंगजेब की असफलता के लिए निम्न कारण उत्तरदायी थे
(1) मराठों की राष्ट्रीय भावना- मराठों में राष्ट्रीय भावना अत्यधिक मात्रा में थी। इसलिए उन सबने मिलकर औरंगजेब का सामना किया और उसकी साम्राज्य-विस्तार की नीति को असफल कर दिया।

(2) मुगल सेना का नैतिक पतन-

मुगल सेना के नैतिक पतन एवं मुगल सेनापतियों की लापरवाही व अयोग्यता के कारण भी औरंगजेब को अपने सैन्य अभियानों में सफलता नहीं मिली।

(3) औरंगजेब की धार्मिक नीति- 

औरंगजेब की असफलता का एक कारण उसकी हिन्दू विरोधी धार्मिक नीति भी थी। उसकी धार्मिक नीति से हिन्दू उससे नाराज हो गए।

(4) औरंगजेब की दक्षिण नीति- 

औरंगजेब ने दक्षिण भारत को जीतने के लिए 26 वर्ष निरन्तर दक्षिण में व्यतीत किए, जिससे उत्तर का शासन शिथिल हो गया।

(5) औरंगजेब की राजपूतों के प्रति नीति- 

औरंगजेब की राजपूतों के प्रति नीति के कारण उसका मारवाड़ तथा मेवाड़ से संघर्ष हुआ, जिसके कारण औरंगजेब को राजपूत शासकों का सहयोग नहीं मिला।

(6) केन्द्रीभूत शासन-

औरंगजेब बड़ा ही सन्देहशील व्यक्ति था। वह किसी का विश्वास नहीं करता था। अत: उसका शासन केन्द्रीभूत हो गया, जो उसकी असफलता का कारण बना।

(7) प्रान्तीय शासकों की निरंकुशता-

 दीर्घकाल तक दक्षिण के युद्धों में व्यस्त रहने के कारण प्रान्तीय शासक व सूबेदार निरंकुश हो गए थे और उन्होंने जनता पर अत्याचार करना प्रारम्भ कर दिया। इससे जनता में विद्रोह के स्वर पनपने लगे।


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