भारत सरकार अधिनियम - 1919


MJPRU-BA-III-History I-2020
प्रश्न 12. सन् 1919 के भारत सरकार अधिनियम का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
अथवा ''भारत सरकार अधिनियम, 1919 के प्रावधानों की विवेचना कीजिए।
उत्तर - भारत सरकार अधिनियम, 1919 ब्रिटिश संसद द्वारा उठाया गया एक महत्त्वपूर्ण कदम था। इसके द्वारा लॉर्ड मॉण्टेग्यू की घोषित नीति को व्यावहारिक रूप देते हुए भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था में उल्लेखनीय सुधार किए गए। प्रो. एन. श्रीनिवासन के अनुसार, "इस अधिनियम से भारत की प्रतिनिधि संस्थाओं के विकास में एक नये युग का आरम्भ हुआ।"
भारत सरकार अधिनियम 1919

एडविन मॉण्टेग्यू ने भारत मन्त्री बनने के पश्चात् ब्रिटिश सरकार की भारत सम्बन्धी नीति के बारे में एक महत्त्वपूर्ण घोषणा की-
"ब्रिटिश सरकार की नीति, जिससे भारत सरकार पूर्ण रूप से सहमत है, यह है कि भारतीयों को शनैः शनैः प्रशासन के प्रत्येक  विभाग में अधिक संख्या में सम्मिलित किया जाए और स्वशासन सम्बन्धी सस्थाओं का क्रमिक विकास किया जाए, ताकि भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के अंग के रूप में उत्तरदायी सरकार की धीरे-धीरे स्थापना हो सके। दोनों सरकारों ने इस दिशा में यथाशीघ्र ठोस कदम उठाने का निर्णय किया है।"
लॉर्ड मॉण्टेग्यू ने यह भी स्पष्ट किया कि क्रमिक विकास के द्वारा ही इस दिशा में प्रगति की जा सकती है और तत्सम्बन्धी प्रत्येक पग का निर्णय और उसे लागू करने का समय सरकार पर निर्भर होगा। इसी आधार पर संसद ने सन् 1919 के अधिनियम को पारित किया।

अधिनियम की प्रस्तावना-

सुधारों के उद्देश्य का उल्लेख व्यापक रूप से अधिनियम की प्रस्तावना में किया गया है, जिसमें निम्नलिखित बातें समाहित हैं...
(1) ब्रिटिश भारत ब्रिटिश साम्राज्य का अखण्ड भाग रहेगा।
(2) ब्रिटिश भारत में उत्तरदायी शासन संसद की घोषित नीति का लक्ष्य है।
(3) उत्तरदायी शासन धीरे-धीरे ही दिया जा सकता है।
(4) उत्तरदायी शासन की स्थापना के लिए आवश्यक है कि प्रशासन की प्रत्येक शाखा से भारतीयों का अधिकाधिक सम्बन्ध हो और स्वशासी संस्थाओं का क्रमिक परिवर्तन हो।
भारत सरकार अधिनियम, 1919 के प्रमुख प्रावधान

(1) भारत परिषद में परिवर्तन -

 सन् 1919 के अधिनियम द्वारा भारत परिषद् के संगठन में परिवर्तन किए गए। इसमें कम-से-कम 8 और अधिक-से-अधिक 12 सदस्य सम्मिलित करने की व्यवस्था की गई। पहले यह संख्या कम-से-कम 10 और अधिक-से-अधिक 14 थी। इनमें से आधे सदस्य ऐसे होने आवश्यक थे जो नियुक्ति से पूर्व कम-से-कम 10 वर्ष भारत में नौकरी कर चुके हों या रह चुके हों। परिषद् का कार्यकाल 7 वर्ष से घटाकर 5 वर्ष कर दिया गया। उनका वेतन 1,000 पौण्ड से बढ़ाकर 1,200 पौण्ड वार्षिक कर दिया गया।


(2) भारत मन्त्री के नियन्त्रण में ढील -

अधिनियम द्वारा पूर्व व्यवस्था में परिवर्तन करके सभी बिलों के स्थान पर अब केवल कुछ महत्त्वपूर्ण विषयों; जैसेविदेश सम्बन्ध, मुद्रा, सीमा शुल्क आदि से सम्बन्धित बिलों को ही केन्द्रीय विधान परिषद् में प्रस्तुत करने से पूर्व भारत मन्त्री की स्वीकृति के लिए भेजना आवश्यक बनाया गया। भारत मन्त्री और उसके सचिवों के वेतन तथा इण्डिया ऑफिस का व्यय ब्रिटिश संसद द्वारा स्वीकृत तथा प्रदत्त धनराशि से दिया जाना निश्चित हुआ।

(3) हाई कमिश्नर की नियुक्ति-

इस अधिनियम के द्वारा भारत के लिए इंग्लैण्ड में एक हाई कमिश्नर नियुक्त करने की व्यवस्था की गई। इसकी नियुक्ति का अधिकार सपरिषद् गवर्नर-जनरल को दिया गया, परन्तु इसके लिए सपरिषद् भारत मन्त्री की स्वीकृति लेना आवश्यक बना दिया गया।

(4) गवर्नर-जनरल की शक्तियाँ अप्रभावी -

यह अधिनियम गवर्नर-जनरल की मनमानी शक्तियों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं डाल सका। वह अब भी पूर्ण निरंकुश और स्वेच्छाचारी था। उसकी शक्तियाँ असीमित ही रहीं और न ही वह भारतीय जनता के प्रति उत्तरदायी था। केवल भारत सचिव का ही उसके ऊपर वास्तविक नियन्त्रण था, जो अपनी नीतियों के लिए ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था।

(5) केन्द्रीय कार्यकारिणी में परिवर्तन-

गवर्नर-जनरल की सहायता के लिए बनी केन्द्रीय कार्यकारिणी परिषद् में भारत का प्रधान सेनापति और 6 साधारण सदस्य थे। इसमें भारतीय सदस्यों की संख्या एक से बढ़ाकर 3 कर दी गई। गवर्नर-जनरल के लिए अपनी कार्यकारिणी परिषद् की सलाह मानना अनिवार्य नहीं था।

(6) केन्द्रीय व्यवस्थापिका का पुनर्गठन -

इस अधिनियम के द्वारा केन्द्रीय व्यवस्थापिका का पुनर्गठन किया गया। इसे एक-सदनीय के स्थान द्वि-सदनीय बनाया गया। इसके ऊपरी सदन का नाम राज्य परिषद् और निम्न सदन का नाम विधानसभा रखा गया। इसका संगठन अग्रवत् था

(i) राज्य परिषद् - 

यह केन्द्रीय व्यवस्थापिका का ऊपरी सदन था। इसकी कुल सदस्य संख्या 60 थी, जिनमें 27 मनोनीत तथा 33 निर्वाचित सदस्य होते थे। इस सदन का प्रधान गवर्नर-जनरल द्वारा मनोनीत किया जाता था। राज्य परिषद् का कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित किया गया था, परन्तु गवर्नर-जनरल उसे किसी भी समय भंग कर सकता था। विशेष परिस्थितियों में वह इसकी अवधि बढ़ा भी सकता था।

(ii) विधानसभा - 

यह केन्द्रीय व्यवस्थापिका का निम्न सदन था। इसके कुल 145 सदस्यों में से 26 सरकारी, 14 मनोनीत तथा शेष 105 निर्वाचित सदस्य थे। 105 निर्वाचित सदस्यों में 53 सामान्य चुनाव क्षेत्रों से, 32 साम्प्रदायिक चुनाव क्षेत्रों से तथा शेष 20 विशेष चुनाव क्षेत्रों से चुने जाने की व्यवस्था की गई थी। इसका कार्यकाल 3 वर्ष निश्चित हुआ, परन्तु गवर्नर-जनरल उसे किसी भी समय भंग करने का अधिकार रखता था। वह इसकी अवधि बढ़ा भी सकता था। विधानसभा के प्रथम प्रधान को गवर्नर-जनरल 4 वर्ष के लिए नियुक्त करता था, उसके बाद सभा स्वयं प्रधान चुनती थी।
केन्द्रीय व्यवस्थापिका को केन्द्रीय सूची के विषयों पर कानून बनाने का , अधिकार था। उसे सम्पूर्ण ब्रिटिश भारत के लिए भी कानून बनाने का अधिकार प्राप्त था। इसके अतिरिक्त प्रचलित कानूनों को रद्द करने या उनमें संशोधन करने का भी अधिकार उसे प्राप्त था।

(7) प्रान्तों में द्वैध शासन -

प्रान्तों में दोहरी शासन व्यवस्था लागू करना इस अधिनियम की सबसे प्रमुख विशेषता थी। इस दोहरे (द्वैध) शासन के अन्तर्गत प्रान्तीय शासन के विषयों को दो वर्गों में विभक्त किया गया था। ये विषय निम्न प्रकार थे

(i) आरक्षित विषय - 

आरक्षित विषयों का प्रशासन प्रान्तीय गवर्नर अपनी कार्यकारिणी परिषद् के परामर्श के अनुसार करता था। मुख्य आरक्षित विषय पुलिस, जेल, शान्ति व्यवस्था, न्याय, भूमि और राजस्व का प्रबन्ध, सिंचाई और समाचार-पत्र आदि थे।

(ii) हस्तान्तरित विषय -

स्थानीय स्वायत्त संस्थाएँ, सार्वजनिक स्वास्थ्य व चिकित्सा, शिक्षा, कृषि आदि विषयों को हस्तान्तरित विषयों के अन्तर्गत रखा गया था। इन विषयों का प्रशासन उन मन्त्रियों के हाथों में था जिनकी नियुक्ति गवर्नर द्वारा विधानमण्डल के निर्वाचित सदस्यों में से की जाती थी। मन्त्रियों का उत्तरदायित्व विधानमण्डल के प्रति था।

(8) प्रान्तीय कार्यकारिणी में परिवर्तन - 

प्रान्तीय कार्यकारिणी में 4 से अधिक सदस्य नहीं हो सकते थे। साधारणतया पूरी संख्या के आधे सदस्य भारतीय होते थे और कार्यकारिणी के सदस्यों में से एक ऐसा अवश्य होता था जिसे नियुक्ति से पूर्व 12 वर्ष तक सरकारी नौकरी का अनुभव हो। उसकी नियुक्ति सम्राट् द्वारा 5 वर्ष की अवधि के लिए होती थी। कार्यकारिणी के सदस्य अपने पद के नाते व्यवस्थापिक सभा के सदस्य भी होते थे, परन्तु व्यवस्थापिका सभा के प्रति उनका कोई उत्तरदायित्व न था।

(9) प्रान्तीय विधान परिषदों का पुनर्गठन - 

इस अधिनियम के द्वारा प्रान्तों की विधान परिषदों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। उनकी सदस्य संख्या में वृद्धि करते हुए बड़े प्रान्तों की विधान परिषदों में अधिक-से-अधिक 140 और छोटे प्रान्तों में कम-से-कम 60 सदस्य रखने की व्यवस्था की गई। इनमें से अधिकसे-अधिक 20% सरकारी सदस्य हो सकते थे और कम-से-कम 70% का निर्वाचन होना आवश्यक था, शेष 10% गैर-सरकारी सदस्य होते थे। इस प्रकार प्रान्तीय विधान परिषदों में निर्वाचित सदस्यों के यथेष्ट बहुमत की व्यवस्था कर दी गई। इन प्रान्तीय विधान परिषदों को सभी प्रान्तीय विषयों पर कानून बनाने का अधिकार था।

(10) शक्ति विभाजन - 

इस अधिनियम के द्वारा केन्द्रीय और प्रान्तीय सरकारों के मध्य शक्ति विभाजन भी किया गया। वे विषय जो लगभग सम्पूर्ण भारत या अन्तान्तीय हितों से सम्बन्धित थे, केन्द्र के अधीन रखे गए तथा जो विषय प्रान्तीय हितों से विशेष सम्बन्ध रखते थे, प्रान्तों के अन्तर्गत रखे गए। केन्द्र के अधिकार में रक्षा, विदेशी तथा राजनीतिक सम्बन्ध, मुद्रा, डाक व तार आदि 47 विषय थे। प्रान्तीय क्षेत्र के अन्तर्गत स्थानीय स्वशासन, सार्वजनिक कार्य, शिक्षा, कृषि, चिकित्सा और जन-स्वास्थ्य आदि 51 विषय थे। अन्य बचे हुए विषय केन्द्र के अधिकार में थे।

(11) साम्प्रदायिक चुनाव प्रणाली का विस्तार - 

यधाप मॉण्ट-फोर्ड रिपोर्ट में साम्प्रदायिक निर्वाचनों को निन्दा की गई थी, परन्तु इस अधिनियम में न केवल मुसलमानों के लिए इस पद्धति को बनाए रखा गया, बरन इस पद्धति को पंजाब में सिक्खों के लिए. तीन प्रान्तों को छोड़कर शेष प्रान्तों में यूरोपियनों के लिए, दो प्रान्तों में आंग्ल-भारतीयों के लिए और एक प्रान्त में भारतीय ईसाइयों के लिए लागू कर दिया गया।

सन् 1919 के अधिनियम का आलोचनात्मक मूल्यांकन

सन् 1919 के अधिनियम का भारतीय संवैधानिक इतिहास में अत्यधिक महत्त्व है ! इसने कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए, इसी कारण कुछ इतिहासकारों ने इसे भारतीय संविधान का 'ब्लू प्रिण्ट' माना है।
श्रीनिवासन ने लिखा है, "यह नौकरशाही शासन पद्धति का प्रथम उल्लंघन और प्रतिनिध्यात्मक शासन का वास्तविक प्रारम्भ था।" परन्तु इस अधिनियम में गुणों की अपेक्षा दोष अधिक थे, इसी कारण भारतीयों द्वारा इसकी कटु आलोचना की गई।
श्रीमती ऐनी बेसेण्ट ने इसकी आलोचना करते हुए लिखा, "अंग्रेजों द्वारा अधिनियम को पारित करना व भारतीयों द्वारा स्वीकार करना, दोनों ही बातें अनुचित हैं।"

इस अधिनियम के प्रमुख दोष निम्नलिखित थे

(1) केन्द्र में उत्तरदायी शासन की स्थापना नहीं की गई थी।
(2) इस अधिनियम ने साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया।
(3) द्वैध शासन प्रणाली सिद्धान्ततः दोषपूर्ण थी। एक ही प्रान्त में दो शासन करने वाली संस्थाएँ कैसे कार्य कर सकती थीं। द्वैध शासन प्रणाली के अन्तर्गत यही किया गया था, अतः इसका असफल होना स्वाभाविक था।
(4) द्वैध शासन प्रणाली के अन्तर्गत विषयों का विभाजन भी अतार्किक एवं अव्यावहारिक था। उदाहरण के लिए, सिंचाई व कृषि का अभीष्ट सम्बन्ध है, किन्तु दोनों को अलग-अलग कर दिया गया था। मद्रास के तत्कालीन मन्त्री श्री वी. के. रेड्डी ने लिखा है, "मैं विकास मन्त्री था, किन्तु वन विभाग हमारे अधिकार में नहीं था। मैं कृषि मन्त्री था, किन्तु सिंचाई विभाग पृथक् था।"
(5) हस्तान्तरित विषयों के लिए पृथक् वित्त की व्यवस्था नहीं थी।
(6) गवर्नर को अत्यधिक शक्ति प्रदान की गई थी। गवर्नर किसी भी मन्त्री के प्रस्ताव को अस्वीकार कर सकता था।
(7) गवर्नर के पास अत्यधिक अधिकार होने के कारण नौकरशाह मन्त्रियों व उनके आदेशों की चिन्ता नहीं करते थे।
उपर्युक्त कारणों से सन् 1919 का अधिनियम भारतीयों की अपेक्षाओं को शान्त करने में असफल रहा। कूपलैण्ड ने सन् 1919 में प्रान्तों में स्थापि ध शासन प्रणाली की आलोचना करते हुए लिखा है, "द्वैध शासन अपने रचयिताओं के प्राथमिक उद्देश्य को पूरा करने में असफल रहा। यह भारतीय जनता को उत्तरदायी शासन का वास्तविक प्रशिक्षण प्रदान न कर सका।"




Comments

  1. मेरे पास कुँजी नही था हिस्ट्री-3 का प्रश्नों का आंसर ढूंढ रहा था गूगल में आप के साइट तक पहुच गया उसके बाद कही जाने की जरूरत ही नही पड़ी, सभी प्रश्नों का अंसार आपके पेज में मिल गया । धन्यवाद

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