दिल्ली सल्तनत की शासन व्यवस्था
प्रश्न
14. सल्तनतकालीन
केन्द्रीय तथा प्रान्तीय शासन व्यवस्था का वर्णन कीजिए।
अथवा '' दिल्ली सल्तनत की शासन व्यवस्था का वर्णन कीजिए।
उत्तर- मुस्लिम राजनीतिक विचारोंका आधार कुरान, हदीस तथा इज्मा है। सल्तनत काल में इन विचारों के आधार पर ही राज्यों का गठन हुआ। अल्लाह की शिक्षाएँ तथा आदेश 'कुरान' में संगृहीत हैं। मुस्लिम विद्वानों के अनुसार ये शिक्षाएँ सार्वभौमिक तथा सार्वकालिक हैं। इनमें सामाजिक तथा राजनीतिक संगठन की रूपरेखा प्रस्तुत की गई है, जिसे राज्य के आधारभूत सिद्धान्त माना जा सकता है।
जैसे-मुसलमानों की एकता बनाए रखना, परस्पर परामर्श करना आदि। दूसरा स्थान 'हदीस' का है। इसमें पैगम्बर मुहम्मद साहब
द्वारा प्रमाणित कार्यों तथा कथनों का विवरण दिया गया है। इसके आधार पर मुस्लिम
राज्य के प्रशासन का स्वरूप निश्चित हुआ। इस्लामी कानून 'कुरान'
और 'हदीस' पर
आधारित है। मुस्लिम साम्राज्य का विस्तार खलीफाओं के काल में हुआ और प्रशासकों के
समक्ष अनेक व्यावहारिक कठिनाइयाँ आईं। अतः कुरान और हदीस के आधार पर इन विभिन्न
समस्याओं
का समाधान करने हेतु प्रयास किए गए। दिल्ली सल्तनत की राजसत्ता
निम्नलिखित सिद्धान्तों पर आधारित थी - (1)
धर्म प्रधान राज्य, (2) आज्ञापालन पर बल,
(3) मुस्लिम समाज के लिए एक सम्राट्, (4) उलेमाओं
की प्रधानता, (5) राज्य की आय पर साम्राज्य का प्रभुत्व,
तथा (6) निर्वाचन पद्धति की व्यवस्था।केन्द्रीय शासन
सुल्तान - सुल्तान
दिल्ली सल्तनत का प्रमुख था। वह
राज्य की समस्त शक्तियों का स्रोत था। वह सेना का सर्वोच्च सेनापति होता था। वह
प्रशासन का प्रमुख था। प्रशासन का संचालन करना तथा अधिकारियों को नियुक्त करना
उसका कार्य था। वह न्याय विभाग का सर्वोच्च अधिकारी था और मुस्लिम विधिवेत्ताओं की
सहायता से निर्णय करता था। उसकी सत्ता निरंकुश थी। यद्यपि सैद्धान्तिक रूप से वह
शरीयत के अनुसार उलेमा की व्याख्याओं तथा परामर्श के
अनुसार शासन करता था, लेकिन व्यवहार में उस पर कोई अंकुश नहीं था। प्रायः
दिल्ली के सुल्तानों ने अपनी सत्ता को निरंकुश रखा और यदि उन्होंने इस्लाम के
प्रावधानों का कहीं उपयोग भी किया, तो अपनी शक्ति के
संवर्द्धन हेतु किया। अमीर वर्ग भी उसकी सत्ता में निरंकुश नहीं था। सल्तनतकालीन
अमीर वर्ग प्रायः सुल्तानों के नियन्त्रण में रहा और विद्रोही अमीरों को सुल्तानों
ने कठोर दण्ड दिया। लेकिन सुल्तान इस निरंकुश सत्ता का प्रयोग तभी कर सकता था जब
वह योग्य, दृढ़ और शक्तिसम्पन्न हो। अत: केवल योग्य व्यक्ति
ही सिंहासन पर रह सकते थे।
सुल्तान के अधिकार तथा कर्त्तव्य
सुल्तान
शरह (कुरान के नियम)
के अनुसार कार्य करता था। वह शरह के नियमों के विरुद्ध कार्य नहीं कर सकता था।
मुस्लिम शासनकाल में सुल्तान को ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता था। अतः प्रजा की
भलाई करने के साथ-साथ वह इस्लाम की रक्षा हेतु भी नियम बनाता था। वही अराजकता, विद्रोह तथा अत्याचार से प्रजा की रक्षा भी करता था।
यद्यपि सुहम्मद-बिन-तुगलक ने ऐसा नहीं किया और कई अवसरों पर शरह का विरोध किया,
परन्तु दिल्ली सल्तनत के अधिकांश सुल्तानों ने इन नियमों का पालन
किया। इस्लाम के अनुसार सुल्तान के प्रमुख कर्त्तव्य थे-
धर्म
की रक्षा करना,
राज्य की रक्षा करना,
प्रजा
में शान्ति स्थापित करना,
दण्ड
की व्यवस्था करना,
यातायात
के साधनों की व्यवस्था करना,
काफिरों
से (जो कि मुसलमान न हों) युद्ध करना,
कर
वसूल करना,
कर्मचारियों
की नियुक्ति करना ,आदि।
उत्तराधिकार का नियम-
इस्लामी
विधि के अनुसार सुल्तान का निर्वाचन होना आवश्यक था। इस निर्वाचन का अधिकार
सैद्धान्तिक रूप से सम्पूर्ण मुस्लिम समाज (मिल्लत) को था, किन्तु व्यावहारिक रूप से यह असम्भव था। अत: यह
निर्वाचन कुछ व्यक्तियों तक और अन्त में एक व्यक्ति तक सीमित रह गया। सुल्तान अपनी
मृत्यु के समय अपने उत्तराधिकारी को मनोनीत करते थे। इस प्रकार निर्वाचन के साथ
मनोनयन के भी उदाहरण पाए जाते हैं। बलबन और अलाउद्दीन खिलजी के उदाहरण केवल शक्ति
के सिद्धान्त को स्थापित करते हैं। उन्होंने सिंहासन पर अपनी शक्ति से अधिकार किया
था और अमीरों ने उसे स्वीकार कर लिया था। इसी प्रकार रजिया का उदाहरण पूर्ण रूप से
पृथक् है। यद्यपि सैद्धान्तिक रूप से स्त्री को सिंहासन पर बैठने का अधिकार नहीं
था, फिर भी इल्तुतमिश द्वारा उसको मनोनीत करना तथा रजिया
द्वारा सिंहासन ग्रहण करना, यह प्रमाणित करता है कि व्यवहार
में मुस्लिम स्त्री सिंहासन पर बैठ सकती है।
खलीफा -
दिल्ली
के सुल्तानों ने ऐसा प्रदर्शित किया कि मानो वे खलीफा को अपना वैधानिक शासक मानते
थे। इस्लामी विधि के अनुसार समस्त मुसलमानों का शासक खलीफा था और दिल्ली सल्तनत
खिलाफत का एक भाग थी। इल्तुतमिश पहला सुल्तान था जिसने खलीफा की औपचारिक स्वीकृति
प्राप्त की थी। सुल्तानों ने खुतवा में खलीफा का नाम रखा और सिक्कों पर भी उसका
नाम अंकित करवाया। उन्होंने खलीफा के प्रति अधीनता प्रदर्शित करने वाली उपाधियाँ
भी धारण की। लेकिन खलीफा को सल्तनत में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं था और
सुल्तान की सत्ता पूर्ण रूप से निरंकुश थी। यह प्रदर्शन केवल एक संवैधानिक
आवश्यकता मात्र था। जब बाबर सिंहासन पर बैठा, तब उसने 'बादशाह' की उपाधि
धारण की और इस संवैधानिक आवश्यकता की पूर्ण उपेक्षा कर दी।
मन्त्रिमण्डल
केन्द्रीय
प्रशासन में सत्ता का केन्द्र सुल्तान था और उसका व्यक्तित्व ही निर्णायक तत्त्व
था। लेकिन प्रशासन के संचालन के लिए तथा सुल्तान को परामर्श देने के लिए
मन्त्रियों की नियुक्ति की जाती थी। इन मन्त्रियों की नियुक्ति सुल्तान करता था और
उसकी इच्छा तक ये कार्य करते थे। उनका मुख्य कार्य सुल्तान के आदेशानुसार प्रशासन
का संचालन करना होता था। वे सुल्तान को परामर्श दे सकते थे, जिसे स्वीकार करना या न करना सुल्तान की इच्छा पर
निर्भर करता था। इन मन्त्रियों की सत्ता व्यक्तिगत थी, सामूहिक
नहीं। अर्थात् उस काल में मन्त्रिपरिषद् जैसी कोई संस्था नहीं थी। उनके निर्णय
व्यक्तिगत होते थे और व्यक्तिगत रूप में ही सुल्तान के आदेशों का पालन करते थे।
सुल्तान के मन्त्रिमण्डल में निम्नलिखित प्रमुख अधिकारी थे
(1)
नायब-
साधारणतया निर्बल, अयोग्य
और नवयुवक शासकों के समय में नायब के पद पर किसी कुशल सैनिक अथवा प्रभावशाली अमीर
को नियुक्त किया जाता था। सुल्तान के समस्त अधिकारों को नायब सुल्तान के नाम से
प्रयोग करता था और शासन के सभी विभागों तथा अंगों का निरीक्षण करता था।
(2) वजीर- वजीर का पद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था। यथार्थ में प्रधानमन्त्री को ही वजीर कहा जाता था। यह वित्त विभाग को सँभालता था। यह विभाग 'दीवानए-विजारत' के नाम से प्रसिद्ध था। यह सुल्तान के उपरान्त सबसे प्रभावशाली व्यक्ति था। वजीर के अधीन अनेक कर्मचारी होते थे, जिनमें निम्नलिखित तीन को विशेष महत्त्व प्राप्त था- (i) नायब वजीर, (ii) मुशरिफ-ए-मुमालिक,तथा (iii) मुस्तौफी-ए-मुमालिक।
(3) दीवान-ए-इंशा- इस पद पर नियुक्त व्यक्ति आलेख विभाग का अध्यक्ष होता था। सुल्तान के फरमान इसी विभाग द्वारा जारी किए जाते थे और उच्च स्तरीय पत्र-व्यवहार के लिए भी वही उत्तरदायी होता था।
(4) आरिज-ए-मुमालिक - यह व्यक्ति सेना सम्बन्धी सभी कार्यों के लिए उत्तरदायी था। इस विभाग को 'दीवान-ए-अर्ज' कहा जाता था।
(5) सद्र-उस-सुदूर - यह मन्त्री धार्मिक कार्यों के लिए उत्तरदायी होता था तथा राजकीय दान विभाग का अध्यक्ष भी यही होता था। यह विभाग 'जकात' नामक कर से प्राप्त होने वाले धन को केवल मुस्लिम जनता पर व्यय करता था।
(6) काजी-उल-कुजात - प्रायः 'सद्र-उस-सुदूर' ही इस पर कार्य करता था और वह न्याय विभाग का अध्यक्ष होता था।
(7) मजलिस-ए-खलवत - उपर्युक्त मन्त्रियों के अतिरिक्त सुल्तान को परामर्श देने के लिए परामर्शदाताओं की विशाल संख्या होती थी और इसे ही 'मजलिस-ए-खलवत' कहते थे। सुल्तान के कुछ व्यक्तिगत मन्त्री, विश्वसनीय पदाधिकारी तथा प्रमुख उलेमा ही इसके सदस्य होते थे।
(8) खरीद-ए-मुमालिक - यह मन्त्री सूचना तथा गुप्तचर विभागों का अध्यक्ष होता था तथा डाक चौकियों आदि का भी प्रबन्ध करता था।
(9) शाही प्रबन्धक - यह मन्त्री सुल्तान के गृह विभाग का अध्यक्ष होता था। इसका शासन पर पर्याप्त प्रभाव होता था।
सैन्य संगठन-
दिल्ली के सुल्तानों ने
सीमा सुरक्षा, विद्रोहों
एवं राज्य की रक्षा के लिए एक शक्तिशाली सेना का गठन किया था। सैनिक व्यवस्था के
लिए दीवान-ए-अर्ज' विभाग की स्थापना की गई थी, जिसका
प्रधान 'आरिज-ए'मुमालिक'
होता था। सेना में कई प्रकार के सैनिक रखे जाते थे। प्रथम प्रकार के
सैनिक सुल्तान के सैनिक कहलाते थे। ये सैनिक केन्द्रीय सरकार से सम्बन्धित थे। दूसरे
प्रकार के सैनिक प्रान्तीय गवर्नरों के अधीन थे। इनकी नियुक्ति गवर्नर या अमीर
करते थे। ये सैनिक अमीर, सूबेदार अथवा गवर्नर के प्रति
उत्तरदायी होते थे तथा सुल्तान की आज्ञा पर युद्ध क्षेत्र में जाया करते थे। अन्य
प्रकार के सैनिक हिन्दुओं के विरुद्ध युद्ध में भाग लेने जाते थे। ये लोग धर्म
युद्ध में भाग लेते थे। सेना के लिए घोड़े अरब तथा तुर्किस्तान से मँगाए जाते थे।
घोड़ों को दागने की व्यवस्था भी की गई थी। सेना में हाथी तथा पैदल सैनिक भी होते
थे। पैदल सैनिक 'पायक' कहलाते
थे। ये लोग बर्थी तथा तलवारों से युद्ध करते थे। अलाउद्दीन खिलजी के समय से
तोपखाने का भी प्रयोग होने लगा। राज्य की ओर से अनेक दुर्ग भी बनाए गए थे। इन
दुर्गों में सेनाएँ रहती थीं तथा अस्त्र-शस्त्र एवं सैनिकों की आवश्यकता का अन्य
सामान भी एकत्रित रहता था। सेना में इंजीनियर तथा कारीगर भी होते थे, जो युद्धकाल में सेना की सहायता करते थे। प्रत्येक सेना के साथ एक 'बरीद-ए-लश्कर' होता था, जो
सभी घटनाओं की सूचना राजधानी में भेजता था।
न्याय विभाग-
सल्तनत
काल में सुल्तान न्याय विभाग का सर्वोच्च अधिकारी होता था। वह राज्य का रक्षक माना
जाता था तथा काजियों के द्वारा किए गए फैसलों के विरुद्ध अपील सुनता था। उसके
सामने नये मुकदमे भी प्रस्तुत होते थे। विद्रोहियों के मुकदमों का फैसला या तो
स्वयं सुल्तान करता था अथवा उसके सेनापति सैनिक अदालतों में उनके मुकदमों का
निर्णय करते थे। मुहम्मद तुगलक ने विद्रोहियों के मुकदमे के लिए एक अलग अदालत खोली
श्री, क्योंकि उसके समय
में आए दिन विद्रोह होते रहते थे। यह 'दीवान-ए-सियासत'
कहलाती थी। प्रान्तीय शासकों को मृत्युदण्ड देने का अधिकार नहीं था।
अतः वे ऐसे बन्दियों को राजधानी भेज देते थे। सबसे पहले मुकदमा 'हजीब' के पास जाता था। यदि निर्णय सन्तोषजनक न हो,
तो मुकदमा काजी-ए-मुमालिक' की अदालत में पेश
होता था और सबसे बाद में सुल्तान स्वयं उसकी सुनवाई करता था। जब सुल्तान मुकदमा
सुनता था, तब 'काजी-ए--मुमालिक'
कानूनी सलाह के लिए सुल्तान के निकट बैठता था। दीवानी मामलों में
पेशी 'दीवान-ए-कजा' में होती थी। 'काजी-ए-मुमालिक' इसका भी प्रधान होता था। जेलों की
उचित व्यवस्था नहीं थी और अधिकांशतः पुराने किलों को ही जेल बनाया जाता था। जेलों
का प्रबन्ध भी उचित रीति से नहीं होता था और उसमें बहुत अधिक व्यभिचार व्याप्त था।
राज्य की आय के साधन
राज्य की आय के लिए दो प्रकार के साधन थेधार्मिक
और मौलिक। धार्मिक कर 'जकात' कहलाता था। जकात जायदाद का 40वाँ भाग होता था। धार्मिक करों के अतिरिक्त भूमि कर तथा अन्य कर भी लगाए
जाते थे; जैसे—खराज, जजिया, चुंगी आदि। जजिया
सरकारी आय का प्रमुख स्रोत था। जजिया हिन्दुओं से वसूल किया जाता था, क्योंकि वे सैनिक सेवा से मुक्त थे। ब्राह्मणों से जजिया कर नहीं लिया
जाता था। परन्तु फिरोज तुगलक ने उन पर भी जजिया कर लगाया। बाहर से आने वाले माल पर
चुंगी लगाई जाती थी, इससे राज्य को अच्छी आय प्राप्त होती थी।
लूट के माल से राज्य को 1/5 भाग मिलता था। परन्तु मुहम्मद
तुगलक ने राज्य का भाग 4/5 तथा सैनिकों का भाग 1/5 कर दिया था। उसके बाद फिर से पहले की प्रथा प्रचलित हो गई। राज्य की आय का
प्रमुख साधन भूमि कर था। यह अनाज तथा नकद, दोनों रूपों में
वसूल किया जाता था। मुसलमानों को उपज का 1/10 भाग तथा
हिन्दुओं को 1/5 भाग कर के रूप में देना पड़ता था। सिंचाई का
कर अलग देना पड़ता था। इन सबके अतिरिक्त सुल्तानों को उपहारों तथा भेंटों के रूप
में भी बहुत-सा धन प्राप्त होता था।
प्रान्तीय शासन
सल्तनत के प्रारम्भिक काल में प्रान्तों का
स्वरूप निश्चित नहीं था। अविजित या अर्द्ध-विजित क्षेत्रों को अमीरों में बाँट
दिया जाता था और इन अमीरों का कार्य उन क्षेत्रों को जीतकर उन पर नियन्त्रण
स्थापित करना था। इन क्षेत्रों को 'इक्ता' और इन अमीरों को 'मुक्ती' कहा जाता था। प्रान्तों का प्रारम्भिक रूप यही था। ये इक्ता बराबर नहीं होते थे। बाद में इस स्थिति में परिवर्तन हुआ और सल्तनत में स्थायित्व आने लगा। तब सुल्तान स्वयं नवीन क्षेत्रों को जीतते थे और विजित प्रदेशों को क्षेत्रों में विभाजित करके उन पर अमीरों को नियुक्त करते थे। सुल्तान इन अमीरों का एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में स्थानान्तरण भी करते थे। प्रान्तों के सूबेदारों को 'वली' या 'नाजिम' कहा जाता था। तुगलक काल में साम्राज्य का क्षेत्र कम हो जाने से इक्तों या प्रान्तों कीसंख्या भी कम हो गई थी। इस प्रकार सल्तनत काल में प्रान्तों की संख्या घटती-बढ़ती रही। प्रान्त का सूबेदार अपने प्रान्त में सुल्तान के समान सभी शक्तियों का केन्द्र होता था। प्रान्तीय शासन भी केन्द्रीय शासन का प्रतिरूप होता था। वे अपनी सेनाओं के सेनापति होते थे तथा अपने प्रान्त में राजस्व संग्रह करना और न्याय सम्पादन करना भी उनका उत्तरदायित्व होता था। वे अपने अधीन कर्मचारियों को नियुक्त करते थे। सुल्तान विश्वस्त अमीरों को ही सूबेदार नियुक्त करता था। इन प्रान्तपतियों पर शक्तिशाली सुल्तान ही नियन्त्रण रखने में सफल हो सकते थे। दुर्बल सुल्तानों के शासनकाल में प्रान्तीय सूबेदार स्वतन्त्र होने का प्रयास करते थे। यह सैनिक सूबेदार प्रणाली जागीरदारी प्रथा पर आधारित थी और यह सल्तनत प्रशासन की दुर्बलता थी। प्रान्तों में 'साहिब-ए-दीवान' राजस्व विभाग का प्रमुख होता था, जो सूबेदार से स्वतन्त्र होता था तथा जिसकी नियुक्ति वजीर की अनुशंसा पर सुल्तान करता था। उसके सहायक दो अधिकारी मुतारीफ और कारकुन होते थे। अन्य प्रान्तीय अधिकारियों में नाजिर, वाकुफ, प्रान्तीय आरिज और काजी होते थे।
मूल्यांकन-
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि दिल्ली सल्तनत का राजनीतिक संगठन उत्तम था। स्वयं सुल्तान के राजपरिवार का संगठन ही राज्य की रक्षा के लिए पर्याप्त था। सुल्तान राजपरिवार के पदाधिकारियों द्वारा अमीरों पर पूर्ण नियन्त्रण रखता था। इसके अतिरिक्त सल्तनत काल के अन्य विभाग भी अपनाअपना कार्य सफलतापूर्वक करते थे। पुलिस आदि का अच्छा प्रबन्ध था। अतः यह कहा जा सकता है कि सल्तनतकालीन प्रशासन उच्च कोटि का था। इसीलिए इस युग में देश की पर्याप्त सांस्कृतिक उन्नति हुई। शासन धर्म से प्रभावित था, इस कारण कुछ शासकों ने हिन्दुओं पर अत्याचार किए।
Comments
Post a Comment