मुगलो के शासन मे मुख्य अधिकारी
MJPRU-B.A-II-History I / 2020
प्रश्न 17. मुगल राज्य प्रणाली
एवं शासन प्रबन्ध के स्वरूप की विवेचना कीजिए।
अथवा ''मुगलों
के शासन प्रबन्ध का विस्तृत वर्णन कीजिए।
अथवा ''मुगलों के केन्द्रीय
तथा प्रान्तीय शासन प्रबन्ध की व्याख्या कीजिए।
उत्तर- (1) मुगलों की केन्द्रीय शासन व्यवस्था
मुगलों की केन्द्रीय शासन व्यवस्था निम्न प्रकार
थी
(1) सम्राट् -
सम्राट् शासन का
केन्द्र था और शासन की समस्तं सत्ता पूर्णतया उसमें केन्द्रित थी। उसकी शक्ति
असीमित थी, उस पर किसी संस्था.
का कोई नियन्त्रण नहीं था। एक दृष्टि से उसकी शक्ति असीमित थी, किन्तु उनके आदेश दूरस्थ प्रदेशों में पूर्णतया
माननीय नहीं होते थे। पहाड़ी प्रदेशों में उनकी सत्ता नहीं मानी जाती थी। मुगल सम्राट् स्वेच्छाचारी तथा
निरंकुश शासक थे। किन्तु प्रथम छ: मुगल सम्राटों ने एक अन्यायी तथा अत्याचारी
तानाशाह के रूप में शासन नहीं किया और न उन्होंने जनता के अधिकारों का दमन किया।
इन सम्राटों में स्वेच्छाचारी उदार शासकों की प्रवृत्ति पर्याप्त मात्रा में
विद्यमान थी, जैसा कि इस समय
यूरोप के शासकों में पाई जाती थी। उनके समान ही इन्होंने जनता की स्थिति उन्नत
करने की ओर भी पर्याप्त ध्यान दिया, यद्यपि यह केवल राजधानी या प्रान्तीय राजधानियों तक ही सीमित रही। मुल्ला और
मौलवियों पर भी इनका पूर्ण नियन्त्रण था। वे किसी अन्य शक्ति के आधिपत्य में नहीं
थे, अतः ये पूर्ण प्रभुतासम्पन्न सम्राट् थे। इनके
ऊपर केवल विद्रोह की आशंका ही एक प्रतिबन्ध थी। ये अपने आपको ईश्वर का प्रतिनिधि
या उसकी छाया के रूप में मानते थे, जिसके कारण धर्म पर भी उनका अधिकार था। साम्राज्य का प्रधान होने के साथसाथ वह
सेना का भी प्रधान सेनापति तथा न्याय व्यवस्था का प्रधान उद्गम स्रोत भी था। इस
प्रकार समस्त शासन पर उसका अधिकार था। मुगल बादशाहों को दोनों कर्तव्यों का पालन
करना पड़ता था। एक तो राजा के समान उनको अपने राज्य की समस्त जनता का शासन करना
पड़ता था, दूसरे सम्प्रदाय
विशेष तथा धर्म के प्रतिनिधि तथा धर्म के रक्षक के रूप में कार्य करना पड़ता था।(2) मन्त्रिपरिषद्-
मुगल शासन में
मन्त्रिपरिषद् की भी व्यवस्था थी, किन्तु वह आजकल की मन्त्रिपरिषद् के समान नहीं थी। प्रधानमन्त्री का पद अन्य
मन्त्रियों की अपेक्षा ऊँचा था। प्राय: सम्राट् गम्भीर प्रश्नों पर उससे परामर्श
लिया करता-था, किन्तु उसकी बात
मानना या न मानना सम्राट की निजी इच्छा पर निर्भर था। अन्य मन्त्रियों का पद
प्रधानमन्त्री से छोटा होता था। वास्तव में अन्य मन्त्री सचिव थे, जिनके अधिकार में एक विभाग होता था।
प्रधानमन्त्री उनके कार्यों का पुनरावलोकन कर सकता था। यह परिषद् राज्य नीति का
निर्धारण नहीं करती थी। इसका प्रमुख कार्य सम्राट को सलाह देना था। वे उसी के
प्रति उत्तरदायी थे। वे उस समय तक ही अपने पदों पर आसीन रहते थे जब तक कि वे उसके कृपापात्र - थे।
वास्तव में योग्य प्रतिभाशाली सम्राट् स्वयं अपने प्रधानमन्त्री थे और वे हीराज्य
की नीति का निर्धारण करते थे।
(3) शासन के विभिन्न विभाग –
बाबर से अकबर तक
शासन व्यवस्था के चार विभाग थे। औरंगजेब के शासनकाल में इनकी संख्या 6 कर दी गई और बाद में इनकी संख्या 8 निश्चित की गई। ये विभाग इस प्रकार थे
(i) दीवान या प्रधानमन्त्री -
राजकीय
सेवाओं में दीवान का पद सबसे श्रेष्ठ था। इसके अधिकार में कोष विभाग रहता था। साधारणतया
यह नागरिक अफसर होता था और इसको बहुत कम सैनिक कार्य दिया जाता था। वह सम्राट तथा
अन्य मन्त्रियों के मध्य मध्यस्थ का कार्य करता था। सम्राट् की अनुपस्थिति में वह
उसकी जगह कार्य करता था। समस्त आय-व्यय सम्बन्धी पत्र तथा युद्ध सम्बन्धी पत्र उसके पास आते थे। उसको सभी प्रकार के व्यय
करने की आज्ञा प्रदान करने का अधिकार था। साधारणतया सम्राट् उससे मन्त्रणा किया
करता था। अयोग्य शासकों के काल में उसका पद बड़ा महत्त्वपूर्ण हो जाता था और शासन
का समस्त भार उसके ऊपर ही रहता था। उसकी सहायता के लिए उसके नीचे दो पदाधिकारी
होते थे, जिनमें एक 'दीवान-ए-खास' और दूसरा 'दीवान-ए-आम' कहलाता था।
(ii) खान-ए-सामान अथवा मीर-ए-सामान -
खान-ए-सामान अथवा मीर-ए-सामान के अधीन राजकीय गृह व्यवस्था विभाग था। उसका सम्बन्ध
सम्राट की घरेलू वस्तुओं से था। सम्राट् के समस्त नौकर आदि इसके नियन्त्रण में थे।
वह सदा सम्राट के पास रहता था और उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करता रहता था। वह
सम्राट् के दैनिक जीवन आदि का परीक्षण भी करता था।
(ii) मीर बख्शी-
मीर बख्शी के अधीन
सैनिकों का वेतन तथा आय-व्यय विभाग था। वह मनसबों की नियुक्ति करता था और उनके
वेतन का निरीक्षण कर उसका वितरण करता था। वह सेना में सिपाहियों की भर्ती करता था।
उसके पास एक रजिस्टर होता था, जिसमें मनसबदारों के अधीन रहने वाले सैनिकों की संख्या लिखी जाती थी।
(iv) काजीउल-
कुजात (प्रधान
काजी) काजीउल-कुजात न्याय विभाग का प्रधान होता था। वह प्रधान काजी (न्यायाधीश) था
और उसका न्यायालय सबसे बड़ा न्यायालय था। वह प्रत्येक बुधवार को कचहरी लगाता था।
उसका अन्य काजियों पर नियन्त्रण रहता था। वह उनकी नियुक्ति भी करता था। उसे उन्हें
पद से निवृत्त करने का भी अधिकार था। वह मुस्लिम कानून (शरीयत) के अनुसार निर्णय करता
था। उसके अधीन बहुत-से काजी होते थे, जिनके निर्णय के विरुद्ध की गई अपीलों को वह सुना करता था। प्रत्येक प्रान्त, जिले तथा नगरों में काजी मुकदमे सुनते थे। वे
अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते थे। उनके अधिकार विस्तृत थे। उस समय न्याय विभाग
में पर्याप्त भ्रष्टाचार था।
(v) सद्र-उस-सद्र -
सद्र-उस-सद्र के अधीन धार्मिक धन सम्बन्धी निर्धारण तथा दातव्य विभाग था। उसका
प्रमुख कार्य योग्य धार्मिक व्यक्तियों व संस्थाओं में धन का वितरण करना था। वह
मुल्लाओं आदि को जागीर दिया करता था। प्रत्येक प्रान्त में एक सद्र होता था, जिसकी नियुक्ति सद्र-उस--सद्र किया करता था। यह
पद बड़ा लाभदायक था और ये लोग मालामाल रहते थे।
(vi) मुहतसिब-
मुहतसिब के अधीन
जनता का सदाचार निरीक्षण विभाग था। वह मुस्लिम कानून के अनुसार जनता के सदाचार को
उन्नत करता था और उनके दोषों को दूर करने की ओर उनका ध्यान आकर्षित करता था। वह उन
मुसलमानों को दण्ड देता था जो इस्लाम के विरुद्ध विचार रखते थे या पैगम्बर में
अविश्वास रखते थे और पाँच वक्त की नमाज नहीं पढ़ते थे या रोजे नहीं रखते थे। औरंगजेब के शासनकाल में इसका प्रमुख कार्य
हिन्दुओं के मन्दिरों को तुड़वाना था।
(vii) मीर-ए-आतिश -
मीर-ए-आतिश
के अधीन तोपखाना विभाग था और इस विभाग को सुचारु रूप से चलाने का उत्तरदायित्व उस
पर ही था। उसके अधिकार में समस्त तोपें और बन्दूकें रहती थीं।
(viii) दरोगा-ए-डाक -
चौकी
डाक चौकी के दरोगा के अधीन समाचार तथा डाक विभाग था। इसके अधिकार में समाचार लेखक, गुप्तचर और संवादवाहक होते थे। इनकी नियुक्ति
समस्त राज्य में की जाती थी। डाक तथा सूचना ले जाने के लिए डाक चौकी पर घोड़े रहते
थे। इसके द्वारा ही सम्राट् को सम्पूर्ण साम्राज्य की सूचना प्राप्त होती रहती थी।
(II) मुगलों की प्रान्तीय शासन व्यवस्था
मुगलों की प्रान्तीय शासन व्यवस्था इस प्रकार थी
(1) प्रान्त -
साम्राज्य
की उचित शासन व्यवस्था के लिए मुगलों ने समस्त साम्राज्य को प्रान्तों में विभाजित
कर दिया था, अन्यथा इतने विस्तृत
साम्राज्य पर शासन करना सर्वथा असम्भव था। जागीरदारी प्रथा का अन्त करने के
उपरान्त अकबर का समस्त साम्राज्य 15 सूबों (प्रान्तों) में विभक्त था। जहाँगीर के समय, में समस्त साम्राज्य 17 सूबों (प्रान्तों) में, शाहजहाँ के समय में 22 सूबों (प्रान्तों) में और औरंगजेब के समय में 21 सूबों (प्रान्तों) में विभक्त था। प्रान्त में
निम्न पदाधिकारी होते थे
(i) सूबेदार–
प्रत्येक प्रान्त का मुख्य पदाधिकारी सूबेदार
कहलाता था। अकबर के समय में उसे 'सिपहसालार' के नाम से सम्बोधित
किया जाता था, किन्तु उसके उत्तराधिकारियों
के समय में वह 'सूबेदार' कहलाता था। इसकी. नियुक्ति स्वयं सम्राट् करता
था। अधिकांशत: इस पद पर राजपरिवार के सदस्य या उससे सम्बन्धित व्यक्तियों की
नियुक्ति की जाती थी या योग्य सेनापति नियुक्त किए जाते थे। इसका प्रमुख कारण यह
था कि यह पद बहुत महत्त्वपूर्ण तथा गौरवमय समझा जाता था। वह अपने समस्त कार्यों के
लिए सम्राट के प्रति उत्तरदायी था। वह प्रान्तीय शासन का प्रधान होने के साथ-साथ
प्रान्त की सेना का सेनापति भी था। उसे सम्राट् की स्वीकृति प्राप्त किए बिना
युद्ध करने या बन्द करने व सन्धि करने का अधिकार भी प्राप्त था। वह काजी तथा मीर
आदिल के निर्णयों के विरुद्ध अपील सुनता था। उसके ऊपर प्रान्त की शान्ति एवं
सुव्यवस्था का पूर्ण उत्तरदायित्व था। वह समस्त विभाग के कर्मचारियों की मालगुजारी
एकत्रित करने में सहायता प्रदान करता था। उसे प्रान्त की समस्त महत्त्वपूर्ण
सूचनाओं से सम्राट् को समय-समय पर अवगत कराना पड़ता था। उसे धार्मिक क्षेत्र में कोई अधिकार प्राप्त नहीं था। उसे
विद्रोही जमींदारों का भी दमन करना पड़ता था।
(ii) दीवान-
प्रान्त का दूसरा
महत्त्वपूर्ण अधिकारी दीवान था। वह सूबेदार का प्रतिद्वन्द्वी था। ये दोनों
एक-दूसरे को ईर्ष्या की दृष्टि से देखते थे और दोनों । एक-दूसरे के कार्यों को
आलोचनात्मक तथा सन्देहात्मक दृष्टि से देखते थे। उसकी नियुक्ति केन्द्र सरकार
द्वारा होती थी और वह केवल उसके प्रति ही उत्तरदायी था। उसका प्रमुख कार्य प्रान्त
में राजस्व की उचित व्यवस्था करना था। सूबेदार और दीवान में किसी विषय पर मतभेद
होने की स्थिति में उसका निर्णय केन्द्र सरकार द्वारा किया जाता था। उसे कृषि की
उन्नति के लिए प्रयत्न करना पड़ता था। लगान सम्बन्धी मुकदमों का निर्णय भी वही
करता था।
(iii) सद्र-
प्रान्त का तीसरा
पदाधिकारी सद्र कहलाता था। इसकी नियुक्ति केन्द्र सरकार द्वारा की जाती थी। इस पद
पर उच्च कोटि के विद्वान् तथा उच्च कोटि का आचरण करने वाले व्यक्ति की ही नियुक्ति
की जाती थी। उसके अधीन अनेक मीर आदिल कार्य करते थे।
(iv) आमिल-
प्रान्त का चौथा
पदाधिकारी आमिल कहलाता था। इसकी नियुक्ति केन्द्र सरकार द्वारा होती थी। उसे
प्रान्त में शान्तिं व्यवस्था बनाए रखनी पड़ती थी तथा चोरों-डाकुओं का दमन करना
पड़ता था।
(v) बख्शी -
प्रान्त
का पाँचवाँ पदाधिकारी बख्शी कहलाता था, जिसकी . नियुक्ति केन्द्रीय शासन द्वारा की जाती थी। उसका प्रमुख कार्य सेना
में भर्ती करना, सेना की उचित
व्यवस्था, सैनिक संगठन आदि
करना होता था।
(vi) वाकिया-ए-नवीस-
यह सूबे के गुप्तचर
विभांग का प्रधान था। यह केन्द्र सरकार को सूबेदार व दीवान के कार्यों की सूचना
भेजता था।
(vii) कोतवाल-
सूबे की राजधानी तथा
बड़े नगरों में शान्ति, सुरक्षा, स्वच्छता और यात्रियों की देखभाल कोतवाल करता
था। यह एक सैनिक अधिकारी था तथा उसकी अधीनता में पर्याप्त सैनिक रहते थे।
(2) सरकार या जिला-
प्रत्येक प्रान्त
सरकारों (जिलों) में विभाजित था। सरकार का सबसे बड़ा पदाधिकारी फौजदार कहलाता था।
यह सरकार के सम्राट के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता था, किन्तु उसे सूबेदार के अनुशासन में रहकर उसके
आदेशों के अनुसार कार्य करना पड़ता था। उसकी नियुक्ति स्वयं सम्राट करता था। यह
उच्च कोटि का मनसबदार होता था। उसका प्रमुख कार्य जिले में शान्ति तथा व्यवस्था की
स्थापना करना था। यह जनता, जमींदारों आदि से सीधा सम्पर्क बनाए रखता था। उसके नियन्त्रण में एक छोटी-सी
सेना रहती थी, जिसकी सहायता से वह
चोरों और डाकुओं पर नियन्त्रण रखता था तथा छोटेछोटे विद्रोहों का दमन किया करता
था। इसके अतिरिक्त सरकार में एक आमिल होता था, जिसका काम लगान वसूल
करना था। प्रमुख नगरों में एक कोतवाल भी होता था, जिसका काम नगर में शान्ति तथा व्यवस्था बनाए रखना था।
(3) परगना-
प्रत्येक 'सरकार' (जिला) परगनों में विभक्त थी। प्रत्येक *परगने
में एक शिकार, एक आमिल और एक
खजांची तथा कुछ अन्य कर्मचारी होते थे।
(4) नगर-
नगर के प्रबन्ध के
लिए एक कोतवाल होता था। उसकी नियुक्ति केन्द्र सरकार द्वारा की जाती थी। वह नगर की
पुलिस का प्रधान होता था और वह उन सभी कार्यों को करता था जो आधुनिक समय में नगरपालिका और पुलिस मिलकर
करते हैं। अपनी सहायता के लिए कोतवाल विभिन्न अधिकारियों की नियुक्ति करता था।
उसकी अधीनता में एक कुशल सैनिक दस्ता भी होता था। - इस प्रकार हम देखते हैं कि
मुगलों की शासन व्यवस्था अत्यन्त उत्तम थी तथा सम्राट केन्द्रीय शासन के साथ-साथ
प्रान्तीय शासकों पर भी पूर्ण नियन्त्रण रखते थे। अकबर का कहना था कि "एक
राजा को न्यायप्रिय, निष्पक्ष, उदार, परिश्रमी और अपनी प्रजा का संरक्षक एवं शुभचिन्तक होना चाहिए। बादशाह के लिए
अनीति और अत्याचार अनुचित है।" औरंगजेब भी अपने इस कर्त्तव्य के प्रति जागरूक
था। वह भी बादशाहत को ईश्वर द्वारा प्रदत्त उत्तरदायित्वं मानता था। इसी कारण मुगल
बादशाह 'उदार निरंकुश शासक' थे, जिन्होंने अपनी
प्रजा की भलाई का ध्यान रखा।
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