भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलन का इतिहास
प्रश्न 17. भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलन के
उत्कर्ष के क्या कारण थे? इसके कार्यक्रम, कार्य व असफलता के कारण स्पष्ट कीजिए।
अथवा '' क्रान्तिकारी
आन्दोलन के उदय तथा विकास का वर्णन कीजिए।
अथवा '' भारत में
क्रान्तिकारी आन्दोलन के संगठन, सिद्धान्तों व कार्यों पर
प्रकाश डालिए तथा इसकी असफलता के कारणों का विवरण दीजिए।
उत्तर -
भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलन मुख्य रूप से उन घटनाओं और परिस्थितियों का
परिणाम था जिनके कारण उग्र राष्ट्रवाद का उदय हुआ था। वास्तव में क्रान्तिकारी
आन्दोलन उग्र राष्ट्रीयता का ही एक रूप था, जो उससे कहीं अधिक तीव्र, हिंसात्मक और क्रान्तिकारी था। उग्रवादी हिंसा और तोड़फोड़ में विश्वास
नहीं रखते थे, जबकि क्रान्तिकारियों की इन साधनों में पूरी
आस्था थी। उनका कहना था कि प्राण देने से पहले प्राण ले लो। ब्रिटिश सरकार ने हिन्दुओं
के प्रति जो घोर प्रतिक्रियावादी और दमनकारी नीति अपनाई, उसने
अनेक उग्रवादियों को क्रान्तिकारियों में बदल दिया।
क्रान्तिकारी आन्दोलन के उदय के कारण
क्रान्तिकारी
आन्दोलन के उदय के निम्न कारण थे
(1) मध्यवर्गीय आन्दोलन - बंगाल में क्रान्तिकारी आन्दोलन का आरम्भ मध्यम
वर्ग ने किया था, जिसमें अधिकांशतः पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त नवयुवकों ने भाग लिया।
नवयुवकों के उत्साह ने क्रान्तिकारी आन्दोलन को गति प्रदान की। इस आन्दोलन
में ब्राह्मणों के साथ-साथ अन्य जातियों के नवयुवकों ने भी खुलकर भाग लिया था।
इसकी पुष्टि करते हुए गैरेट ने लिखा है, "क्रान्तिकारी
आन्दोलन केवल ब्राह्मणों द्वारा षड्यन्त्र नहीं था,
बल्कि बंगाल और पंजाब में अन्य जातियों के लोग भी इस आन्दोलन के
नेता थे।"
(2) कांग्रेस की अक्षमता पर प्रहार -
कांग्रेस का प्रारम्भिक स्वरूप अत्यधिक
नरम तथा उदारवादी था। उसकी कार्य-प्रणाली अत्यधिक धीमी एवं नितान्त संवैधानिक थी, जबकि देश का युवा
वर्ग राजनीतिक आन्दोलन को त्वरित एवं सक्रिय बनाना चाहता था। अरविन्द घोष ने अपने
लेखों के माध्यम से उदारवादियों की संवैधानिक कार्य-पद्धति पर कड़ा प्रहार किया।
उन्होंने कांग्रेस को एक मध्यवर्गीय, स्वार्थी तथा
निःस्वार्थ देशभक्ति का खोखला दावा करने वाली संस्था बताया तथा कहा था---
"अंग्रेजी राज के दुर्ग की दीवारें अभी पटी नहीं हैं, गरीबी की काली छाया दिन-प्रतिदिन देश पर गहरी होती जा रही है। अत:
कांग्रेस के लिए सही और सफल नीति यह होगी कि देश की सम्पूर्ण शक्ति को जाग्रत किया
जाए और जनशक्ति के परिमाण तथा क्षमता को अनन्त रूप से बढ़ाया जाए।" फलस्वरूप युवा वर्ग में क्रान्तिकारी भावनाओं का उदय हो गया। उग्रवादियों
और क्रान्तिकारियों के प्रयासों ने भारतीय राजनीति को झकझोर दिया और एक समय ऐसा
आया. जब कांग्रेस को अपनी नरम नीति को तिलांजलि देकर सक्रिय राजनीतिक आन्दोलन का
मार्ग अपनाना पड़ा।
(3) आर्थिक कारण -
19वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में सम्पूर्ण भारत
में आर्थिक असन्तोष की लहर व्याप्त हो गई। जनता ब्रिटिश सरकार की भारत विरोधी
आर्थिक नीति से अत्यन्त क्षुब्ध हो गई थी। अनेक भारतीय अर्थशास्त्रियों ने प्रमाण
देकर भारत के शोषण तथा उसके अनिष्टकारी परिणामों पर प्रकाश डाला। अकाल,
महामारी तथा भूकम्प के कारण जनता की गरीबी इतनी बढ़ चुकी थी कि बड़ी
संख्या में नवयुवकों ने विवश होकर क्रान्तिकारी मार्ग को अपना लिया। अत्यधिक
दरिद्रता और उससे उत्पन्न जन-असन्तोष ने क्रान्ति को जन्म दिया।
(4) सरकार की दमनकारी शासन नीति
- क्रान्तिकारी आन्दोलन के
विस्फोट में ब्रिटिश सरकार की प्रतिक्रियावादी और दमनकारी नीति की भी अति
महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। विशेष रूप से लॉर्ड कर्जन की जनहित विरोधी शासन नीति ने
आतंकवाद को प्रोत्साहित किया। जैसे-जैसे सरकार ने जन-आन्दोलन को कुचलने का प्रयास
किया, वैसे-वैसे आतंकवाद अधिक विकसित हो गया। जब नवयुवकों ने यह अनुभव किया कि
सभाएँ, जुलूस, बहिष्कार आदि तरीके
विदेशी शासन पर कोई प्रभाव नहीं डाल पा रहे हैं, तो उनकी
बड़ी संख्या क्रान्तिकारी मार्ग पर चल पड़ी। इन युवकों ने विस्फोटक और हिंसात्मक
साधनों को अपनाना प्रारम्भ कर दिया। सरकार की दमनकारी और प्रतिक्रियावादी शासन
नीति ने 'क्रान्तिकारी आन्दोलन को
विकसित करने में क्या भूमिका निभाई थी, इस विषय में एक
इतिहासकार ने लिखा है, "सन् 1907 व 1908 में बने राजद्रोहात्मक संभा अधिनियम, समाचार-पत्र अधिनियम तथा अन्य दमनकारी
कानूनों ने किसी भी राजनीतिक आन्दोलन को खुले रूप में चलाना असम्भव बना दिया।" सरकार
की दमनकारी नीति के फलस्वरूप क्रान्तिकारी आन्दोलन दिन-प्रतिदिन शक्तिशाली
होता गया।
(5) संवैधानिक साधनों की विफलता -
उदारवादी दल की असफलता के कारण
भारतीय युवकों के एक बड़े वर्ग का वैधानिक मार्ग में कोई विश्वास नहीं रहा। उन्हें
यह विश्वास हो गया कि याचना करने तथा प्रार्थना-पत्र प्रेषित करने से देश की
स्वतन्त्रता सम्भव नहीं है। स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए शक्ति का संचय करना
होगा तथा आतंकवादी साधनों के द्वारा विदेशी शासन की जड़ को हिलाना होगा।
क्रान्तिकारियों का तर्क था कि भारत में अंग्रेजी शासन बल पर आधारित है और
यदि हम अपने आपको स्वतन्त्र करने के लिए बल का प्रयोग करते हैं, तो वह सर्वथा उचित
है। उन्होंने देश के नवयुवकों से आह्वान किया कि तलवार हाथ में लेकर विदेशी सरकार
की जड़ों को काट दो। जो लक्ष्य अनेक नैतिक बातों के प्रभाव से प्राप्त नहीं हो
सकता, वह बमों और गोलियों के प्रयोग से प्राप्त हो सकता है।
(6) विदेशी क्रान्तिकारी संस्थाओं से प्रेरणा -
रूस, इटली आदि देशों की
गुप्त क्रान्तिकारी संस्थाओं से भारत के उत्साही नवयुवकों को प्रेरणा
प्राप्त हुई। उनके हृदय में भी यह अभिलाषा जानत हुई कि वे अपनी गुप्त संस्थाएँ
देश-- विदेश में स्थापित करें और विदेशी शासन को समाप्त कर दें।
इस
प्रकार भारत का क्रान्तिकारी आन्दोलन देश की स्वतन्त्रता के लिए
चलाया गया सशस्त्र आन्दोलन था। इसका उदय किसी एक कारण से नहीं, अपितु अनेक तत्वों
के परिणामस्वरूप हुआ।
क्रान्तिकारी आन्दोलन की प्रगति तथा विकास
बंगाल
में क्रान्तिकारी आन्दोलन - क्रान्तिकारी आन्दोलन का प्रमुख व प्रथम केन्द्र
बंगाल था। वारीन्द्र कुमार घोष तथा भूपेन्द्रनाथ दत्त इन क्रान्तिकारियों के नेता
थे। वारीन्द्र कुमार घोष के नेतृत्व में बंगाल के क्रान्तिकारियों ने 'अनुशीलन समिति' नामक पाश्चात्य ढंग
की क्रान्तिकारी संस्था की स्थापना की। इस संस्था का उद्देश्य लोगों को
आतंकवादी कार्यों की शिक्षा देना था। क्रान्तिकारियों का लोगों से कहना था कि
"इस देश में अंग्रेजों की संख्या 1.5 लाख
है। प्रत्येक जिले में ब्रिटिश पदाधिकारियों की संख्या अधिक नहीं है। यदि हम अपने
संकल्प में दृढ़ हैं, तो एक ही दिन में ब्रिटिश शासन
को जड़ से समाप्त कर सकते हैं। अपने प्राण दे दीजिए, परन्तु
पहले प्राण ले लीजिए।
बंगाल
में आतंकवादी कार्यवाही का प्रारम्भ 6 दिसम्बर, 1907 को उस समय हुआ जबकि
मिदनापुर के पास गवर्नर लॉर्ड हार्डिंग्ज की गाड़ी को उड़ाने का प्रयास
किया गया। इसी वर्ष 23 दिसम्बर को ढाका के जिला मजिस्ट्रेट
को गोली से उड़ा देने का प्रयत्न किया गया। 30 अप्रैल,
1908 को खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी द्वारा
मजफ्फरपुर के जज किंग्सफोर्ड की हत्या का प्रयास किया गया, यद्यपि
उनके स्थान पर श्रीमती और श्री कैनेडी मारे गए। प्रफुल्ल चाकी ने आत्महत्या कर ली
और खुदीराम बोस को फाँसी दे दी गई।
इसके
बाद एक और घटना घटी, जो 'अलीपुर केस' के नाम
से प्रसिद्ध है। इस काण्ड में 39 क्रान्तिकारी पकड़े गए,
जिनमें अरविन्द घोष भी थे। 12 फरवरी,
1910 को केस के निर्णय में अरविन्द घोष तथा उनके कुछ साथी छोड़ दिए
गए, किन्तु शेष को कठोर दण्ड दिया गया।
महाराष्ट्र
में क्रान्तिकारी आन्दोलन-
महाराष्ट्र में 1899 ई. में रैण्ड
तथा उसके सहयोगी आयर्ट की हत्या के साथ ही इस आन्दोलन का प्रारम्भ कहा जा सकता है।
महाराष्ट्र में क्रान्तिकारी आन्दोलन के नेता श्यामजी कृष्ण वर्मा, सावरकर बन्धु (विनायक दामोदर सावरकर तथा गणेश सावरकर) और चापेकर
बन्धु थे। ऐसा कहा जाता है कि रैण्ड की हत्या में श्यामजी कृष्ण वर्मा का हाथ था।
इस हत्या के पश्चात् वे लन्दन चले गए। सावरकर बन्धुओं ने 'अभिनव
भारत समाज' नामक क्रान्तिकारी संस्था की स्थापना की।
सन् 1909 में श्री वर्मा और विनायक दामोदर सावरकर ने लन्दन
से गणेश सावरकर को पिस्तौलों का एक पार्सल भेजा था, परन्तु
इससे पहले ही गणेश सावरकर को संम्राट के विरुद्ध युद्ध छेड़ने के अपराध में
गिरफ्तार कर लिया गया और 9 जून, 1909 को
उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई। सजा की खबर से क्षुब्ध होकर अभिनव भारत समाज
के एक कार्यकर्ता ने दिसम्बर, 1909 में नासिक के जिलाधीश मि.
जैक्सन को गोली से उड़ा दिया, जिसने गणेश सावरकर को सजा
सुनाई थी। इस कार्य के लिए 37 लोगों पर मुकदमा चला और तीन को
प्राणदण्ड दिया गया। शेष को कैद की सजा दी गई।
मद्रास
में क्रान्तिकारी आन्दोलन -
मद्रास में विपिनचन्द्र पाल ने जनता में क्रान्तिकारी
भावना का संचार किया। सन् 1907 में विपिनचन्द्र पाल को बन्दी बना लिया
गया और उन्हें 6 माह का कारावास दिया गया। उनके जेल से मुक्त
होने पर उनके स्वागत में एक सभा आयोजित की गई। परन्तु सरकार ने सभा के आयोजकों को
बन्दी बना लिया, जिसका परिणाम टिनेवली के उपद्रव के रूप में
प्रकट हुआ। सरकार ने दमन चक्र चलाया तथा अनेक लोग गिरफ्तार किए गए।
क्रान्तिकारियों ने सन् 1911 में टिनेवली के मजिस्ट्रेट की
गोली मारकर हत्या कर दी।
क्रान्तिकारी आन्दोलन की असफलता के कारण
यद्यपि
क्रान्तिकारियों के कार्यों से भारत में अपूर्व जागृति उत्पन्न हुई, फिर भी वे अपने मूल
उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर सके। क्रान्तिकारी आन्दोलन की . असफलता के
प्रमुख कारण निम्नलिखित थे
(1) नवयुवकों तक सीमित - क्रान्तिकारी आन्दोलन की
असफलता का सबसे प्रमुख कारण इसका क्षेत्र सीमित होना था। इस आन्दोलन के समर्थक
केवल मध्यम वर्ग के शिक्षित नवयुवक ही थे, जिनका जनता पर कोई विशेष प्रभाव नहीं था।
(2) उच्च मध्यम वर्ग की सहानुभूति का अभाव - समाज का उच्च वर्ग, जो कि राष्ट्रीय
कांग्रेस का नेतृत्व कर रहा था, हिंसा से डरता था। यही नहीं,
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी जैसे उदार कांग्रेसी नेता स्वराज्य प्राप्त
करने के लिए संवैधानिक उपायों को ही श्रेष्ठ समझते थे। इन नेताओं का क्रान्तिकारी
विचारधारा में कोई विश्वास न था।
(3) केन्द्रीय संगठन का अभाव - क्रान्तिकारी आन्दोलन की
असफलता का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह भी था कि उनके पास अखिल भारतीय स्तर पर अपने
आन्दोलन को चलाने के लिए कोई केन्द्रीय संगठन नहीं था, जैसे कि
उदारवादियों के पास भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस थी। फलस्वरूप विभिन्न प्रान्तों के
क्रान्तिकारी. नेताओं में परस्पर सहयोग व सम्पर्क का अभाव रहा। विभिन्न प्रान्तों
के क्रान्तिकारियों की गतिविधियाँ एक जैसी और एक साथ नहीं हुईं। छिटपुट घटनाओं से
इतने बड़े ब्रिटिश साम्राज्य का विनाश करना कठिन था। .
(4) हथियारों की प्राप्ति में विशेष कठिनाई- निःसन्देह क्रान्तिकारियों में
बलिदान की भावना व साहस की कमी नहीं थी, परन्तु उनके पास अपने उद्देश्य की पूर्ति
के लिए पर्याप्त मात्रा में हथियार व गोला-बारूद नहीं था। एक तो केवल हथियारों के
द्वारा सरकार को कुचल देना कठिन था, दूसरे उन्हें हथियार
मिलने में बहुत-सी कठिनाइयाँ होती थीं। इस सन्दर्भ में यह स्मरणीय है कि आर्स एक्ट
के द्वारा भारतीयों को पहले ही निहत्था कर दिया था। क्रान्तिकारियों को चोरी छिपे
हथियारों का प्रबन्ध करना पड़ता था और सरकार सदैव उनके पीछे लगी रहती थी। इन
परिस्थितियों में वे कब तक सरकार की आँखों में धूल झोंक सकते थे?
(5) ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीति - क्रान्तिकारी आन्दोलन का
दमन . करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने कठोर नीति का सहारा लिया। सरकार ने सभा व
सम्मेलनों पर प्रतिबन्ध लगाने के उद्देश्य से सन् 1907 में 'सेडीशन्स
मीटिंग एक्ट' - (Seditions Meeting Act) पास
किया। सन् 1908 में फौजदारी कानून में संशोधन के द्वारा क्रान्तिकारी संस्थाओं को गैर-कानूनी घोषित
कर दिया गया। 'केसरी' में प्रकाशित कुछ लेखों के आधार पर सन् 1908
में तिलक को 6 वर्ष की काले पानी का सजा दी
गई।
सन् 1908 और 1910 के प्रेस सम्बन्धी कानून के तहत समाचार-पत्रों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया।
न जाने कितने ही देशभक्तों को मृत्युदण्ड दिया गया , और न जाने कितनों को काले पानी की
सजा दी गई। सरकार ने अपनी कठोर , दमन नीति के फलस्वरूप क्रान्तिकारियों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया।
(6) गांधीजी द्वारा सत्याग्रह आन्दोलन - एक ओर तो क्रान्तिकारियों को कुचल
देने में ब्रिटिश सरकार ने कोई कसर शेष नहीं छोड़ी थी, दूसरी ओर महात्मा
गांधी ने भारतीय राजनीति में प्रवेश किया और जनता के समक्ष क्रान्तिकारी
आन्दोलन के विकल्प के रूप में सत्याग्रह आन्दोलन का प्रयोग किया।
(7) अन्य कारण- (i) क्रान्तिकारियों के प्रभाव को रोकने के
लिए और उदारवादियों व मुसलमानों को सन्तुष्ट करने के लिए सरकार ने कुछ संवैधानिक
सुधार भी किए। भारतीयों को उच्च पद दिए गए तथा सिविल व सैनिक प्रशासन के व्यय में
कमी की गई।
(ii) क्रान्तिकारियों को कांग्रेस से किसी भी प्रकार की सहायता मिलना तो दूर की
बात रही, उसके द्वारा इसकी आलोचना व विरोध ही हुआ।
निष्कर्ष -
सुरेन्द्रनाथ
बनर्जी ने क्रान्तिकारी आन्दोलन की असफलता के कारणों परं प्रकाश डालते
हुए लिखा है कि "क्रान्तिकारियों की असफलता का मुख्य कारण ब्रिटिश सरकार की दमन नीति थी।
इसके साथ ही यह इस कारण भी असफल रहा कि हिंसा का विचार हिन्दुओं की प्रवृत्ति के
अनुकूल नहीं था। हिन्दू लोग क्रान्ति, यहाँ तक कि उसकी छाया
से भी घृणा करते हैं।"
उपर्युक्त कारणों से क्रान्तिकारी
आन्दोलन अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सका, यद्यपि
क्रान्तिकारी देश की स्वतन्त्रता तक कुर्बानी देते रहे।
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