अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के निर्णय-निर्माण सिद्धान्त-Decision-Making Principle

B.A. III, Political Science III

प्रश्न 5. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के निर्णय-निर्माण सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
अथवा ''
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन सम्बन्धी निर्णयपरक सिद्धान्त की आलोचनात्मक विवेचना कीजिए।

Question 5. Discuss the decision-making principle of international politics.

उत्तर - द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् रिचर्ड स्नाइडर, एच. डब्ल्यू. बर्क और बर्टन सेपिन ने विदेश नीति के अध्ययन में निर्णयपरक विश्लेषण अपनाने का प्रयत्न किया है । यह सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय स्थितियों के बजाय उन अन्तर्राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं के अधिमान्य व्यवहार के अध्ययन पर बल देता है जो अन्तर्राष्ट्रीय घटना-चक्र को निर्धारित एवं प्रभावित करते हैं । निर्णयपरक सिद्धान्त विदेश नीति-निर्धारण की लम्बी प्रक्रिया में लिए जाने वाले निर्णयों के अध्ययन पर भी जोर देता है।

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन का निर्णयपरक सिद्धान्त

निर्णयपरक सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को एक नये दृष्टिकोण से देखता है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में मूल इकाइयाँ यद्यपि राज्य हैं, तथापि राज्यों का समस्त कार्य संचालन प्रशासन के उच्चाधिकारियों द्वारा ही होता है। राज्य के नाम पर समस्त निर्णय व्यक्ति ही लेते हैं। नाजी जर्मनी का व्यक्तित्व हिटलर के व्यक्तित्व का ही प्रतिबिम्ब था। स्वाधीनता के बाद भारत की विदेश नीति के निर्धारण पर पं.नेहरू के व्यक्तित्व की अमिट छाप थी। सोवियत संघ की विदेश नीति पर स्टालिन के व्यक्तित्व और चीन की विदेश नीति पर माओ के व्यक्तित्व का अनूठा प्रभाव पडा है । इस प्रकार निर्णयपरक दृष्टिकोण उन कार्यकर्ताओं पर ध्यान केन्द्रित करता है जो निर्णयकर्ता कहलाते हैं और उन राज्यों पर भी, जो निर्णय करने की प्रक्रिया में भाग लेते हैं । यह उपागम अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को व्यक्तिगत निर्णय पर आधारित मानकर चलता है, जिसमें व्यक्ति विशेष के व्यक्तित्व का, उसकी रुचियों, अभिरुचियों. विचारधारा, संस्कृति, धर्म,निर्णय लेने की शक्ति का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार राज्य के कार्यों को निर्णयकर्ताओं के कार्यों के आइने में देखा जाता है।

चीन ने सन् 1962 में भारत की उत्तरी सीमा पर विशाल पैमाने पर सैनिक आक्रमण किया। सन् 1965, 1971 तथा 1999 में पाकिस्तान ने भारत पर हमले किए । सोवियत संघ ने सन् 1979 में अफगानिस्तान में सैनिक हस्तक्षेप किया। सन् 1983 में ग्रेनाडा के टापू पर संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपनी फौजें उतारी इस प्रकार के निर्णय किन कारकों से, किस प्रकार, किन उद्देश्यों से प्रेरित होकर लिए जाते हैं, इसका पता लगाना ही निर्णयपरक प्रणाली का प्रधान उद्देश्य है।

Decision-making principles of international politics

निर्णय लेने में पर्यावरण का विशेष महत्त्व है। व्यक्ति विशेष के निर्णयों पर उसकी सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक योग्यताओं का प्रभाव तो पड़ता ही है, साथ ही राष्ट्र विशेष की परिस्थिति, उसके नागरिकों के राष्ट्रीय चरित्र, माँगों, दबावों का भी विशेष प्रभाव पड़ता है । इसके अतिरिक्त समूची अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था, अन्तर्राष्ट्रीय संकट, महाशक्तियों की भूमिका आदि तत्त्व भी निर्णय को प्रभावित करते हैं। दूसरे शब्दों में, किसी भी राष्ट्र की विदेश नीति से सम्बन्धित निर्णय एक विशिष्ट पर्यावरण में लिए जाते हैं।

इस पर्यावरण का निर्णय करने वाले तत्त्वों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है

(1) आन्तरिक पर्यावरण के घटक तत्त्व - ये हैं व्यक्तित्व,संगठन का स्वरूप, भौगोलिक और प्रौद्योगिक दशाएँ, बुनियादी मूल्य, समाज के कार्यशील प्रभाव के तत्त्व, दबाव समूह आदि।

(2) बाह्य पर्यावरण के घटक तत्त्व- ये हैं अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था, पड़ोसी राष्ट्रों की शक्ति की दृष्टि से स्थिति,महाशक्तियों से सम्बन्धों का स्वरूप आदि ।

उपर्युक्त विविध कारणों का सम्मिलित प्रभाव निर्णय पर पड़ता है। यदि इन सबका सम्यक् ज्ञान हो और इन तत्त्वों का उचित विश्लेषण हो सके,तो यह अनुमान लगाया जा सकता है कि एक राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं पर क्या दृष्टिकोण अपनायेगा।

हैरॉल्ड और मारग्रेट स्प्राउट जैसे विद्वान् विदेश नीति के अध्ययन में पर्यावरण के अध्ययन पर विशेष बल देते हैं । वे इस तथ्य के अध्ययन पर बल नहीं देते हैं कि कोई निर्णय कैसे और क्यों लिया जाता है । इसके विपरीत अलेक्जेण्डर जॉर्ज और जूलिएट जॉर्ज विदेश नीति सम्बन्धी निर्णय के ठीक अध्ययन के लिए निर्णयकर्ताओं के व्यक्तित्व की विविध विधाओं का विश्लेषण करना आवश्यक मानते हैं। अर्थात भारत की निर्गुट विदेश नीति को समझने के लिए पं. जवाहरलाल नेहरू और इन्दिरा गांधी के व्यक्तित्व को समझने से उस काल की विदेश नीति का स्वरूप समझने में सहायता अवश्य मिलती है।

कतिपय विद्वान् उन कार्यकर्ताओं के व्यवहार के अध्ययन पर बल देते हैं जो विदेश नीति-निर्माण में सही मायने में भाग लेते हैं। ऐसे कार्यकर्ता दो प्रकार के हैंएक तो वे जो विदेश सेवा के अधिकारी के रूप में कार्य करते हैं। कोहन के विचार में विदेश नीति निर्माण में हिस्सा लेने वाले सरकारी और गैर-सरकारी अधिकारियों के दृष्टिकोणों और विश्वासों के अनुसार ही विदेश नीति का व्यवस्थित | विश्लेषण होना चाहिए। उनका मत है कि विभिन्न महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने में जितना आधक प्रभाव राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री.विदेश मन्त्री आदि प्रमुख नेताओं तथा शासन के आधकारियों का होता है, उतना अन्य तत्त्वों का नहीं होता है। अतः निर्णयकरण की प्रक्रिया में हमें निर्णय लेने वाले व्यक्तियों के व्यक्तित्व के अध्ययन पर अधिक बल देना चाहिए। इस मत को अलेक्जेण्डर जॉर्ज और जूलिएट जॉर्ज ने प्रस्तुत किया है। उन्होंने सन् 1956 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'वडरो विल्सन एण्ड कर्नल हाउस' में विल्सन की समची जीवनी और व्यक्तित्व का तथा वर्साय की सन्धि में उनके प्रमुख परामर्शदाता कर्नल हाउस का विस्तृत विवरण देते हुए बताया है कि उनके व्यक्तित्व ने उनके राजनीतिक कार्यों और निर्णयों को किस प्रकार प्रभावित किया । अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ. कैनेडी ने सन् 1962 में प्रक्षेपास्त्र क्यूबा ले जाने वाले रूसी जहाजों को रोकने के लिए प्रभावशाली कार्यवाही की थी। सन् 1971 में भारत की प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने बांग्लादेश की स्वतन्त्रता के लिए लड़ने वाली मुक्तिवाहिनी को सहायता देने का निर्णय किया था। इन निर्णयों का यथार्थ महत्त्व

और स्वरूप इनके व्यक्तित्व के आधार पर समझा जा सकता है और इससे उस समय की विदेश नीति की व्याख्या सही ढंग से समझने में सहायता मिल सकती है। दूसरे, विदेश नीति-निर्माण में विधायिका और कार्यपालिका की विशिष्ट भूमिका होती है। अतः रोजर हिल्समैन के विचार में विधायिका और कार्यपालिका की संरचना,सदस्यों के आचरण आदि का अध्ययन किया जाना चाहिए। । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में निर्णय विश्लेषण को लाने का श्रेय रिचर्ड स्नाइडर और उनके सहयोगी एच. डब्ल्यू. बर्क तथा बर्टन सेपिन को दिया जाता है। इन्होंने विशेष रूप से विदेश नीति के अध्ययन में निर्णय सिद्धान्त का प्रयोग किया है । इस दृष्टि से इनकी पुस्तक 'Foreign Policy Decision Making-An Approach to the

Study of International Politics' का विशेष महत्त्व है । इस पुस्तक में उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के क्षेत्र में कार्यकर्ताओं के व्यवहार का सैद्धान्तिक अन्वेषण किया। वे उन घटकों का पूर्ण वर्णन प्रस्तुत करना चाहते थे जो अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में राष्ट्रों के कार्यों का रूप निश्चित करते हैं, उन्हें प्रभावित करते हैं । स्नाइडर के विचार में निर्णय निर्धारण करने वाले पदाधिकारियों के व्यवहार का विश्लेषण आवश्यक है। वस्तुतः स्नाइडर और उनके सहयोगियों का उद्देश्य उन वर्गों की एक संप्रत्यात्मक रूपरेखा बनाना था जिसके आधार पर विदेश नीतियों के निर्णयों का अध्ययन करने के लिए आधार सामग्री का संग्रह किया जा सके। स्नाइडर द्वारा प्रतिपादित निर्णय सिद्धान्त के मूल में यह सीधा-सादा विचार है कि

(1) जो भी राजनीतिक कार्यवाही होती है, वह कुछ विशेष व्यक्तियों के द्वारा ही की जाती है, और

(2) यदि हम कार्यवाही की गत्यात्मकता को समझना चाहते हैं, तो उसे अपने दृष्टिकोण से नहीं बल्कि उन व्यक्तियों के परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए जिन पर निर्णय लेने का उत्तरदायित्व होता है।

स्नाइडर के अनुसार किसी भी राजनीतिक कार्य को ठीक ढंग से समझने के लिए यह आवश्यक है कि

(1) किसने अथवा किन्होंने उन महत्त्वपूर्ण निर्णयों को लिया जिनके कारण वह महत्त्वपूर्ण कार्य किया गया, और

(2) उन बौद्धिक और अन्तःक्रियात्मक प्रक्रियाओं का मूल्यांकन करना जिनका अनुकरण करके निर्णय निर्माता अपने निर्णयों तक पहुँचे।

उन कारणों का विश्लेषण करते हुए,जो निर्णय निर्माताओं को प्रभावित करते हैं, स्नाइडर उन्हें तीन समूहों में बाँटता है--आन्तरिक परिपार्श्व, बाह्य परिपार्श्व और निर्णय-निर्माण प्रक्रिया। आन्तरिक परिपार्श्व का अर्थ उस समय से है जिसमें अधिकारी अपने निर्णय लेते हैं। इसमें जनमत के अतिरिक्त मूल्यों के सम्बन्ध में प्रमुख मूल्य अभिविन्यास, सामाजिक संगठन की प्रमुख विशेषताएँ, समूह संरचनाएँ और प्रकार्य, आधारभूत सामाजिक प्रक्रियाएँ, सामाजिक विभेदीकरण, विशिष्टीकरण आदि आते हैं। बाह्य परिपार्श्व का अर्थ अन्य राज्यों से है, जिसका अर्थ उन राज्यों के निर्णय निर्माताओं की क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं से तथा उन समाजों से जिनके लिए वे काम करते हैं और उनके भौतिक पर्यावरण से है। तीसरा महत्त्वपूर्ण तत्त्व निर्णय-निर्माण प्रक्रियाएँ हैं, जिनका प्रारम्भ प्रशासनिक संगठनों के गर्भ से होता है

और जिनका वे एक भाग हैं। स्नाइडर के अनुसार निर्णय-निर्माण प्रक्रिया के तीन प्रमुख उप-संवर्ग हैंसक्षमता के क्षेत्र, संचारण व सूचना तथा अभिप्राय । इनमें आमतौर से प्रशासन और विशेषकर उन इकाइयों की, जो निर्णय-निर्माण का काम करती हैं, भूमिकाएँ, आदर्श और प्रकार्य सम्मिलित हैं।

स्नाइडर का विश्वास है कि यद्यपि इस सिद्धान्त का विकास सबसे पहले अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के सीमित क्षेत्र में किया गया था, राजनीति विज्ञान के अन्य क्षेत्रों में भी उसके प्रयोग की बहुत अधिक सम्भावनाएँ थीं।

स्नाइडर ने निर्णय-निर्माण कारकों और प्रक्रियाओं का अध्ययन निर्णय-निर्माण व्यवस्था के ढाँचे के अन्तर्गत किया था। अब तक राज्य को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का प्रमुख पात्र माना जा रहा था और उसके व्यवहार को विश्व की स्थिति की वस्तुपरक यथार्थताओं के सन्दर्भ में समझने का प्रयत्न किया गया था। यह मानकर चला गया था कि राज्यों के लक्ष्य और व्यवहार को भौगोलिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक और कनाका परिस्थितियों के आधार पर समझा जा सकता था आर राज्य के व्यवहार पर इतना अधक प्रभाव मान लिया गया था कि ये सब कारक चाहे कितने भी वस्तुपरक क्यों न रहे हों,राज्य का व्यवहार वास्तव में निर्णय निर्माताओं का व्यवहार है और वह इस पर निर्भर रहता है कि निर्णय निर्माता इन कारकों को किस रूप में देखते हैं। स्नाइडर ने इस बात पर जोर दिया कि निर्णय-निर्माण की इन प्रक्रियाओं को, जो अधिकारियों (विदेश मन्त्री तथा राजनयिक) द्वारा क्रियान्वित की जाती हैं, आन्तरिक और बाह्य परिस्थितियों के उस मिश्रित सन्दर्भ में, जिसमें वे उन्हें देखते हैं, अध्ययन किया जाना चाहिए।

निर्णयपरक सिद्धान्त की आलोचना

निर्णयपरक सिद्धान्त की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जाती है

(1) निर्णयपरक दृष्टिकोण नीति विज्ञान का हिस्सा है।

(2) निर्णय क्यों लिए गए, यह विश्लेषण इतना जटिल तथा उलझन में डालने वाला है कि अध्ययनकर्ता उसी में उलझ जाता है और जो तथ्य सामने आते हैं,उनकी प्रामाणिकता नहीं जाँची जा सकती।

(3) निर्णयपरक सिद्धान्त से समस्याओं के निदान में कोई सहायता नहीं मिलती, केवल इतनी आख्या होती है कि निर्णय क्यों लिया गया। परन्तु उस निर्णय के फलस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में जो समस्या खड़ी हो गई,उसका क्या समाधान हो सकता है, इस पर यह सिद्धान्त प्रकाश नहीं डालता है। अतः यह सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का समुचित उत्तर नहीं देता है।

(4) यह सिद्धान्त विदेशी मामलों के क्षेत्र में लिए गए निर्णयों का विश्लेषण करने का प्रयास करता है और इस बात की चिन्ता नहीं करता कि कौन-से निर्णय सही हैं

और कौन-से गलत । इनका लिया जाना उचित था या नहीं, इस प्रकार के मूल्य विषयक प्रश्नों की उपेक्षा करता है।

(5) इसका क्षेत्र संकीर्ण है। इसके प्रतिपादनकर्ता स्नाइडर ने लिखा है कि निर्णयकरण की प्रक्रिया का एकमात्र लक्ष्य यह होता है कि निर्णयकर्ताओं ने जिस रूप तथा परिस्थिति में निर्णय लिया था,उनका पुनः सृजन करते हुए अध्ययन किया जाए। यह पनः सृजन निष्पक्ष एवं वस्तुनिष्ठ दृष्टि से निर्णय नहीं होता है । निर्णयकर्ताओं का ही अध्ययन होने से यह विदेश नीति तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के सामान्य प्रश्नों की ओर ध्यान नहीं देता है। यह केवल विदेश नीति के विश्लेषण के लिए ही उपयोगी है. अन्तर्राष्ट्रीय जगत् की सामान्य समस्याओं के लिए इसका कोई महत्त्व नहीं है।

निर्णयपरक सिद्धान्त का मूल्यांकन

इन त्रुटियों के कारण चाहे निर्णयपरक सिद्धान्त से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के एक व्यापक सिद्धान्त की अपेक्षाएँ पूरी नहीं हुई हों, तथापि इसने अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं को अधिक मानवीय बना देने और समझने का प्रयत्न किया है। निर्णयपरक सिद्धान्त से अन्तर्राष्ट्रीय आचरण और व्यवहार को समझने में अधिक सहायता मिल सकती है। यदि हम अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को विदेश नीतियों की परस्पर क्रिया मानें, तो इस परस्पर क्रिया को समझने के लिए एकमात्र उपयोगी दृष्टिकोण निर्णयपरक सिद्धान्त ही, है। वस्तुतः जहाँ अन्य सिद्धान्तों ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विदेश नीति-निर्माण की प्रक्रिया के अध्ययन की उपेक्षा की है, वहीं निर्णयपरक सिद्धान्त ने विदेश नीति की जटिलताओं को समझने में काफी योगदान दिया है। फिर भी निर्णयपरक सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का आंशिक सिद्धान्त ही है।

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