आधुनिक स्थापत्य कला का इतिहास
प्रश्न 17. आधुनिक स्थापत्य कला अथवा भवन-निर्माण कला पर प्रकाश डालिए।
उत्तर -18वीं शताब्दी तक भारत में इमारतें मुख्यतया हिन्दू और मुस्लिम शैली के अनुसार तैयार की गई। परन्तु भारत में प्रवेश करने वाली अंग्रेज, पुर्तगाली, डच, फ्रांसीसी आदि यूरोपीय जातियों ने भी यूरोपियन शैली के आधार पर भारत में कुछ चर्च, दुर्ग व अन्य इमारतों का निर्माण करवाया। इनमें एस. जॉर्ज . दुर्ग (मद्रास) का निर्माण 1639 ई. में प्रारम्भ हुआ तथा 17वीं शताब्दी के अन्त में इसका निर्माण कार्य पूर्ण हुआ। इसके अतिरिक्त 1696 ई. में कलकत्ता में फोर्ट विलियम दुर्ग का निर्माण किया गया। इसी दुर्ग में चर्च भी स्थापित किया गया था। 1157 से 1773 ई. तक इस दुर्ग का पुनर्निर्माण कैप्टन जॉन ब्रोहिअर की डिजायन पर किया गया। इसके अतिरिक्त 1787 ई. में कलकत्ता में बनाया गया 'सेण्ट जॉन चर्च' प्रमुख माना जा सकता है। इस चर्च का नक्शा लेफ्टिनेण्ट आग (Agg) ने तैयार किया था। पर्सी ब्राउन के अनुसार यह नक्शा बालबुक के 'सेण्ट स्टीफेंस चर्च' के नक्शे को आधार मानकर बनाया गया था।
आधुनिक कालीन वास्तुकला पर ब्रिटिश स्थापत्य कला का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। इस काल में प्रमुख रूप से गोथिक शैली देखने को मिलती है। यरोपीय शैली के आधार पर इमारतों का निर्माण मुख्यतया 19वीं शताब्दी आरम्भ हुआ। 1802 ई. में कलकत्ता का 'गवर्नमेण्ट हाउस' बनाया गया। इस प्रारूप चार्ल्स वायट ने बनाया था और वह डर्बीशायर के 'केडिल्सटन हाल के नक्शे पर बना प्रतीत होता है। इसके उपरान्त कलकत्ता और भारत के अन्य स्थानों पर अनेक इमारतों का निर्माण हुआ, जो भारतीय स्थापत्य कला के आधार पर बनाई गईं। अनेक धनवान भारतीयों ने बड़े-बड़े भवनों का निर्माण करवाया, जिन पर यूरोपीय स्थापत्य कला का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है और जिनकी कला को पर्सी ब्राउन ने 'लोकप्रिय पुनरुद्धार कला' के नाम से पुकारा है। इन भवनों के सामने घास का मैदान और बगीचा लगाया गया था। मूलतया इनके निर्माण में यूरोपीय पद्धति का प्रयोग किया गया था, परन्तु इनकी गैलरी, खम्भों आदि पर भारतीय स्थापत्य कला की स्पष्ट छाप दिखाई देती है। इस प्रकार 19वीं शताब्दी के मध्य तक भारत में स्थापत्य कला का भविष्य अच्छा नहीं माना जा सकता। यूरोपीय अथवा अर्द्ध-यूरोपीय स्थापत्य कला ने भारतीय स्थापत्य कला के मार्ग को अवरुद्ध किया था और स्वयं भी अपना मार्ग तैयार न कर सकी। ब्रिटिश सरकार भारतीय स्थापत्य कला की प्रगति के प्रति उदासीन थी और बड़े-बड़े भारतीय राजाओं और धनवान व्यक्तियों का संरक्षण प्राप्त करके भी यूरोपीय स्थापत्य कला प्रगति नहीं कर पा रही थी। ऐसी स्थिति में 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में नवीन साधनों और योजनाओं के द्वारा भारतीय स्थापत्य कला की उपयोगिता को प्राप्त करने के प्रयत्न आरम्भ हुए और अनेक विदेशी कलाकारों तथा अधिकारियों ने उस समय भारतीय और पाश्चात्य स्थापत्य कला में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया। यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि इमारतों के निर्माण में न केवल भारतीय जलवायु का ध्यान रखना आवश्यक था, बल्कि भारतीय कारीगर ही इनका निर्माण करने में निपुण थे। भारतीय और पाश्चात्य स्थापत्य कला का समन्वय करने में मथुरा के तत्कालीन कलेक्टर एफ. एस. ग्राउज ने महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। उसके पश्चात् सर स्विनटन जैकब ने राजपूताना में बीकानेर और जयपुर की स्थापत्य कला का अध्ययन किया। उसके पश्चात् उसने जो इमारतें बनवाईं, उनमें भारतीय और पाश्चात्य स्थापत्य कला का श्रेष्ठ समन्वय किया। मद्रास में आर. एल. चिशहोम तथा एच. इर्विन ने ऐसी इमारतें बनवाईं जिनमें भारतीय और यूरोपीय स्थापत्य कला का मिश्रण किया गया। पंजाब में सरदार रामसिंह ने स्थापत्य कला का एक नया नमूना प्रस्तुत किया। लाहौर का 'सीनेट हाल' इसी नमूने पर बनाया गया। उत्तर प्रदेश में एफ. सी. ओर्टेल ने और बंगाल में ई. बी. हैवेल ने इसी भारतीय और पाश्चात्य स्थापत्य कला का समन्वय अपनी इमारतों में किया। बम्बई में जी. विटेट ने 'भारत का प्रवेश द्वार' (Gateway of India) और 'प्रिंस ऑफ वेल्स अजायबघर' का निर्माण करवाया।
19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बनी हुई उपर्युक्त इमारतों ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारतीय स्थापत्य कला को आधुनिक बनाकर उसे उपयोगी और सुन्दर बनाया जा सकता है। परन्तु दूसरी तरफ ऐसी विचारधारा भी थी जो पूर्णतया यूरोपीय स्थापत्य कला के पक्ष में थी। इस कारण जिस समय नई दिल्ली के निर्माण का प्रश्न उपस्थित हुआ, उस समय स्थापत्य कलाकारों के तीन वर्ग बन गए। प्रथम वर्ग उन व्यक्तियों का था जो भारत की प्राचीन स्थापत्य कला का पुनर्निर्माण चाहते थे। द्वितीय वर्ग उन व्यक्तियों का था जिनका मानना था कि स्थापत्य कला के प्राचीन स्वरूप को स्थापित करना न केवल अनुचित है, बल्कि असम्भव है। तृतीय वर्ग उन व्यक्तियों का था जो भारतीय और पाश्चात्य स्थापत्य कला का समन्वय चाहते थे। सन् 1911 तक इन वर्गों के मतभेद अपनी चरम सीमा तक पहुंच चुके थे। अन्त में भारतीय समाज ने भारत सचिव से सलाह ली और उससे प्रार्थना की कि वे भारत सरकार को इस विषय में आदेश दें कि भारतीय स्थापत्य कला का क्या स्वरूप हो? इस बात पर निर्णय करने से पहले गॉर्डन सैण्डरसन को भारत के प्राचीन और नवीन भवनों का निरीक्षण करने के लिए नियुक्त किया गया। उसने निरीक्षण के पश्चात् अपने विचार अपनी पुस्तक 'भारत के आधुनिक भवनों की किस्में' में प्रस्तुत किए। इस निरीक्षण और कुछ अन्य निरीक्षणों के पश्चात् यह निश्चित हो गया कि भारतीय कलाकारों व कारीगरों में यह योग्यता है कि वे प्राचीन भारतीय कला के आधार पर नवीन भवनों का निर्माण भलीभाँति कर सकते हैं। परन्तु इससे यह भी स्पष्ट हुआ कि भारतीय कलाकारों ने अपनी कला में कोई परिवर्तन या नवीनता लाने का प्रयत्न नहीं किया था। इस कारण भारत सरकार ने निर्णय किया कि भारत में नवीन भवनों का निर्माण पाश्चात्य स्थापत्य कला के आधार पर किया जाए। इसी आधार पर भारत में नवीन भवनों का निर्माण किया गया। चूँकि इस कार्य में भारतीय कारीगरों और स्थापत्यकारों का सहयोग आवश्यक था, इस कारण इन नवीन भवनों पर भी किसी-न-किसी रूप में भारतीय स्थापत्य कला का प्रभाव आ गया। भारतीय नरेशों द्वारा बनाई गई इमारतों में भारतीय और पाश्चात्य स्थापत्य कला का मिश्रण और भी अधिक स्पष्ट है।
20वीं शताब्दी में लॉर्ड कर्जन ने इमारतें बनवाने के लिए एक 'सार्वजनिक कार्य विभाग' स्थापित किया और जे. रेन्सम को सरकार की ओर से स्थापत्य नियुक्त किया गया। इन प्रयत्नों से जहाँ नवीन नगरों का निर्माण प्रारम्भ हुआ. अच्छे-अच्छे भवन बनाए गए। सन् 1906 में कलकत्ता में 'विक्टोरिया मेमोरियल हॉल' के निर्माण का कार्य आरम्भ किया गया, जो सन् 1921 में पूर्ण हआ। इस डिजायन विलियम इमर्सन ने तैयार किया था। इसके निर्माण में ताजमहल की भाँति जोधपुर से प्राप्त होने वाले सफेद संगमरमर पत्थर का प्रयोग किया गया है। एक साधारण व्यक्ति इसे ताजमहल की नकल भी मान सकता है, परन्तु वास्तव में यह यूरोपीय पुनरुद्धार कला पर आधारित है। सन् 1930 में नई दिल्ली का निर्माण किया गया। इसका डिजायन सर एडविन ल्यूटेन्स तथा सर एडवर्ड बेकर ने तैयार किया था। यहाँ पर बनी हुई सभी इमारतें यूरोपीय और भारतीय स्थापत्य कला की मिश्रित शैली के आधार पर बनाई गई हैं। सभी इमारतें बड़ी सादगी से तैयार की गई हैं। इनके आकार को बड़ा करके उनमें खम्भों को बनाकर और उनके पास घास के बड़े-बड़े मैदान बनाकर उनको प्रभावशाली बनाने का प्रयत्न किया गया है।
भारत सरकार के अतिरिक्त भारतीय जमींदारों, जागीरदारों और नरेशों द्वारा भी अनेक भवनों एवं राजमहलों का निर्माण करवाया गया। उदयपुर, जयपुर, मैसूर, हैदराबाद आदि स्थानों पर अनेक भवन और राजमहल बनाए गए। हरिद्वार तथा बनारस के घाट और कुछ मन्दिर, दिल्ली का बिड़ला मन्दिर एवं अनेक गुरुद्वारे, जैसे अमृतसर का स्वर्ण मन्दिर आदि भी इसी समय बनाए गए। ये सभी इमारतें अधिकांशतया भारतीय स्थापत्य शैली का प्रतिनिधित्व करती हैं।
आधुनिक समय में भारतीय स्थापत्य कला का स्वरूप पर्याप्त परिवर्तित हो चुका है। उसके निर्माण में पत्थर के प्रयोग के साथ सीमेण्ट और कंक्रीट का प्रयोग अधिक मात्रा में होने लगा है। उसकी शैली भी भारतीय और पाश्चात्य शैली का मिला-जुला स्वरूप है। बम्बई और कलकत्ता में स्थापत्य कला की शिक्षा के लिए विद्यालय स्थापित किए गए हैं, जहाँ यह प्रयत्न किया जाता है कि भारतीय शैली को एक विशेष स्थान प्रदान किया जाए। स्वतन्त्रता के पश्चात् यह प्रयास किया गया है कि भारतीय स्थापत्य कला के प्राचीन गौरव को पुनः स्थापित किया जाए। इसमें सन्देह नहीं है कि भारतीय कलाकारों पर पाश्चात्य कला का इतना व्यापक प्रभाव पड़ चुका है कि नवीन भवनों के निर्माण में उनके प्रभाव से मुक्त होना सम्भव नहीं है। फिर भी यह प्रयत्न किया जा रहा है कि नवीन भवनों का निर्माण भारतीय स्थापत्य कला के आधार पर ही हो।
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