19वीं शताब्दी में हुए प्रमुख किसान आन्दोलन - कारण व परिणाम
प्रश्न 13. ब्रिटिश शासनकाल में हुए विभिन्न किसान आन्दोलनों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर - भारतीय कृषि व्यवस्था को क्षत-विक्षत करना ब्रिटिश साम्राज्य का प्रमुख लक्ष्य था। ब्रिटिश शासन की भू-राजस्व प्रणालियों और प्रशासनिक ढाँचे से नये सामाजिक वर्ग-जमींदार, भूस्वामी, बिचौलिए तथा साहूकार सामने आए। इन सभी ने किसानों का शोषण किया। इन्होंने कृषकों को भूमि से बेदखल किया तथा कृषकों को अधिकाधिक निर्धन बना दिया। 19वीं शताब्दी में लगातार पड़ने वाले अकालों ने कृषकों को असहाय बना दिया। ऐसी स्थिति में किसानों ने सामन्ती व्यवस्था, राजस्व व्यवस्था और शोषण के विरुद्ध आन्दोलन किए। ये किसान आन्दोलन, काफी प्रभावी और व्यापक होते चले गए, जिनका विवरण निम्न प्रकार है
प्रमुख किसान आन्दोलन
(1) संथाल विद्रोह–
छोटा
नागपुर के संथालों का विद्रोह सबसे अधिक व्यापक था। संथालों ने जंगलों को साफ कर खेती
योग्य बनाया, लेकिन जमींदारों ने
उस भूमि के लिए राजस्व की माँग की, उन्हें परेशान किया। परिणामस्वरूप संथालों ने संगठित होकर साहूकारों तथा जमींदारों
पर हमला बोल दिया। कचहरी के दस्तावेजों को जला दिया। खेतों में खड़ी फसल, रेल व्यवस्था तथा कई जंगलों को तहस-नहस कर दिया।
इस आन्दोलन के प्रमुख नेता सिदोह तथा कानो थे। 1855 ई. में ब्रिटिश सेना तथा पुलिस ने आन्दोलन को कुचल दिया।
संथालों को दण्डित किया गया एवं उनके हथियार छीन लिए गए।
(2) नील विद्रोह-
19वीं शताब्दी में यूरोपियन अधिकारियों और विदेशी धनवानों ने बंगाल और बिहार में नील की खेती प्रारम्भ की। कृषकों को पेशगी देकर बाध्य किया जाता था। ये लोग उस नील को कम दामों पर खरीद लेते थे। इस प्रकार कृषक ऋणग्रस्त हो गए और खेती न करने पर दण्डित किए जाने लगे। इसके परिणामस्वरूप 1859 ई. में कृषकों ने विद्रोह कर दिया। विद्रोह की व्यापकता को देखते हुए 1860 ई. में 'नील आयोग' की नियुक्ति की गई, जिसके सुझावों को 1862 ई. के अधिनियम में सम्मिलित किया गया। इस प्रकार किसान अपने उद्देश्य में सफल हुए।
प्रश्न 12. 19वीं शताब्दी में भारतीय समाज पर अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव की विवेचना कीजिए।
(3) पटना में कृषक विद्रोह-
1859 ई. के 'किराया अधिनियम' के विरुद्ध पटना में 1873 ई. में असन्तोष फूट पड़ा। कृषकों ने अपना एक संघ बना लिया तथा जमींदारों द्वारा बनाए गए भूमि कर कानूनों के विरोध में मुकदमे दायर कर दिए। तब कृषकों की समस्याओं का समाधान करने के लिए सरकार द्वारा 1879 ई.. में 'रेन कमीशन' की नियुक्ति की गई। उसकी अनुशंसा पर 1885 ई. का 'बंगाल टेनेन्सी अधिनियम' पारित किया गया।
(4) महाराष्ट्र में कृषक विद्रोह-
1875 ई. में महाराष्ट्र में अत्यधिक भूमि कर हो जाने,
कपास के भाव गिरने तथा साहूकारों द्वारा
ऊँची ब्याज दर पर ऋण देने से कृषकों की स्थिति खराब हो गई और वे कर न दे सके। परिणामस्वरूप
जमींदारों तथा साहूकारों ने जमीनों पर अधिकार कर लिया। न्यायालय के निर्णय भी साहूकारों
के पक्ष में होते थे, अतः कृषकों
ने साहूकारों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। सरकार ने इस विद्रोह का कठोरतापूर्वक दमन
किया तथा विद्रोह के कारणों का पता लगाने के लिए 'डेकन उपद्रव आयोग' की स्थापना की। इसके अतिरिक्त 1879 ई. में कृषकों की दशा सुधारने के उद्देश्य से
'कृषक राहत अधिनियम', पारित किया, जिससे दीवानी विधि संहिता की कुछ धाराओं पर प्रतिबन्ध
लगा दिया गया और कृषकों को ऋण न लौटाने पर गिरफ्तार अथवा जेल में बन्द नहीं किया जा
सकता था।
(5) पंजाब में कृषक आन्दोलन-
1896 से 1900 के मध्य पंजाब में सरकार के लगान सम्बन्धी कानूनों और
साहूकारों के शोषण के विरुद्ध कई स्थानों पर किसानों ने संघर्ष किया। अंग्रेजी सरकार
यह नहीं चाहती थी कि अन्य स्थानों के समान पंजाब में भी विद्रोह हो, अत: सरकार ने सन् 1900 में 'पंजाब भूमि अन्यक्रामण (Alienation) अधिनियम' पारित किया। इससे कृषकों को लाभ हुआ और उनकी भूमि का
हस्तान्तरण रुक गया। लगान की समस्या को लेकर सन् 1907 में लाला लाजपत राय और अजीत सिंह के नेतृत्व में भी
आन्दोलन हुआ।
(6) चम्पारन में विद्रोह–
बिहार के चम्पारन जिले में नील की खेती करने वाले किसानों
को उनके यूरोपीय मालिकों द्वारा प्रताड़ित किया जाता था। गांधीजी ने कृषकों की स्थिति
का अध्ययन किया तथा कृषकों को संगठित कर आन्दोलन के लिए प्रेरित किया। इस विद्रोह
(1917) के फलस्वरूप अन्तत: सरकार
को झुकना पड़ा तथा 'तिनकथिया पद्धति',
जिसके अधीन किसानों की अच्छी भूमि उनसे छीन ली गई थी,
समाप्त कर दिया गया। लगान में वृद्धि को
भी सीमित कर दिया गया। इस प्रकार गांधीजी द्वारा किसानों को संगठित करने के परिणामस्वरूप
किसानों की कुछ समस्याएँ तो अवश्य दूर हो गईं, किन्तु इससे कोई स्थायी हल न निकल सका।
(7) खेड़ा आन्दोलन -
खेड़ा (केरा) आन्दोलन (1918)
मुख्यतः बम्बई सरकार के विरुद्ध था। सूखा
पड़ने के उपरान्त भी भूमि कर की माँग करने से किसान असन्तुष्ट थे। गांधीजी ने कृषकों
को संगठित किया तथा सभी वर्गों के लोगों का समर्थन प्राप्त किया। कृषकों ने बड़ी संख्या
में सत्याग्रह किया तथा जेल गए। जून, 1918 तक यह आन्दोलन चलता रहा और अन्त में सरकार को गांधीजी की माँग स्वीकार करनी पड़ी।
परन्तु जूडिथ ब्राउन जैसे लोगों ने कहा है कि सरकार ने कर का लगभग 93% फिर भी वसूल कर लिया। चम्पारन तथा खेड़ा के
आन्दोलनों ने न केवल गांधीजी को जनता का नेता बना दिया, अपितु कृषकों में आत्म-विश्वास भी जागा कि यदि वे मिलकर
कार्य करें, तो अवश्य सफल होंगे।
(8) बारदोली आन्दोलन -
सरकार ने लगान में लगभग 25% की वृद्धि कर दी। इसके विरुद्ध कृषकों ने बारदोली में
विद्रोह किया। यह आन्दोलन सन् 1922 में आरम्भ किया गया था, किन्तु
चौरी-चौरा की घटना के कारण असहयोग आन्दोलन के साथ ही समाप्त हो गया। सन् 1928 में बारदोली आन्दोलन पुनः प्रारम्भ हुआ। इस
बार इस आन्दोलन का नेतृत्व सरदार पटेल ने किया तथा किसानों की संगठित शक्ति के समक्ष
सरकार को उनकी माँगें मानने के लिए विवश होना पड़ा।
(9) मोपला विद्रोह–
सन् 1921 में मालाबार क्षेत्र में मोपला विद्रोह हुआ!
दक्षिण भारत में किसानों द्वारा किया गया यह पहला विद्रोह था। प्रारम्भ में यह अंग्रेज
सरकार के विरुद्ध था, किन्तु बाद
में इसे साम्प्रदायिक रूप दे दिया गया, क्योंकि मोपलों द्वारा कुछ हिन्दू जमींदारों की हत्या की गई थी। दक्षिण में सन्
1929 में 'मालाबार टेनेन्सी अधिनियम' पारित किया गया, जिससे कृषकों के हित सुरक्षित हो गए। यहाँ रय्यतवाड़ी
व्यवस्था की गई, जिससे कृषक जमींदारों
से मुक्त हो गए।
(10) किसानों के अन्य प्रमुख आन्दोलन–स्वतन्त्रता से पूर्व तीन प्रमुख कृषक आन्दोलन प्रारम्भ
हुए
बंगाल का तेभागा आन्दोलन (1936),
हैदराबाद दक्कन का तेलंगाना विद्रोह (1946)
तथा पश्चिमी भारत में वर्ली विद्रोह (1945)
तेभागा आन्दोलन का नेतृत्व 'बंगीय प्रादेशिक किसान सभा' ने किया। यह आन्दोलन फसल का तीन-चौथाई किसानों को दिए जाने के लिए चलाया गया था। इस आन्दोलन में बंगाल के विभिन्न भागों के किसानों ने भाग लिया तथा लम्बे समय तक सरकार के साथ संघर्ष किया। सन् 1946 में हैदराबाद के निजाम तथा रजाकारों के विरुद्ध तेलंगाना आन्दोलन प्रारम्भ किया गया। इस आन्दोलन को जनता का समर्थन मिला और इसने काफी सफलता प्राप्त की। पश्चिमी भारत में बम्बई नगर से थोड़ी दूर रहने वाले आदिम जाति के वर्ली लोग भी इसी प्रकार जंगलों के ठेकेदारों, साहूकारों, धनी कृषकों तथा भूमिपतियों के विरुद्ध खड़े हो गए। उन्होंने मई, 1945 में किसान सभा की सहायता से आन्दोलन प्रारम्भ किया। पुलिस के दमन तथा अत्याचार से भी वे लोग नहीं झुके।.
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