मार्टन कैप्लन का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था का सिद्धान्त

प्रश्न 3. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में राजनीतिक व्यवस्था सिद्धान्त क्या है ? मार्टन कैप्लन के अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था के सिद्धान्त का परीक्षण कीजिए।
अथवा '' मार्टन कैप्लन ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में राजनीतिक पद्धति के कितने प्रतिमान प्रस्तुत किए हैं ? आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
अथवा ''
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के राजनीतिक व्यवस्था उपागम से आप क्या समझते हैं ?

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में राजनीतिक व्यवस्था सिद्धान्त क्या

उत्तर- अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में राजनीतिक व्यवस्था की धारणा का प्रतिपादन सर्वप्रथम के. डब्ल्यू. थॉम्पसन ने किया । ''मार्टन कैप्लन ने इस सिद्धान्त को विस्तृत स्वरूप प्रदान किया। यह सत्य है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का वैज्ञानिक अध्ययन तभी सम्भव है जब इसे व्यवस्था के रूप में स्वीकार किया जाए । जेम्स एन. रोजनाऊ ने इस सम्बन्ध में कहा है, “अन्तर्राष्ट्रीय गतिविधियों के अध्ययन में जो नवीनतम प्रवृत्तियाँ विकसित हो रही हैं उनमें से सम्भवतः सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और लोकप्रिय प्रवृत्ति पूरे अन्तर्राष्ट्रीय जगत् को व्यवस्था भानकर चलने की. है।इस प्रवृत्ति का मूलाधार अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक आचरण को भौतिकशास्त्र और जीवनशास्त्र की स्पष्ट संकल्पनाओं के आधार पर समझने का प्रयत्न करता है। व्यवस्था विश्लेषण अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप को जीवनशास्त्र के आधार पर समझने का प्रयत्न करता है।

maartin kaiplan ka antararaashtreey raajaneetik vyavastha ka siddhaant

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था को परिभाषित करते हुए प्रसिद्ध विद्वान् डी. कोपलिन ने कहा है, “अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था को हम क्षेत्रीय आधार पर संगठित अर्द्ध-स्वायत्त कानूनों और तथ्यात्मक राजनीतिक इकाइयों के एक सेट के रूप में देख सकते हैं। इन राजनीतिक इकाइयों का अभिप्राय राष्ट्रों अथवा राज्यों से है,जो इस विश्व को घेरे हुए हैं और बड़ी संख्या में विभिन्न विवाद क्षेत्रों में एक-दूसरे के प्रति स्वतन्त्र और सामूहिक रूप से कार्य करते हैं।

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का आधार आपस में वार्ता व पारस्परिक इकाइयों का संग्रह है। व्यवस्थावादी धारणा राज्यों के मध्य वार्ता व व्यवहार के आदान-प्रदान पर बल देती है। राज्यों के मध्य व्यवहार में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है, जिससे अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में भी बदलाव आता रहता है।

मार्टन कैप्लन का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था प्रतिमान (उपागम)

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में राजनीतिक व्यवस्था की अवधारणा के विस्तार का श्रेय मार्टन कैप्लन को जाता है । कैप्लन का व्यवस्था सिद्धान्त अनेक मान्यताओं को महत्त्व देता है। इसके अन्तर्गत अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार राजनीतिक पद्धति का आधार है। अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहारों की पद्धति अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में भाग लेने वाले लोगों और संस्थाओं के चरित्र तथा उनकी विशेषताओं को प्रतिबिम्बित करने के साथ-साथ उनके द्वारा सम्पादित किए जाने वाले कार्यों की विशेषताओं को भी प्रतिबिम्बित करती हैं। मार्टन कैप्लन का मानना है कि राज्यों के मध्य शक्ति परीक्षण या शक्ति प्रयोग अन्तिम अस्त्र के रूप में लिया जाना चाहिए।

मार्टन कैप्लन ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में राजनीतिक व्यवस्था के छः प्रतिमान प्रस्तुत किए हैं, जो निम्न प्रकार हैं

(1) शक्ति सन्तुलन व्यवस्था -

द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात अन्तर्राष्टीय राजनीति में शक्ति सन्तुलन व्यवस्था के प्रतिमान का महत्त्व बढ़ा है। इसमें राष्ट्र को अपनी शक्ति प्रतिद्वन्द्वी के समान या अधिक रखनी चाहिए । कूटनीतिक सम्बन्धों को बनाए रखते हुए युद्ध की अपेक्षा वार्ता व समझौते का आश्रय लेना चाहिए। शक्ति युद्ध करने के लिए एकत्रित नहीं करनी चाहिए, अपितु शत्रु या प्रतिद्वन्द्वी राष्ट्र को युद्ध से रोकने के लिए एकत्रित करनी चाहिए। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था की सदस्यता उन व्यवहारों पर निर्भर करती है,जो व्यवहार शक्ति सन्तुलन के नियमों के अनुकूल हैं।

प्रश्न 2. "मॉर्गन्थाऊ के राजनीतिक यथार्थवाद के छ: सिद्धान्त न केवल एक-दूसरे के प्रतिरोधक हैंअपितु अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के यथार्थ का भी प्रतिरोध करते हैं।" इस कथन की समीक्षा कीजिए।

(2) शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था -

द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में निरन्तर अस्थिरता का वातावरण बना रहा। शक्ति सन्तुलन के असफल होने के कारण द्विध्रुवीय व्यवस्था स्थापित हुई। द्विध्रुवीय व्यवस्था में विश्व में दो महाशक्तियाँ थीं, जो परस्पर एक-दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास करती रहती थीं। इसके अन्तर्गत किसी गुट के सभी कर्ता दूसरे गुट के कर्ताओं की अपेक्षा अपनी क्षमता बढ़ाना चाहते हैं, अपने गुट के सदस्यों में अधिक-से-अधिक वृद्धि करना चाहते हैं। कुछ राष्ट्र ऐसे भी होते हैं जो द्विध्रुवीय व्यवस्था के विरुद्ध लामबन्द रहते हैं और युद्ध की सम्भावनाओं को कम करते रहते हैं । शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था नितान्त अस्थायी स्वरूप में होती है जो कभी भी दूसरी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में परिवर्तित हो जाती है।

(3) सुदृढ़ द्विध्रुवीय व्यवस्था -

जब शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था कठोरता से अपने आपको स्थापित करती है, तब सुदृढ़ द्विध्रुवीय व्यवस्था बन जाती है। इसमें किसी तीसरे पक्ष या गुट को या ध्रुव को पनपने नहीं दिया जाता है। यदि कोई गुट अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय होता है, तो उसका लोप कर दिया जाता है। सुदृढ़ द्विध्रुवीय व्यवस्था में अस्थिरता रहती है, क्योंकि इनकी कठोरता युद्ध की स्थिति उत्पन्न कर सकती है या भयंकर युद्ध में परिवर्तित कर सकती है।

(4) विश्वव्यापी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था -

जब विश्व में द्विध्रुवीय व्यवस्था की स्थिति उत्पन्न होती है, तब नवीन अन्तर्राष्ट्रीय संगठन युद्ध की स्थिति को रोकता है। विश्वव्यापी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में राष्ट्र अपने राष्ट्रीय हितों के स्थान पर विश्व-शान्ति में सहयोग देने को तत्पर रहते हैं । राष्ट्रीय हितों की प्राप्ति के लिए संघर्ष या युद्ध का नहीं, अपितु सहयोग का मार्ग अपनाया जायेगा।

(5) सोपानीय अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था -

सोपानीय अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में संगठन के भौगोलिक तत्त्वों की अपेक्षा प्रकार्यात्मक तत्त्व अधिक सुदृढ़ होते हैं। इसमें एक शक्तिशाली राष्ट्र विश्व के अन्य राष्ट्रों को अपनी ओर कर लेता है, मात्र एक राष्ट्र उनकी धुरी से बाहर रहता है। एकता व संगठन की अधिकता के कारण इस व्यवस्था में स्थायित्व अधिक होता है।

(6) यूनिट वीटो : अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था -

इस व्यवस्था के अन्तर्गत विश्व के अधिकांश राज्यों के पास अपने विरोधी राज्य से अधिक शक्ति होती है। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण करने व उसे समाप्त करने की पूरी क्षमता रखता है। इस व्यवस्था में विद्वेष व तनाव की अधिकता रहती है । इकाई वीटो व्यवस्था तभी स्थायी रह सकती है जब समस्त कर्ता धमकियों का मुकाबला करने को तैयार रहते हों । इसमें. विश्व पर निरन्तर संकट बना रहता है।

मार्टन कैप्लन के अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था प्रतिमान (उपागम) की आलोचना

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में मार्टन कैप्लन के राजनीतिक व्यवस्था सिद्धान्त की अनेक आधारों पर आलोचना की गई है, जो निम्न प्रकार हैं

(1) मार्टन कैप्लन के राजनीतिक व्यवस्था सिद्धान्तं के आलोचकों का मानना है कि कैप्लन ने अपने सिद्धान्त में प्रतिमानों की संख्या अनावश्यक रूप से बढ़ा दी है।

(2) सभी प्रतिपादित प्रतिमानों का स्वर भिन्न-भिन्न है । कुछ यथार्थवाद से जुड़े लगते हैं, तो कुछ आदर्शवादी दृष्टिकोण अपनाए हुए हैं।

(3) कैप्लन ने सोपानों के आधार पर अपने प्रतिमानों का वर्णन किया है । उसके प्रतिमानों का प्रथम सोपान शक्ति सन्तुलन है, जो यूनिट वीटो व्यवस्था पर जाकर समाप्त होता है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में यह आवश्यक नहीं कि राजनीतिक व्यवस्था इन्हीं सोपानों के आधार पर निर्धारित हो।

(4) कैप्लन की मान्यता है कि शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था में जो परिवर्तन होगा, वह दृढ़ द्विध्रुवीय व्यवस्था में होगा। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के उभरते स्वरूप को  देखते हुए ऐसा लगता है कि शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था का रूपान्तरण बहुध्रुवीय व्यवस्था में होना चाहिए।

(5) द्विध्रुवीय व्यवस्था का रूपान्तर बहुध्रुवीय व्यवस्था में भी हो जाता है. परन्त कैप्लन बहुधुवीय व्यवस्था को अत्यधिक महत्त्व नहीं देते । वर्तमान में तीसरी दुनिया के बढ़ते प्रभाव तथा गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के कारण बहुध्रुवीय व्यवस्था स्वतः ही बन रही है।

(6) कैप्लन की राजनीतिक व्यवस्था में यूनिट वीटो अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था पूर्ण रूप से अस्वीकार्य है। इसमें अस्त्रों व शस्त्रों को इतना महत्त्व दिया गया है कि किसी भी राष्ट्र को समाप्त करने के लिए काफी होगा। राज्य अस्त्रों द्वारा स्वयं को व शत्रु राज्य को समाप्त कर दे,ऐसी व्यवस्था सम्भव नहीं है।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि कैप्लन के कुछ प्रतिमान तो अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की व्यवस्था में विद्यमान हैं और कुछ केवल कल्पना पर आधारित हैं। आज के परमाणु युग में किसी भी व्यवस्था पर विचार किया जा सकता है, परन्तु इसके लिए शान्ति व सहयोग में निर्णय अत्यन्त आवश्यक है 

 

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