बाल गंगाधर तिलक के राजनीतिक विचार

B.A-III-PoliticalScience-II

प्रश्न 8. “बाल गंगाधर तिलक राजनीति में क्रान्तिकारी, किन्तु सामाजिक सुधारों के क्षेत्र में अनुदार थे।इस कथन की समीक्षा कीजिए।

अथवा "स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।"-तिलक के इस कथन की विवेचना कीजिए।

अथवा ''तिलक की स्वराज्य सम्बन्धी अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।

अथवा "तिलक भारतीय अशान्ति के जनक थे।" इस कथन के आलोक में एक उग्रवादी विचारक के रूप में तिलक के योगदान की समीक्षा कीजिए।

अथवा '' उग्रवादी विचारक के रूप में तिलक का मूल्यांकन कीजिए।

अथवा '' भारत के राजनीतिक चिन्तन को बाल गंगाधर तिलक के योगदान की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए।

उत्तर - बाल गंगाधर तिलक अपनी राष्ट्र भक्ति, देश के प्रति अपने अथक त्याग व बलिदान के लिए जाने जाते हैं। उनके काल में कोई दूसरा ऐसा नेता नहीं था जिसे जनता उनसे अधिक प्यार करती हो । जनता उन्हें 'लोकमान्य' कहकर पुकारती थी। वे आधुनिक भारत के महानतम कर्मयोगियों में से हैं । उन्होंने भारतवासियों को स्वराज्य के अधिकार का प्रथम पाठ पढ़ाया। सर वैलेण्टाइन शिरोल द्वारा तिलक को 'भारतीय अशान्ति के जनक' की उपाधि देना उस महान् भूमिका का प्रमाण है जो तिलक ने नवीन राष्ट्रवाद के प्रचार करने में अदा की । राजनीति के सम्बन्ध में तिलक ने आदर्शवादी मार्ग नहीं अपनाया।

ब्रिटिश शासन के प्रति विद्रोह उनके अंग-अंग में निहित था। तिलक जीवनभर नौकरशाही के लिए खतरा बने रहे। राष्ट्रीय आन्दोलन को नया जीवन प्रदान करने के लिए तिलक ने 'गणपति उत्सव' और 'शिवाजी उत्सव' प्रारम्भ किए। तिलक ने कहा था, भाट की तरह से गुणगान करने से स्वतन्त्रता नहीं मिल जाएगी। स्वतन्त्रता के लिए शिवाजी और बाजीराव की तरह साहसी कार्य करने पड़ेंगे।" जन-जागति के लिए तिलक ने 'मराठा' तथा 'केसरी' नामक दो समाचार-पत्रों का सम्पादन किया।

1897 ई. में उन्होंने दक्षिण के दुर्भिक्ष के समय जनता की बहुत सेवा की तथा किसानों से कर न चुकाने का आह्वान इन शब्दों में किया,"क्या आप इस समय भी साहसी नहीं बन सकते जबकि मौत आपके सिर पर नाच रही हो ।

1898 ई. में पूना में प्लेग फैलने पर उन्होंने सरकारी अव्यवस्था की कड़ी आलोचना की। एक भावुक युवक ने प्लेग कमिश्नर मि. रैण्ड व एक अन्य अंग्रेज अधिकारी आयर्स्ट को मार दिया। फलस्वरूप तिलक पर 'कत्ल के उत्तेजक के रूप में मुकदमा चलाया गया व 18 माह की सजा सुनाई गई। जनता में इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई । सन् 1908 में उन्हें सरकार विरोधी लेख लिखने के अपराध में सजा हुई। इस बार भी देश में दंगे हुए।

बाल गंगाधर तिलक  के राजनीतिक विचार

अवज्ञा का सिद्धान्त - सर्वप्रथम तिलक ने भारतीय जनता को 'अवज्ञा का सिद्धान्त प्रदान किया, जो स्वराज्य प्राप्ति में सहायक बना । उदारवादी नेताओं के विपरीत तिलक राजनीतिक अधिकारी व सुधार के लिए सरकार पर दबाव डालना चाहते थे। इसके लिए वे बलिदान, त्याग के लिए भी तैयार थे। उनका मत था कि यदि स्वराज्य संवैधानिक साधनों से प्राप्त नहीं होता है, तो हिंसात्मक साधनों को महण करने में कोई बुराई नहीं है। वह मानते थे कि साध्य की पवित्रता साधन को भी पवित्र बना देती है। इसलिए वे राजनीतिक भिक्षावृत्ति की नीति को बदलने को कहते थे। तिलक का कहना था कि "विदेशी शासन चाहे कितना ही श्रेष्ठ क्यों न हो, पर वह स्वशासन से श्रेष्ठ नहीं हो सकता।"

श्री रामगोपाल ने लिखा है, 'गांधीजी ने तिलक की मृत्यु के बाद जो आन्दोलन किए वे सब तिलक ने पहले ही कर लिए थे। उनका जीवन दिव्य जीवन था और उनके देशवासियों ने उन्हें न केवल लोकमान्य की उपाधि दी, वरन् उन्हें तिलक भगवान् कहकर भी पुकारा। वे चारों ओर से अंधेरे में प्रकाश की ज्योति की तरह सामने आए।"

मुम्बई के गवर्नर ने भारत मन्त्री को लिखा था, तिलक मुख्य षड्यन्त्रकारियों में से है या सबसे मुख्य षड्यन्त्रकारी हैं। उसके गणपति उत्सव, शिवाजी उत्सव, पैसा, फण्ड और राष्ट्रीय स्कूल, इन सबका एक ही उद्देश्य है-अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंका जाए।

सन् 1908 में मार्टिन लीडर समाचार-पत्र ने लिखा था, "तिलक का निजी प्रभाव देश पर अन्य सभी राजनीतिज्ञों से बढ़कर है। वे दक्षिण के सबसे प्रमुख व्यक्ति हैं और मुम्बई से लेकर बंगाल की खाड़ी तक प्रत्येक गरम विचारों वाला उनकी धार्मिक भावना से पूजा करता है। सूरत में राष्ट्रीय कांग्रेस की फूट उनका ही काम था। उन्होंने ही इसकी योजना बनाई,उन्होंने ही इसका प्रचार किया और उन्होंने ही उस असाधारण आन्दोलन को दिशा दी,जिसके विरुद्ध नौकरशाही अब अपने सब साधों को एकत्रित कर रही है। वे एक साथ विचारक भी हैं और योद्धा भी।"

श्रीमती ऐनी बेसेण्ट ने लिखा है, "यदि भारतवर्ष की जनता में राजनीतिक चेतना काफी मात्रा में होती तो तिलक क्रॉमवेल की भाँति भारत में सफल नायक होते।"

तिलक की स्वराज्य सम्बन्धी अवधारणा

तिलक प्रथम भारतीय थे जिन्होंने घोषणा की कि स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।"

गोखले की तरह तिलक अंग्रेजों की कृपा पर जीवित नहीं रहना चाहते थे। वे स्वल्वा को अपना सा अधिकार मानते थे। उन्होंने आह्वान किया कि भारतीयों को स्वराज्यात करने के लिए त्याग करना होगा, कट सहने होंगे और अपना सर्वस्व योवावर करना होगा। वास्तव में तिलक लोकतान्त्रिक स्वराज्य के प्रवर्तक विचारक थे। वे एक ऐसी शासन बवस्था चाहते थे। जिसमें सभी अधिकारी और कर्मचारी जनता के प्रति उत्तरदायी हो और अन्तिम सत्ता जनता के हाथ में हो। 1897 में तिलक ने स्वराज्य का नारा लगाया । जब सरकार ने उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया, तो वकील के पूछने पर तिलक ने उत्तर दिया गुलाम जाति के लिए स्वाधीनता की कामना करना न तो बुरा है और न कोई अपराध ।तिलक के प्रयासे से सन् 1906 में कांग्रेस ने स्वराज्य का प्रस्ताव पारित किया। गोखले, मेहता और बनर्जी इसे बदलवाने की कोशिश में थे। तिलक ने इसका घोर विरोध किया। सन् 1907 में तिलक के विरोध के कारण बहुमत के आधार पर उन्हें कांग्रेस से निकाल दिया गया। सरकार ने उन्हें 6 वर्ष का कारावास देकर माण्डले जेल में डाल दिया। जेल से हटकर उन्होंने फिर स्वराज्य आन्दोलन प्रारम्भ किया। मृत्यु के समय भी उन्होंने कहा कि यदि स्वराज्य नहीं मिला, तो भारत समृद्ध नहीं हो सकता । स्वराज्य हमारे अस्तित्व के लिए अनिवार्य है।

तिलक के स्वराज्य सम्बन्धी विचार निम्न प्रकार हैं

(1) स्वराज्य की धारणा प्राकृतिक सिद्धान्त पर आधारित-  

उदारवादी विचारधारा के अनुसार ब्रिटिश शासन एक दैविक शासन था तथा उसके द्वारा भारत का जो कल्याण हुआ है.वह उसके बिना सम्भव नाया। बिटिश सरकार शनै-शनैः वह सब अधिकार हमें देगी जिसके हम धीरे-धीरे अधिकारी होते जाएंगे। तिलक इस उदारवादी विचारधारा के विरुद्ध थे। तिलक ने भारतीयों के कल्याण के लिए स्वराज्य ही उपयक्त बताया। स्वशासन का अधिकार वह मानव का प्राकृतिक अधिकार मानते थे।

(2) तिलक की स्वराज्य सम्बन्धी धारणा-

तिलक ने बंग-भंग आन्दोलन के समय सन 1904-05 में तथा फिर दोबारा सन् 1916 के लखनऊ अधिवेशन में कहा. "स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा। तिलक स्वराज्य को राजनीतिक नहीं अपितु नैतिक आवश्यकता मानते थे। उनकी स्वराज्य की धारणा प्राचीन भारतीय धर्मग्रन्यों के आधार पर है । वे स्वराज्य का अर्थ स्वधर्म आचरण की स्वतन्त्रता से लगाते हैं। उनकी स्वराज्य को धारणा छत्रपति शिवाजी तथा सामी दयानन्द सरस्वती के जैसी ही है। शिवाजी के आसार एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था जिसमें जनता अपने सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों को नैतिकतापूर्ण ढंग से करे। दयानन्द जी इसका अर्थ स्वशासन अक्वा गृह शासन को स्वतन्त्रता से लगाते थे। तिलक इसे अन्तिम लक्ष्य नहीं अपितु स्वतन्त्रता को पूर्व स्थिति मानते थे।

(3) तिलक की स्वराज्य व्यवस्था

उदारवादी कांग्रेसियों के अनुसार स्वराज्य का अर्थ ब्रिटिश शासन के अन्दर गृह शासन की सुविधाओं से था। तिलक उदारवादियों का औपनिवेशिक स्तर वाला स्वराज्य नहीं चाहते थे। उन्होंने स्वराज्य की व्याख्या पूर्ण स्वतन्त्र राष्ट्र से मिलती-जुलती की। जन-साधारण में स्वराज्य की भावना विकसित करने हेतु उन्होंने सन् 1916 में 'होमरूल लीग' की स्थापना की। 'होमरूल लीग' का उद्घाटन करते हुए तिलक ने कहा था कि स्वराज्य से अभिप्राय केवल यह है कि भारत के आन्तरिक मामलों का संचालन और प्रबन्ध भारतवासियों के हाथों में हो। हम ब्रिटेन के सम्राट को बनाए रखने में विश्वास करते हैं।” ___

उन्होंने आगे कहा, “जिस स्वराज्य का मैं वर्णन कर रहा हूँ,उसका तात्पर्य इस साकार शासन से है। इसमें क्या परिवर्तन किए जाने चाहिए जिससे जनता के कल्याण में उन्नति हो सके ? स्वराज्य के प्रश्न का अर्थ वास्तव में यह है कि हमारे विषयों के ऊपर नियन्त्रण करने की शक्ति किसके हाथों में निहित हो ? मैं कह चुका हूँ कि हम अपरिवर्तनशील शासन या राजा को बदलना नहीं चाहते, अपितु हमारी माँग यह है कि हमारा शासन प्रबन्ध नौकरशाही के हाथों में नहीं रहना चाहिए, जैसा कि वह है, वरन् उसे हमारे हाथों में आना चाहिए। सारांश में स्वराज्य आन्दोलन का उद्देश्य यह है कि नियन्त्रण शक्ति लोगों में निहित होनी चाहिए।"

होमरूल लीग की स्थापना का उद्देश्य बताते हुए उन्होंने कहा, मैं चाहता हूँ कि मुझे मेरे घर की कुंजी मिले और एक भी अजनबी उसमें से न निकाला जाए। हम अपने शासन तन्त्र पर नियन्त्रण चाहते हैं, लिपिक नहीं बनना चाहते।आगे उन्होंने कहा, “नई पार्टी क्या चाहती है ? वह यह कहना चाहती है कि तुम्हें अनुभव करना चाहिए कि तुम्हारा भाग्य पूर्णतया तुम्हारे हाथों में है। यदि तुम चाहते हो कि स्वतन्त्र हो जाओ, तुम स्वतन्त्र हो सकते हो । यदि तुम स्वतन्त्र नहीं होना चाहते,तो तुम पतन को प्राप्त होगे और सदैव पतित ही रहोगे।

स्वतन्त्रता के लिए तिलक प्रत्येक प्रकार का बलिदान करने को तत्पर थे। टी. बी. पर्वते ने तिलक को 'लोकतान्त्रिक स्वराज्य का प्रवर्तक' कहा है। तिलक चाहते थे कि भारत की शासन प्रणाली में पूर्ण परिवर्तन हो जाए। तिलक ने कहा था कि भारतीय रियासतों में भी भारतीय शासक होते हुए स्वराज्य नहीं है। ये अधिकारी भारत मन्त्री के प्रति उत्तरदायी होते थे,क्योंकि वही इनकी नियुक्ति करता था।

प्रशासन सम्बन्धी तिलक की धारणा लोकतान्त्रिक थी। उनका कहना था कि प्रशासकीय निकायों के समस्त अधिकारियों को जनता के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए।

 (4) स्वराज्य प्राप्त करने के साधन - 

तिलक ने यह भी बताया कि किन उपायों से हम स्वराज्य प्राप्त कर सकते हैं। स्वराज्य को एक नैतिक कर्तव्य मानते हुए एक बार उन्होंने कहा था कि स्वराज्य एक अधिकार ही नहीं वरन् एक धम भा ह उनके स्वराज्य प्राप्ति के साधन भी स्वराज्य की धारणा के समान ही शाश्वत सत्य पर आधारित हैं। उनका कहना था कि स्वराज्य दिया नहीं जाता, बल्कि प्राप्त किया जाता है।"

वे उदारवादियों की याचना, प्रार्थना आदि में विश्वास नहीं करते थे। उनका कहना था कि स्वराज्य आज तक किसी विदेशी सत्ता द्वारा किसी अधीन राज्य को नहीं दिया गया है, इसका गवाह इतिहास है। जितने राष्ट्रों ने स्वराज्य प्राप्त किया है, उन्होंने अपने प्रयत्नों से ही प्राप्त किया है। याचिका की पद्धति को संघर्ष की पद्धति में बदलकर ही किसी राष्ट्र को आगे बढ़ने का अवसर मिल सकता है। यदि किसी जाति में संघर्ष करने की क्षमता नहीं है,तब निश्चित ही वह जाति पिछड़ी जाति है।" स्वराज्य के लिए तिलक क्रियात्मक उपायों को अपनाने पर बल देते हैं । इनके साधन निम्नलिखित हैं

(a) राष्ट्रीय शिक्षा-  

राष्ट्रीय शिक्षा उनके कार्यक्रम का मुख्य अंग था। उन्होंने पूना में 'न्यू इंग्लिश स्कूल' तथा 'फर्ग्युसन कॉलेज' की स्थापना की। तत्कालीन शिक्षा आयोग के अध्यक्ष डब्ल्यू. हण्टर ने 'न्यू इंग्लिश स्कूल के प्रति अपने विचार प्रकट करते हुए कहा था, “समस्त भारत में मैंने इस प्रकार की एक भी संस्था अभी तक नहीं देखी जिसकी इसके साथ तुलना की जा सके । यद्यपि इस संस्था को सरकार कोई सहायता नहीं देती है, तथापि वह न केवल सरकारी हाईस्कूलों से प्रतिद्वन्द्विता कर सकती है, अपितु अन्य देशों के स्कूलों से भी जीत सकती है।शिक्षा प्रसार के लिए उन्होंने 'दक्षिण शिक्षा समाज' (Deccan Education Society) की भी स्थापना की।

तिलक निम्न उद्देश्यों के कारण राष्ट्रीय शिक्षा को प्रभावपूर्ण बनाना चाहते

(i) शिक्षा भारतीयों के द्वारा व भारतीयों के लिए हो।

(ii) जनता को सस्ती अंग्रेजी शिक्षा प्रदान करना।

(iii) विद्यार्थियों को एक नवीन शिक्षा प्रणाली से शिक्षित करना।

(iv) राष्ट्रीय शिक्षा के द्वारा कुछ ऐसे युवकों को शिक्षित करना जिनके अन्दर राष्ट्रीय भावना कूट-कूटकर भरी हुई हो तथा जो स्वयंसेवक का कार्य सुगमतापूर्वक कर सकें। तिलक धर्मनिरपेक्ष शिक्षा को ही पूर्ण न मानकर धार्मिक व आदर्श शिक्षा पक्षधर थे। वे मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना चाहते थे। राजनीति की सफलता के लिए वे शिक्षा को आवश्यक मानते थे।

(B) स्वदेशी आन्दोलन - 

उदारवादी नेता दादाभाई नौरोजी रानाले, देशमुख, स्वामी दयानन्द सरस्वती आदि स्वदेशी भावना का प्रया तिलक ने महाराष्ट्र के कोने-कोने में स्वदेशी आन्दोलन द्वारा राष्ट्रवादी विचारधामी फैलाया।

स्वदेशी आन्दोलन का अर्थ था- देश की बनी वस्तुओं का प्रयोग । उनहोंने स्वदेशी शिक्षा स्वदेशी विचार तथा स्वदेशी जीवन-पद्धति आदि सभी क्षेत्रों में इसका पयोग किया। तिलक ने स्वदेशी आन्दोलन में विदेशी बहिष्कार भी जोड दिया। स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग किया जाए और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया जाए-यह नारा तिलक ने दिया। उसके साथ तिलक ने कहा कि हमें अपने धर्म संस्कृति, भाषा और सभ्यता को पश्चिम से श्रेष्ठ समझना चाहिए और अपनी संस्कृति को अधिक महत्त्व देना चाहिए । उदारवादी पाश्चात्य भाषा और संस्कृति को अपनाने के पक्ष में थे, जिनका तिलक ने घोर विरोध किया। तिलक ने अनेक विद्यालय खोले और चन्दा इकट्ठा कर नये उद्योग-धन्धे भी प्रारम्भ कराए। तिलक बहिष्कार द्वारा ब्रटिश शासन पर दबाव डालकर जनता की मांगें मनवाने के पक्ष में भी थे। तिलक वदेशी को अपनाने और विदेशी का बहिष्कार करने को एक सशक्त हथियार मानते थे। वे अपनी फौज भेजकर अंग्रेजों की सहायता करने के भी विरोधी थे। तिलक के विदेशी बहिष्कार को अपनाकर ही गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन चलाया। यह असहयोग तिलक के बहिष्कार का ही नवीन संस्करण था।

तिलक के सामाजिक विचार

प्राय: आलोचकों द्वारा यह आक्षेप लगाया जाता है कि तिलक सामाजिक जीवन में सुधारों के विरोधी थे। वास्तव में तिलक समाज-सधार के विरोधी नहीं थे, वरन् समाज-सुधार के सम्बन्ध में उनका अपना एक विशिष्ट दृष्टिकोण था,जिसे निम्न प्रकार स्पष्ट कर सकते हैं

(1) तिलक समाज - सुधार के विरोधी नहीं थे.अपित वे सरकारी कानून बनाकर समाज-सुधार करने की पद्धति का विरोध करते थे। वे सामाजिक सुधारों को उचित सामाजिक शिक्षण के माध्यम से क्रियान्वित कराना चाहते थे।

(2) उनका विचार था कि समाज-सधार का कार्य धीरे-धीरे और व्यक्तियों को मनोभावनाओं में परिवर्तन करते हए ही सम्भव है। समाज-सधार थोपे नहीं जा सकत, यह कार्य तो शिक्षा की प्रगति के साथ धीरे-धीरे सम्भव है।

(3) तिलक के अनुसार समाज-सधार के कार्य में शक्ति व्यय न करके पहले समर्ण शक्ति राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने में लगा दी जाए। एसा - समाज-सुधार करना सरल होगा।

(4) तिलक जाति - पाति और अस्पश्यता में विश्वास नहीं करते थे। उन्होंन गणेश उत्सव में निम्न जाति के लोगों को ऊंची जाति के लोगों के साथ अपनी गणेश प्रतिमाएं लेकर चलने की अनुमति दी। उनके अनुसार अस्पृश्यता को किसी भी नतिक और आध्यात्मिक आधार पर उचित नहीं ठहराया जा सकता,अतः इसका अन्त होना चाहिए।

(5) उन्होंने बाल - विवाह तथा बहपत्नी विवाह का भी विरोध किया।

मूल्यांकन उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि बाल गंगाधर तिलक राजनीति में क्रान्तिकारी,किन्तु सामाजिक सुधारों के क्षेत्र में अनुदार थे। वे आधुनिक भारत के निर्माता थे। वे उग्र थे, परन्तु हिंसक नहीं। वे राष्ट्रभक्त एवं देशभक्त थे, परन्तु उदारवादियों की तरह राजनीतिक भिखारी नहीं। उनमें राजनीतिक आदर्शवाद और यथार्थवाद का अद्भुत समन्वय था। उनमें पैनी सूझ-बूझ,विशाल बोद्धिक क्षमता तथा गहन विद्वता थी। विट्ठलभाई पटेल के शब्दों में, “लोकमान्य तिलक का व्यक्तित्व महान् था। राजनीति को आराम कुर्सी वाले राजनीतिज्ञों के कमरे से जनता तक ले जाने का श्रेय तिलक को प्राप्त है।"

 


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