बेंथम का उपयोगितावादी सिद्धांत-आलोचनात्मक

 B. A. II, Political Science I 

प्रश्न 12. बेन्थम(बेंथम) की 'अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख' की अवधारणा का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

अथवा ''बेन्थम के उपयोगितावादी सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।

अथवा '' उपयोगितावाद को बेन्थम की देन की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।

अथवा "प्रकृति ने मनुष्य जाति को दो सम्प्रभु स्वामियों, सुख और दुःख के अधीन कर रखा है। हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं, यह बताना उन्हीं का कार्य है।" बेन्थम के इस कथन की विवेचना कीजिए।

उत्तर - सर्वप्रथम बेन्थम ने इस मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त को स्वीकार किया कि मनुष्य स्वभाव से आनन्द की खोज करता है और कष्टों से बचना चाहता है। बेन्थम का कहना है कि "प्रकृति ने मानव जाति को सुख-दु:ख नामक दो महत्त्वपूर्ण स्वामियों के शासन में रखा है। हमें क्या करना चाहिए या हम क्या करेंगे यह केवल वे ही निश्चित कर सकते हैं एक मनुष्य अपने शब्दों द्वारा उनके शासन से बचने का बहाना भले ही करे, किन्तु वास्तव में सदैव उनके अधीन रहेगा।" बेन्थम का कहना है कि इस चीज को सिद्ध करने के लिए तर्क करने की आवश्यकता नहीं है। यह तो स्वयंसिद्ध सत्य है।

बेंथम का उपयोगितावादी सिद्धांत

बेन्थम का उपयोगितावाद

 प्रायः हम लाभदायक वस्तु को उपयोगी मानते हैं और जो चीज आलंकारिक, अच्छी लगने वाली अथवा आनन्ददायक होती है, उसे उपयोगी नहीं कहते। बेन्थमं का दृष्टिकोण इससे उल्टा था। उसके अनुसार किसी वस्तु में मनुष्य को आनन्द पहुँचाने और उसके कष्टों को दूर करने की जो क्षमता है, वही उपयोगिता है। फिर बेन्थम ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया कि जिस चीज से आनन्द मिलता है, वही अच्छी है और जिससे आनन्द प्राप्त नहीं होता, वह अच्छी नहीं है। यहाँ अच्छी' शब्द का प्रयोग बेन्थम नैतिकता के अर्थ में करता है अर्थात् उपयोगिता ही नैतिकता की कसौटी है। मनुष्य के जिस आचरण या कार्य से आनन्द प्राप्त होता है, वही नैतिक आचरण है और जिससे कष्ट होता है, वह अनैतिक।

एक स्थान पर बेन्थम ने लिखा है, "उपयोगिता के सिद्धान्त का अनुयायी सदगण को इसलिए अच्छा मानता है कि उसके व्यवहार से आनन्दकी प्राप्ति होती है और दुर्गुण को इसलिए बुरा मानता है कि उसको व्यवहार में लाने से कष्ट होता है।"

आनन्द और सुख में अन्तर

बेन्थम ने आनन्द और सुख में भेद किया है। किसी वस्तु के सेवन अथवा किसी काम से मनुष्य के ऊपर जो तत्कालीन अच्छा प्रभाव पड़ता है, वह आनन्द है। सुख मन को स्थायी स्थिति है, जो अनेक प्रकार के आनन्दों से उत्पन्न होती है। किन्तु सब प्रकार के आनन्दों को एकत्र करने में सुख उपलब्ध नहीं हो सकता। कुछ आनन्द ऐसे भी होते हैं जिसके सेवन से आगे चलकर कष्ट हो सकता है। अतः सुख के लिए कुछ आनन्दों का त्याग भी करना पड़ता है। इसी प्रकार कुछ कष्ट ऐसे हो सकते हैं जिनके अन्त में परिणाम अच्छे हों। इसलिए उन्हें स्वीकार करना अच्छा होता है।

कार्यों के उद्देश्यों की अपेक्षा परिणाम का महत्त्व-

बेन्थम के अनुसार अच्छाई तथा बुराई का मनुष्य के उद्देश्यों अथवा प्रयोजनों से कोई सम्बन्ध नहीं है। कोई काम किस उद्देश्य से किया जाता है, इसका कोई महत्त्व नहीं है। महत्त्व की चीज तो उस काम का परिणाम है। उसके अनुसार जो वस्तु उपयोगी होती है, वह अच्छी है और जिससे कष्ट होता है, वह बुरी है।

आनन्दों और कष्टों के प्रकार-

बेन्थम ने सामान्य तौर पर आनन्दों और कष्टों के दो प्रकार बताए हैं-सरल और मिश्रित। इन्द्रियों, धन, कार्यकुशलता, धर्मपरायणता, उदारता, द्रोह, मैत्री, ख्याति, शक्ति, स्मृति, कल्पना, प्रत्याशा, साहचर्य, कष्ट अथवा चिन्ता से मुक्ति आदि के आनन्द सरल आनन्द हैं। इसी प्रकार इन्द्रियों, अभाव, शत्रुता, कुख्याति, उदारता, द्रोह, कल्पना, प्रत्याशा और अशोभनीयता से उत्पन्न कष्ट सरल कष्ट हैं। अन्य सब प्रकार के आनन्द और कष्ट पूर्वोक्त आनन्द और कष्टों से उत्पन्न होते हैं।

आनन्द और कष्टों के स्रोत

बेन्थम के अनुसार सब आनन्द और कष्ट बाहरी कारणों के प्रभाव से उत्पन्न होते हैं। किन्तु सब व्यक्तियों को एक कारण से समान मात्रा में आनन्द और कष्ट नहीं होता, क्योंकि सबकी संवेदनशीलता अथवा अनुभव करने की शक्ति समान नहीं होती। बेन्थम ने बत्तीस चीजें बताई हैं, जिनसे मनुष्य की संवेदनशीलता प्रभावित होती है। उनमें स्वास्थ्य, ज्ञान की मात्रा, बौद्धिक क्षमता, मन की स्थिरता, नैतिक संवेदनशीलता, धार्मिक संवेदनशीलता, लिंग, आयु, पद, जलवायु आदि मुख्य हैं।

बेन्थम ने आनन्दों और कष्टों के चार स्रोत बताए हैंप्राकृतिक, राजनीतिक, नैतिक और धार्मिक । जब कोई आनन्द अथवा कष्ट प्राकृतिक नियमों के अनुसार मनुष्य की इच्छा के हस्तक्षेप के बिना प्राप्त होता है, तो हम कहेंगे कि उनका स्रोत तिक है या उसके पीछे प्रकृति का विधान है। जो आनन्द अथवा कष्ट समाज विधिवत् स्थापित सत्ता से और उन लोगों के द्वारा प्राप्त होता है जिन्हें शासन का अधिकार प्राप्त है, उसका स्रोत राजनीतिक कहा जाएगा। नैतिक आनन्द अगवा कष्ट वह है जो लोकमत के प्रभाव से उत्पन्न होता है। जिन्हें हम ईश्वर की इच्छा का पालन मानते हैं, वह धार्मिक आनन्द है।

आनन्दों में गुण का नहीं परिमाण का भेद-

बेन्थम के उपयोगितावाद में सबसे महत्त्व की बात यह है कि वह विभिन्न प्रकार के आनन्दों के मध्य गणात्मक भेद स्वीकार नहीं करता। उसके अनुसार एक आनन्द दूसरे से कम अथवा अधिक हो सकता है, किन्तु गुण में भिन्न नहीं होता। यदि कहें कि काव्य का आनन्द भोजन के आनन्द से अच्छा है, तो उसका अर्थ यह होगा कि वह भोजन के आनन्द से मात्रा में अधिक है। उपयोगिता के सिद्धान्त के अनुसार यह कहना गलत होगा कि एक आनन्द दूसरे से अच्छा अथवा उच्च कोटि का है। यदि हमने आनन्दों के मध्य गुणात्मक भेद मान लिया, तो उपयोगिता अच्छाई का मापदण्ड नहीं रहेगी। फिर हमें अच्छाई का कोई अन्य प्रतिमान ढूँढना पड़ेगा। कष्टों के सम्बन्ध में भी यही सिद्धान्त लागू होता है।

आनन्दों और कष्टों की माप-

बेन्थम के अनुसार सुख और दुःख की मात्रा को नापा जा सकता है। इसके लिए बेन्थम ने एक फॉर्मूला प्रस्तुत किया, जिसे 'आनन्दकलन' कहते हैं। जब हम आनन्दों या कष्टों को नापें, तो हमैं उनकी तीव्रता, अवधि, निश्चितता, निकटता, दूरी, शुद्धता व उत्पादन शक्ति को ध्यान में रखना चाहिए। बेन्थम के अनुसार पूर्वोक्त आधारों पर विभिन्न प्रकार के आनन्दों और कष्टों की नाप की जा सकती है। उसी के शब्दों में

"एक ओर सब आनन्दों के मूल्य को जोड़ लीजिए और दूसरी ओर सब' कष्टों के मूल्य को। यदि आनन्द की मात्रा अधिक हो, तो व्यक्ति विशेष के स्वार्थों को दृष्टिगत रखते हुए उस काम को समग्र दृष्टि से अधिक अच्छा माना जाएगा और यदि कष्ट अधिक हो, तो समग्र दृष्टि से बुरा।"

अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख-

बेन्थम का उपयोगितावाद यह भी बताता है कि कितना सुख अपेक्षित है। बेन्थम ने इस प्रश्न के चार उत्तर दिए। प्रथम, लॉक की भाँति बेन्थम यह भी स्वीकार करता है कि मनुष्य अपने वैयक्तिक सुख के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहता। 

द्वितीय, वह यह भी कहता है कि मनुष्य का सामान्य रूप से प्रत्येक व्यक्ति को ध्यान में रखकर काम करना चाहिए, क्योंकि वही काम अच्छा है जिससे किसी-न-किसी को दुःख की अपेक्षा सुख अधिक मिलता है। 

तृतीय, बेन्थम का कहना था कि मनुष्य को अधिक से अधिक लोगों के अधिक से अधिक सुख के लिए प्रयत्न करना चाहिए। 

चतुर्थ, उसने अपनी अन्तिम रचना में कहा कि व्यक्ति को अधिक से अधिक सुख के लिए कार्य करना चाहिए।

बेन्थम के उपयोगितावादी सिद्धान्त की आलोचना

बेन्थम के उपयोगितावादी सिद्धान्त की आलोचना निम्न आधारों पर की जाती है |

(1) सुखों में गुणात्मक अन्तर होता है-

जे. एस. मिल बेन्थम के इस मत से सहमत नहीं है कि "शिशु क्रीड़ा भी उतनी अच्छी है जितना कि मधुर काव्या" इसके विपरीत मिल की मान्यता है कि सुखों व दुःखों में मात्रात्मक भेद के साथ गुणात्मक भेद भी होता है। इस सम्बन्ध में मिल का यह कथन प्रसिद्ध है कि "एक सन्तुष्ट शूकर होने की अपेक्षा एक असन्तुष्ट मनुष्य होना श्रेष्ठ है। एक सन्तुष्ट मूर्ख बने रहने की अपेक्षा असन्तुष्ट सुकरात होना श्रेष्ठ है और यदि मूर्ख व शूकर की राय इससे भिन्न है, तो इसका कारण यह है कि वे प्रश्न का केवल अपना पक्ष ही जानते हैं। उनके मुकाबले में दूसरे लोग दोनों ही पक्षों को समझते है |

इस प्रकार सुखों व दुःखों में गुणात्मक अन्तर करके मिल ने उपयोगितावाद को अधिक तर्कसंगत तो बनाया, परन्तु इसके साथ ही उसने बेन्थम की नाप तौल की मान्यता को भी निरर्थक कर दिया। मिल के अनुसार सुख-दुःख का कोई वस्तुगत मापदण्ड नहीं हो सकता।

(2) नैतिकता का अभाव-

बेन्थम के दर्शन में नैतिकता का अभाव है। वह मनुष्य तथा शूकर में कोई अन्तर स्पष्ट नहीं करता। जिस प्रकार पशु केवल सुख के लिए कार्य करता है, उसी प्रकार मनुष्य उन कार्यों को करता है जिनसे उसे सुख मिलता है तथा उनसे दूर हटता है, जिनसे उसे दुःख प्राप्त होता है। बेन्थम की यह विचारधारा अमानवीय है। मनुष्य भावना की अपेक्षा बद्धि से भी कार्य करता है।

(3) अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख मापन सरल नहीं है-

हित या प्रसन्नता कोई ऐसी निश्चित स्वरूपवान वस्तु नहीं है जिसे तौला या मापा जा सके। सुख -दुख  हृदय से सम्बन्धित हैं, जो राज्य की पहुँच के बाहर का क्षेत्र है। वास्तविकता तो यह है कि, अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम हित जैसी कोई वस्तु है ही नहीं और समाज के लोगों की रुचि भिन्नता के कारण ऐसी कोई वस्तु हो भी नहीं सकती।

(4) उपयोगितावाद में व्यक्ति और समाज की उपयोगिताओं के मध्य सही समन्वय नहीं है -

मैक्सी का तर्क है कि "बेन्थम के उपयोगितावाद इंद्रियपरकता या भौतिकवादिता आलोचना का सही विषय नहीं है। आलोचना का विषय है व्यक्ति  और समाज के हितों की खाई को ठीक ढंग से न पाटना । बेन्थम यही नही समझ सका कि व्यक्ति और समाज के हितों के मध्य भी संघर्ष हो सकता है |

"समुदाय व्यक्तियों का एकत्रीकरण मात्र नहीं होता। एकत्रीकरण तो वह है ही उसके ऊपर भी कुछ और है, जिसका अपना एक व्यक्तित्व है। उस का अपना हित, अपना मस्तिष्क और कार्य करने की अलग प्रवृत्ति है, जिसे केवल वैयक्तिक हित व मन आदि के योग से प्राप्त नहीं किया जा सकता। व्यक्ति  का कल्याण ही समाज का भी कल्याण हो, यह आवश्यक नहीं।

उपयोगितावाद हित और कर्तव्य के मध्य मेल नहीं बैठाता-

वेपर का आरोप गलत नहीं है कि बेन्थम के उपयोगितावाद में निजी हित और कर्तव्य के मध्य मेल नहीं बैठता। आत्म चेतना के अस्तित्व को एक बार इन्कार कर देने से इन दोनों में संगति का कोई स्थल ही नहीं मिल पाता और इस प्रकार बेन्थम ने  व्यक्ति के अध्ययन में समाज और इतिहास, दोनों का साथ छोड़ दिया है।

यदि बेन्थम के दर्शन से उपर्युक्त त्रुटियों को निकाल दिया जाए, तो वह एक उच्च कोटि का मानवतावादी विचारक बन सकता है। इन कमियों को दूर करने पर बेन्थम के दर्शन का महत्त्व बढ़ जाता है।

 

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