गोविन्द रानाडे के राजनीतिक विचार
B.A. III, Political Science Il
प्रश्न 7. आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिन्तन में महादेव गोविन्द रानाडे
के योगदान का मूल्यांकन कीजिए।
अथवा '' महादेव गोविन्द रानाडे के राजनीतिक विचारों का उल्लेख
कीजिए।
उत्तर - महादेव गोविन्द रानाडे भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की उदारवादी परम्परा
के प्रमुख प्रतिनिधि थे। उन्होंने राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक सभी क्षेत्रों में रचनात्मक सुझाव
प्रस्तुत किए। वे स्वतन्त्रता, सामाजिक उन्नति और वैयक्तिक चरित्र की पुनर्स्थापना के
महान् समर्थक थे। उन्होंने उदात्त भारतीय राष्ट्रवाद की कामना की तथा भारतीय
अर्थव्यवस्था एवं औद्योगिक विकास के लिए ब्रिटिश सरकार के समक्ष बड़े ही उपयोगी
सुझाव रखे।
रानाडे के राजनीतिक विचार
रानाडे के राजनीतिक विचारों का उल्लेख निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया
जा सकता है
(1) रानाडे और मराठा इतिहास - रानाडे ने मराठा इतिहास का गहन अध्ययन किया। उन्होंने सन 1900 में प्रकाशित अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'The Rise of the Maratha Power' में भारतीय इतिहास में मराठों की भूमिका की नये ढंग से व्याख्या की।
उनके अनुसार यह धारणा भ्रामक है कि अंग्रेजों ने मुगलों से सत्ता हथियाई थी।
उन्होंने बताया कि सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मुगल शक्ति क्षीण हो चुकी थी
तथा मराठे पश्चिम से एक छोटे-से क्षेत्र में प्रवेश कर भारत के बड़े भूभाग पर अपना
प्रभुत्व स्थापित कर चुके थे। उनके अनुसार यह मानना भ्रामक होगा कि भारत में मुगल
शासन के तत्काल पश्चात् ब्रिटिश शासन की स्थापना हुई। वास्तविकता यह है कि मुस्लिम
साम्राज्य को उखाड़ फेंकने वाले इस देश के ही मूल निवासी थे।
रानाडे ने एक तत्कालीन प्रचलित विश्वास का खण्डन करते हुए कहा कि मराठा शक्ति का
अभ्युदय महाराष्ट्र के हिन्दुओं के लड़ाकूपन और लुटेरेपन को भावना का विस्फोट
मात्र था। उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि मराठा शक्ति के उत्थान के मूल
में महाराष्ट्र के सन्तों और धर्मावतारों का क्रान्तिकारी प्रभाव निहित था।
उन्होंने स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया कि मराठा शक्ति का उत्थान तुकाराम,
रामदास और एकनाथ जैसे सन्तों के धार्मिक उपदेशों का परिणाम
था,
जिसका आधार आध्यात्मिक एवं नैतिक था।
रानाडे छत्रपति शिवाजी की विलक्षण प्रतिभा और महान् चारित्रिक श्रेष्ठता में गहन
निष्ठा रखते थे। उनकी दृष्टि में शिवाजी साम्राज्य निर्माता और उच्च कोटि के
राजनीतिज्ञ थे। वे एक ऐसी शक्ति थे जिसने तत्कालीन जटिलतम परिस्थितियों में समस्त
राजनीतिक,
सामाजिक और प्रजातान्त्रिक शक्तियों को एक सूत्र में पिरोने
का सफल प्रयास किया। उनमें महान संगठन शक्ति थी।
रानाडे ने स्पष्ट किया कि मराठा शक्ति का उदय केवल एक राजनीतिक घटना मात्र
नहीं थी। इसके लिए प्रवल सामाजिक और धार्मिक जागरूकता बड़ी सीमा तक उत्तरदायी थी।
मराठा इतिहास की अन्य विशेषता प्रकट करते हुए रानाडे ने कहा कि मराठा शक्ति का
अभ्युदय भारतीय राष्ट्रीयता का एक ज्वलन्त प्रदर्शन था,
जिसका आधार सामन्ती शक्ति नहीं था,
वरन जनता का समर्थन था।
रानाडे ने मराठा इतिहास की जो व्याख्या की है, यद्यपि उसे सर्वमान्य नहीं कहा जा सकता,
तथापि यह कहा जा सकता है कि उन्होंने महाराष्ट्र के सन्तों
और धर्माचार्यों के सामाजिक एवं राजनीतिक सिद्धान्तों को प्रकाश में लाने का महान्
कार्य किया। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा कि मराठा इतिहास की उनकी व्याख्याएँ
राजनीतिक शक्ति की नैतिक आधारशिलाओं को अभिव्यक्त करने में पूर्णतया सक्षम है।
(2) ब्रिटिश शासन के सम्बन्ध में विचार -
रानाडे भारत में ब्रिटिश शासन को वरदान रूप में मानते थे। उनके
अनुसार भारत में ब्रिटिश शासन के पीछे ईश्वर का मुख्य उद्देश्य इस देश को राजनीतिक
शिक्षा देना है। वे भारत में ब्रिटिश शासन को कृपालु ईश्वर के विधान का ही एक अंग
मानते थे। ब्रिटिश शासन के सम्पर्क में आने से हमें स्वतन्त्रता की महत्ता का आभास
हुआ। आधुनिकीकरण का मार्ग प्रशस्त हुआ और भारतीय नवजागरण प्रारम्भ हुआ। पाश्चात्य
प्रभाव ने सदियों की गुलामी एवं जड़ता को समाप्त कर दिया।
रानाडे ने ब्रिटिश शासन को वाटान माना किन्त इसका तात्पर्य यह नहा है कि रानाडे
परतन्त्रता के प्रशंसक थे। उन्हें भारत के उज्ज्वल भविष्य म अटूट विश्वास था। वे
जानते थे कि ब्रिटिश शासन के पश्चात् भारतीय स्वशासन का स्थापना अवश्य होगी और
भारत स्वतन्त्रता के यग में प्रवेश करेगा। अतः रानाडे ने भारतीयों के हस्ताक्षरों
से युक्त एक याचिका विटिश संसद के पास भेजी,जिसमें यह सुझाव दिया गया था कि भारत में यथाशीघ्र
उत्तरदायी शासन की स्थापना की जाए। ब्रिटिश संसद में भारतीयों को उचित
प्रतिनिधित्व मिलने से विधि-निर्माण के कार्य में उनका ज्ञान बढ़ेगा और वे कराधान
सम्बन्धी क्रियाकलापों में भी सहभागी बन सकेंगे।
(3) स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचार -
रानाडे स्वतन्त्रता के मूल्य को भलीभांति समझते थे। इस सम्बन्ध
में उनका दृष्टिकोण अंशत: न्यायिक था। उनके अनुसार स्वतन्त्रता का अर्थ नियन्त्रण
अथवा शासन का अभाव न होकर कानून की व्यवस्था के अन्तर्गत शासन है। स्वतन्त्रता
निश्चय ही इस बात में निहित है कि मनुष्य असहाय की भाँति दूसरों पर निर्भर न रहे
और सत्ता तथा शक्ति को धारण करने वालों के अनुचित व्यवहार से उसकी रक्षा करे।
1893 ई. में रानाडे ने साफ शब्दों में कहा, “स्वतन्त्रता से अभिप्राय है कि कानून बनाना,कर लगाना, दण्ड देना तथा अधिकारियों को नियुक्त करना । स्वतन्त्र तथा परतन्त्र देश में वास्तविक अन्तर यह है कि यहाँ दण्ड देने से पहले उसके सम्बन्ध में कानून बना लिया गया हो, कर लेने से पहले अनुमति ले ली गई हो और कानून बनाने से पहले मत ले लिए गए हों,वही देश स्वतन्त्र है।” फिर भी रानाडे भावात्मक स्वतन्त्रता की अवधारणा के ही समर्थक कहे जा सकते हैं। राज्य के कार्यों के सम्बन्ध में रानाडे के भावात्मक दृष्टिकोण का परिचय इस तथ्य से मिलता है कि उन्होंने औद्योगीकरण, उपनिवेश, आर्थिक जीवन के नियोजित संगठन, समाज-सुधार तथा उद्योगों के संरक्षण के क्षेत्र में राज्य के अभिक्रम का समर्थन किया।
(4) संवैधानिक तथा शान्तिपूर्ण साधनों में आस्था -
रानाडे क्रान्तिकारी हिंसात्मक तथा विद्रोहात्मक साधनों
के खिलाफ थे । जनता के कष्टों को दूर करने के लिए उन्होंने सरकार से आवेदन करने के
संवैधानिक साधनों पर बल दिया। कांग्रेस की स्थापना से बहत पूर्व 1874 ई.में ही रानाडे ने ब्रिटिश संसद के पास एक याचिका भेजी.जिसमें
यह मांग की गई कि ब्रिटिश संसद में भारतीयों को प्रतिनिधित्व दिया जाए तथा भारतीय
प्रश्नों का निर्णय करने में उनकी सहमति ली जाए। इस याचिका में रानाडे ने भारत में
स्वशासी संस्थाओं की स्थापना की भी मांग की। इन मांगों के पीछे जनमत का सामूहिक बल
सिद्ध करने के लिए उन्होंने याचिका पर हजारों व्यक्तियों के हस्ताक्षर कराए ।
यद्यपि इस याचिका का ब्रिटिश सरकार पर कोई प्रभाव | नहीं पड़ा,
फिर भी इसका लाभ यह हुआ कि हजारों भारतीयों को राजनीतिक
शिक्षा प्राप्त हुई रानाडे का विचार था कि
देश की समसामयिक परिस्थितियों में भारतीयों प्राप्त हुई। रानाडे का विचार था कि
देश की समसामयिक परित के लिए अन्य उपायों का अवलम्बन करने से अधिक अच्छा यही था
राजनीतिक प्रश्नों पर विचार करें, राजनीतिक मामलों में रुचि लेना सी शिकायतों की ओर सरकार का
ध्यान आकृष्ट कर तथा याचिकाओं,माँगों व आवेटों द्वारा अधिकारियों पर दबाव डालें।
(5) भारतीय राष्ट्रवाद सम्बन्धी विचार -
रानाडे उदात्त भारतीय राष्टवाद के जनक थे । रानाडे तिलक के
इस विचार से सहमत नहीं थे कि केवल एक ही राष्ट्रवाद का आधार बनाया जाए,
फिर चाहे भले ही वह हिन्दू धर्म हो जिसे मार देश के
तीन-चौथाई लोग हैं । रानाडे कहते थे “जीवन को आधुनिक समस्याओं में जिस भारत को जन्म लेना है,
उसमें मात्र जाति, धर्म, वर्ण के भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं रहेगा। हम सभी केवल
भारतीय बनना चाहते हैं , उन सभी समस्याओं का अन्त करके, जिनके कारण भारत एक नहीं हो पाया था।"
(6) लोकतान्त्रिक शासन में आस्था -
शासन की दृष्टि से रानाडे लोकतान्त्रिक शासन के पक्षधर थे ।
वे शक्ति के विकेन्द्रीकरण में विश्वास रखते थे और स्थानीय स्वशासन को विकसित करने
पर उनका विशेष जोर रहा। वे केन्द्र सरकार द्वारा स्थानीय सरकार के कार्यों में
हस्तक्षेप की नीति को स्वीकार नहीं करते थे। उनका विश्वास था कि स्थानीय स्वशासित
संस्थाओं को विकास का पूर्ण अवसर प्राप्त होना चाहिए। -
मूल्यांकन- डॉ. अप्पादोराय ने रानाडे को एक महत्त्वपूर्ण जनसेवक,
इतिहासवेत्ता और उल्लेखनीय समाज सुधारक की संज्ञा दी है। डॉ.
वी. पी. वर्मा के शब्दों में, “रानाडे ने राष्ट्र के भौतिक तथा नैतिक कल्याण के आदर्श का
बिगुल बजाया । वे चाहते थे कि पूर्व के मूल्यों तथा मान्यताओं और पश्चिम की
राजनीतिक तथा आर्थिक विचारधारा का समन्वय किया जाए। भारतीय इतिहास तथा राजनीति में
रानाडे देशभक्ति के सन्देशवाहक थे और उन्होंने स्वतन्त्रता,
सामाजिक
प्रगति तथा वैयक्तिक चरित्र की पुनः स्थापना का उपदेश दिया। इस प्रकार वे उदात्त
भारतीय राष्ट्रवाद के गुरु थे।"
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