कार्ल मार्क्स का वर्ग-संघर्ष सिद्धान्त - आलोचनात्मक

B. A. II, Political Science I

प्रश्न 14. कार्ल मार्क्स द्वारा प्रतिपादित वर्ग संघर्ष और सर्वहारा के अधिनायकत्व के सिद्धान्त का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

अथवा ''कार्ल मार्क्स के साम्यवादी सिद्धान्त का परीक्षण कीजिए।

अथवा ''कार्ल मार्क्स के वर्ग-संघर्ष सिद्धान्त का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।

अथवा  "अब तक के सभी समाजों का इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास रहा है। इस कथन की पुष्टि कीजिए।

उत्तर - कार्ल मार्क्स ने अपना वर्ग-संघर्ष का सिद्धान्त अपनी प्रसिद्ध कृतियों 'Das Capital' तथा 'Communist Manifesto' में प्रस्तुत किया। मार्क्स का विचार है कि मनुष्य यद्यपि एक सामाजिक प्राणी है, किन्तु वह एक वर्ग प्राणी भी है। कार्ल मार्क्स का विचार है कि यदि ऐतिहासिक आधार पर समाज का विश्लेषण किया जाए तो यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि समाज सदैव दो वर्गों में विभक्त रहा है। प्रारम्भ में समाज स्त्री और पुरुष दो वर्गों में विभक्त था, उसके उपरान्त समाज के कुछ वर्गों ने प्रकृति पर अधिकार कर लिया तथा दूसरा वर्ग इससे वंचित रह गया अर्थात् समाज दो वर्गों में विभक्त हो गया। मार्क्स का विचार है कि समय व परिस्थितियों में परिवर्तन के साथ-साथ नये-नये वर्गों का उदय होता रहा है। इनके अनुसार वर्गों का निर्माण भौतिक विभाजन के आधार पर होता है। वर्ग वास्तव में आर्थिक वर्ग हैं, जो उत्पादन की प्रणाली या आधार पर विकसित होते हैं। वस्तुओं के वितरण का अन्तर ही वर्ग-भेद का कारण है।

कार्ल मार्क्स का वर्ग-संघर्ष सिद्धान्त


कार्ल मार्क्स का वर्ग-संघर्ष सिद्धान्त 

मार्क्स के वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त को निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है

वर्ग- संघर्ष का अर्थ और प्रकृति

मार्क्स के वर्ग-संघर्ष सिद्धान्त का यह अर्थ है कि प्रत्येक वस्त का विकास उस वस्तु में निहित है जिसमें परस्पर विरोधी तत्त्व पाए जाते हैं, उनके संघर्ष के फलस्वरूप ही पदार्थ का विकास होता है। इसी प्रकार मार्क्स ने समाज के वर्ग-संघर्ष का भी यही नियम बताया है कि समाज में भी दो विरोधी तत्त्व रहते है, जिनके आपसी संघर्ष के कारण समाज की प्रगति होती है। समाज के इन विरोधी तत्त्वों को मार्क्स 'वर्ग' के नाम से पुकारते हैं। मार्क्स ने कहा कि समाज में दो वर्ग पाए जाते हैं, ये दोनों वर्ग अपना हित साधन करने के लिए परस्पर संत करते रहते हैं, उसी के परिणामस्वरूप समाज का विकास होता है।

मार्क्स लिखते हैं, "मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।" इसको अधिक स्पष्ट करने के लिए हम कह सकते हैं कि मनुष्य एक 'वर्ग प्राणी' है। मार्क्स का कहना है कि किसी भी युग में जीविका उपार्जन के कारण लोग पृथक्-पृथक वर्गों में विभाजित हो जाते हैं और प्रत्येक वर्ग में एक विशेष प्रकार की चेतना उत्पन्न हो जाती है। दूसरे शब्दों में, वर्ग का जन्म उत्पादन के नवीन तरीकों में अन्तर से होता है। जैसे ही भौतिक उत्पादन के तरीकों में अन्तर होता है, वैसे ही नये वर्ग का उद्भव भी होता है। इस प्रकार एक समय की उत्पादन प्रणाली ही उस समय की प्रकृति को निश्चित करती है।

वर्ग-संघर्ष का प्रारम्भ एवं स्वरूप

"आज तक प्रत्येक समाज शोषक तथा शोषित वर्गों के विरोध पर आधारित रहा है।" इन शब्दों का प्रयोग मार्क्स तथा ऐंजिल्स ने अपने 'Communist Manifesto में किया था। जिस वर्ग के हाथ में उत्पादन के साधन होते हैं, वह शोषक और शासक बनकर श्रमिक वर्ग को निर्धन बना देता है। दोनों वर्गों के हितों में विरोध होने के कारण एक-दूसरे के प्रति घृणा और शत्रुता की भावना पनपती है। शोषित वर्ग अपने संगठन बनाकर शक्ति केन्द्रित करता है, दूसरी ओर शासक वर्ग राज्य सत्ता के प्रयोग से इस शक्ति के दमन का प्रयत्न करता है। मानव समाज के प्रारम्भिक काल में मालिकों और दासों में संघर्ष हुआ। फलतः दास प्रथा का अन्त हो गया। सामन्तवादी युग में विरोध की चरम सीमा सामन्तों और भूमिहीन किसानों के हिंसात्मक संघर्ष के रूप में सामने आई।

आधुनिक वर्ग-संघर्ष

औद्योगीकरण, नगरीकरण तथा यातायात के साधनों के विकास के कारण पूँजीवादी व्यवस्था का प्रारम्भ हुआ। पूँजीवादी व्यवस्था में बड़े पैमाने पर उत्पादन और एकाधिकारी प्रवृत्तियाँ विकसित हो जाती हैं। मार्क्स के अनुसार, "पूँजी वह धन है जिसके द्वारा श्रमिक के श्रम को कम मूल्य में खरीदकर अतिरिक्त मूल्य बचा लिया जाता है।"

पूँजीपति वर्ग राज्य सत्ता के द्वारा सर्वहारा वर्ग को कुचलता रहता है। मार्क्स के विचार से पूँजीवादी समाज व्यवस्था में स्वार्थ का बोलबाला और पैसा ही सब कुछ है, व्यक्ति का कोई मूल्य नहीं है। धर्म, राजनीति और राष्ट्रीय विकास का नाम लेकर सर्वहारा वर्ग का शोषण किया जाता है। मजदरों का खून चूसने के लिए पूँजी एक दानवीय होकर क्रान्तिकारी संघ दानवीय शक्ति के रूप में कार्य करती है। सर्वहारा वर्ग मजबूर " क्रांति कारी संघर्ष का सहारा लेता है और एक महामारी के रूप में समाज मे विस्फोट होता है। चारों ओर भुखमरी, निर्धनता, बेरोजगारी का नंगा नाच होने जाता है और सर्वहारा वर्ग हिंसा पर उतर आता है।

मार्क्स का विश्वास है कि पूँजीवादी व्यवस्था का विकास सर्वहारा वर्ग को निश्चय ही एक दिन अजेय शक्ति के रूप में संगठित कर देगा। परेशान होकर वर्ग सशस्त्र विद्रोह करेगा, मशीनों और कारखानों में आग लगा देगा। यह बर्ग-संघर्ष में मजदूरों के संगठनों के रूप में विकसित होगा, जो कभी-कभी अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करेगा, किन्तु अन्त में हिंसक क्रान्ति के द्वारा समस्त व्यवस्था को उलट दिया जाएगा।

सर्वहारा का अधिनायकत्व

सर्वहारा का अधिनायकत्व वर्ग-संघर्ष का अन्तिम चरण है। सर्वहारा वर्ग सशस्त्र क्रान्ति द्वारा सत्ता पर अपना अधिकार जमा लेता है। इसके बाद सरकारी मशीनरी सर्वहारा वर्ग के पक्ष में हो जाती है। मार्क्स ने स्पष्ट किया है कि "वर्ग-संघर्ष तब तक चलता रहेगा जब तक समाज वर्गों में विभाजित रहेगा। सर्वहारा के अधिनायकत्व के बाद एक ऐसे समाज की प्रक्रिया प्रारम्भ होगी, जिसमें न तो कोई वर्ग होगा और न ही किसी प्रकार के वर्ग हित होंगे। कोई भी व्यक्ति दूसरे की मेहनत पर जीवित नहीं रहेगा। अत: वर्गों की रक्षा के लिए राज्य नहीं रहेगा और यह स्वतः मुरझा जाएगा।"

"अब तक के सभी समाजों का इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास रहा है"

इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या के आधार पर मार्क्स ने मानव समाज के सम्पूर्ण इतिहास को वर्ग-संघर्ष के रूप में देखा है। उन्होंने बताया कि इन वर्गों में निरन्तर संघर्ष विद्यमान रहता है। मार्क्स ने मानव इतिहास के युगों को ध्यान में रखकर निम्नलिखित युगों में वर्गों के प्रकारों का उल्लेख किया है

(1) आदिम साम्यवादी वर्ग विहीन समाज,

(2) दासत्व समाज के वर्ग,

(3) सामन्ती समाज में वर्ग, तथा

(4) पूँजीवादी समाज में वर्ग।

आदिम युग में वर्ग एवं वर्ग-संघर्ष का अभाव था। इसके पश्चात स्वतन्त्र और दास, कुलीन और सामान्य, सामन्त और सेवक, मालिक और शिल्प संघों के सदस्य, अत्याचारी और अत्याचार पीड़ित आदि ऐसे वर्ग रहे हैं जो सदैव एक-दूसरे के विरोध में जीवन व्यतीत करते आए हैं। इस संघर्ष का रूप कभी प्रकट और कभी अप्रकट रहा है। वर्गों की उत्पत्ति उत्पादन के कारण होती जिससे समाज अनेक वर्गों में विभाजित हो जाता है। इसी आधार पर मार्क्स तथा ऐंजिल्स ने 'Communist Manifesto' में कहा है कि "अब तक के सभी समाजों का इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास रहा है।"

आलोचनात्मक मूल्यांकन

मार्क्स की आलोचना न केवल इसलिए की जाती है कि वह वर्ग-संघर्ष पर आवश्यकता से अधिक बल देता है, वरन् उसकी वर्ग-संघर्ष सम्बन्धी भविष्यवाणियाँ भी झूठी निकलीं। इंग्लैण्ड, जो औद्योगिक क्रान्ति का केन्द्र रहा, वहाँ आज तक क्रान्ति नहीं हुई। कारण यह है कि पूँजीपतियों ने स्वयं को समयानुसार पुनः बदल लिया। मार्क्स विरोध का पक्षधर है, जबकि सहयोग समाज का मूल है। क्रान्ति श्रमिक वर्ग के स्थान पर बुद्धिजीवी वर्ग से प्रारम्भ होती है। अन्त में लास्की का कहना ठीक है कि "वर्ग-संघर्ष में पूँजीवाद के विघटन से साम्यवाद की उत्पत्ति न होकर किसी अराजकता की स्थापना सम्भव है, जिससे एक ऐसे एकतन्त्रीय शासन की स्थापना हो जो भाग्यवादी सिद्धान्तों से किसी प्रकार सम्बन्धित न हो।"

मार्क्स के वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जा सकती है-

(1) यद्यपि वर्ग-संघर्ष प्रत्येक युग और प्रत्येक समाज में होता रहा है, किन्तु वह आकस्मिक और अस्थायी रूप से होता है। उसकी प्रगति निरन्तर और अनिवार्य नहीं है। मानव-जीवन की प्रगति का स्रोत सहयोग है, संघर्ष नहीं।

(2) मार्क्स के अनुसार समस्त वर्ग-संघर्ष का आधार आर्थिक है। यह अनचित व्याख्या है। संसार में धर्म, प्रजाति और राष्ट्रीय आधार पर अनेकों महान् और वीभत्स संघर्ष होते हैं, जिनकी व्याख्या आर्थिक आधार पर नहीं की जा सकती है।

(3) समाज में केवल विरोधी मान्यता रखने वाले वर्गों में ही संघर्ष आवश्यक नहीं है। मार्क्स के सपनों की रचना 'सोवियत रूस में स्पष्ट शब्दों में 'सह-अस्तित्व' के सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है।

(4) मार्क्स के बुर्जुआ (Bourgeois) तथा सर्वहारा (Proletariat) वर्ग बहुत अस्पष्ट हैं, जिनसे कोई निश्चित अर्थ नहीं निकला।

उपर्युक्त आलोचनाओं के बावजूद यह सत्य है कि वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त का प्रतिपादन करके मार्क्स ने विचार को क्रिया के रूप में बदलने की प्रेरणा दी।

उसने दर्शन को विज्ञान का वस्त्र पहनाया। सर्वहारा वर्ग को साहसपूर्ण शब्दों में क्रान्ति की आवश्यकता बताते हुए उन्हें निर्धन से सबल, शासित से शासक और रंक से राजा बनने की प्रेरणा दी। उसके उद्बोधन का फल संसार के बड़े भाग पर कम्यनिस्ट विचार प्रणाली के शासन और प्रचार के रूप में देखा जा सकता है।

 

 


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