राज्यपाल की शक्तियां
B.A.I, P.litical Science II
प्रश्न 14. राज्यपाल की शक्तियों
का विवेचन कीजिए और उसकी भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
अथवा '' भारत में राज्य के राज्यपाल की शक्तियों तथा स्थिति की विवेचना कीजिए।
उत्तर - राज्य के प्रमुख को
राज्यपाल कहा जाता है। संविधान के अनुसार राज्य की समस्त कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल
में निहित होगी। राज्य में राज्यपाल की स्थिति वही है, जो केन्द्रीय कार्यपालिका
में राष्ट्रपति की है।
नियुक्ति- राज्यपाल की नियुक्ति भारत का राष्ट्रपति करता है।
योग्यताएँ–(1) भारत का नागरिक हो।
(2) उसकी आयु 35 वर्ष से कम न हो।
राज्यपाल संसद या विधानमण्डल का सदस्य नहीं हो सकता और उसकी नियुक्ति के पश्चात् उसका स्थान रिक्त समझा जाएगा, यदि वह अपनी नियुक्ति से पहले संसद या विधानमण्डल का सदस्य निर्वाचित हो गया था।
कार्यकाल— राज्यपाल 5 वर्ष के लिए नियुक्त
होता है तथा राष्ट्रपति के प्रसाद-पर्यन्त अपने पद पर रहता है। वह स्वयं भी त्याग-पत्र
दे सकता है।
शपथ - प्रत्येक राज्यपाल अथवा प्रत्येक वह व्यक्ति जो राज्यपाल पद को ग्रहण करता
है, उसे पद ग्रहण से पूर्व उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष शपथ लेनी पड़ती
है कि वह अपने पद के कर्तव्यों का पालन, संविधान तथा विधि का संरक्षण और जनता की सेवा करेगा।
राज्यपाल की शक्तियाँ
राज्यपाल को निम्नलिखित शक्तियाँ
प्राप्त हैं
(1) कार्यकारी शक्तियाँ -
राज्यपाल की शक्तियाँ राज्य
सूची के विषयों तक सीमित हैं। राज्यपाल मुख्यमन्त्री तथा उसके परामर्श से अन्य मन्त्रियों
की नियुक्ति करता है। राज्यपाल राज्य के अन्य बड़े अधिकारियों की नियुक्ति करता है।
राज्यपाल को अधिकार है कि वह अपनी सरकार से राज्य के विषय में समस्त जानकारी प्राप्त
करे। मुख्यमन्त्री का कर्तव्य है कि वह राज्यपाल को मन्त्रिपरिषद् के निर्णयों से अवगत
कराए। राज्यपाल मुख्यमन्त्री को किसी मन्त्री के व्यक्तिगत निर्णय को मन्त्रिपरिषद्
में विचार के लिए रखवा सकता है।
(2) विधायिनी शक्तियाँ-
जिस प्रकार राष्ट्रपति संसद
का अभिन्न अंग है, उसी प्रकार राज्यपाल भी राज्य विधानमण्डल का अंग माना जाता है। राष्ट्रपति
की तरह राज्यपाल भी विधानमण्डल में भाषण दे सकते हैं, अपने सन्देश भेज
सकते हैं तथा विधानमण्डल की बैठक बुला सकते हैं, उसे स्थगित कर सकते हैं और उसे भंग भी कर सकते हैं।
राज्यपाल के लिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक महानिर्वाचन (General Election) के बाद और प्रतिवर्ष
के प्रथम अधिवेशन में विधानसभा को या यदि उस राज्य में द्विसदनात्मक विधानमण्डल है, तो संयुक्त अधिवेशन
को सम्बोधित करे।
राज्य के विधानमण्डल द्वारा
पास किया गया कोई भी विधेयक राज्यपाल के पास उसकी अनुमति और अनुमोदन के लिए भेजा जाता
है। राज्यपाल चाहे तो विधेयक पर अपनी अनुमति दे सकता है और चाहे तो उसे
रोक सकता है और राष्ट्रपति के विचारार्थ रक्षित रख सकता है। वह धन विधेयकों को पुनर्विचार
के लिए विधानमण्डल के पास भी वापस भेज सकता है। किन्तु यदि विधानमण्डल उक्त विधेयक
को संशोधनों सहित बिना संशोधन के दुबारा पास कर देता है, तो उस पर राज्यपाल
को अनुमति देनी होगी। विधानमण्डल के विश्राम काल में राज्यपाल को अध्यादेश निकालने
की शक्ति प्राप्त है।
(3) वित्तीय शक्तियाँ-
धन विधेयकों और वित्तीय विधेयकों
के सम्बन्ध में राज्यपाल की वही शक्तियाँ और उत्तरदायित्व हैं, जो उक्त सम्बन्ध
में केन्द्र में राष्ट्रपति को प्राप्त हैं। राज्यपाल की अनुमति के बिना कोई
भी धन विधेयक विधानसभा में पेश नहीं किया जा सकता।
प्रत्येक वित्तीय वर्ष के प्रारम्भ
में राज्यपाल राज्य के विधानमण्डल के समक्ष मन्त्रियों द्वारा वार्षिक बजट रखवाता है।
राज्यपाल की अनुमति के बिना किसी अनुदान की मांग नहीं की जा सकती।
(4) न्यायिक शक्तियाँ -
जिन बातों के सम्बन्ध में राज्य
की कार्यपालिका को अधिकार प्राप्त है, उनके कानूनों के विरुद्ध अपराध करने वाले व्यक्तियों
के दण्ड को राज्यपाल कम कर सकता है, स्थगित कर सकता है, बदल सकता है तथा
क्षमा भी कर सकता है।
(5) अन्य अधिकार -
राज्यपाल राज्य के लोक सेवा आयोग की वार्षिक रिपोर्ट पास करने के पश्चात् उसकी समीक्षा के
लिए मन्त्रिपरिषद् के पास भेजता है, वह दोनों प्रलेखों को विधानसभा के अध्यक्ष के पास
भेज देता है। अध्यक्ष उन्हें विधानमण्डल के सम्मुख रखता है। राज्य के आय-व्यय के बारे
में महालेखा परीक्षक के प्रतिवेदन को भी राज्यपाल इसी प्रकार निपटाता है।
राज्यपाल की भूमिका या स्थिति
राज्यपाल की भूमिका के सम्बन्ध में दो विरोधी दृष्टिकोण प्रचलित हैं। प्रथम दृष्टिकोण के
अनुसार राज्यपाल राज्य का केवल संवैधानिक अध्यक्ष है। लेकिन दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार
राज्यपाल की राज्य के प्रशासन में भूमिका संवैधानिक अध्यक्ष से काफी अधिक महत्त्वपूर्ण
है। इन दोनों दृष्टिकोणों को निम्नवत् स्पष्ट 'किया जा सकता है
राज्यपाल संवैधानिक
प्रधान के रूप में -
संविधान द्वारा राज्यों में
भी केन्द्र के सदृश संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया गया है। संसदीय शासन की सुस्थापित
परम्पराओं के अनुसार शासन की शक्तियाँ ऐसी मन्त्रिपरिषद् में निहित होती हैं जो कि व्यवस्थापिका के निम्न सदन के प्रति उत्तरदायी हों। अत: मन्त्रिपरिषद् राज्य
का वास्तविक प्रधान है और राज्यपाल केवल एक संवैधानिक प्रधान।
संविधान के अनुच्छेद
163(1) के अनुसार, "जिन बातों में संविधान
द्वारा या संविधान के अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने कार्यों को
स्वविवेक से करे, उन बातों को छोड़कर राज्यपाल को अपने कार्यों का निर्वहन करने में सहायता और मन्त्रणा
देने के लिए एक मन्त्रिपरिषद् होगी।' संविधान में राज्यपाल की स्वविवेकी शक्तियों का विशेष
रूप से उल्लेख नहीं किया गया है। केवल असम, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, सिक्किम, मेघालय, त्रिपुरा और नागालैण्ड के राज्यों को ही कुछ स्वविवेकी शक्तियाँ प्राप्त हैं। अत:
यह कहा जा सकता है कि साधारणतया राज्यपाल राज्य शासन का वैधानिक अध्यक्ष ही
है और उसकी शक्तियाँ वास्तविक नहीं हैं।
संविधान की प्रारूप समिति के
अध्यक्ष डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने सभा में कहा था कि "उन सिद्धान्तों
के अनुसार, जिन पर राज्यों का शासन आधारित है, राज्यपाल को प्रत्येक कार्य में मन्त्रिपरिषद् की सलाह आवश्यक रूप से माननी होगी
और ऐसा कोई भी कार्य नहीं करना होगा जिसके करने से उसे स्वविवेक या व्यक्तिगत निर्णय
का प्रयोग करना पड़े।" सुनील कुमार बोस
बनाम मुख्य सचिव पश्चिम बंगाल सरकार के विवाद में निर्णय देते हुए कोलकाता उच्च न्यायालय
ने यही मत प्रतिपादित करते हुए कहा था कि "वर्तमान संविधान में राज्यपाल मन्त्रियों
की सलाह के बिना कोई भी काम नहीं कर सकता उसकी स्वविवेक या व्यक्तिगत रूप से कार्य
करने की शक्ति को छीन लिया गया है। इसलिए उसे अपने मन्त्रियों की सलाह से ही कार्य
करने चाहिए।"
राज्यपाल के पद पर आसीन व्यक्तियों ने भी राज्यपाल को एक संवैधानिक अध्यक्ष स्वीकार किया
है, जिसे अपने सभी कार्य मन्त्रिपरिषद् के परामर्श के अनुसार करने हैं। तमिलनाडु, महाराष्ट्र व असम के पूर्व राज्यपाल श्रीप्रकाश ने कहा था कि "मुझे पूर्ण विश्वास
है कि मैं केवल संवैधानिक अध्यक्ष हूँ, जिसे छूटी हुई जगहों पर हस्ताक्षर
करने के अलावा और कुछ नहीं करना है।"
संवैधानिक अध्यक्ष से अधिक-
इस दृष्टिकोण के मानने वालों
का कथन है कि संविधान सभा में वाद-विवादों पर गहराई से दृष्टिपात करने पर यह स्पष्ट
हो जाता है कि संविधान निर्माताओं की धारणा के अनुसार राज्यपाल सामान्य परिस्थितियों
में एक संवैधानिक अध्यक्ष के रूप में कार्य करेगा, लेकिन विशेष परिस्थितियों में
उसकी भूमिका अधिक महत्त्वपूर्ण हो सकती है।
के. एम. मुंशी के शब्दों में,
"कुछ परिस्थितियों में राज्यपाल द्वारा बहुत अधिक
हितकारी और प्रभावशाली रूप से कार्य किया जा सकता है।"
डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने राज्यपाल
के पद का महत्व दर्शाते हुए लिखा है कि "जबकि राज्यपाल को स्वयं कोई शक्ति
प्राप्त नहीं होगी, उसका यह कर्त्तव्य होगा कि वह महत्त्वपूर्ण मामलों
के सम्बन्ध में मन्त्रिमण्डल को उचित सलाह दे। ऐसा कार्य राज्यपाल किसी दल के प्रतिनिधि
के रूप में नहीं, अपितु सम्पूर्ण जनता के प्रतिनिधि के रूप में करेगा, जिससे राज्य में निष्पक्ष, विशुद्ध और कुशल प्रशासन की स्थापना हो।"
राज्यपाल की स्वविवेकी शक्तियाँ
एम. सी. सीतलवाड़ और दुर्गादास बसु जैसे विद्वान् लेखकों ने अपनी कृतियों में राज्यपाल की
कुछ स्वविवेकी शक्तियों का उल्लेख किया है, जो निम्नलिखित
(1) मुख्यमन्त्री की नियुक्ति-
मुख्यमन्त्री की नियुक्ति के
सम्बन्ध में राज्यपाल की शक्ति सीमित है, यदि विधानसभा में किसी दल का पूर्ण बहुमत हो। लेकिन
विधानसभा में किसी दल को स्पष्ट बहुमत न मिलने की स्थिति में राज्यपाल को मुख्यमन्त्री
की नियुक्ति में असीमित व्यापक शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं। विधानसभा में राजनीतिक
दलों की स्थिति अस्पष्ट हो अर्थात् किसी दल को स्पष्ट बहुमत न मिला हो, तो राज्यपाल ने मुख्यमन्त्री
की नियुक्ति में निम्नलिखित तीन प्रकार से आचरण किया है
(i) कुछ राज्यों के राज्यपालों ने विधानसभा में किसी
दल को स्पष्ट बहुमत न मिलने की स्थिति में विधानसभा में सबसे बड़े दल के नेता को सरकार
बनाने के लिए आमन्त्रित किया है।
(ii) कुछ राज्यों के राज्यपालों ने विधानसभा में सबसे
बड़े दल के नेता को सरकार बनाने का आमन्त्रण न देकर उस व्यक्ति या गुट या संयुक्त मोर्चे
के नेता को, जो मुख्यमन्त्री पद पर नियुक्ति से पूर्व विधानसभा में बहुमत जुटाने तथा उसे प्रत्यक्षतः
दर्शाने में सक्षम हो, आमन्त्रित किया है।
(iii) कुछ राज्यों में, विशेषकर केरल, पश्चिम बंगाल व तमिलनाडु में चुनाव से पूर्व बनने
वाले गठबन्धनों को यदि विधानसभा के चुनावों में बहुमत प्राप्त हो जाता है, तो राज्यपालों ने
उस गठबन्धन या मोर्चे के नेता कं सरकार बनाने का आमन्त्रण दिया है।
(2) मन्त्रिमण्डल को भंग करना-
राज्यपाल निम्न परिस्थितियों
में मन्त्रिमण्डल को भंग कर सकता है
(i) यदि राज्यपाल को विश्वास हो जाए कि मन्त्रिमण्डल
का विधानसभा में बहुमत समाप्त हो गया है, तो राज्यपाल मुख्यमन्त्री को त्याग-पत्र देने या
विधानसभा का अधिवेशन बुलाकर अपना बहुमत साबित करने के लिए कह सकता है। ऐसी स्थिति में
यदि मुख्यमन्त्री अधिवेशन बुलाने के लिए तैयार न हो, तो राज्यपाल मन्त्रिमण्डल को पदच्युत कर सकता है।
(ii) यदि स्वतन्त्र ट्रिब्युनल द्वारा मुख्यमन्त्री को
भ्रष्टाचार के आरोप में दोषी घोषित किया गया हो, तो राज्यपाल उसे पदच्युत कर सकता है।
(3) विधानसभा को भंग करना-
राज्यपाल विधानसभा को किसी भी समय भंग कर सकता है। यह आशा की जाती है कि राज्यपाल इस अधिकार
का परिपालन अपने मुख्यमन्त्री के परामर्श से करेगा। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु के राज्यपाल
ने मार्च, 1971 में डी. एम. के. के मुख्यमन्त्री करुणानिधि के परामर्श
पर विधानसभा भंग कर दी। जून, 1971 में पंजाब के राज्यपाल ने अकाली दल के मुख्यमन्त्री
के परामर्श पर विधानसभा भंग कर दी थी। उल्लेखनीय है कि विशेष परिस्थितियों में राज्यपाल
विधानसभा भंग करने के सम्बन्ध में मुख्यमन्त्री के परामर्श को मानने से इन्कार कर सकता
है या मुख्यमन्त्री के परामर्श के बिना ही विधानसभा को भंग कर सकता है। उदाहरण के लिए, सन् 1969 में नरेशचन्द्र
सिंह लगभग एक सप्ताह तक मध्य प्रदेश के मुख्यमन्त्री रहे, इसी बीच उनका बहुमत
समाप्त हो गया और उन्होंने त्याग-पत्र देकर विधानसभा भंग करने की माँग की, जिसे राज्यपाल ने
अस्वीकार कर दिया। न्यायाधीश सूरज प्रसाद और विधिशास्त्री के. संथानम का विचार है कि
विधानसभा को भंग करने के सम्बन्ध में राज्यपाल स्वविवेक से कार्य कर सकता है।
(4) संवैधानिक शासन की विफलता के सम्बन्ध में प्रतिवेदन अनुच्छेद
356 के अन्तर्गत राज्यपाल
राष्ट्रपति को संवैधानिक संकट की रिपोर्ट दे सकता है। यदि राज्य में संविधान के अनुसार
कार्य नहीं हो रहा है, तो राज्यपाल इस सम्बन्ध में राष्ट्रपति को प्रतिवेदन
देता है और इस प्रकार के प्रतिवेदन के आधार पर ही राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया
जाता है। राज्यपाल इस प्रकार के प्रतिवेदन स्वविवेक से भेजता है और इस सम्बन्ध में
वह राज्य मन्त्रिमण्डल की सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं है। राज्य में राष्ट्रपति शासन
लागू होने पर यदि राष्ट्रपति राज्यपाल को प्रशारानिक, विधायी और वित्तीय
कार्य सौंपे, तो राज्यपाल उन सबको पूरा करता है और केन्द्र सरकार के प्रतिनिधि
के रूप में राज्य के शासन का संचालन करता है।
सन् 1967 के उपरान्त राज्यपालों
ने अपनी उपर्युक्त विवेकीय शक्तियों का प्रयोग किन्हीं निश्चित मापदण्डों के आधार पर
नहीं किया और समान परिस्थितियों में विभिन्न राज्यों के राज्यपालों के आचरण में तीव्र
भेद था। ऐसी स्थिति में अनेक पक्षों द्वारा यह सुझाव दिया गया था कि राज्यपालों के
मार्ग निर्देशन के लिए कुछ सिद्धान्त निश्चित किए जाने चाहिए। लेकिन भगवान सहाय समिति
ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि न तो भविष्य में उत्पन्न होने वाली सभी परिस्थितियों
के सम्बन्ध में सोचा जा सकता है और न ही इस सम्बन्ध में निश्चित निर्देश दिए जा सकते
हैं कि विभिन्न परिस्थितियों में राज्यपाल अपनी भूमिका किस प्रकार निभाएंगे।
सरकारिया आयोग ने इसी प्रकार
का मत अपनी रिपोर्ट में प्रस्तुत करते हुए लिखा था कि "यह न व्यावहारिक
है और न ही वांछनीय है कि राज्यपाल द्वारा स्वविवेकाधिकार का इस्तेमाल करने के लिए
मार्गदर्शन हेतु मार्ग निर्देशों का एक सम्पूर्ण सैट तैयार किया जाए ऐसी दो स्थितियाँ
उत्पन्न हो नहीं सकती थीं जो एक जैसी हों तथा जिनमें राज्यपाल को अपने स्वविवेकाधिकार
का प्रयोग करना पड़े।"
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट
है कि यद्यपि राज्यपाल को राज्य की कार्यपालिका का वास्तविक प्रधान नहीं कहा जा सकता, लेकिन इसके साथ ही
वह केवल नाममात्र का अध्यक्ष भी नहीं है। वह एक ऐसा अधिकारी है जो राज्य के शासन में
महत्त्वपूर्ण ढंग से भाग ले सकता है।
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