रूसो का सामाजिक समझौता सिद्धान्त - आलोचनात्मक

B. A. II, Political Science

प्रश्न 11. "रूसो ने लॉक की रीति से आरम्भ किया तथा हॉब्स के सिद्धान्तों पर अन्त किया।" इस कथन की व्याख्या कीजिए।

अथवा '' रूसो के सामाजिक समझौता सिद्धान्त का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

अथवा "रूसो के समझौता सिद्धान्त से प्रकट होता है कि वह लॉक के सिद्धान्तों का तत्त्व व हॉब्स के साधनों द्वारा विकसित किया हुआ है।" इस कथन के प्रकाश में यह स्पष्ट कीजिए कि रूसो, हॉब्स और लॉक का कितना ऋणी है?

अथवा "मनुष्य स्वतन्त्र रूप से पैदा हुआ है, परन्तु वह सर्वत्र बेडियों ( जंजीरों) में जकड़ा हुआ है।" रूसो के इस कथन पर अपने विचार प्रकट कीजिए।

उत्तर - 18वीं शताब्दी के महान लेखक रूसो का सामाजिक समझौते का सिद्धान्त उसके प्रसिद्ध ग्रन्थ 'Social Contract' में प्रतिपादित किया गया है। हॉब्स और लॉक की भाँति रूसो ने किसी उद्देश्य को लेकर सामाजिक समझौता सिद्धान्त की विवेचना नहीं की, यद्यपि उसके विचारों ने फ्रांसीसी क्रान्ति का जन्म दिया। रूसो का उद्देश्य ऐसी संस्था के निर्माण की खोज करना था जो सम्पूर्ण सर्वमान्य शक्ति के साथ प्रत्येक सदस्य के व्यक्तित्व और वस्तुओ की प्रतिरक्षा और सुरक्षा करेगी और जिसमें प्रत्येक अपने आपको सबके साथ मिलाते हुए भा एकाकी रूप में स्वेच्छा का पालन कर सके और पूर्ववत् स्वतंत्र बना रहे। इस प्रकार  रूसो का उद्देश्य सत्ता और स्वतन्त्रता में समन्वय स्थापित करना था।

रूसो का सामाजिक समझौता सिद्धान्त

प्राकृतिक दशा-

हॉब्स और लॉक की परम्परा की भाँति रूसो भी प्राकृतिक स्थिति को मानव स्वभाव से आरम्भ करता है। प्राकृतिक अवस्था के सम्बन्ध में रूसो स्थिर एवं स्पष्ट नहीं था, किन्तु उन्होंने केवल इमलिए प्राकृतिक स्थिति का विवेचन किया, क्योंकि सभी विचारक इसी स्थिति पर लिखते रहे थे। मार्ले के शब्दों में, "रूसो ने प्राकृतिक स्थिति की चर्चा की, क्योंकि सारी दुनिया उसके विषय में सोच रही थी और चर्चा कर रही थी।" वे आधुनिक युग की कृत्रिमता के विरोधी थे, क्योंकि वर्तमान की कृत्रिम सभ्यता में नैतिकता का स्तर पूर्णतया विलुप्त हो गया था और वे प्राकृतिक स्थिति को महत्त्व प्रदान करते हुए 'प्रकृति की ओर लौटो' के दृष्टिकोण में विश्वास करते थे।

प्राकृतिक स्थिति में व्यक्ति सरल एवं सुखपूर्ण जीवन व्यतीत करता था। वह स्वतन्त्र, सन्तुष्ट, आत्म-तुष्ट, स्वस्थ और निर्भय था। उसे न तो साथियों की आवश्यकता थी और न ही वह समाज के व्यक्तियों को दुःख देना चाहता था। वह सहानुभूति की भावना द्वारा दूसरों से सम्बन्धित था। वह न तो सही जानता था, न गलत। यह शुद्ध एवं पूर्ण स्वतन्त्रता का निर्दोष जीवन था।

मनुष्य की आवश्यकताएँ अत्यन्त सीमित थी और सन्तुष्टि के लिए वह आत्म-तुष्ट, स्वतन्त्र जीवन व्यतीत करता था। प्रकृति के साधनों की प्रचुरता थी, अत: व्यक्तिगत सम्पत्ति का जन्म नहीं हुआ था। रूसो के शब्दों में, "प्रारम्भिक मनुष्य में तब तक मेरे और तेरे का रत्ती भर भाव नहीं था। न्याय का उसे ज्ञान नहीं था, न गुण, न अवगुण जब तक कि हम इन शब्दों को उसके निजी संरक्षण में वृद्धि करने वाले गुणों के रूप में प्रयोग करें।"

मनुष्य साधु पुरुष (Noble Savage) की स्थिति में था। वह पाप-पुण्य, सन्दर-कुरूप, सत्य और असत्य से पूरी तरह अपरिचित था। रूसो के अनुसार, "स्वभावतः मनुष्य बहुत कम सोचता था और जो प्राणी बहुत सोचता है, वह भ्रष्ट प्राणी है।"

किन्तु प्राकतिक स्थिति की यह सुन्दर दशा अधिक दिनों तक नहीं रह सकी। जिसका कारण जनसंख्या में वृद्धि था जिसने सीमित प्रकृति के साधनों पर व्यक्तिगत अधिकार को जन्म देकर व्यक्तिगत सम्पत्ति को जन्म दिया और स्वार्थ के कारण मेरे-तेरै का प्रश्न उठ खड़ा हुआ। रूसो के शब्दों में, "वह प्रथम मनुष्य ही नागरिक समाज का वास्तविक संस्थापक था, जिसने भूमि के एक टुकड़े को घेर लेने के बाद कहा था 'यह मेरा है' और उसी समय समाज का निर्माण हुआ था जबकि अन्य व्यक्तियों ने उसकी देखादेखी स्थानों और वस्तुओं को अपना समझना प्रारम्भ किया।" इस प्रकार जनसंख्या की वृद्धिने प्राकृतिक सम्पदा की सीमित, अपर्याप्त व मूल्यवान बनाकर व्यक्तिगत सम्पत्ति को जन्म दिया। व्यक्तिगत सम्पत्ति ने मनुष्य-मनुष्य के मध्य असमानता, अशान्ति और अपनेपराये की भावनाओं को उत्पन्न ही नहीं किया, उग्र कर दिया। मनुष्य का जीवन तनावग्रस्त और अशान्त हो गया। धनी और निर्धन की असमान स्थिति ने संघर्ष और युद्ध को जन्म दिया तथा उसने मनुष्य को एक हिंसक पशु के रूप में परिवर्तित कर दिया। मनुष्य की स्वतन्त्रता परतन्त्रता में बदल गई। इसको लक्ष्य करकै रूसी कहता है, "मनुष्य स्वतन्त्र पैदा हुआ है, लेकिन वह सर्वत्र जंजीरों में जकड़ा हुआ है।"

इस प्रकार रूसो का साधु पुरुष कपटी व स्वार्थी बन गया। प्राकृतिक स्थिति का सौन्दर्य नष्ट हो गया और हॉब्स जैसी प्राकृतिक स्थिति का प्रादुर्भाव होने लगा।इनिंग के शब्दों में, "कषि और खनिज का व्यवसाय खोजा गया और इन व्यवसायों के संचालन के लिए मनुष्य को अन्य व्यक्तियों की आवश्यकता होने लगी। सहयोग की भावना ने मानव योग्यता की विभिन्नता को प्रकाश में लाकर रख दिया, जिसने धनी व निर्धन वर्गों का विकास किया।" इस प्रकार जन्मे दुर्गुणों ने प्राकृतिक दशा को भ्रष्ट बना दिया, क्योंकि अपेक्षाकृत बलवान आदमी अधिक मात्रा में काम करता था, किन्तु दस्तकार को अधिकांश भाग मिलता था। इस प्रकार धनी और निर्धन का भेद प्रारम्भ हुआ, जो असमानता के स्रोतों का जनक है। रूसो प्राकृतिक स्थिति को श्रेष्ठतम स्थिति के रूप में स्वीकार करता है, क्योंकि प्राकृतिक स्थिति में मनुष्य का जीवन सरल व सुखद था। विज्ञान के विकास ने भौतिक उन्नति द्वारा स्वार्थ एवं प्रतिस्पर्द्धा, संचय एवं घृणा को जन्म देकर प्राकृतिक स्थिति के साम्य स्वरूप को नष्ट कर दिया। अत: रूसो अपनी पूर्व स्थिति प्राकृतिक अवस्था को ही श्रेष्ठतम मानकर उसकी उपलब्धि के लिए समझौते की व्यवस्था को जन्म देता है। एक विचारक के अनुसार, "एक विचार सदैव रूसो के मानस में मन्थन करता रहा कि प्राकृतिक अवस्था किसी भी नई सामाजिक व्यवस्था से श्रेष्ठ थी।" अत: नई व्यवस्था के गण व अवगुण का मापदण्ड भी रूसो अपनी प्राकृतिक स्थिति को ही बनाना चाहता है।

रूसो का सामाजिक समझौता सिद्धान्त-

इस भ्रष्ट एवं विषम प्राकृतिक स्थिति से सुरक्षा के लिए व्यक्तियों ने परस्पर एक समझौता करके राज्य का निर्माण किया। रूसो समस्त व्यक्तिगत शक्तियों को एक सामान्य इच्छा को साप देता है और वह सामान्य इच्छा सर्वोच्च सत्ता सम्पन्न है। रूसो के समझौत मे व्यक्ति अपने व्यक्तित्व और सारी शक्ति को सर्वमान्य रूप में सामान्य इच्छा के सर्वोच्च निर्देशन को सौंप देते हैं और अपनी संयुक्त दशा में प्रत्येक सदस्यको सम्पूर्ण समाज के अविभाजित अंश के रूप में स्वीकार करते हैं।

प्रत्येक व्यक्ति अपने अधिकारों को सामान्य इच्छा को सौंप देता है। यह सामान्य इच्छा भी सभी व्यक्तियों द्वारा ही बनती है, अतः अपने त्याग किये हुए अधिकारों को प्रत्येक व्यक्ति सामान्य इच्छा के सदस्यों के रूप में वापस ले लेता है। रूसो के शब्दों में, "मेरी सामान्य इच्छा के अनुबन्ध में सभी लोग अपना सर्वस्व राज्य को सौंप देते हैं। राज्य का हित सभी नागरिकों का श्रेष्ठतम हित है।" व्यक्तियों को यथार्थ इच्छा मिलकर सामान्य इच्छा का रूप लेती है। चूंकि सामान्य इच्छा मेरी सर्वश्रेष्ठ इच्छा है, अत: मुझे उस इच्छा का पालन अवश्य करना चाहिए। अब सामान्य इच्छा के द्वारा सरकार का जन्म होगा, जिसे रूसो ने कार्यपालिका तक सीमित रखा। रूसो के समझौते में प्रत्येक व्यक्ति के दो रूप हैं-सर्वप्रथम, वह राज्य का एक नागरिक है और दूसरी ओर वह सम्प्रभुता का अभिन्न अंग है। इस प्राकृतिक अवस्था के पश्चात् समझौते द्वारा जिस सामान्य इच्छा का जन्म होता है,

व्यक्ति उसे सम्पूर्ण देकर भी कुछ नहीं देता, क्योंकि एक हाथ से देकर दूसरे हाथ से सामान्य इच्छा के अंग के रूप में उसे प्राप्त कर लेता है। रूसो के शब्दों में, "मनुष्य जो खोता है, वह उसकी प्राकृतिक स्वतन्त्रता और सब कुछ प्राप्त कर लेने का अधिकार है और बदले में उसको सामाजिक स्वतन्त्रता तथा जो कुछ उसका है, उसे रखने का अधिकार मिल जाता है।" सामाजिक स्वतन्त्रता को प्राप्त करने के लिए उसे प्राकृतिक स्वतन्त्रता का बलिदान करना पड़ता है। रूसो के शब्दों में, "प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व और अपनी पूर्ण शक्ति को सामान्य प्रयोग के लिए सामान्य इच्छा के सर्वोच्च निर्देशन के अधीन समर्पित कर देता है तथा एक समूह के रूप में हममें से प्रत्येक व्यक्ति समूह के अविभाज्य अंग के रूप में अपने व्यक्तित्व तथा अपनी पूर्ण शक्ति को प्राप्त कर लेता है।"

दसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि अनुबन्ध द्वारा प्रत्येक व्यक्ति के अपने पूर्ण व्यक्तित्व या शक्तियों को एक ही राशि या ढेर में मिला दिया जाता है और स्वयं उस राशि या ढेर का एक अविभाज्य अंग बन जाता है। इस प्रकार के पारस्परिक संयोग से उत्पन्न समूह का नाम ही राजनीतिक समाज है।

रूसो के सामाजिक समझौता सिद्धान्त की आलोचना

(1) रूसो ने सिद्धान्त को कार्यपालिका तक ही सीमित रखा है, जबकि सरकार में विधानमण्डल और न्यायपालिका भी शामिल हैं।

(2) रूसो प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र का समर्थन करता है, जो आज के विस्तृत राज्यों में सम्भव नहीं।

(3) रूसो का इतना अच्छा आदमी जनसंख्या की वृद्धि के कारण खराब हो गया, लेकिन जनसंख्या एकदम कैसे बढ़ गई, इस पर सभी को आश्चर्य होता है।

(4) इतिहास में रूसो के दृष्टिकोण को कहीं भी समर्थन नहीं मिलता।

रूसो के सामाजिक समझौता सिद्धान्त की उपयोगिता

रूसो के दर्शन में यद्यपि पर्याप्त विरोधाभास एवं दुरूहता है, तो भी उसके विचारों की उपयोगिता से इन्कार नहीं किया जा सकता। सामाजिक समझौते के सिद्धान्त के विचारकों में रूसो को श्रेष्ठतम स्थान प्राप्त है। रूसो के दार्शनिक तत्त्व एवं व्यावहारिक देन की विवेचना निम्न प्रकार की जा सकती है

(1) रूसो के राजनीतिक दर्शन की सबसे बड़ी देन प्रजातन्त्र की विचारधारा है, क्योंकि सामान्य इच्छा प्रत्येक व्यक्ति के सामूहिक संगठन द्वारा निर्मित एवं सर्वशक्ति सम्पन्न होने के कारण जनतान्त्रिक प्रणाली में विश्वास करती है। मैकाइवर के अनुसार, "उसके दर्शन का महत्त्व यही है कि शक्ति देते हुए जनता पर ही रह जाती है।" इसी तथ्य को स्वीकार करते हुए कोल ने लिखा है, "यह सिद्धान्त रूसो के हाथ में जनतान्त्रिक हो जाता है और यह परिणाम निकलता है कि नाम एवं व्यवहार, दोनों में जनता शासन करेगी। रूसो सर्वप्रथम विचारक था जिसने प्रजातन्त्र को विश्व राजनीति का जीवित अंग बना दिया।"

(2) रूसो प्रशासन के विरुद्ध विद्रोह की भाषा भी जनता को प्रदान कर देता है, जिससे प्रशासक वर्ग सत्ता का दुरुपयोग न कर सके और नागरिकों की स्वतन्त्रता पर कुठाराघात किया जाना सम्भव न हो पाए।

(3) रूसो ने सहमति के सिद्धान्त को जनप्रिय बनाया और प्रशासन का आधार जनता की इच्छा एवं सहमति को स्वीकार किया, जिससे नागरिकों के अधिकार पूरी तरह सुरक्षित रखे जा सकें।

(4) रूसो के राजनीतिक विचारों ने विश्व के राजनीतिक पथ का निर्माण किया और व्यवहार में जितना प्रभाव रूसो का दुनिया की शासन व्यवस्था पर पड़ा है, उतना उसके समकालीन किसी अन्य विचारक का नहीं पडा। डनिंग के शब्दों में, "रूसो के विचार चाहे कितने ही दुरूह क्यों न हों, उसके विचार व्यवहार में ब्रिटिश राज्य के समस्त प्रदेशों में देखे जा सकते हैं और अपनी मृत्यु के पश्चात् के युगों को उसने अत्यधिक प्रभावित किया।"

फ्रांस की राज्यक्रान्ति के अग्रदूत के रूप में रूसो सदैव प्रतिष्ठा की दृष्टि से । देखा जाएगा, क्योंकि रूसो के क्रान्तिकारी विचारों ने ही फ्रांस की क्रान्ति को। सम्भव बनाया था। रूसो के विश्व राजनीति पर प्रभाव के विषय में कोहन ने कहा है, "दो शाब्दियों तक यूरोपीय विचारधारा पर रूसो का जितना प्रभाव पड़ा, उतना किसी अन्य व्यक्ति का नहीं।"

विश्व के प्रायः सभी देशों में प्रचलित जनतान्त्रिक प्रणाली अपने जन्म के लिए रूसो के सिद्धान्तों के प्रति सदैव कृतज्ञ रहेगी और समस्त मानवता अपने अधिकारों एवं स्वतन्त्रता के लिए रूसो की आभारी है।

 

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